Wednesday, June 29, 2011

पहाड़ों पर ऊपर चढ़ते जा रहे पौधे


किसी दिन विश्व प्रसिद्ध वैली ऑफ फ्लावर से फूल गायब मिलें तो..। यकीन नहीं आता, लेकिन वैज्ञानिकों के 10 साल के शोध इसी ओर इशारा कर रहे हैं। पहले पहाड़ों से इंसान का ही पलायन हो रहा था, अब यह संक्रमण पेड़ पौधों में भी फैल गया है। फर्क सिर्फ इतना है कि आदमी पहाड़ छोड़ मैदानों की ओर भाग रहा है और वनस्पतियां ऊंचाई की ओर। मसलन चीड़ के पेड़ अमूमन 3700 मीटर तक की ऊंचाई पर होते हैं, अब ये 700 मीटर का सफर कर साढ़े चार हजार मीटर तक जा पहुंचे हैं। वन पीपल और धूप घास भी इसी राह पर हैं। फूलों की घाटी का भी पलायन ऊंचाई की ओर जारी है। कुदरत के इस बदलाव से वैज्ञानिक चिंतित हैं। वनस्पति जगत में मची उथल-पुथल को अस्तित्व बचाने की जुगत के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल जो पेड़-पौधे कम तापमान पर फलने-फूलने के आदी हैं, वे अधिक ऊंचाई की ओर माइग्रेट हो गए और उनका स्थान गर्म जलवायु के पेड़ पौधे लेने लगे। फूलों की घाटी में 10 साल से वनस्पतियों के विस्थापन पर नजर रख रहे हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान विभाग के विशेषज्ञ डॉ. एमपीएस बिष्ट बताते हैं कि घाटी की वनस्पतियों के अनुक्रम में तेजी से परिवर्तन आया है। नई वनस्पति झुंड के रूप में पनपने लगी है। तापमान में आया बदलाव पौधों के पलायन का बड़ा कारण है। कम ऊंचाई पर मिलने वाले वन पीपल, चीड़ की पाइनस वेल्सेयाना प्रजाति, एरीनिरीया जैसी वनस्पतियां 3700 से 4440 मीटर की ऊंचाई में पनप रही हैं, जबकि पहले ये 3700 मीटर की ऊंचाई तक ही पाई जाती थीं। घाटी में 3700 मीटर तक उगने वाली धूप घास जैसी वनस्पतियां पुराने स्नो कवर एरिया तक उगती हैं। शोध को साइंस जनरल ने स्थान दिया.

