Wednesday, March 30, 2011

दहाड़ है तो जीवन


बाघ प्राचीन काल से ही अपने देश की आन, बान और शान रहे हैं। सिंधु घाटी सभ्यता में भी राजकीय चिह्नों पर बाघ का चेहरा उकेरा जाता था तो सम्राट अशोक के प्रसिद्ध स्तूपों के शीर्ष भी बाघ की आकृति से शोभायमान होते थे। आधुनिक भारत में भी इसे राष्ट्रीय पशु की मान्यता मिली हुई है। लेकिन प्रतीकों और चिह्नों के बल पर इतिहास के कोरे महिमामंडन से ही वर्तमान को नहीं संवारा जा सकता। पिछले लम्बे अरसे से लगातार खबरें आ रही थीं कि देश के जंगलों से बाघ गायब होते जा रहे हैं। जंगलों की धुंआधार कटाई और शिकारियों के घातों के बीच गुम होती जा रही थी बाघ की दहाड़। पूरा देश चिंता में डूबने लगा था कि आने वाली पीढ़ियों के आगे क्या हमारे बाघ भी लुप्त डायनासोरों की पंक्ति में ही खड़े दिखेंगे! ऐसे निराशाजनक माहौल में यह खबर यकीनन उत्साह बढ़ाने वाली है कि देश में बाघों की संख्या बढ़ी है और सुंदरवन के अरण्यों में आज भी अनूठे रॉयल बंगाल टाइगरों की दहाड़ें गूंज रही हैं। देश भर में बाघों का हाल जानने के लिए चलाए गए एक वर्ष के कठिन अभियान के दौरान उन जंगलों को भी टटोला गया जहां नक्सलियों के आतंक के कारण पहले जानकारी नहीं मिल पाती थी। यह पहला मौका था जब पदचिह्नों के आधार पर गणना की पारम्परिक पद्धति के साथ ही कैमरे की आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल भी किया गया। बाघों को लेकर देश में जागी सम्वेदना और गम्भीरता का सुंदर सम्मिशण्रथा इस अभियान में। लेकिन, इस खोजबीन में कई चिंताजनक बातें भी दिखी हैं जिनकी अनदेखी इस राष्ट्रीय पहल को बेअसर बना सकती है। सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि बाघों की संख्या में भले इजाफा दिखा हो, उनके रिहायशी इलाकों में जबर्दस्त कटौती हुई है। विकास और प्रकृति की जंग के साथ ही बढ़ती आबादी का रेला जंगलों के विनाश पर उतारू है और इसकी कीमत आखिरकार बाघ जैसे जीवों को ही तो चुकानी पड़ेगी! कभी बाघों के आवास के रूप में मशहूर मध्य प्रदेश के जंगलों से उनका गायब होना पेशानी पर चिंता की लकीरों को और गहरा देता है। केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश की चिंता है कि सत्तर फीसद बाघ ही संरक्षित अभयारण्यों में पनाह पा रहे हैं। बाकी तीस फीसद आबादी उन जंगलों में देखी जा रही है, जहां उनकी सुरक्षा को लेकर हमारे पास कोई नीति या योजना नहीं है। ऐसे में बाघों की यह विशाल आबादी शिकारियों के रहमोकरम पर है जो खतरनाक है। बाघों का सबसे बड़ा महत्त्व इस बात में है कि ये प्रकृति और पर्यावरण का प्रतिनिधित्व करते हैं। विकास की भूख में जब हम जंगलों का नाश करते हैं तो पहला शिकार बाघ जैसे प्राणी ही होते हैं। लेकिन इनके साथ ही उस पर्यावरण का खात्मा भी हो जाता है जो जीवन को आधार देता है। मतलब, इंसान अपने अस्तित्व के खात्मे की तैयारी भी इस विनाश के साथ कर रहा होता है। तब गर्म होती पृथ्वी का कहर टूटता है और हमें उफ करने का वक्त भी नहीं मिल पाता। इसलिए जब हम बाघों को बचाते हैं, तब वास्तविकता में खुद को बचा रहे होते हैं।

