Friday, April 29, 2011

साफ़ गंगा की आशा





सात हजार करोड़ से होगी गंगा साफ


केंद्र सरकार ने विश्व बैंक की मदद से गंगा नदी को साफ करने के लिए 7,000 करोड़ रुपये की एक योजना को स्वीकृति दे दी है। सफाई की जिम्मेदारी नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) को सौंपी गई है। कुल लागत में 5100 करोड़ रुपये केंद्र सरकार वहन करेगी, जबकि शेष 1900 करोड़ रुपये का इंतजाम उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल की सरकारों को करना होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में गुरुवार को यहां आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में इस बारे में प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाई गई। यह पूरी योजना आठ वर्षो में पूरी की जाएगी। गंगा की सफाई के लिए यह अभी तक की सबसे महत्वाकांक्षी योजना होगी। केंद्र सरकार का पहले ही विश्व बैंक के साथ इस बारे में समझौता हो चुका है। विश्व बैंक इसके लिए 4600 करोड़ रुपये की राशि बहुत ही कम ब्याज दर पर देगा। दूसरे शब्दों में कहें तो 5100 करोड़ रुपये जो केंद्र को देने हैं उसमें से 4600 करोड़ उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। गंगा सफाई की नई योजना अभी तक की योजनाओं की सफलताओं और विफलताओं से सबक सीखते हुए तैयार की जा रही है। योजना के तहत गंगा सफाई अभियान को आगे बढ़ाने के लिए विशेष संस्थान गठित किए जाएंगे। साथ ही स्थानीय संस्थानों को भी मजबूत बनाया जाएगा, ताकि वे गंगा की सफाई में लंबी अवधि में अपनी भूमिका निभा सके। इस राशि से गंगा ज्ञान केंद्र भी स्थापित किए जाएंगे और इसकी मदद से प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड को भी ज्यादा सशक्त बनाया जाएगा। गंगा के किनारे बसने वाले शहरों में निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी और इन शहरों में औद्योगिक प्रदूषण को दूर करने के लिए नीति बनाई जाएगी|

Monday, April 25, 2011

यमुना के लिए लड़नी होगी लंबी लड़ाई


यमुना में यमुनोत्री के जल की न्यूनतम मात्रा बनी रहे, इसकी निगरानी के लिए समझौते के तहत जो आठ सदस्यीय समिति गठित की गई है, उसमें आंदोलनकारियांे और किसानों के प्रतिनिधि भी हैं। उन्हें अपने रुख पर डंटे रहना होगा। जिस ढंग से शहरों और उोगों का ढांचा विकसित हो चुका है, उसमें उनके कचरे व मल-मूत्र से और सिंचाई ढांचों के लिए जानेवाले पानी से युमना को मुक्त करना अत्यंत कठिन कार्य है..
यमुना में यमुनोत्री के जल की न्यूनतम मात्रा बनी रहे, इसकी निगरानी के लिए समझौते के तहत जो आठ सदस्यीय समिति गठित की गई है, उसमें आंदोलनकारियांे और किसानों के प्रतिनिधि भी हैं। उन्हें अपने रुख पर डंटे रहना होगा। जिस ढंग से शहरों और उोगों का ढांचा विकसित हो चुका है, उसमें उनके कचरे व मल-मूत्र से और सिंचाई ढांचों के लिए जानेवाले पानी से युमना को मुक्त करना अत्यंत कठिन कार्य है..तत: केंद्र सरकार ने यमुना मुक्ति के लिए संघषर्रत सत्याग्रहियों की मांग मानकर तत्काल यमुना में न्यूनतम पानी छोड़ने का सकरुलर जारी कर दिया है। सरकार से समझौते के बाद यमुना बचाओ अभियान ने अपना अनशन समाप्त कर दिया है, लेकिन आंदोलन जारी रखने की घोषणा की है। यह स्वाभाविक है। वास्तव में इसे यमुना को बचाने की अबतक की सबसे बड़ी लड़ाई कहा जा सकता है। जंतर मंतर पर यमुना नदी को बचाने के लिए 15 अप्रैल से अनिश्चितकालीन अनशन व धरना चल रहा था। शुरू में केवल उत्तर प्रदेश के किसान, कुछ धार्मिक संगठनों से जुड़े स्त्री-पुरुष ही अनशन व धरने में शामिल थे, फिर धीरे-धीरे अन्य सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक संगठन भी शामिल होने लगे। कुछ अप्रवासी भारतीय भी यमुना बचाने के लिए आ गए। कुछ अनशन पर थे तो कुछ उनका साथ देने के लिए एक-एक दिन का अनशन कर रहे थे। हालांकि कुछ दिनों पहले लोकपाल के गठन को लेकर आयोजित चार दिन चले अनशन को मिले प्रचार से इसकी तुलना करें तो हाथी बनाम चूहे का उदाहरण भी फिट नहीं बैठेगा। क्यों? 