तेजी से प्रदूषित हो रहे हैं पांचों महासागर


लगातार बढ़ रहे जल प्रदूषण, बड़ी मात्रा में मछली पकड़ने और अन्य मानव जनित समस्याओं के कारण दुनिया के पांचों महासागरों की स्थिति अनुमान से भी अधिक तेजी से बिगड़ रही है। अगर हालात इसीतरह बिगड़ते रहे थे यकीन मानिये इन महासागरों का अंतकाल का चरण शुरू हो गया है। चूंकि महासागरों के अंदर जीवन विलुप्ति की ओर बढ़ता जा रहा है। वैज्ञानिकों ने एक नई रिपोर्ट में यह दावा किया है। वैज्ञानिकों के एक वरिष्ठ पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक, कई कारण एक साथ मिलकर महासागरों की सेहत खराब कर रहे हैं। पैनल ने अपनी यह रिपोर्ट मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र को सौंपी। रिपोर्ट में बताया गया है कि ग्लोबल वार्मिग और प्रदूषण बढ़ाने के कई कारक एक साथ मिलकर स्थिति को बहुत ज्यादा खतरनाक बना रहे हैं। इन कारकों में समुद्र से बड़ी मात्रा में मछली पकड़ने के अलावा कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से पानी की अम्लीयता बढ़ना, समुद्री जीवों के प्राकृतिक निवास का नष्ट होना और समुद्री बर्फ का पिघलना शामिल है। जल स्रोतों के पास उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या के कारण पानी में खतरनाक रसायन घुल रहे हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर में वैश्विक समुद्री कार्यक्रमों के निदेशक कार्ल लंुडिन का कहना है, ऐसा एक साथ नहीं हुआ है, बल्कि चीजें कई स्तर पर खराब हो रही हैं। इन्हीं के दल ने महासागर की स्थिति को लेकर यह रिपोर्ट तैयार की है। उन्होंने कहा कि हम इन परेशानियों के कारण कई समुद्री जीवों को हमेशा के लिए खो रहे हैं। उन्होंने हिंद महासागर में मौजूद एक हजार साल पुराने प्रवाल (यानी मूंगे की चट्टानें) नष्ट होने को अविश्वसनीय बताया। साथ ही कहा कि अगर हम ऐसे ही अपने समुद्री जीवों को खोते रहे तो महज एक पीढ़ी के भीतर ही प्रवालों की जाति पूरी तरह खत्म हो जाएगी। पहले ही महासागरों में फलने-फूलने वाले कई जीव-जंतु और पौधे विलुप्त हो चुके हैं। ऑस्ट्रेलिया में क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी के एक वैज्ञानिक ओव हेग गुल्डबर्ग के अनुसार जिस रफ्तार से हिंद महासागर में प्रवाल खत्म हो रहे हैं आर्टिक महासागर की बर्फ की परत भी आशंका से कहीं अधिक तेजी से पिघल रही है।


वन पर्यटन से जुड़े निजी व्यापार पर लगेगा सेस


देश के किसी भी राज्य में वनभूमि पर अब पर्यटन सुविधाओं के विकास के नाम पर किसी भी प्रकार का नया निर्माण कार्य न होगा। यही नहीं, संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से पांच किलोमीटर के दायरे में आने वाले इलाकों में पर्यटन से जुड़ी निजी क्षेत्र की गतिविधियों पर सेस लगाने की तैयारी है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा संरक्षित क्षेत्रों में इको टूरिज्म के नए दिशा निर्देश तो यही कहती है। पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश की ओर से संरक्षित क्षेत्रों में इकोटूरिज्म से संबंधित गाइडलाइन सभी राज्यों को जारी की गई है। इसके अनुसार, राज्य सरकारें 31 दिसंबर तक अपने यहां इकोटूरिज्म रणनीति तैयार करेंगे। हर राज्य में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में स्टेयरिंग कमेटी बनेगी, जो हर तीन माह में इको टूरिज्म की समीक्षा करेगी। गाइडलाइन में साफ कहा गया है कि संरक्षित क्षेत्रों में पहले ही बड़ी संख्या गेस्ट हाउस आदि हैं। इसलिए टूरिस्ट सुविधाओं के लिए कोई नया निर्माण न होगा। संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से पांच किमी की परिधि में निजी क्षेत्र की जितनी भी पर्यटन संबंधी गतिविधियां चल रही हैं, उनसेकुल टर्न ओवर का पांच फीसदी हिस्सा लोकल कंजर्वेशन सेस के रूप में लिया जाएगा। संरक्षित क्षेत्रों में पर्यटकों से होने वाली आय को सरकार के खजाने की बजाए सुरक्षा, संरक्षण, आजीविका विकास से संबंधित गतिविधियों में खर्च करने की बात भी कही गई। अभी तक केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश में ही ऐसी व्यवस्था है। केंद्र के दिशा-निर्देशों में वन विभाग को काफी ताकत दी गई है। पर्यटन योजनाओं और वन्यजीव संरक्षण के बीच विवाद की स्थिति में वन विभाग का मत लागू किया जाएगा। संरक्षित क्षेत्रों में इकोटूरिज्म की योजनाएं बनाने की जिम्मेदारी चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन को दी गई है, जो राज्य सरकार से अनुमोदन लेंगे। मंत्रालय ने राज्यों से इस गाइडलाइन पर 30 जून तक सुझाव भी मांगे हैं। इस सिलसिले में मंगलवार को वन सचिव समेत वन विभाग के अन्य आला अफसर इस पर मंथन करेंगे।