जहरीला होता यमुना का पानी


 हमारे मुल्क में नदियों के अंदर बढ़ते प्रदूषण पर आए दिन चर्चा होती रहती है। प्रदूषण को रोकने के लिए गोया कि बरसों से कई बड़ी परियोजनाएं भी चल रही हैं, लेकिन नतीजे के स्तर पर देखें तो वही ढाक के तीन पात। प्रदूषण के हालात इतने भयावह हो गए हैं कि हमारे सामने पेयजल तक का संकट गहरा गया है। राजधानी दिल्ली के 55 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की तादाद इतनी बढ़ गई है कि उसे साफ कर पीने योग्य बनाना तक मुश्किल हो गया है। बीते एक महीने में दिल्ली में यह दूसरी बार है, जब ऐसे हालात के चलते पेय जल शोधन संयंत्रों को रोक देना पड़ा। चंद्राबल और वजीराबाद के जलशोधन केंद्रों की सभी इकाइयों को महज इसलिए बंद करना पड़ा कि पानी में अमोनिया की मात्रा 0.02 से बढ़ते-बढ़ते 1.3 हो गई है, जिससे पानी जहरीला हो गया। जाहिर है, दिल्लीवासियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है। गर्मियों ने दस्तक दे दी है और समय रहते यदि इस समस्या पर पार नहीं पा लिया गया तो हालात और ज्यादा विकराल हो जाएंगे। कोई 15 दिन पहले जब यह शिकायत मिली थी तो पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हस्तक्षेप किया था। पिछले दिनों यमुना के हालात का उन्होंने जायजा भी लिया, लेकिन देखना होगा कि नतीजा क्या निकलता है। वैसे बार-बार शिकायतें मिलने के बावजूद सरकार जहरीला पानी छोड़ने वाले कारखानों के खिलाफ कोई कठोर कदम नहीं उठा पा रही है। पानी में जहरीले रसायनों की तादाद ज्यादा होने को लेकर हरियाणा सरकार और दिल्ली जल बोर्ड के बीच कई दिनों से आपस में तनातनी चल रही है। दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि हरियाणा के उद्योगों द्वारा यमुना नदी में जो कचरा डाला जाता है, उसकी वजह से ही यमुना के पानी में अमोनिया की मात्रा ज्यादा हो गई है। जल बोर्ड ने इसकी शिकायत केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड से भी की, लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला। जबकि खुद केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कल-कारखानों से निकलने वाले पानी के संबंध में कड़े कायदे-कानून बना रखे हैं। इस बात को भी अभी कोई ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब जयराम रमेश ने कानपुर में एलान किया था कि नदियों में मिलने वाले जहरीले रसायनों की जबावदेही आखिरकार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की होगी। यदि इस मामले में वह नाकाम साबित होता है तो उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे। रमेश ने उस वक्त इससे मुताल्लिक निर्देश पत्र भी जारी किए, लेकिन फिर भी हरियाणा व उत्तर प्रदेश के औद्योगिक इलाकों पानीपत और बागपत में लगे कारखानों का विषैला पानी बिना रुके यमुना में लगातार गिरता रहा। यमुना के पानी के प्रदूषण के लिए सिर्फ अकेला हरियाणा ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इसमें दिल्ली भी शरीक है। शीला सरकार ने एक समय राजधानी के इलाकों में चल रहे कल-कारखानों को दिल्ली से बाहर बसाने के लिए बाकायदा एक मुहिम चलाई, जगह-जगह जल, मल शोधक संयत्र लगाए, लेकिन हालात आज भी ऐसे बने हुए हैं कि हजारों कारखाने रिहाइशी इलाकों के आसपास बने हैं और तिस पर रख-रखाव में लापरवाही के चलते ज्यादातर शोधन संयत्र भी काम करना बंद कर चुके हैं। पिछले दिनों हुए राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े बुनियादी ढांचा संबंधी विकास कार्यो ने भी यमुना को प्रदूषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बीते कुछ सालों में दिल्ली में न सिर्फ वायु प्रदूषण बढ़ा है, बल्कि उसी रफ्तार में जल प्रदूषण भी बढ़ा है। कारखानों से निकलने वाला कचरा यमुना में लगातार गिरता है। औद्योगिक इकाइयां ज्यादा मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के जानिब कतई संवेदनशील नहीं हैं। पसमंजर यह है कि यमुना के 1,376 किलोमीटर लंबे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी में से महज दो फीसदी रास्ते यानी 22 किलोमीटर में मिलने वाली दिल्ली की 79 फीसदी गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। मुल्क में सबसे ज्यादा पूज्यनीय माने जाने वाली गंगा और यमुना नदी बढ़ते-बढ़ते इतनी प्रदूषित हो गई हैं कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार अब तक 15 अरब रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है, लेकिन फिर भी उनकी मौजूदा हालत 20 साल पहले से कहीं ज्यादा बदतर है। गोया कि गंगा को राष्ट्रीय नदी एलान किए जाने के बावजूद इसमें प्रदूषण का स्तर जरा-सा भी कम नहीं हुआ है। यमुना सफाई अभियान के नाम पर भी सरकार ने काफी पैसा खर्च किया, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। करोड़ों रुपये यमुना की सफाई के नाम पर बहा दिए गए, मगर रिहाइशी कॉलोनियों और कल-कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी का का कोई माकूल इंतजाम नहीं किया गया। जाहिर है, जब तलक यह गंदा पानी यमुना में गिरने से नहीं रोका जाता, तब तलक यमुना सफाई अभियान की सारी मुहिम फिजूल हैं। सूबाई सरकारें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दोनों ही कल-कारखानों की मनमानियों की जानिब आंखें मूंदे रहते हैं। नदियों में जहरीले पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कोई कठोर कदम नहीं उठाया जाता। कहने को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कायदे-कानून बना रखे हैं। फिर भी नदियों में गंदे पानी का प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। पर्यावरण मंत्रालय की नाक के नीचे पड़ोसी सूबों के कल-कारखानों से निकलने वाला लाखों लीटर गंदा पानी यमुना में आकर मिल जाता है और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। देखा जाए तो यह साफ तौर पर कोई कार्रवाई न होने या उन्हें ढिलाई देने का ही नतीजा है। ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां रसूख वाले लोगों की हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड औद्योगिक-राजनीतिक दबाव के चलते औद्योगिक इकाइयों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। अगर कोशिश करता भी है तो वे अपने सियासी रसूख की वजह से बच निकलते हैं। जिसकी वजह से प्रदूषण बदस्तूर जारी रहता है। कुल मिलाकर इस पूरे मामले में दिल्ली सरकार भले ही हरियाणा सरकार को गुनहगार ठहराकर खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश करे, लेकिन यमुना की साफ-सफाई में वह खुद कितनी संजीदा है, यह किसी से छिपा नहीं है। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करके ही यमुना को प्रदूषण से बचाया जा सकता है। विकास की अंधी दौड़ और मानव निर्मित प्रदूषण ने आहिस्ता-आहिस्ता हमारी नदियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। आलम यह है कि फिलवक्त मुल्क की 70 फीसदी नदियां प्रदूशित हैं और मरने की कगार पर हैं। नदियों में बढ़ता प्रदूषण केवल पेयजल की दृष्टि से ही बड़ी समस्या नहीं है, बल्कि इसके चलते आसपास के इलाकों में भू-जल के प्रदूषित होते जाने की वजह से लोगों में कई बीमारियां घर करती जा रही हैं। यही नहीं, खेतों की उर्वरा-शक्ति भी लगातार क्षीण हो रही है। सरकारों को राजनीतिक स्वार्थ और आपसी आरोपों-प्रत्यारोपों से ऊपर उठकर अवाम की सेहत और पर्यावरण की चिंता पहले करनी होगी, तब जाकर कुछ हालात सुधरेंगे। दिल्ली में पेयजल संकट की इस छोटी-सी मिसाल ने हमारे सामने भविष्य की भयावह तस्वीर खींचकर रख दी है। यदि समय रहते अब भी हमने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की तो बहुत देर हो जाएगी|

