Saturday, June 30, 2012

2025 तक पानी को तरसेंगे मुंबई-दिल्ली


ठीक चौदह साल बाद दुनिया भर में देश की राजधानी दिल्ली और वाणिज्यिक राजधानी मुंबई में नगरपालिका के पानी के लिए सबसे अधिक त्राहि-त्राहि मची होगी। इन दोनों महानगरों में ना सिर्फ पानी की सर्वाधिक मांग होगी अपितु ये सबसे अधिक पानी की किल्लत का शिकार होंगे। विश्व के एक प्रमुख संस्थान ने यह दावा अपनी ताजा रिपोर्ट में किया है। मैकेंजी ग्लोबल रिपोर्ट के अनुसार सन् 2025 तक भारत समेत दुनिया के बीस देशों के शहरों में पानी की भारी किल्लत होगी। इतना ही नहीं पानी के लिए तरसने वाले शहरों की इस सूची में मुंबई और दिल्ली सबसे ऊपर हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि चौदह साल बाद ही इन सभी शहरों में नगरपालिका के पानी की करीब 80 अरब घन मीटर की मांग बढ़ जाएगी। जिसे पूरा कर पाना बहुत मुश्किल होगा। राजधानी दिल्ली अभी से ही पानी की भारी किल्लत से जूझ रही है। इसलिए दिल्ली और मुंबई में पानी के इस काले भविष्य के दावे को अनदेखा करना भी मुश्किल है। आने वाले सालों में भी ये दोनों शहर सप्लाई के पानी के लिए सबसे अधिक तरसते नजर आएंगे। रिपोर्ट के मुताबिक दिल्ली और मुंबई के अलावा अन्य भारतीय शहरों में भी नगरपालिका के पानी की सप्लाई के हालात ठीक नहीं होंगे। बीस शहरों की सूची में अन्य तीन शहरों का भी नाम शामिल है। कोलकाता पानी की किल्लत के मामले में दुनिया में 7वें स्थान पर, पुणे 12वें और हैदराबाद 16वें स्थान पर होगा। दिल्ली और मुंबई समेत दुनिया के जिन दस शहरों में नगरपालिका के पानी की सबसे अधिक किल्लत होगी उनमें शंघाई, गुंगझाऊ, बीजिंग, ब्यूनस आयर्स, खारतुम, ढाका और इंस्ताबुल शामिल हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि शहरी आबादी और आय बढ़ने के साथ ही रोजमर्रा की जिंदगी में पानी की खपत और मांग बढ़ती है। चूंकि भारत और चीन में बड़े पैमाने पर शहरीकरण हो रहा है इसलिए उपभोक्ताओं को बड़े पैमाने पर पानी की आवश्यकता पड़ेगी, जोकि उपलब्ध संसाधनों की क्षमता से परे हैं। मैकेंजी के अनुसार नगरपालिका के पानी की मांग 80 अरब घन मीटर तक बढ़ने वाले है जोकि न्यूयार्क में पानी की मौजूदा खपत का बीस गुना अधिक है। यह मात्रा बाकी दुनिया के मौजूदा स्तर से चालीस गुना अधिक है। अनुमान के अनुसार 2025 तक विश्व के बड़े शहरों में नगरपालिका के पानी की खपत 270 अरब घन मीटर प्रति वर्ष तक बढ़ जाएगी। ये खपत पूरी दुनिया में अभी करीब 190 अरब घन मीटर प्रति वर्ष ही है। रिपोर्ट में आगे ये भी कहा गया है कि नगरपालिकाओं को इसलिए अपने आधारभूत ढांचे को वृहद स्तर पड़ बढ़ाना होगा। जिसकी लागत 2025 तक 480 अरब अमेरिकी डॉलर होगी। इस व्यय में पानी के वितरण से लेकर दूषित जल के ट्रीटमेंट प्लांट तक शामिल है। पानी की इस भावी खपत में पचास फीसदी हिस्सेदारी अकेले पूर्वी और दक्षिणी एशिया की होगी।

