Thursday, December 30, 2010

समुद्र भी निगल रहा है हमारी जमीन

कटाव वाले क्षेत्रों में नहीं लगेंगी नई परियोजनाएं

तटीय सीमा में समुद्र की लहरें हर साल बड़ी मात्रा में जमीन को निगल रही हैं। इन खतरों के मद्देनजर केंद्र ने तटीय क्षेत्रों में भारी कटाव वाले इलाकों को नई परियोजनाएं लगाने के लिएनो गो एरियाघोषित कर दिया है। केंद्रीय पर्यावरण व वन राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) जयराम रमेश ने बुधवार को कहा कि मध्यम व लघु कटाव वाले इलाकों में नई परियोजनाएं स्थापित करने के लिएपर्यावरण संबंधी मंजूरी लेनी होगी।
सबसे पहले यह कानून गुजरात में अमल में लाया जा रहा है। क्योंकि तटीय क्षेत्र में कटाव को लेकर अभी तक गुजरात और पुड्डुचेरीका ही नक्शा तैयार हो पाया है। उड़ीसा और तमिलनाडु के तटीय क्षेत्र का कटाव संबंधी मैप आगामी जनवरी के अंत तक तैयार हो जाएगा। बाकी राज्यों के भी नक्शेबनेंगे। गुजरात की 1600किमी तटीय सीमा में पांच फीसदी क्षेत्र उच्च कटाव वाला पाया गया है। 10फीसदी मध्यम व 29फीसदी लघु कटाव वाला क्षेत्र है। जहां हर साल 25मीटर जमीन समुद्र निगल रहा है उसे भारी, 10से 25किमी वाले क्षेत्र को मध्यम व 10 फीसदी से कम कटाव वाले क्षेत्र को लघु कटाव वाला माना गया है। मंत्रालय पूरी 7500किमी लंबी तटीय सीमा की पहली बार मैपिंगकरा रहा है। इसका काम सर्वे ऑफ इंडिया को सौंपा गया है। परियोजना पर 1200करोड़ रुपये खर्च होंगे। मैपिंगमेंसेटेलाइट की भी मदद ली जाएगी। अब तक इस परियोजना पर 125करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। जयराम ने साथ ही सांसदों के सिद्घांतोंको लेकर लोकसभा स्पीकर मीराकुमार को पत्र भी लिखा। उन्होंने ऐसे सांसदों पर ध्यान दिलाया है जो अपने या किसी दूसरे राज्य में परियोजना की पैरवी या खिलाफत करने के लिएसीमाएं लांघ जाते हैं। 

कन्नौज से वाराणसी तक गंगा सबसे गंदी

नई दिल्ली गंगा को प्रदूषण मुक्त करने को कृत संकल्प केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट (एसटीपी) चलाने के लिए राज्य सरकारों को निर्बाध बिजली आपूर्ति का निर्देश दिया जाए ताकि उनमें 24 घंटे काम हो सके। सरकार ने कहा है कि गंगा की सबसे खराब स्थिति कन्नौज से वाराणसी के बीच है जहां का पानी नहाने लायक भी नहीं है। केंद्र सरकार ने कहा है कि एसटीपी के रखरखाव एवं संचालन की जिम्मेदारी राज्य सरकारों की है। बिजली की नियमित आपूर्ति न होने से ज्यादातर एसटीपी और पंपिंग स्टेशन काम नहीं कर पाते हैं। उन्हें 24 घंटे चलाने के लिए राज्य सरकारों को निर्बाध बिजली देने का आदेश दिया जाए। केंद्र सरकार ने निर्बाध बिजली आपूर्ति की जरूरत के बाबत कोर्ट द्वारा पूछे गए सवाल पर अपने हलफनामे में यह बात कही है। केंद्र का कहना है कि रिवर बेसिन योजना के तहत बनाई गई संपत्तियों जैसे एसटीपी और पंपिंग स्टेशन के रखरखाव एवं संचालन में आने वाले खर्च को योजना आयोग से केंद्र और राज्य सरकारों के बीच 70 और 30 के अनुपात में बांटने का अनुरोध किया गया है। खर्च का यह बंटवारा पांच वर्षो के लिए होगा। तीन साल में इसकी समीक्षा की जाएगी। इसके अलावा एसटीपी का बेहतर रखरखाव सुनिश्चित करने के लिए केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों के बीच त्रिपक्षीय समझौते होंगे। समझौते की शर्ते और प्रारूप भी सरकार ने कोर्ट के सामने पेश किया है। केंद्र सरकार ने गंगा में प्रदूषण और वर्तमान चुनौतियों का विस्तृत ब्योरा पेश किया है। इसमें केंद्र ने स्वीकार किया है कि 73 शहरों में 1055 एमएलडी (मिलियन लीटर पर डे) की सीवेज शोधन क्षमता विकसित करने में 900 करोड़ रुपये खर्च हुए, लेकिन गंगा में प्रदूषण बढ़ता रहा। अपेक्षित नतीजे न पाने के कई कारण भी गिनाए गए हैं जिनमें योजनाओं का धीमा क्रियान्वयन, एसटीपी का क्षमता से कम उपयोग और क्रियान्वयन में राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्डो का ढीला रवैया शामिल है। राष्ट्रीय गंगा नदी प्राधिकरण की स्थापना के बाद जो लक्ष्य निर्धारित हुए हैं उनमें यहां सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाएगा। इसके अलावा पश्चिमी और मध्य उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों, शराब कंपनियों, पेपर मिलों और चमड़ा मिलों के प्रदूषण पर ध्यान केन्द्रित किया जायेगा. 