इस क्यों का उत्तर हमारे दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। ऐसा भी नहीं है कि यह सत्याग्रह अचानक आयोजित हो गया। पिछले 3 मार्च से यमुना नदी को बचाने के लिए इलाहाबाद के संगम तट से 750 किलोमीटर पदयात्रा करके सत्याग्रही 14 अप्रैल को दिल्ली के जंतर मंतर पहुंचे। इसकी सूचना सरकार को दी गई थी। इतनी लंबी यात्रा में जनजागण और यमुना से जुड़ी बस्ती के लोगों का समर्थन पाते हुए यहां तक पहुंचने के बाद सत्याग्रहियों को उम्मीद थी कि इसकी गूंज सरकार के कानों तक पहुंची होगी और उनकी मांगें स्वीकार कर ली जाएंगी। अभियान का नेतृत्व करने वाले भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष भानुप्रताप सिंह लगातार दोहरा रहे थे कि सरकार से कोई भी संतोषजनक बात नहीं हो रही है। 15 अप्रैल को ही उन्होंने घोषणा की कि जबतक सरकार उनकी मांगें नहीं मान लेती, हम यहां से वापस नहीं जाएंगे। वास्तव में यदि सरकार 14 अप्रैल को ही उनसे बातचीत करके मांग मानने का आश्वासन दे देती तो नौबत यहां तक नहीं आती। बातचीत में उन्होंने प्रश्न उठाया कि इतनी लंबी हमारी यात्रा थी, रास्ते में हजारों लोग जुड़ रहे थे, स्थानीय मीडिया में भी समाचार आ रहे थे, क्या इसकी सूचना सरकार को नहीं थी? क्या कांग्रेस के नेताओं ने प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, सोनिया गांधी, राहुल गांधी को नहीं बताया? जल संसाधन मंत्री तो उत्तर प्रदेश के ही हैं। स्थानीय प्रशासनों के अधिकारियों के साथ-साथ खुफिया विभाग ने तो अवश्य अपनी रिपोर्ट भेजी होगी। फिर क्यों नहीं सरकार ने डेढ़ महीने में कोई निर्णय किया? बिल्कुल वाजिब प्रश्न था। धीरे-धीरे माहौल गरम हो चुका था और सत्याग्रही उग्र आंदोलन की भी तैयारी करने लगे थे। रेल रोकने तक की तैयारी हो रही थी। 

यमुना के बारे में इतना कुछ कहा और लिखा गया है कि अब पूरे देश को इसकी दुर्दशा और इसके कारणों का मोटा-मोटा भान है। इसका बहाव क्षेत्र 1376 किमी है। कम से कम छह करोड़ आबादी को यह जल प्रदान करती है। इसके जल से जीवन पाने वाले जीव जंतुओं और वनस्पतियों की तो कोई गणना ही नहीं। राजधानी दिल्ली में यमुना के नाम पर पेटी में जो जल हम देखते हैं, उसमें यमुना के उद्गम यमुनोत्री का एक बूंद भी जल नहीं है। यमुना बिल्कुल सड़े हुए गंदे पानी का बड़ा नाला ही रह गई है। किसी नदी का सड़ जाना वास्तव में उससे जुड़ी सभ्यता-संस्कृति, उनसे विकसित जीवन प्रणाली का सड़ जाना है। जाहिर है, नदी का उद्धार उस क्षेत्र की सभ्यता-संस्कृति का उद्धार है। गंगा और यमुना का आर्थिक-सामाजिक महत्व तो है ही, ये भारत की सांस्कृतिक पहचान भी हैं। धारा को अविरल व निर्मल बनाए रखना सरकार का दायित्व है, मगर उसने दायित्व का निर्वाह नहीं किया। इसमें दो राय नहीं कि अब यमुना को दुर्दशा से पूरी तरह मुक्त करने के लिए समय चाहिए। मसलन, इससे जुड़ने वाले शहरों के मल-मूत्र सहित सीवरों के पानी को नदी में आने से रोकने के लिए कुछ नए ट्रीटमेंट प्लांट लगाने होंगे और पुराने प्लांटों की दिशा बदलनी होगी। उनके लिए अलग से नाला बनाकर शोधित जल को सिंचाई के लिए खेतों तक भेजना होगा। दिल्ली व राजधानी क्षेत्र में हिंडन कट सहित शाहदरा व अन्य 14 नालों के यमुना में प्रवाह को रोकने और वजीराबाद व ओखला बांधों के बीच नदी के साथ सीवरेज प्रणाली का निर्माण करना होगा। सत्याग्रहियों ने इसीलिए मांगांे को दो भागों दीर्घकालिक व तात्कालिक में विभाजित किया है। उनकी तात्कलिक मांग यही थी कि इस समय यमुना में पर्याप्त पानी छोड़कर उसे नाले की जगह फिर नदी के रूप में परिणत किया जाए। 