जापान के पास संयंत्र को नष्ट करने के अलावा दूसरा विकल्प नहीं


फुकुशिमा में परमाणु रिएक्टर से निकल रहे विकिरण पर काबू पाने में असफल जापान सरकार ने मंगलवार को कहा कि देश परमाणु खतरे के उच्चतम बिंदु पर है। यहां की जमीन में प्लूटोनियम मिल चुका है, जबकि उच्च रेडियोधर्मी पदार्थ संयंत्र से निकल कर पानी में मिल रहा है। जापान के प्रधानमंत्री नाओतो कान ने संसद में कहा, वर्तमान भूकंप, सुनामी और परमाणु विकिरण कई दशकों में जापान के लिए सबसे बड़ा संकट है। उन्होंने कहा, परमाणु संयंत्रों की स्थिति का अनुमान लगाना काफी मुश्किल है। ऐसा हो सकता है कि छह रिएक्टर वाले फुकुशिमा परमाणु संयंत्र को अंतत: समाप्त कर दिया जाए। मुख्य कैबिनेट सचिव युकियो एडानो ने मिट्टी में प्लूटोनियम पाए जाने पर गहरी चिंता जताते हुए कहा, स्थिति काफी चिंताजनक है। हालांकि संयंत्र का संचालन करने वाली टोक्यो इलेक्टि्रक पावर कंपनी (टेपको) ने सोमवार को कहा कि मिट्टी में पाए गए प्लूटोनियम की मात्रा से मानव स्वास्थ्य के लिए कोई खतरा नहीं है। टेपको के उपाध्यक्ष सकाइ म्यूतो ने कहा, प्लूटोनियम कितनी दूर तक फैल चुका है इसकी जांच करना सरल नहीं है। रिएक्टर नंबर दो के बाहर पानी में भी विकिरण का स्तर 1000 मिली सिएवटर््स प्रति घंटा (सिएवटर््स विकिरण मापने की इकाई को कहते है) से अधिक पाया गया है। इस मात्रा के चार घंटे या उससे अधिक समय तक मानव शरीर के संपर्क में रहने से शरीर में श्वेत रक्त कोशिकाओं में कमी आने लगती है और एक महीने में व्यकित की मौत हो सकती है। रविवार को रिएक्टर नंबर दो में विकिरण की सबसे उच्च स्तर का पता चला है। हवा में विकिरण का स्तर 200-300 मिली सिएवटर््स पाया गया। पानी में विकिरण का स्तर सामान्य से एक लाख गुना अधिक पाया गया है। जापान के परमाणु एवं औधोगिक सुरक्षा एजेंसी के प्रवक्ता हीदेहीको नीशियामा ने कहा, रिएक्टर नंबर एक का तापमान 320 डिग्री सेल्सियस के ऊपर पहुंच गया है। एजेंसी ने कहा, फिलहाल टेपको रिएक्टर से निकलने वाले पानी को समुद्र या दूसरी जगहों पर जाने से रोकने के प्रयास में जुटा है। एडानो ने कहा, हमें रिएक्टर को ठंडा करने और प्रदूषित पानी को बहने से रोकने में काफी परेशानी हो रहा है|

कनाडा तक पहुंचा परमाणु विकिरण


जापान के क्षतिग्रस्त फुकुशिमा परमाणु रिएक्टर का विकिरण यहां से 7,000 किलोमीटर से भी अधिक दूर कनाडा के पश्चिमी तट तक पहुंच गया है। वैंकूवर स्थित सिमोन फ्रेजर विश्वविद्यालय के अनुसार फुकुशिमा देइची परमाणु बिजली संयंत्र से निकलने वाले विकिरण का असर कनाडा के ब्रिटिश कोलंबिया प्रांत के पश्चिमी तट तक पहुंच गया है। ज्ञात हो कि जापान में 11 मार्च को आए भीषण भूकम्प और सुनामी से मची तबाही में यह परमाणु संयंत्र क्षतिग्रस्त हो गया था। विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कहा है कि वैंकूवर के लोवर मैनलैंड इलाके से 19, 20 और 25 मार्च को लिए गए नमूनों में आयोडीन-131 की मात्रा पाई गई है। स्थानीय समाचार पत्र वैंकूवर सन के अनुसार विश्वविद्यालय के परमाणु वैज्ञानिक क्रिस स्तारोस्ता ने कहा कि फुकुशिमा परमाणु संयंत्र क्षतिग्रस्त होने की वजह से ही आयोडीन-131 की मात्रा यहां दर्ज की गई है। क्रिस ने कहा, विकिरण स्तर की जानकारी हासिल करने के लिए पूर्व की परमाणु घटनाओं के दौरान एकत्र की गई जानकारियों का सहारा लिया जा रहा है। हम जांच कर रहें हैं और अभी तक हम यह कह सकते हैं कि यह खतरे के स्तर तक नहीं पहुंचा है। उन्होंने कहा कि आयोडीन-131 के स्तर पर लगातार निगरानी रखी जा रही है। जापान में 11 मार्च को आई भीषण त्रासदी में 27,000 से अधिक लोगों के मारे जाने या उनके लापता होने की सूचना है। जापान में फिर आया भूकंप : जापान के पूर्वोत्तर इलाके में मंगलवार को भूकंप के झटके महसूस किए गए। रिक्टर पैमाने पर भूकंप की तीव्रता 6.4 मापी गई। समाचार एजेंसी डीपीए ने मौसम विज्ञान एजेंसी के हवाले से बताया कि भूकंप से जान अथवा माल के नुकसान होने की अभी कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई है। एजेंसी ने भूकम्प के बाद सुनामी की चेतावनी जारी नहीं की है। एजेंसी के मुताबिक शाम 7.54 बजे आए इस भूकंप का केंद्र फुकुशिमा प्रांत से दूर था। भूकंप से पहले से क्षतिग्रस्त फुकुशिमा परमाणु विद्युत संयंत्र संख्या-1 में किसी तरह के नुकसान के बारे में कोई सूचना प्राप्त नहीं हुई है|