2015 तक साफ होगी यमुना


यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने की तैयारी सरकार द्वारा फिर से शुरू की गई है। इस बार यह जिम्मा जल बोर्ड को मिला है। जल बोर्ड दावा कर रहा है कि यमुना को तीन-चार वर्षो में कम से कम नहाने लायक तो बना ही लिया जाएगा। बोर्ड के दावे के मुताबिक यमुना में प्रदूषण की वर्तमान मात्रा प्रति लीटर 40 मिलीग्राम बायलॉजिकल आक्सीजन डिमांड (बीओडी) से घटाकर 12 मिग्रा प्रति लीटर बीओडी तक लाया जाएगा। हालांकि राजधानी में 20 मिग्रा प्रति लीटर बीओडी को स्वीकार्य बताया गया है। इसके लिए राजधानी के सभी नालों को इंटरसेप्टर परियोजना के तहत एक-दूसरे से जोड़कर सीवर ट्रीटमेंट प्लांटों तक पहुंचाया जाएगा। ट्रीटमेंट प्लांट में शोधन के बाद ही इन्हें यमुना में छोड़ा जाएगा। केंद्र व राज्य सरकार की यमुना को प्रदूषण मुक्त करने की तमाम परियोजनाओं के बाद दिल्ली जलबोर्ड ने इस बाबत खम ठोंका है। बोर्ड के सीईओ रमेश नेगी के मुताबिक राजधानी में प्रतिदिन लगभग छह सौ एमजीडी (मिलियन गैलन डेली) अपशिष्ट जल निकलता है। इसमें से तीन सौ से 350 एमजीडी अवजल का विभिन्न सीवर ट्रीटमेंट प्लांटों में शोधन कर लिया जाता है। लगभग दो सौ एमजीडी अवजल विभिन्न नालों के माध्यम से सीधे यमुना तक पहुंच जाता है। नेगी के मुताबिक प्रस्तावित सीवर इंटरसेप्टर परियोजना के तहत इस दो सौ एमजीडी अवजल को यमुना में गिरने से पहले सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों (एसटीपी) तक पहुंचाया जाएगा। इसके लिए सीधे यमुना में गिरने वाले नालों को एक-दूसरे से जोड़कर ट्रीटमेंट प्लांटों तक पहुंचाया जाएगा। परियोजना को पूरा करने की जिम्मेदारी इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड को दी गई है। 1404 करोड़ रुपये की लागत से पूरी होने वाली यह परियोजना अगस्त के अंत तक शुरू हो जाएगी। कार्य छह समूहों में बांट कर किया जाएगा। वजीराबाद से लेकर ओखला बैराज के मध्य के नालों को जोड़ने का काम डेढ़ वर्ष से लेकर साढ़े तीन वर्ष के भीतर संपन्न कर लिया जाएगा। इस प्रकार 2015 तक यमुना में प्रदूषण की मात्रा को प्रति लीटर 12 मिग्रा बीओडी तक लाने की कोशिश की जाएगी। केंद्र व प्रदेश सरकार की कैबिनेट ने परियोजना की सहमति दे दी है।