औने-पौने दामों में बिक रहीं उत्तराखंड की पहाडि़यां

कोटद्वार (पौड़ी गढ़वाल) अगर आपसे कहा जाए कि उत्तराखंड में पहाडि़यां बिक रही हैं तो क्या आप विश्वास करेंगे। खासकर तब जब पलायन के कारण खाली होते पहाड़ी इलाके सरकार के लिए चिंता का सबब हैं। पौड़ी गढ़वाल में ब्रिटिश हुकूमत की ओर से बसाई गई पर्यटन नगरी लैंसडौन के आसपास सड़क किनारे की जमीनें इन दिनों धनाड्यों के निशाने पर हैं, जो इन्हें मिट्टी के मोल खरीद रहे हैं। पिछले दो वर्षो के दौरान लैंसडौन तहसील में दर्ज किए गए इस तरह के चार दर्जन मामले इस तथ्य की पुष्टि कर रहे हैं। पौड़ी गढ़वाल में वर्ष 2008 से लेकर अब तक, लैंसडौन-गुमखाल, लैंसडौन-दुगड्डा और दुगड्डा-रथुवाढाब मोटर मार्गो के इर्द-गिर्द 49 लोगों के जमीन खरीदने के आंकड़े राजस्व महकमे के पास उपलब्ध हैं। लैंसडौन में ही 4.67 हेक्टेयर जमीन के दाखिल खारिज किए जा चुके हैं। जमीन खरीदने वालों में कुछ बड़े नेता और कई व्यापारी शामिल हैं। इसकी शुरुआत हुई 2005 में, जब लैंसडौन के निकट डेरियाखाल क्षेत्र में सड़क से सटे पहाड़ के एक टुकड़े को खरीदकर एक शानदार रिजार्ट का निर्माण किया गया। इससे अन्य लोगों का ध्यान भी इस क्षेत्र की जमीन की अहमियत की ओर गया। इसके बाद तो लैंसडौन के नजदीकी गांव डेरियाखाल से लेकर कोटद्वार मार्ग पर स्थित दुगड्डा तक सड़क किनारे की जमीनों की खरीद-फरोख्त में खासी तेजी आ गई। आलम यह है कि लैंसडौन को जोड़ने वाली सड़कों के किनारे जमीन उपलब्ध नहीं है। राजस्व महकमे के मुताबिक डेरियाखाल में रिजार्ट निर्माण के बाद 15 बीघा, समीपवर्ती गांव पालकोट में 25 बीघा, लैंसडौन-गुमखाल मोटर मार्ग पर 45 बीघा और कोटद्वार-रथुवाढाब मार्ग पर लगभग 47 बीघा जमीन विभिन्न लोगों ने खरीदी है। अधिकारियों की मानें तो धनाड्यों को निवेश का यह सुरक्षित जरिया नजर आ रहा है। पौड़ी के जिलाधिकारी दिलीप जावलकर का कहना है कि कानूनी रूप से तो जमीनों की खरीद-फरोख्त नहीं रोकी जा सकती। अगर कहीं काश्तकार को धोखे में रखकर उसकी जमीन खरीदने का मामला सामने आता है तो जिला प्रशासन जांच के बाद जमीन के दाखिल खारिज को निरस्त कर देता है। रथुवाढाब क्षेत्र में इस तरह के दो-तीन मामलों में भूमि का दाखिल-खारिज निरस्त भी किया गया है।