Monday, March 28, 2011

रिएक्टरों की नहीं, यूरेनियम की जरूरत है


नाभिकीय संयंत्रों की सुरक्षा के संदर्भ में जागरण के सवालों के जवाब दे रहे हैं केंद्रीय वन एवं पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश
बहस करना और बहस खड़ी करना, केंद्रीय वन और पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश की आदत भी है और जूनून भी। उनके हर फैसले से विवादों के बवंडर उठते हैं, लेकिन तकरें की धार मानने वाले पक्ष और विपक्ष, दोनों खेमों में है। जनआंदोलनों के बावजूद उन्होंने महाराष्ट्र के जैतापुर में दस हजार मेगावाट नाभिकीय ऊर्जा परियोजना को सशर्त पर्यावरण मंजूरी दी तो सवाल उठे, लेकिन फुकुशिमा हादसे के बाद अब जयराम रमेश ही जैतापुर में एक साथ इतनी बड़ी रिएक्टर क्षमता लगाने पर सवाल उठा रहे हैं। जापान में प्राकृतिक आपदा के बाद उपजे नाभिकीय विकिरण संकट के बाद दैनिक जागरण ने उनसे बात की तो एक नए विवाद की नींव रखते हुए रमेश ने देश की रिएक्टर आयात नीति पर ही सवाल खड़े किए और इसकी समीक्षा का मुद्दा उठाया है। प्रस्तुत है जयराम रमेश से दैनिक जागरण के विशेष संवाददाता प्रणय उपाध्याय की बातचीत के अंश- फुकुशिमा में जारी नाभिकीय संकट ने भारत में भी परमाणु ऊर्जा के उपयोग और उसके पर्यावरण प्रभाव पर चिंताएं खड़ी कर दी है? आप इसे किस तरह देखते हैं? फुकुशिमा में जो हो रहा है वह गंभीर है, लेकिन इस विकिरण संकट के बाद नाभिकीय ऊर्जा के विकल्प को ही खारिज करना सरासर गलत होगा। जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चिंताओं की नजर से देखें तो नाभिकीय ऊर्जा एक बेहतरीन विकल्प है। इसमें कोई ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन नहीं है और न ही कार्बन डाई आक्साइड निकलती है। साथ ही यह किफायती भी है। नाभिकीय ऊर्जा में खतरे है, लेकिन जापान में हुए हादसे के बाद नाभिकीय ऊर्जा के भविष्य पर ही विराम लगाने की बात गलत है। लिहाजा महत्वपूर्ण है कि इससे सबक लेते हुए हम हिफाजत और संरक्षा के अतिरिक्त इंतजामों को दुरुस्त करें। भारत में फुकुशिमा जैसे नाभिकीय हादसे की आशंका कितनी वाजिब है? भारत के पास मौजूद करीब 20 रिएक्टरों में हूबहू जापान के फुकुशिमा जैसे बॉयलिंग वाटर रिएक्टर तारापुर में हैं। इसलिए खास तौर पर तारापुर 1 और 2 में ध्यान देना होगा। परमाणु ऊर्जा आयोग और नाभिकीय ऊर्जा निगम इसकी जांच कर रहा है कि संरक्षा के और क्या इंतजाम जरूरी हैं। अगर जरूरत पड़ेगी तो इनमें संरक्षा उपाय पुख्ता करने के लिए अतिरिक्त व्यवस्थाएं की जाएंगी। जापान हादसे के बाद प्रधानमंत्री ने भी संसद में दिए बयान में यह भरोसा दिलाया है कि देश के नाभिकीय संयंत्रों की संरक्षा का ऑडिट होगा। परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड को संरक्षा इंतजामों की समीक्षा करने को कहा गया है। इस घटना ने भारत के नाभिकीय कार्यक्रम को क्या सबक दिए हैं? फुकुशिमा त्रासदी ने कई अहम सवाल खड़े किए हैं जिनके बारे में सोचने की जरूरत है और कई मौजूदा नीतियों की समीक्षा भी जरूरी हो गई है। इसमें सबसे अहम मुद्दा है देश की रिएक्टर आयात नीति का। भारत के पास इस समय अमेरिका, रूस और स्वदेश निर्मित रिएक्टर हैं, जबकि अगले कुछ सालों में हम अलग-अलग देशों से 36 नए रिएक्टर आयात करने जा रहे हैं जिनके सहारे करीब 30 हजार मेगावाट क्षमता विस्तार किया जाना है। जापान की नाभिकीय त्रासदी ने यह दिखा दिया है कि संरक्षा और सुरक्षा के उपाय कितने अहम हैं। इसलिए अलग-अलग तरह के रिएक्टर और उनके संरक्षा नियमन के लिए जरूरी तकनीकी विशेषज्ञता जुटाना भारत के नाभिकीय विस्तार कार्यक्रम के लिए एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में यह जरूरी है कि विदेशों से रिएक्टर खरीदने की नीति पर कुछ देर रुक कर विचार किया जाए। वैसे भी भारत को रिएक्टर की नहीं, बल्कि प्राकृतिक यूरेनियम की ज्यादा जरूरत है। .लेकिन फिर नाभिकीय ऊर्जा विस्तार लक्ष्य कैसे पूरे होंगे? साथ ही न्यूक्लियर डील का क्या होगा? जैसा मैंने पहले ही कहा भारत की जरूरत यूरेनियम है। नाभिकीय ऊर्जा विस्तार के लिए 700 मेगावाट क्षमता वाले स्वदेशी रिएक्टर के मानकीकरण पर ध्यान देने की जरूरत है। इसकी क्षमता को ही एक हजार या 1200 मेगावाट तक बढ़ाने पर जोर देना चाहिए। ताकि देश में एक ही तरह के रिएक्टर हों और उनका बेहतर तरीके से नियमन हो सके। जहां तक न्यूक्लियर डील का सवाल है तो उसमें क्या है? यह मैं नहीं जानता। कुछ कूटनीति करनी होगी, क्योंकि यदि आयात की फेहरिस्त लंबी होती गई तो इनके लिए जरूरी विशेषज्ञ कहां से आएंगे। एइआरबी के पास भारतीय रिएक्टर में संरक्षा मानकों के लिए तो विशेषज्ञता है, लेकिन नाभिकीय विस्तार के साथ-साथ इसके सुरक्षित संचालन के लिए जरूरी मानव संसाधन जुटाना बड़ी चुनौती साबित हो सकता है। भारत में नाभिकीय संयंत्रों की संरक्षा और नियमन की व्यवस्था पर सवाल उठाए जाते रहे हैं? मैंने यह मामला उठाया है कि नाभिकीय संयंत्रों में मौजूद सुरक्षा उपायों की पारदर्शी समीक्षा के लिए जरूरी है कि परमाणु ऊर्जा नियमन बोर्ड को परमाणु ऊर्जा आयोग से निकालकर स्वतंत्र जांच संस्था के रूप में खड़ा किया जाए, जिससे जनता में यह भरोसा जगे कि नाभिकीय संयंत्रों के संरक्षा इंतजाम पारदर्शी हैं। फुकुशिमा दुर्घटना ने जैतापुर में प्रस्तावित नाभिकीय संयंत्र के विरोध को भी बढ़ाया है। इसे किस तरह देखते हैं? भारत को मौजूदा नाभिकीय रिएक्टर पार्ककी नीति को भी बदलने की जरूरत है। यदि इस तरह की घटना जापान में संभव है तो फिर भारत में ऐसे किसी हादसे की तीव्रता काफी गंभीर स्थिति पैदा कर सकती है। ऐसे में सोचना होगा कि जैतापुर में एक ही स्थान पर 10 हजार मेगावाट क्षमता स्थापित करना कितना मुनासिब होगा। अलग अलग स्थानों पर कम क्षमता के रिएक्टर स्थापित करने को मैं अच्छा विकल्प मानता हूं। बड़ी क्षमता के पीछे नाभिकीय रिएक्टरों के लिए खास जगह की जरूरत का तर्क दिया जाता है? यह सही है। मैं इस बात को स्वीकार करता हूं कि नाभिकीय रिएक्टर बनाने के लिए जगह के चुनाव की कुछ खास जरूरतें होती हैं। इन्हें आबादी से दूर बनाना होता है। इन्हीं कारणों के मद्देनजर सीमित स्थानों पर ही नाभिकीय रिएक्टर बनाए जाते हैं और शायद यही वजह है कि जैतापुर में दस हजार मेगावाट नाभिकीय ऊर्जा पार्क बनाने का विचार बना, लेकिन अब इसकी समीक्षा जरूरी हो गई है। क्या जैतापुर को आपकी मेज से मिली सशर्त मंजूरी में सुनामी की चिंताओं को ध्यान में रखा गया? नहीं। जैतापुर के बारे में भूकंप संबंधी चिंताओं पर तो विचार किया गया, लेकिन सुनामी की प्राकृतिक आपदा पर कोई विचार नहीं हुआ। इसका कारण यह भी है कि जैतापुर से सटे अरब सागर में सुनामी का इतिहास काफी कमजोर है|