Saturday, June 18, 2011

होने वाली है बारासिंगों की घर वापसी


पिछले १२ वर्षों में ४५० बाघों की मौत


घटते वन : मानव के अस्तित्व पर संकट


बावड़ियों का पानी पेयजल के लिए प्रतिबंधित


नर्मदा के शुद्ध पानी की डेड लाइन तय


Wednesday, June 15, 2011

बिजली परियोजनाओं से घट रहा है गंगा में जल प्रवाह


पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि उत्तराखंड की अलखनंदा और भागीरथी जल विद्युत परियोजनाओं के कारण गंगा नदी में जल प्रवाह घट रहा है। इस मामले में तत्काल ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार ने नदी की अविरल धारा बनाए रखने तथा 2020 तक नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त बनाने के मकसद से मंगलवार को विश्व बैंक के साथ करीब एक अरब डॉलर (4600 करोड़ रुपये) का कर्ज हासिल करने के लिए समझौता किया है। इस धनराशि से उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल को गंगा नदी के संरक्षण के लिए धनराशि मुहैया कराई जाएगी। जयराम रमेश ने मंगलवार को नई दिल्ली में विश्व बैंक के निदेशक (भारत) रॉबर्टो जागा के साथ इस संबंध में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस मौके पर रमेश ने कहा, गंगा नदी के संबंध में आइआइटी रुड़की के एक अध्ययन रिपोर्ट पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी है, जिसके मुताबिक, अलखनंदा और भागीरथी पनबिजली परियोजनाओं के कारण गंगा नदी के जल प्रवाह पर असर पड़ रहा है। अध्ययन रिपोर्ट से साबित होता है कि भागीरथी और अलकनंदा नदी के भराव क्षेत्र महत्वपूर्ण हैं। अगर इन दोनों नदियों में पानी नहीं होगा तो गंगा नदी में भी जल प्रवाह काफी कम हो जाएगा। गंगा में अविरल धारा बनाए रखने के लिए दोनों परियोजनाओं के तहत न्यूनतम जल प्रवाह निर्धारित करना होगा। हमने यह सिफारिश स्वीकार कर ली है और अब इस संबंध में कदम उठाए जाएंगे। रमेश ने विश्व बैंक के साथ हुए समझौते के विवरण देते हुए कहा, 2020 तक हमें गंगा को गंदे पानी और उद्योगों के प्रदूषण से मुक्त बनाना है। इसके लिए विश्व बैंक की मदद से पांच वर्ष की अवधि में राशि खर्च की जाएगी। राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण इस परियोजना का कार्यान्वयन करेगा। विश्व बैंक से मिलने वाले कर्ज की राशि को मिलाकर यह परियोजना कुल सात हजार करोड़ रुपए की है। उन्होंने कहा, उनके मंत्रालय ने गंगा नदी के तटीय क्षेत्रों में चल रही 60 इकाइयों को उनके द्वारा प्रदूषण फैलाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। इनमें से अधिकतर इकाइयां कन्नौज से वाराणसी के बीच के 500 किलोमीटर क्षेत्र में हैं। सरकार ने विश्व बैंक के साथ दो और समझौते किए हैं। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में जीवनयापन के सोत्रों को मजबूत करने के लिए 1.56 करोड़ डॉलर और जैव विविधता संरक्षण के लिए 81.4 लाख डॉलर का कर्ज मिलेगा।