Wednesday, December 29, 2010

यमुना में अमोनिया की मात्रा बढ़ी

नई दिल्ली (एसएनबी)। हरियाणा के पानीपत, समालखा और सोनीपत की औद्योगिक इकाइयों का प्रदूषित पानी यमुना में छोड़े जाने के कारण उसमें अमोनिया की मात्रा बढ़ गई है, जिससे राजधानी के वजीराबाद और चंद्रावल जलसंयत्र प्रभावित हुए हैं। इस कारण राजधानी के कई इलाकों में जलापूर्ति प्रभावित हुई। यह जानकारी दिल्ली जल बोर्ड के प्रवक्ता ने दी। उन्होंने बताया कि यमुना में शाम 6 बजे अमोनिया की मात्रा सामान्य 0.02 पीपीएल से बढ़कर 1.03 हो गई है। अमोनिया की मात्रा बढ़ने से जलशोधन संयंत्रों में र्पयाप्त मात्रा में जलशोधन नहीं हो पा रहा है। इस कारण मध्य दिल्ली, उत्तर पश्चिम दिल्ली, नगरपालिका परिषद क्षेत्र नार्थ एवेन्यू सार्थ एवेन्यू, डॉ., राममनाहर लोहिया अस्पताल . स्र्वण जयंती भवन के आसपास के इलाकों के अलावा एमईएस इलाकों में जलापूर्ति प्रभावित हो सकती है।

Friday, December 24, 2010

गंगा की दिखावटी देखभाल

लेखक गंगा नदी के प्रदूषण को कम करने के लिए हो रहे प्रयासों का खोखलापन उजागर कर रहे हैं.....