जापान में विकिरण


 फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के रिएक्टर नंबर-2 से रेडियोधर्मी विकिरण सामान्य से एक करोड़ गुना अधिक हो रहा है। इसके चलते संयंत्र से कर्मियों को बाहर निकाला जा रहा है। सरकार ने परमाणु संकट पर गहरी चिंता जताते हुए यह माना कि समस्या जूझना बेहद कठिन होता जा रहा है। संयंत्र का संचालन करने वाली टोक्यो इलेक्टि्रक पॉवर कंपनी (टेप्को)ने कहा कि दूसरे संयंत्र के परिसर में रेडियोधर्मी सामग्री में विकिरण का अत्यधिक स्तर पाया गया जो पानी में आमतौर पर होने वाले विकिरण स्तर से एक करोड़ गुना अधिक है। जापान में परमाणु संकट दो सप्ताह पहले पूर्वोत्तर जापान में नौ रिक्टर पैमाने पर आए विनाशकारी भूकंप और सुनामी आने के बाद उपजा। जापान की समाचार एजेंसी एनएचके की खबर के अनुसार रिएक्टर नंबर-2 से जुड़ी टर्बाइन इमारत के तलघर में पानी में विकिरण का स्तर प्रति घन सेंटीमीटर 2.9 अरब बीक्वेरेल (यूरेनियम से निकलने वाली विकिरणों का मापने का पैमाना) है। रिएक्टर नंबर-1 और 3 की टर्बाइन इमारतों के तलघर में लीक हुए पानी के पहले से पाए गए दूषित स्तर के मुकाबले यह विकिरण स्तर करीब एक हजार गुना ज्यादा है। टेप्को ने कहा कि संयंत्र क्रमांक-2 के पानी में पाई गई रेडियोधर्मी सामग्री में 2.9 अरब बीक्वेरेल आयोडिन-134, 1.3 करोड़ बीक्वेरेल आयोडिन-131 और 23-23 लाख बीक्वेरेल सीजियम-134 और सीजियम-137 है। ये पदार्थ परमाणु विखंडन के दौरान निकलते हैं। परमाणु संयंत्र को ठंडा करने का प्रयास कर रहे आपातकर्मियों को विकिरण के उच्चस्तर का पता लगने के बाद अस्थायी तौर पर वहां से हटा लिया गया है। संयंत्र क्रमांक-3 के तीन कर्मी 24 मार्च को टर्बाइन इमारत के रेडियोधर्मी सामग्री से दूषित हुए पानी के संपर्क में आ चुके हैं जिसमें विकिरण का स्तर सामान्य से दस हजार गुना अधिक था। जापान जहां परमाणु संयंत्र के हालात को स्थिर करने की कोशिश कर रहा है, वहीं देश के मुख्य कैबिनेट सचिव युकियो इडानो ने स्वीकार किया कि प्रगति धीमी है। उन्होंने एनएचके को बताया, हम आपको यह स्पष्ट बताना चाहेंगे कि हम कब इसे सुधार पाएंगे और स्थल पर मौजूद कर्मी कब ऐसा महसूस करेंगे यह बताना कठिन है। फुकुशिमा परमाणु संयंत्र से 30 किलोमीटर से अधिक दूरी तक भी विकिरण का स्तर आम जनता के लिए स्वीकार्य वार्षिक सामान्य सीमा से 40 फीसदी अधिक हो चला है। इससे पहले, जापान की परमाणु एजेंसी ने कहा था कि संयंत्र के निकट समुद्र में रेडियोधर्मी आयोडिन का स्तर सामान्य से।,850 गुना तक बढ़ चुका है। संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय परमाणु एजेंसी ने यह भी आगाह किया कि जापान में परमाणु संकट कुछ और महीने जारी रह सकता है|

Sunday, March 27, 2011

नाभिकीय संयंत्रों को सुनामी से बचाएगी मैंग्रूव


जापान में सुनामी के बाद उपजे नाभिकीय संकट ने दुनियाभर में जहां परमाणु संयंत्रों के सुरक्षा इंतजामों पर बहस खड़ी की है, वहीं ऐसे हादसों के खिलाफ प्राकृतिक उपाय मजबूत करने की बहस को भी जोर दिया है। ऐसी ही कोशिश में जानेमाने कृषि वैज्ञानिक, चिंतक व सांसद एमएस स्वामीनाथन ने सरकार से समुद्र किनारे स्थित कलपक्कम और कुडनगुलम नाभिकीय संयंत्र के नजदीक तटीय क्षेत्र में घने मैंग्रूव वन रोपण की सलाह दी है। केंद्रीय वन और पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश को लिखे पत्र में स्वामीनाथन ने बड़े पैमाने पर खारे पानी वाले क्षेत्रों में पाई जाने वाली मैंग्रूव व गैर मैंग्रूव पादप प्रजातियों को लगाए जाने की सिफारिश की है। जापान के ओकिनावा स्थित इंटरनेशनल सोसाइटी फार मैंग्रूव ईकोसिस्टम्स के पूर्व अध्यक्ष डॉ. स्वामीनाथन का कहना है कि मैंग्रूव प्रजातियां तटीय इलाकों में तूफान और सुनामी जैसी स्थितियों में तट रेखा को नुकसान से बचा सकती हैं। विख्यात कृषि वैज्ञानिक ने नाभिकीय संयंत्रों से सटे तटीय इलाकों को अत्यंत संवेदनशील तटीय क्षेत्र की श्रेणी में घोषित करने की भी अपील की है। तमिलनाडु समेत भारत के दक्षिणी तट को प्रभावित करने वाली सुनामी में भी यह महसूस किया गया था कि घने मैंग्रूव जंगल वाले इलाकों में विनाशकारी लहरों का असर कम महसूस किया गया था। हालांकि इस सुनामी ने अंडमान और निकोबार द्वीप समूह के इलाके में करीब 20 वर्ग किलोमीटर मैंगू्रव जंगल को लील लिया था। वैसे भारत दुनिया के उन कुछ चुनिंदा मुल्कों में है जहां मैंग्रूव के जंगलों को कोई बड़ा नुकसान नहीं हुआ है। गुजरात क्षेत्र में तो मैंग्रूव जंगल का क्षेत्रफल 55 वर्ग किलोमीटर बढ़ा है। पर्यावरण मंत्रालय के मुताबिक भारत में मैंग्रूव के जंगल करीब साढ़े चार हजार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में हैं। हालांकि बीते एक दशक में 200 वर्ग किमी क्षेत्र से मैंग्रूव समाप्त हुए हैं।