दो फीसदी हिस्से में होता 70 फीसदी प्रदूषण


यमुना नदी तीन दशकों में नाले में तब्दील हो चुकी है। प्रदूषण ने यम की बहन समझी जाने वाली यमुना नदी का गला घोंटकर रख दिया है। यमनोत्री से छोटी सी धारा के रूप में प्रकट हुई यमुना इलाहाबाद के संगम तक 1375 किलोमीटर का सफर तय करती है। दिल्ली आने से पहले स्वच्छ और निर्मल जल को अपने में समेटने वाली यह नदी दिल्ली के बाद प्रदूषित हो जाती है। यमुना को कभी राजधानी के जीवन रेखा के रूप में देखा जाता था। लेकिन यमुना के प्रदूषण में दिल्ली की भागीदारी 70 फीसदी है। यह हम नहीं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कहता है। जिसके अनुसार दिल्ली में यमुना का 22 किलोमीटर भाग नदी का मात्र 2 फीसदी हिस्सा है। इस भाग में यह कुल प्रदूषण भार के 70 फीसदी हिस्से का योगदान करता है। अब यमुना सिर्फ और सिर्फ बारिश के मौसम में बहा करती है। शेष समय यह राजधानी के जहरीले रसायनों, गंदगी और प्रदूषित सामग्री की संवाहक बनकर रह गई है। यमुना में मुर्दो के अवशेष, कल कारखानों का जहरीला विष, अपशिष्ट, जलमल निकासी का गंदा पानी और हर साल लगभग तीन हजार प्रतिमाओं का विसर्जन इसमें किया जाता है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय का कहना है कि यमुना कार्य योजना सन् 1993 में आरंभ की गई थी। 2009 में इसकी सफाई का बजट 1356 करोड रुपये रखा था। हालात देखकर लगता है कि यह पैसा भी गंदे नाले में ही बह गया है। दो माह पहले इलाहाबाद के संगम से साधु संतों की यात्रा भी दिल्ली पहुंची। जिसमें लोगों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। इनकी मांग यमुना को राष्ट्रीय नदी घोषित करने, इसे प्रदूषण मुक्त रखने और यमुना बेसिन प्राधिकरण का गठन करने को लेकर थी। सरकार ने 2009 में कहा था कि यमुना एक्शन प्लान एक और दो के तहत 2800 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। किंतु ठोस तकनीक न होने से वांछित परिणाम सामने नहीं आ सके। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इन्वायरमेंट साइंसेज में प्रो. एस. मुखर्जी कहते हैं कि यमुना एक बीमार नदी का रूप ले चुकी है। जिसका निदान सर्वेक्षण और सफाई अभियान से संभव है। जो कई स्तर पर किया जाना जरूरी है।