सरकार हथिनी कुंड यानी ताजेवाला बैराज व वजीराबाद बैराज से क्रमश: 4.5 क्यूसेक व 4 क्यूसेक पानी छोड़ने पर राजी हुई है। यकीनन यह यमुना मुक्ति संघर्ष की विजय है, लेकिन अभी बड़ा फासला तय करना है। हथिनी कुंड के आगे यमुना का अस्तित्व धीरे-धीरे खत्म हो जाता है। सरकार के टालमटोल वाले रवैए से आशंकित आंदोलनकारियों ने समझौते के बावजूद निर्णय किया कि जबतक वे यमुना में अवरिल धारा देख नहीं लेते हटेंगे नहीं। एक बार पानी छोड़ने से नदी का प्रदूषण हल्का होगा। इससे दिल्ली से इलाहाबाद तक लोगों को यमुना का जल मिलेगा और संगम के बाद यमुना-गंगा का मिश्रित जल। इतना करने मात्र से यमुना के स्वरूप में भारी अंतर आ जाएगा। इसके अलावा तत्काल यमुना को जीवन देने के लिए दूसरा कोई रास्ता भी नहीं है। यमुना की मुक्ति का पहला अनिवार्य कदम यहीं से आरंभ हो सकता है।

वनों में परिवेश की जगह नहीं, कहीं लुप्त न हो जाएं देशी हाथी


एशियाई मूल के देसी हाथियों के लिए जंगलों में अब उतनी जगह नहीं बची कि उनको भरपूर प्राकृतिक परिवेश मिल सके। अगर आगे भी यही हाल रहा तो एशियाई मूल के हाथी बहुत कम हो जाएंगे। जीव विशेषज्ञ कहते हैं कि अभी से सजग न हुए तो इन हाथियों का हाल भी बाघों की तरह हो जाएगा। एशियाई मूल के हाथियों की संख्या बढ़ाने के लिए फरवरी 1992 में केंद्र सरकार ने प्रोजेक्ट एलीफैंट मैक्सीमाज तैयार किया था जिसके आधार पर सभी राष्ट्रीय उद्यानों को दिशा निर्देश जारी किए गए थे। सभी राज्य सरकारों को इसके लिए बजट उपलब्ध कराया गया था। अगर दुधवा नेशनल पार्क की बात करें तो यहां एक दर्जन हाथी हैं, जो पालतू हैं। नेपाल के वर्दिया नेशनल पार्क से हाथियों के दो झुंड दुधवा या खीरी और बहराइच के जंगलों के अलावा पीलीभीत के जंगलों में आते हैं। झुंड अलग-अलग 13 और 7 की संख्या में आते हैं। नेपाल से इनके आने का रूट मोहाना नदी व कतर्निया घाट है। हाथी एक बार में चालीस किमी तक मूवमेंट करते हैं। इस दौरान वनों के कटान के कारण इनके भोजन के लिए पर्याप्त प्राकृतिक परिवेश नहीं मिल पाता जिससे यह फसलों को उखाड़ लेते हैं। भोजन कम होने और गर्भाधान की अवधि काफी लंबी होने के कारण इनकी संख्या में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो पा रही है। दरअसल पूरे देश में एशियाई मूल के लगभग 21000 हाथी हैं। इनके लिए 90 हजार वर्ग किलोमीटर का प्राकृतिक परिवेश चाहिए जो घटकर 62 हजार वर्ग किमी तक ही रह गया है। इसके अलावा एक और कारण दांतों के लिए हाथियों की तस्करी का भी है। अभी पिछले साल जिम कार्बेट पार्क में ही हाथी मारे गए थे जिसके शिकारी तमिलनाडु से आए थे। दुधवा नेशनल पार्क के उप निदेशक संजय पाठक कहते हैं कि दुधवा में तो हाथियों के लिए प्राकृतिक परिवेश है। नेपाल से जो हाथी यहां आते हैं उनके रूट पर ऐसे परिवेश की कमी हो रही है। दुर्लभ वन्य प्राणी परियोजना के अधिकारी मुकेश राजयादा यह मानते हैं कि प्रोजेक्ट एलीफैंट मैक्सीमाज पर और भी काम करने की जरूरत है, नहीं तो संकट गहरा सकता है। वन्य जीव विशेषज्ञ डॉ. वीपी सिंह कहते हैं कि अभी से न चेते तो हाथियों की भी बाघों जैसी हालत होने में देरी न लगेगी।