Saturday, March 26, 2011

तो बंद हो जाएगी पेंच परियोजना


बोतलों से बढ़ रहा एयरपोर्ट पर कचरा


सरकार को रोका जाए परमाणु रिएक्टरों की स्थापना करने से


जापान के हादसे से जो संदेश स्पष्ट तौर पर आ रहे हैं, उन्हें भारत में समझा जाना बेहद जरूरी है। भारत को नए परमाणु बिजलीघर का काम रोकना चाहिए और पुराने परमाणु बिजलीघरों को बंद करना चाहिए
जापान की प्राकृतिक आपदा से हम सब दुखी हैं और पूरी दुनिया की सहानुभूति जापान के साथ है। जापान के लोग बड़े बहादुर, मेधावी और परिश्रमी हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान पर परमाणु बम गिराए गए थे और इसके बाद भी इस देश ने खुद को फिर से खड़ा किया और एक चौथाई सदी में ही दुनिया की प्रमुख आर्थिक ताकत बनकर उभरा। दुनिया में जापान ऐसा इकलौता देश है जिसने परमाणु बम की मार झेली है। 1945 में वहां बम गिराए गए थे। पर अहम सवाल यह है कि आणविक तबाही को देखने के बाद आखिर क्यों जापान परमाणु ऊर्जा पर निर्भर हुआ? जापान में कुल 11 परमाणु बिजली घर हैं। इनमें से ही एक है फुकुशिमा का परमाणु बिजली घर। जहां की हालत बद से बदतर होती दिख रही है। परमाणु ऊर्जा के प्रति जापान के आकर्षण को देखते हुए भारत जैसे कई देशों ने परमाणु बिजलीघर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए। दावा किया गया कि परमाणु ऊर्जा सुरक्षित है। जापान में आए भूकम्प ने न सिर्फ फुकुशिमा के परमाणु बिजलीघर को हिलाया बल्कि जापान के परमाणु सुरक्षा के दावे को भी इसने झुठला दिया। अभी अमेरिका, जापान, रूस और पश्चिमी यूरोप में जिस तरह का उद्योग केंद्रित विकास मॉडल अपनाया जा रहा है, वह सरकार की आंखों पर पट्टी बांधने का काम कर रहा है। नीति निर्धारकों के लिए मानवता का कोई मोल नहीं रह गया है बल्कि उन्हें किसी भी कीमत पर विकास चाहिए। भारत सरकार भी इसी रास्ते पर चल रही है। लोगों के विरोध के बावजूद भारत सरकार ने अमेरिका, रूस और जापान के साथ परमाणु करार किया है ताकि देश भर में सात परमाणु बिजलीघर स्थापित किए जा सकें। पर जापान के हादसे से जो संदेश स्पष्ट तौर पर निकल रहा है, उसे भारत में समझा जाना बेहद जरूरी है। भारत को नए परमाणु बिजलीघर का काम रोकना चाहिए और पुराने परमाणु बिजलीघरों को बंद करना चाहिए। इनमें से कुछ भूकम्प सम्भावित क्षेत्र में हैं। उदाहरण के तौर पर दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु बिजलीघर महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के जैतापुर में लगाने की योजना है। इसकी क्षमता 10,000 मेगावॉट होगी। यह इलाका भूकम्प सम्भावित क्षेत्र में है। देश अभी लातूर के भूकम्प को भूला नहीं है और जैतापुर और लातूर की दूरी बहुत ज्यादा नहीं है। यह स्पष्ट तौर पर दिख रहा है कि सरकार तथाकथित विकास की आड़ में कुछ भी करने को तैयार है। ऐसे में देश की जनता को जापान के परमाणु हादसे के संकेत को समझना होगा और किसी भी नए परमाणु बिजलीघर को लगाने से सरकार को रोकना होगा।



अब तक भारत में हुई परमाणु दुर्घटनाएं


4 मई 1987 कल्पक्कम में परमाणु रिएक्टर में ईंधन भरते वक्त दुर्घटना हुई थी और इससे रिएक्टर प्रभावित हुआ था।
10 सितम्बर 1989 तारापुर में रेडियोधर्मी आयोडिन का रिसाव हो गया था। यह सामान्य स्तर से कहीं अधिक था।
13 मई 1992 तारापुर के रिएक्टर में एक पाइप में खराबी आने से 12 क्यूरी रेडियोधर्मिता का उत्सर्जन हुआ था।
31 मार्च 1993 नरौरा के रिएक्टर में विंड टरबाइन के पंखे आपस में टकराए और आग लग गई थी। इसके बाद यह बिजलीघर साल भर तक बंद रहा।
13 मई 1994 कैगा में निर्माण कार्य के दौरान ही रिएक्टर का एक आंतरिक गुंबद गिर गया था जिससे विकिरण का खतरा पैदा हुआ।
2 फरवरी 1995 रावतभाटा के परमाणु बिजलीघर से रेडियोधर्मी हीलियम और भारी जल रिसकर राणा प्रताप सागर नदी में पहुंच गया था।
26 दिसम्बर 2004 सुनामी की वजह से कल्पक्कम के परमाणु बिजलीघर में पानी भर गया था। इसके बाद इसे बंद करना पड़ा था।
25 नवम्बर 2009 कैगा में अचानक परमाणु बिजलीघर के कर्मचारी बीमार पड़ने लगे। जांच के दौरान पता चला कि 92 लोगों के मूत्र में ट्रीटीयम था। इन सभी लोगों ने पानी ठंढा करने वाले कूलर से पानी पी लिया था। बाद में पता चला कि किसी कर्मचारी ने इस कूलर में भारी जल भर दिया था।