बनेंगे ५ नए बायो-डायवर्सिटी पार्क


विकास का जरूरी आधार पानी


किसी भी देश के आर्थिक विकास में जीवनदायी जल की महत्ता अंतर्निहित है। हालांकि विकास दर सूचकांक नापे जाते वक्त पानी के महत्व को दरकिनार रखते हुए किसी भी देश की औद्योगिक प्रगति को औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक (आईआईपी) से नापा जाता है। इनकी पराश्रित सहभागिता आर्थिक विकास की वृद्धि दर दर्शाती है। यदि हमें देश की औसत विकास दर 6 प्रतिशत तक बनाए रखनी है तो एक अध्ययन के अनुसार 2031 तक मौजूदा स्तर से चार गुना अधिक पानी की जरूरत होगी, तभी सकल घरेलू उत्पाद बढ़कर 2031 तक चार ट्रिलियन डॉलर तक पहुंच सकेगा। सवाल उठता है कि बीस साल बाद इतना पानी आएगा कहां से ? क्योंकि लगातार गिरते भू-जल स्तर और सूखते जल स्रेतों के कारण जलाभाव की समस्या अभी से मुहं बाये खड़ी है। अमेरिका के दक्षिण और मध्य क्षेत्र मामलों के सहायक विदेश मंत्री रॉबर्ट ब्लैक ने पिछले दिनों प्रथम तिब्बत पर्यावरण फोरम की बैठक में बोलते हुए कहा कि 2025 तक दुनिया के दो तिहाई देशों में पानी की किल्लत भयावह किल्लत हो जाएगी। लेकिन भारत समेत एशियाई देशों में तो यह समस्या 2020 में ही विकराल रूप में सामने आ जाएगी जो भारतीय अर्थव्यवस्था को बुरी तरह प्रभावित करेगी। तिब्बत के पठार पर मौजूद हिमालयी ग्लेशियर समूचे एशिया में 1.5 अरब से अधिक लोगों को मीठा जल मुहैया कराते हैं लेकिन जलवायु परिवर्तन के कारण ब्लैक कार्बन जैसे प्रदूषत तत्वों ने हिमालय के कई ग्लेशियरों पर जमी बर्फ की मात्रा घटा दी है जिसके कारण इनमें से कई इस सदी के अंत तक अपना वजूद खो देंगे। इन ग्लेशियरों से गंगा और ब्रrापुत्र समेत नौ नदियों में जलापूर्ति होती है। यही नदियां भारत, पाकिस्तान, अफगनिस्तान और बांग्लादेश के निवासियों को पीने व सिंचाई हेतु बड़ी मात्रा में जल मुहैया कराती हैं। ब्लैक के इस बयान से जाहिर होता है कि भारत में पानी एक दशक बाद ही अर्थव्यवस्था को चौपट करने का प्रमुख कारण बन सकता है। वैसे पानी भारत ही नहीं पूरी दुनिया में एक समस्या के रूप में उभर चुका है। भूमंडलीकरण और उदारवादी आर्थिक व्यवस्था के दौर में बड़ी चतुराई से विकासशील देशों के पानी पर अधिकार की मुहिम अमेरिका और ब्रिटेन जैसे देशों ने पूर्व से ही चलाई हुई है। भारत में भी पानी के व्यापार का खेल यूरोपीय संघ के दबाव में शुरू हो चुका है। पानी को मुद्रामें तब्दील करने की दृष्टि से ही इसे वि व्यापार संगठन के दायरे में लाया गया ताकि पूंजीपति देशों की आर्थिक व्यवस्था विकासशील देशों के पानी का असीमित दोहन कर फलती- फूलती रहे। अमेरिकी वर्चस्व के चलते इराक में मीठे पेयजल की आपूर्ति करने वाली दो नदियों यूपरेट्स और टाइग्रिस पर तुर्की नाजायज अधिकार जमा रहा है। दूसरी तरफ कनाडा इसलिए परेशान है क्योंकि अमेरिका ने एक षडयंत्र के तहत वहां के समृद्ध तालाबों पर नियंतण्रकी मुहिम चलाई हुई है। यह कुचक्र इस बात की सनद है कि पानी को लेकर संघर्ष की पृष्ठभूमि रची जा रही है और इसी पृष्ठभूमि में तीसरे वियुद्ध की नींव अंतर्निहित है। भारत वि स्तर पर जल का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। वह दुनिया के जल का 13 फीसद उपयोग करता है। भारत के बाद चीन 12 फीसद और अमेरिका 9 फसद जल का उपयोग करता है। पानी के उपभोग की बड़ी मात्रा के कारण ही भू-जल स्रेत, नदियां और तालाब संकटग्रस्त हैं। वैज्ञानिक तकनीकों ने भू-जल दोहन को आसान बनाने के साथ खतरे में डालने का काम भी किया। लिहाजा नलकूप क्रांति के शुरुआती दौर 1985 में जहां