Saturday, April 23, 2011

होता ही रहेगा वन क्षेत्रों का सत्यानाश


पानी को तरसेगा दिल्ली-एनसीआर


दिल्ली-एनसीआर में पानी की गुणवत्ता जहां लोगों को डरा रही है, वहीं इसकी उपलब्धता भी एनसीआर प्लानिंग बोर्ड के लिए चिंता का विषय बन गई है। खासकर तब जबकि जल प्रबंधन के लिए बनाया गया क्षेत्रीय प्लान-2001 पैसे और कार्यनीति के अभाव में पूरी तरह बिखर गया है। अगले दस वर्षो में दिल्ली-एनसीआर में अकेले पानी के इंतजाम पर सालाना लगभग हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। इसमें कोताही हुई तो राजधानी को पानी के लिए तरसना पड़ सकता है। यमुना, हिंडन और काली नदियों से घिरी दिल्ली को पानी परेशान करने वाला है। यहां जल प्रबंधन के लिए ठोस काम नहीं हो रहा है। बढ़ते शहरीकरण ने राजधानी में भूजल के पुनर्भरण (रीचार्ज) में अवरोध खड़ा कर दिया है। एनसीआर प्लानिंग बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली-एनसीआर के महज 2.9 प्रतिशत क्षेत्र में भूजल रीचार्ज हो रहा है, जबकि जरूरत कम से कम पांच फीसदी की है। दूसरी तरफ वितरण के दौरान 30 से 50 फीसदी पानी का हिसाब-किताब आंकड़ों से गायब हो जाता है। इसे 15 फीसदी तक सीमित किए बिना पानी बचाना मुश्किल है। दिल्ली में फिलहाल प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति 225 लीटर पानी की उपलब्धता है, लेकिन एनसीआर क्षेत्र में मेरठ से लेकर पानीपत तक उपलब्धता आधी से भी कम है। एनसीआरपीबी का आकलन है कि 2021 तक दिल्ली एनसीआर में प्रतिदिन 11,984 मिलियन लीटर पानी की जरूरत होगी। भूजल रीचार्ज की पूरी व्यवस्था हो तो दिल्ली-एनसीआर में प्रतिदिन 1,816 मिलियन लीटर पानी रीचार्ज हो सकता है। अतिरिक्त पानी की उपलब्धता के लिए अगले दस वर्षो में हर साल लगभग हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। हालांकि आगामी 12वीं योजना अवधि के लिए केंद्र सरकार ने कमर कसनी शुरू कर दी है, परंतु पिछले अनुभव डरा रहे हैं। दरअसल, राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय पूरी तरह योजना फंड पर निर्भर होते हैं। ऐसे में केंद्र को ही पूरी जिम्मेदारी उठानी पड़ सकती है|