मानवता के लिए खतरे की घंटी फुकुशिमा


सम्भव है कि अभी इस दुर्घटना के दूरगामी प्रभावों को नहीं समझा जाए लेकिन आने वाले दिनों में लोग इस दुर्घटना को मानवता के विकास के अहम मोड़ के तौर पर याद करेंगे। यह दुर्घटना परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले सभी लोगों के मन में एक सवाल जरूर पैदा करेगी। उन्हें यह सोचने पर जरूर मजबूर करेगी कि रिएक्टर के तौर पर हम कहीं इनसानों के मौत का सामान तो नहीं बना रहे। यह वक्त की जरूरत है कि अब पूरी दुनिया परमाणु ऊर्जा के मोह को त्यागकर आगे बढ़े। इसलिए अब इस दुर्घटना से सबक लेते हुए आगे की रणनीति तय की जानी चाहिए
जापान के फुकुशिमा की दुर्घटना ने इस बात को साबित कर दिया है कि परमाणु विज्ञान में इंसान की समझ अभी कितनी कम है। पर इसके बावजूद हमने परमाणु रिएक्टर लगाना शुरू कर दिया है और वह भी ऐसी जगहों पर, जहां प्राकृतिक आपदाओं का खतरा ज्यादा है। अभी दुनिया में परमाणु विज्ञान के जो बड़े जानकार हैं, उन्हें सिर्फ यह पता है कि कैसे परमाणु रिएक्टर के जरिए बिजली बनाई जाए और कैसे इसे लोगों के घरों तक पहुंचाया जा सके। पर उन्हें यह नहीं पता कि दुर्घटना होने की स्थिति में रिएक्टर को तत्काल काबू में कैसे किया जाए? इसके बावजूद वे नेताओं को यह ज्ञान देते हुए नहीं अघाते कि परमाणु बिजलीघर ऊर्जा के अभाव को दूर कर देंगे। फुकुशिमा हादसा पूरी मानवता के लिए खतरे की घंटी है। सम्भव है कि अभी इस दुर्घटना के दूरगामी प्रभावों को नहीं समझा जाए लेकिन आने वाले दिनों में लोग इस दुर्घटना को मानवता के विकास के अहम मोड़ के तौर पर याद करेंगे। यह दुर्घटना परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले सभी लोगों के मन में एक सवाल जरूर पैदा करेगी। उन्हें यह सोचने पर जरूर मजबूर करेगी कि रिएक्टर के तौर पर हम कहीं इनसानों के मौत का सामान तो नहीं बना रहे? फुकुशिमा के परमाणु बिजलीघर के आसपास रहने वाले और यहां काम करने वाले कर्मचारियों के बच्चों पर विकिरण का असर आने वाले दिनों में दिखेगा। इसके बाद स्थिति अभी से कहीं ज्यादा खतरनाक दिखेगी। यह अंदाज लगाना ही सिहरन पैदा करता है कि हवा में जो रेडियोधर्मिता फैली है, वह अपना असर कब, कहां और किस तरह दिखाएगी? अभी इसके बारे में साफ तौर पर कोई बता नहीं सकता लेकिन इतना तय है कि अंत बेहद दुखद होने वाला है। ज्यादातर वैज्ञानिक यह दावा कर रहे हैं कि ऐसे हादसे अब नहीं होंगे। हालांकि, यह दावा सच नहीं है। सचाई तो यह है कि परमाणु ऊर्जा की राह कभी भी सुरक्षित नहीं रही। नेता यह मानते हैं कि कुछ दुर्घटनाएं होती हैं। इसलिए वे जनता की गाढ़ी कमाई से कर वसूलकर परमाणु बिजलीघरों में लगाकर एक तरह से लोगों की जिंदगी के साथ जुआ खेल रहे हैं। वैज्ञानिकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे इस मुगालते में रहते हैं कि उन्हें उन सभी बातों का ज्ञान है जो इंसान के लिए जरूरी है। यह भ्रम उस वक्त झूठे आत्मविश्वास में बदल जाता है जब उन्हें लगता है कि उनके विचार उन्हें लाभ और ताकत देंगे। परमाणु ऊर्जा के बारे में हमेशा से यह दावा किया गया कि यह पूरी दुनिया की तस्वीर बदल देगा। अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि यह बदलाव सकारात्मक के बजाए नकारात्मक ज्यादा है। इस घटना के बाद पूरी दुनिया को यह समझना होगा कि उन्हें अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए ऊर्जा चाहिए या फिर अपनी असीमित बढ़ाई गई जरूरतों के लिए असीमित ऊर्जा। अगर इफरात ऊर्जा की जरूरत मानवता को है तो फिर परमाणु ऊर्जा के खतरों के लिए तैयार रहना पड़ेगा। परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले कहते हैं कि मामूली मात्रा में यूरेनियम के रूप में प्राकृतिक संसाधन को जलाकर हम काफी बिजली तैयार कर सकते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि ऐसा करते हुए वे कितने लोगों की जिंदगी को दांव पर लगा रहे हैं। इन वैज्ञानिकों को अब यह बात समझ लेनी चाहिए कि फुकुशिमा की दुर्घटना को दुनिया की तकनीकी विकास की एक नाकाम कड़ी के तौर पर याद किया जाएगा। इसलिए अब इस दुर्घटना से सबक लेते हुए आगे की रणनीति तय की जानी चाहिए। यह वक्त की जरूरत है कि अब पूरी दुनिया परमाणु ऊर्जा के मोह को त्यागकर आगे बढ़ें।


परमाणु खतरे की राह पर न चले देश


भारत के परमाणु विज्ञानियों ने 400 मेगावाट के संयंत्र को बनाया, जो कि सफलतापूर्वक काम कर रहा है। लेकिन अरेवा जैसी कम्पनी के संयंत्र का अब तक टेस्ट नहीं हुआ है। ऊपर से इस इकाई की उत्पादन क्षमता 1,600 मेगावाट होगी। यानी सीधे चार गुणा। इस तरह के 6 रिएक्टर लगाने पर एकाएक बोझ बढ़ेगा। इसलिए आधारभूत ढांचे की सुरक्षा की जांच- पड़ताल जरूरी है