जिस गंगा को हम सदियों से पूजते आए हैं और जिसके किनारे हमारी सभ्यता और संस्कृति का विकास हुआ, जिसके अस्तित्व से हमारा अस्तित्व है वही गंगा आज संकट के कगार पर है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह संकट किसी और ने नहीं, बल्कि हमने खुद पैदा किया है। लगातार कल-कारखानों और घरों से निकलने वाले जहरीले पदार्थ और प्रदूषित जल गंगा में बहाए जाने से आज इसका जल इतना प्रदूषित हो गया है कि इसे कई जगहों पर पीना तो दूर सिंचाई के लिए भी उपयोग नहीं किया जा सकता। 1981 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक गंगा नदी के जल में ई-कोली का स्तर दिनोंदिन बढ़ता जा रहा है। यह मानव मल अथवा पशुओं के पेट में पाया जाता है, जो जल को जहरीला और अस्वास्थ्यकर बना देता है, जिससे इस जल का उपयोग करने वाले लोगों को कई तरह की गंभीर बीमारियां होने का खतरा होता है। देश के करीब 300 शहर इस नदी के किनारे स्थित हैं, जिनसे प्रतिदिन लाखों टन मल और गंदगी गंगा में बहाया जा रहा है तो दूसरी तरफ मानव स्वास्थ्य व पर्यावरण के लिए हानिकारक रासायनिक पदार्थो को गंगा के जल में औद्योगिक इकाइयों द्वारा बहाया जा रहा है। इसका सम्मिलित प्रभाव यह हुआ है कि कभी न सड़ने वाला गंगा का स्वास्थ्यवर्धक जल आज यदि कुछ दिनों के लिए घर में रख दिया जाए तो इससे दुर्गध महसूस की जा सकती है। एक तरफ औद्योगिक प्रदूषण से इस नदी का जल लगातार प्रदूषित और नष्ट किया जा रहा है तो दूसरी ओर ग्लोबल वार्मिग के कारण भी इसे खतरा पैदा हो गया है। वैज्ञानिकों की मानें तो तेजी से पिघल रहे ग्लेशियर के कारण कुछ दशकों में इस नदी को जल मिलना ही बंद हो जाएगा, जिससे यह नदी सूख सकती है। इस स्थिति से सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि तब हमारे शहरों का अस्तित्व किस तरह बचेगा और खेती कैसे होगी? हमारे नेता और नीति-नियंता इतना क्यों अनजान हैं कि वर्तमान के थोड़े से स्वार्थ के लिए पूरी मानव सभ्यता को ही अंधकार में डुबो देना चाहते हैं। 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने जहरीला प्रदूषण फैला रही इकाइयों को तत्काल बंद करने का निर्देश दिया था, लेकिन सच्चाई यही है कि आज पूरे देश में करीब दो लाख छोटी-बड़ी ऐसी इकाइयां हैं जिनसे गंगा में प्रतिदिन लाखों टन जहरीले प्रदूषक बहाए जा रहे हैं। कानपुर और बनारस में स्थिति अकल्पनीय है, लेकिन वहां अभी भी कई इकाइयां सरकार की अनदेखी के कारण चल रही हैं। जब अदालत की फटकार पड़ती है तो सरकार कुछ दिन के लिए जाग जाती है, लेकिन समय बीतने के साथ ही अधिकारी इन इकाइयों से पैसा लेकर उन्हें अनापत्ति प्रमाण पत्र देते हैं और ये चलती रहती हैं। यदि हम लोहारीनागपाला परियोजना की ही बात करें तो प्रो. बीडी अग्रवाल के आमरण अनशन और देशव्यापी दबाव बनाए जाने पर सरकार ने इस तरह की परियोजनाओं को तत्काल रोकने के लिए अपनी सहमति दे दी, लेकिन अब फिर से एनटीपीसी योजना आयोग और सरकार के पास इसे शुरू कराने के लिए प्रयासरत है। इससे तो यही साबित होता है कि सरकार ने बांधों के काम को रोका है, छोड़ा नहीं है। टिहरी बांध पूरी तरह धंस गया है, जिससे काफी नुकसान हुआ, लेकिन इससे कोई सबक सीखने को तैयार हो, ऐसा लगता नहीं। सितंबर 1985 में गंगा को बचाने के लिए गंगा अथॉरिटी का गठन हुआ था और गंगा की सफाई के लिए अब तक करीब 3000 करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं, लेकिन रिपोर्ट बताती हैं कि गंगा के जल का प्रदूषण स्तर आज भी उतना ही है जितना पहले था। 22 सितंबर, 2008 को गंगा को राष्ट्रीय धरोहर घोषित करते हुए सरकार ने इसे राष्ट्रीय नदी की संज्ञा दी। 2020 तक गंगा को पूरी तरह साफ किए जाने के लिए 15 हजार करोड़ रुपये खर्च किए जाने हैं। अभियान को समग्रता देने के लिए सरकार ने गंगा अथॉरिटी की जगह अब नया नामकरण नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनआरजीबीए) बनाया है, जिसके प्रमुख खुद प्रधानमंत्री हैं। यह एक नितांत अव्यावहारिक कदम है, क्योंकि प्रधानमंत्री के पास कई काम होते हैं और उन्हें इतना समय कभी नहीं होता कि वह इन कार्यो की निगरानी अथवा जानकारी कर सकें। इससे यही जाहिर होता है कि सरकार गंगा सफाई के नाम पर विश्व बैंक और सरकारी कोष से आने वाले पैसे के उपयोग के प्रति ईमानदार नहीं है। यदि ऐसा है तो बेहतर होगा कि पावन नदी गंगा की देखभाल और सफाई आदि के लिए किसी पूर्णकालिक आयोग का गठन किया जाए, जिसका कोई स्थायी उप प्रमुख अथवा सचिव हो, जो यथार्थ के धरातल पर इन कार्यो की सतत निगरानी कर सके। यदि ऐसा कुछ नहीं किया जाता है तो गंगा की सफाई के नाम पर एक और बड़ा घोटाला आने वाले समय में देश देखे तो कोई बड़ी बात नहीं होगी। (लेखक मैग्सेसे पुरस्कार विजेता पर्यावरणविद हैं)