Friday, April 22, 2011

ऐसे तो बेपानी हो जाएगा बिहार


वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है..
वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है..तो यह सुनने में अच्छा ही लगता है कि बिहार में अभी भी प्रति व्यक्ति वार्षिक जल उपलब्धता 1170 वर्ग मीटर है। यानी अभी भी पानी सूबे में सामान्य मात्रा में उपलब्ध है और इसे सरप्लस भी माना जा सकता है। परंतु यह भी उल्लेखनीय है कि वर्ष 2001 में जल की यह उपलब्धता 1950 वर्ग मीटर प्रति व्यक्ति थी और जल्दी ही जलदोहन के विकल्प नहीं तलाशे गए अथवा जल प्रबंधन नहीं किया गया तो निश्चित तौर पर वर्ष 2020 तक सूबे में जल उपलब्धता की सीमा खतरे के निशान को पार कर जाएगी। प्रकृति विज्ञान के अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त विशेषज्ञ डॉक्टर अशोक कुमार घोष कहते हैं कि जनसंख्या विस्फोट के कारण आज हम अपनी धरती का करीब-करीब डेढ़ गुना दोहन कर रहे हैं और यदि हालात नहीं संभले तो आनेवाले वर्ष 2050 में हमें कम से कम सात पृथ्वी की आवश्यकता होगी। यानी हमें पृथ्वी में उपलब्ध संसाधनों का सात गुना दोहन करना पड़ेगा।

बिहार में जल उपलब्धता की वर्तमान स्थिति चिंताजनक है। इस चिंता के अनेक आयाम हैं। पहला यह कि सूबे में भूगर्भ जल के प्रति आश्रित रहने की प्रवृत्ति खतरनाक ढंग से बढ़ी है। पहले चापाकल और ट्यूबवेल केवल शहरों में ही सीमित थे। गांव के लोग कुएं के पानी से अपना काम चलाते थे। किसान आहर और पईन से अपने खेतों की सिंचाई करते थे। परंतु अब की स्थिति पूरी तरह बदल चुकी है। गांवों में भी कुओं ने दम तोड़ दिया है और इनकी जगह सरकारी और निजी चापाकलों की बाढ़-सी आ गई है। अधिकतर चापाकल पृथ्वी के पहले स्तर से ही भूगर्भ जल निकालते हैं। इस कारण अनेक समस्याएं पैदा हो रही हैं। सबसे पहली समस्या यह है कि पानी में आर्सेनिक व फ्लोराइड की मात्रा और प्रभावित क्षेत्र की सीमा बढ़ने लगी है। इसका दूसरा परिणाम यह हो रहा है कि अत्यधिक जल दोहन से धरती की ऊपरी परत कमजोर पड़ती जा रही है और उसकी जगह वायु के दबाव के कारण भूकंप की स्थिति बनती जा रही है। डॉक्टर घोष कहते हैं कि इस विषम स्थिति से बचने के लिए सबसे पहली आवश्यकता यह है कि धरती के ऊपरी स्तर से जल का दोहन कम से कम किया जाए। इसके लिए गहरे चापाकल और नलकूप तात्कालिक विकल्प हो सकते हैं। 

बिहार में आर्सेनिक प्रभावित जिलों की संख्या में इधर लगातार वृद्धि होती जा रही है। मसलन, वर्ष 2002 में केवल एक भोजपुर जिले में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य स्तर से अधिक पाई गई थी, जबकि वर्ष 2004 में पटना भी आर्सेनिक के शिकंजे में आ गया। वर्ष 2005 में वैशाली और भागलपुर जिले भी आर्सेनिक प्रभावित हो गए। वर्ष 2007 में किए गए जल परीक्षण में पाया गया कि भोजपुर, वैशाली, पटना और भागलपुर के अलावा सारण, बेगूसराय, खगड़िया आदि जिलों के पानी में आर्सेनिक की मात्रा खतरे की सीमा को पार कर गई। पिछले वर्ष यानी वर्ष 2010 में बिहार में आर्सेनिक प्रभावित जिलों की संख्या बढ़कर 22 हो गई है। यह एक गंभीर मामला है। गंभीर इसलिए कि आर्सेनिक की वजह से आम लोगों के स्वास्थ्य पर अत्यंत ही प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। आर्सेनिक प्रभावित जिलों में दूषित पानी पीने के कारण लोग असमय ही काल के गाल में समाए जा रहे हैं। जबकि सूबे के 16 जिले ऐसे हैं जहां आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से अधिक है। आर्सेनिक की वजह से जो रोग होते हैं, उनमें डर्मेटोलॉजिकल रेसपायरेटरी, कार्डियोवास्कुलर, हेपेटिक और कैंसर आदि शामिल हैं। 