11 मार्च को पूरे जापान ने 9 रिक्टर की तीवता के भूकम्प के झटके को झेला। यह बात दीगर है कि उस दिन के बाद से अब तक हर दिन जापान के किसी न किसी इलाके में 5 रिक्टर से ज्यादा के भूकम्प के झटके आ रहे हैं। बहरहाल, भूकम्प की तबाही को जापान जैसा मुल्क कमोबेश बर्दाश्त कर सकता था क्योंकि दुनिया में उसकी पहचान आर्थिक शक्ति के तौर पर है और वैसे भी जापान को भूकम्प प्रभावित इलाकों में गिना जाता है। इसलिए यहां की इमारतों से लेकर तमाम संयंत्र भूकम्परोधी हैं। लेकिन इस तबाही को सुनामी ने और बढ़ा दिया। नतीजतन भूकम्प और सुनामी दोनों के प्रकोप को एक बार में ही झेलने में जापान असक्षम रहा।
रेडिएशन का खतरा
मीडिया रिपोटरे के मुताबिक 10 हज़ार से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। बाकी कितनों के घर उजड़े, कितने बह गए, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। लेकिन इसके बाद जो तीसरी तबाही की आशंका पनपी है, उसका क्षणिक अनुमान भी किसी देश को मिटाने के लिए काफी है। वह है परमाणु रेडिएशन का ख़्ातरा। जैसा कि हम सब जानते हैं कि जापान में जलजले के बाद फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के 6 रिएक्टरों में से 4 में विस्फोट हुआ और इसमें मेल्ट डाउन की स्थिति आई। काफी मात्रा में रेडिएशन हुआ है। हालांकि अब तक जापान सरकार की ओर से आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई। वैसे, जापान की राजधानी टोक्यो और फुकुशिमा के आसपास के गांवों में नल के पानी को पीने पर पाबंदी लगा दी है, क्योंकि इसमें रेडियोएक्टिव आयोडीन की मात्रा बढ़ गई है। यानी जापान हादसों को झेलने के बाद भी ख़्ातरों के सुनामी पर अटका हुआ। अगर जल्द तमाम हालात पर काबू नहीं पाए जाते हैं तो जापान ही नहीं वरन दुनिया के कई देशों के लिए यह रेडिएशन चिंता का सबब बन सकता है।
सवाल सुरक्षा का
यह चेतावनी भारत जैसे मुल्क पर भी लागू होती है, जहां भारत-अमेरिका करार के तहत कई परमाणु संयंत्रों की स्थापना प्रस्तावित है। वैसे, जनअसंतोष की बात को दूर रखें तो भी सवाल परमाणु रिएक्टर की सुरक्षा, प्रस्तावित जगहों के भौगोलिक हालात, एटॉमिक उत्तरदायित्व और ऊर्जा उत्पादन पर लागत जैसे गहन मसलों से जुड़ा है। कहा जा सकता है कि एटमी करार के प्रति वचनबद्ध और ऊर्जा के लिए लालायित मुल्क परमाणु ख़्ातरों से खेलने के लिए तैयार बैठा है। वैसे अब तक हमारे यहां बड़ा परमाणु हादसा नहीं हुआ है। लेकिन अगर ऐसी नौबत आती है तो इसके लिए हम तैयार भी नहीं हैं।
हादसों से लें सबक
1987 में तमिलनाडु के कलपक्कम रिएक्टर में हादसा हुआ। इससे रिएक्टर का आंतरिक भाग क्षतिग्रस्त हो गया। दो साल तक मरम्मत चली। इसके बाद 1992 में तारापुर संयंत्र में रेडियोधर्मी रिसाव के मामले सामने आए। 1999 में फिर कलपक्कम रिएक्टर में रेडियोधर्मी रिसाव के चलते कई कर्मचारी बीमार पड़े। 2009 में भी कर्नाटक के कैगा में ट्रिटियम के रिसाव के चलते 50 कर्मचारियों की हालत बिगड़ी। जैसा कि हम सब जानते हैं कि ये सारे हादसे बड़े नहीं थे। लेकिन इसका व्यापक असर जरूर पड़ा। रेडियोधर्मी रिसाव क्या बला है, इसका अंदाजा तो दिल्ली विश्वविद्यालय से हटाए गए कोबाल्ट-60 के प्रकोप से चल ही गया। अब ऐसे में जबकि अमेरिका, फ्रांस, रूस के सहयोग से भारत अपनी मौजूदा परमाणु क्षमता 4,780 मेगावाट को बढ़ाकर 63 हज़ार मेगावाट करने की तैयारी में है, तो सुरक्षा मानकों और एहतियातों का खयाल तो रखना ही होगा।
खतरनाक क्षेत्रों में क्यों
हालांकि चिंता की बात यह है कि ज्यादातर प्रस्तावित इलाके भूकम्प आशंकित क्षेत्रों में आते हैं। मसलन, एक इलाका महाराष्ट्र का जैतापुर भी है, जहां के लोग इसका काफी विरोध कर रहे हैं। फ्रांस की कम्पनी अरेवा यहां परमाणु संयंत्र बिठाएगी। लेकिन पिछले 20 सालों में यहां भूकम्प के सौ से ज्यादा झटके आ चुके हैं। कई की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 6 महसूस की गई, जो कि खतरनाक माना जाता है। सौराष्ट्र के मिथी वर्दी इलाके में भी संयंत्र की स्थापना होगी। इस इलाके ने 2001 में भयंकर भूकम्प को झेला था। इस तरह के ख़्ातरों के बावजूद इन इलाकों में परमाणु संयंत्र की स्थापना को मंज़ूरी कैसे मिली, यह यक्ष प्रश्न हैै
बुनियादी ढांचे को परखा जाए
जहां तक परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से ऊर्जा उत्पादन की बात है, भारत के परमाणु विज्ञानियों ने 400 मेगावाट के संयंत्र को बनाया, जो कि सफलतापूर्वक काम कर रहा है। लेकिन अरेवा जैसी कम्पनी के संयंत्र का अब तक टेस्ट नहीं हुआ है। ऊपर से इस इकाई की उत्पादन क्षमता 1,600 मेगावाट होगी। यानी सीधे चार गुणा। इस तरह के 6 रिएक्टर लगाने पर एकाएक बोझ बढ़ेगा। इसलिए आधारभूत ढांचे की सुरक्षा की जांच-पड़ताल जरूरी है।