देश भर के भू-जल भंडारों में मामूली स्तर पर कमी आना शुरू हुई थी, वहीं अंधाधुंध दोहन के चलते ये दो तिहाई से ज्यादा खाली हो गए हैं। नतीजतन 20 साल पहले 15 प्रतिशत भू-जल भंडार समस्याग्रस्त थे और आज ये हालात 70 प्रतिशत तक पहुंच गए हैं। ऐसे ही कारणों के चलते देश में पानी की कमी प्रतिवर्ष 104 बिलियन क्यूबिक मीटर तक पहुंच गई है। जल सूचकांक एक मनुष्य की सामान्य दैनिक जीवनचर्या के लिए प्रति व्यक्ति एक चौथाई रह गया है। यदि किसी देश में जीवनदायी जल की उपलब्धता 1700 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष कम होती चली जाए तो इसे आसन्न संकट माना जाता है। इसके विपरीत विडंबना यह है कि देश में पेयजल के स्थान पर शराब व अन्य नशीले पेयों की खपत के लिए हमारे देश के ही कई प्रांतों में वातावरण निर्मित किया जा रहा है। शराब की दुकानों के साथ अहाते होना अनिवार्य कर दिए गए हैं ताकि ग्राहक को जगह न तलाशनी न पड़े। मध्यप्रदेश सरकार ने तो अर्थव्यवस्था सुचारू रखने के लिए शराब ठेके के लिए आहाता अनिवार्य शर्त कर दी है। इस तरह देश-दुनिया की अर्थव्यवस्था चलाने में पानी का योगदान 20 हजार प्रति डॉलर प्रति हेक्टेयर की दर से सर्वाधिक है। लेकिन दुनिया लगातार पानी की अन्यायपूर्ण आपूर्ति की ओर बढ़ रही है। एक तरफ देश-दुनिया की समृद्ध आबादी पाश्चात्य शौचालयों, बॉथ टबों और पंचतारा तरणतालों में रोजाना हजारों गैलन पानी बेवजह बहा रही है, वहीं दूसरी तरफ बहुसंख्यक आबादी तमाम जद्दोजहद के बाद 10 गैलन पानी, यानी करीब 38 लीटर पानी भी बमुश्किल जुटा पाती है। पानी के इस अन्यायपूर्ण दोहन के सिलसिले में किसान नेता देवीलाल ने तल्ख टिप्पणी की थी कि नगरों में रहने वाले अमीर शौचालय में एक बार फ्लश चलाकर इतना पानी बहा देते हैं जितना किसी किसान के परिवार को पूरे दिन के लिए नहीं मिल पाता है। इस असमान दोहन के कारण ही भारत, चीन, अमेरिका जैसे देश पानी की समस्या से ग्रस्त हैं। इन देशों में पानी की मात्रा 160 अरब क्यूबिक मीटर प्रतिवर्ष की दर से घट रही है। अनुमान है कि 2031 तक वि की दो तिहाई आबादी यानी साढ़े पांच अरब लोग गंभीर जल संकट से जूझ रहे होंगे। जल वितरण की इस असमानता के चलते ही भारत में हर साल पांच लाख बच्चे पानी की कमी से पैदा होने वाली बीमारियों से मर जाते हैं। करीब 23 करोड़ लोगों की जल के लिए जद्दोजहद उनकी दिनचर्या में तब्दील हो गया है। और 30 करोड़ से ज्यादा आबादी के लिए निस्तार हेतु पर्याप्त जल की सुविधाएं नहीं हैं। बहरहाल भारत में सामाजिक, आर्थिक और स्वास्थ्य के स्तर पर पेयजल सबसे भयावह चुनौती बनने जा रही है। ध्यान रखने की जरूरत है कि प्राकृतिक संसाधनों का बेलगाम दोहन जारी रहा तो भविष्य में भारत की आर्थिक विकास दर की औसत गति क्या होगी? और आम आदमी का औसत स्वास्थ्य किस हाल में होगा? मौजूदा हालात में हम भले आर्थिक विकास दर औद्योगिक और प्रौद्योगिक पैमानों से नापते हों, लेकिन ध्यान देने की जरूरत है कि इस विकास का आधार भी आखिरकार प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित है। जल, जमीन और खनिजों के बिना आधुनिक विकास संभव नहीं है। यह भी तय है कि विज्ञान के आधुनिक प्रयोग प्राकृतिक संपदा को रूपांतरित कर उसे मानव समुदायों के लिए सहज सुलभ तो बना सकते हैं लेकिन प्रकृति के किसी तत्व का स्वतंत्र रूप से निर्माण नहीं कर सकते। इनका निर्माण तो निरंतर परिवर्तनशील जलवायु पर निर्भर है। इसलिए जल के उपयोग के लिए यथाशीघ्र कारगर जल नीति अस्तित्व में नहीं आई तो देश का आर्थिक विकास प्रभावित होना तय है।