हालांकि समस्या केवल आर्सेनिक से ही नहीं जुड़ी है। बिहार के गया, औरंगाबाद, जमुई, बांका, नवादा, कैमूर और रोहतास आदि जिलों में फ्लोराइड की मात्रा खतरनाक स्थिति में पहुंच चुकी है। सामान्य मात्रा से अधिक फ्लोराइड भी अनेक प्रकार के रोगों को जन्म देता है। डॉक्टर घोष बताते हैं कि बिहार में पानी की एक नहीं, अनेक समस्याएं हैं। सबसे बड़ी समस्या नदियों की है। सबसे दुखद बात यही है कि आबादी बढ़ने के साथ प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में तेजी आई है और अत्यधिक दोहन से पर्यावरण संतुलन बिगड़ गया है। पिछले एक दशक में बारिश में भी कमी आई है। इसके अलावा जो सबसे बड़ी समस्या है कि हम जितना पानी भूगर्भ से निकालते हैं, उतना पानी धरती को वापस नहीं दे पाते हैं। नतीजतन, भूगर्भ जल स्तर में लगातार कमी आती जा रही है। वर्ष 1984 और वर्ष 2004 में सेटेलाइट से ली गई तस्वीरों को गौर से देखें तो बिहार में तालाबों और नहरों की संख्या में चिंतनीय कमी आई है। भारत में लाइफलाइन समझी जाने वाली गंगा नदी की स्थिति तो और भी खराब है। जहां एक ओर इसका प्रवाह क्षेत्र सिकुड़ता जा रहा है, वहीं दूसरी ओर शहरीकरण के दौर में बड़ी मात्रा में अपशिष्ट पदार्थ प्रवाहित किए जाने से गंगा का पानी प्रदूषित हो चुका है। वर्तमान में केवल गंगोत्री, जहां से गंगा निकलती है, का पानी ही पीने योग्य रह गया है। वरना जैसे-जैसे गंगा बंगाल की खाड़ी की ओर आगे बढ़ती है, वह प्रदूषित होती चली जाती है। जहां तक पानी की उपलब्धता की बात है तो अभी यह कहा जा सकता है कि बिहार में पानी सरप्लस है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि घाघरा-गंडक और गंडक-कोसी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता में क्रमश: 43.4 और 37.8 प्रतिशत की कमी आई है। हालांकि बाढ़ आने के कारण कोसी क्षेत्र में पानी की उपलब्धता में 7.65 प्रतिशत की वृद्धि भी हुई है। बिहार में जल संकट की समस्याओं के निराकरण के सवाल पर डॉक्टर घोष कहते हैं कि इन सभी समस्याओं का एक ही इलाज है और वह इलाज है कुशल जल प्रबंधन। बरसात के पानी को समुचित तरीके से भंडारित किया जाए, ताकि बरसात का पानी बर्बाद न हो। इसके अलावा भूगर्भ जल पर आश्रित रहने की प्रवृत्ति का त्याग करनाभी आवश्यक होगा।

एक शपथ इस धरती के लिए


इस धरती पर जन्म लेना ही मनुष्य का सौभाग्य है। इस मां रूपी धरती के श्रंृगार को हम मनुष्य ही उजाड़ कर उसे बंजर बना रहे हैं। धरती मां के गहने माने जाने वाले हरे-भरे पेड़ पौधों को हमने उजाड़ दिया और इस पर मौजूद जल स्त्रोतों को हमने इस तरह दुहा है कि वे भी जल विहीन हो चले हैं। इसके गर्भ में इतने परीक्षण हम कर चुके हैं कि इसकी कोख अब बंजर हो चुकी है, लेकिन अब भी हम इसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं। अब भी हम यह नहीं सोच पा रहे हैं कि जब धरती ही नहीं रहेगी तो क्या हम किसी नए ग्रह की खोज करके वहां रहने चले जाएंगे! हम क्यों रोते है कि अब मौसम बदल चुका है और वैश्विक तापमान निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। आखिर इसके लिए कौन दोषी है? जब हम ही इसके लिए जिम्मेवार हैं तो फिर रोना किस बात का? हमारी पैसे की हवस ने, धरती जो कभी सोना उगला करती थी, केमिकल डाल-डाल कर बंजर बना दिया। फसल अच्छी लेने के लिए उसको बांझ बना दिया। इन कृत्रिम साधनों से जो उसका दोहन हो रहा है उससे हमने गुणवत्ता खो दी है। वैश्विक गर्मी या ग्लोबल वार्मिग दशकों से मानव जाति के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ रहा है। क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं या विनाश की शुरुआत हो चुकी है? क्या अभी भी हमारे पास चेतने और अपनी पृथ्वी तथा खुद अपने आपको बचाने का समय बचा है? जापान में आए विनाशकारी भूकंप और सुनामी से क्या हम कुछ सबक लेने को तैयार हैं। अन्यथा हम ऐसे ही धरती का अंधाधुंध दोहन करते रहेंगे। 22 अप्रैल, 1970 से धरती को बचाने की मुहिम अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू हो चुकी है, लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ सेमीनार आयोजनों तक ही सीमित है। वास्तविकता यही है कि पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल ही नहीं है। पृथ्वी दिवस एक ऐसा दिन है जो सभी राष्ट्रों की सीमाओं को पार करता है, फिर भी सभी भौगोलिक सीमाओं को अपने आप में समाए हुए है। सभी पहाड़, महासागर और समय की सीमाएं इसमें शामिल हैं। यह पूरी दुनिया के लोगों को एक मिशन के द्वारा बांधने में मददगार की भूमिका निभाता है। यह दिवस प्राकृतिक संतुलन को समर्पित है। पिछले कई वर्षो से दुनिया भर के ताकतवर देशों के कद्दावर नेता हर साल पर्यावरण संबंधित सम्मेलनों में भाग लेते आ रहे हैं, लेकिन आज तक कोई ठोस लक्ष्य तय नहीं किया जा सका है। पूरे विश्व में कार्बन उत्सर्जन की दर लगातार बढ़ रही है। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्षो में जैविक ईधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ा है और पृथ्वी का तापमान 0.8 डिग्री सेल्शियस बढ़ चुका है। अगर इस स्थिति में कोई सुधार नहीं आता तो सन 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं और अनुमान है कि यही दर कायम रही तो 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। सन 1870 के बाद से पृथ्वी की जल सतह 1.7 मिलीमीटर की दर से बढ़ रही है और अब तक 20 सेमी जितनी बढ़ चुकी है। इस दर से एक दिन मॉरीशस जैसे कई और देश और इसके निकटवर्ती तटीय शहर डूब जाएंगे। आर्कटिक समुद्र में बर्फ पिघलने से समुद्र के तट पर भूकंप आने से सुनामी का खतरा बढ़ जाएगा। पर्यावरण विनास का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया, लेकिन अब जबकि जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के रूप में दिख रहा है तो पूरी दुनिया सशंकित हो उठी है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि किसान यह तय नहीं कर पा रहे है कि वह कब अपने फसलों की बुवाई करें और कब इन फसलों को काटें। यदि तापमान में बढ़ोतरी इसी तरह जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा। इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। वैश्विक ताप के लिए जिम्मेदार कार्बन गैस को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान है क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल का और इसके बाद स्थान आता है कोयले का। कार्बन गैस का उत्सर्जन बढ़ाने के लिए जिम्मेदार कारकों में क्रूड ऑयल का हिस्सा 33.5 प्रतिशत है। इसमें से 19.2 प्रतिशत हिस्सा वाहनों को जाता है और इसके बाद 27.4 प्रतिशत हिस्सा कोयले का है। कोयला और क्रूड ऑयल का उत्पादन तथा उपयोग लगातार बढ़ रहा है और कार्बन गैस को बढ़ाने के लिए इनकी हिस्सेदारी 60 प्रतिशत तक है। भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह आगामी वर्षो में कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। यह एक बहुत बड़ा कदम होगा जिसे हासिल करना फिलहाल काफी मुश्किल दिख रहा है, लेकिन अगर हम सभी सामूहिक जिम्मेदारी से पृथ्वी को बचाने का संकल्प अपने मन में कर लें तो यह अवश्य संभव हो सकेगा। इसके अलावा हमें अपनी दिनचर्या में पर्यावरण संरक्षण को भी शामिल करना होगा। हमारी पृथ्वी की वर्तमान में जो हालत है अगर हम अभी भी अपनी बेहोशी से नहीं जागे तो समय हमें माफ नहीं करेगा। ज्वालामुखी, भूकंप, सुनामी, और भूस्खलन आदि तो इस पृथ्वी पीड़ा के प्रतीक हैं जो इस पृथ्वी को नेस्तानाबूद कर सकते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).