पर्यावरण संरक्षण


विकास की राह पर सरपट भागने की होड़ में मनुष्य पृथ्वी पर अपने सहजीवियों को तेजी से नष्ट करता जा रहा है। समय-समय पर दुनिया से कुछ और जीवों के सदा के लिए विलुप्त होने की रिपोर्ट आती रहतीं हैं और हम सिर्फ घडि़याली आंसू बहाते हुए अफसोस जाहिर करते हैं। हालांकि बाद में फिर उन्हीं कामों में संलिप्त हो जाते हैं और यह सिलसिला चलता रहता है। दक्षिण अमेरिकी देश ब्राजील में राजधानी रियो में पिछले हफ्ते हुए रियो-20 पृथ्वी सम्मेलन के दौरान एक रिपोर्ट पेश की गई जिसमें बताया गया कि मेंढकों में एक और भारतीय प्रजाति के अलावा पेड़-पौधों की छह प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। भारत में मेंढक की जो प्रजाति सदा के लिए लुप्त हो गई है वह पत्तों में रहने वाला और हरे पत्तों जैसा दिखने वाला छोटा सा मेंढक। यह सूची यहीं नहीं खत्म हो जाती है, बल्कि विलुप्ति के कगार पर भारत के अभी 132 और जीवों का नाम है। इन लुप्तप्राय जीवों में स्तनधारियों की 10, चिडि़यों की 15, मछलियों की 14 और कछुआ, मेंढक तथा घडि़याल समेत 18 अन्य प्रजातियां शामिल हैं। इन जीव-जंतुओं के अलावा भारत में पेड़-पौधों की 60 किस्में ऐसी हैं जो धरती पर अपना वजूद बचाने के लिए संघर्ष कर रही हैं। आइयूसीएन ने अपनी रेड लिस्ट में चेतावनी जारी करते हुए बताया है कि पूरी धरती पर गिने गए 63,837 प्रजातियों में से 19,817 विलुप्त होने की कगार पर हैं। इनमें कुल उभयचरों में 41 फीसदी, मूंगों में 33 फीसदी और 25 फीसदी स्तनधारी प्राणी हैं। इनके अलावा पक्षियों में 13 फीसदी और शंकुवृक्ष में 30 फीसदी खतरे की निशान पर हैं। इस सूची से धरती पर जैविक विविधता घोर संकट में दिख रही है। पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम करने वाला इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजरवेशन ऑफ नेचर यानी आइयूसीएन दुनिया के सबसे पुराने और विशाल संगठनों में से एक है। पांच अक्टूबर 1948 को स्थापित आइयूसीएन का लक्ष्य एक ऐसी दुनिया का निर्माण करना है जहां मूल्यों और प्रकृति का संरक्षण बेहतर तरीकों से हो सके। वन्य जीवों और पेड़-पौधों के बारे में आइयूसीएन लगातार दुनिया को चेताती रही है, लेकिन ऐसा लगता है कि कोई भी देश सिवाय रस्म अदायगी के और कुछ नहीं करना चाहता है। भारत ही नहीं दुनिया के लगभग सभी देशों में वन्य जीवों के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। आइयूसीएन ने जो रेड लिस्ट जारी की है उससे विश्व की जैविक विविधता में अंतर को देखा जा सकता है। कुछ दिन पूर्व ही इक्वाडोर में एक विशालकाय कछुए की मौत के साथ ही पिंटा प्रजाति के कछुए की भी दुनिया से दुखद विदाई हो गई। हालांकि इस दक्षिण अमेरिकी देश के गलपागो राष्ट्रीय पार्क में इस कछुए के जरिये इसकी प्रजाति को बचाने की हरसंभव कोशिश की गई, लेकिन सफलता नहीं मिल सकी। गलपागो द्वीप में 19वीं शताब्दी तक कछुओं की अच्छी-खासी आबादी थी, लेकिन शिकारियों द्वारा मांस के लिए अंधाधुंध शिकार करने से इनकी संख्या अंगुलियों तक सिमट गई। रही-सही कसर बकरियों ने पूरी कर दी, क्योंकि इनके आने से कछुओं को रहने में दिक्कतें आने लगी। सौ साल से भी ज्यादा का वसंत देखने वाले इस विशालकाय कछुए को अब रासायनिक लेप के जरिये संजोकर रखा जाएगा। आस्ट्रेलिया का विश्व प्रसिद्ध ग्रेट बैरियर रीफ जिसे यूनेस्को ने वैश्विक धरोहर घोषित किया है पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। कोरल सागर में मछलियों के लगातार शिकार और तेल तथा गैस की खोज के कारण धरती के नीचे की यह रंगीन दुनिया भी तेजी से सिमटती जा रही है। आइयूसीएन की रेड लिस्ट में कहा गया है कि यूरोप में कुल स्थानीय तितलियों में 16 फीसदी संकट में हैं। वहीं चमगादड़ जो परागण करने में अहम भूमिका निभाता है वैश्विक स्तर पर 18 फीसदी खत्म होने की कगार पर है। दूसरी ओर गुनगुनाने वाली चिडि़या परिवार की चार चिडि़यों पर खतरा दिख रहा है जिसमें प्रमुख दक्षिण अमेरिका में पाई जाने वाली पिंक थ्रोटेड ब्रिलियंट चिडि़या है। परागण करने वाले चमगादड़ और चिडि़यों जैसी प्रजातियों की भूमिका बहुत अहम होती है ये लोग कीटों की संख्या को बढ़ने से रोकते हैं जो कीमती पौधों को नष्ट करते हैं। रेड लिस्ट में दुनिया को सचेत किया गया कि चीन और दक्षिण पूर्व एशिया में पाए जाने वाले सांपों में 10 फीसदी सांपों का अस्तित्व संकट में है। परंपरागत दवाइयों और विषरोधी दवा बनाने के लिए सांपों का अंधाधुंध प्रयोग किए जाने से उन पर भी गंभीर संकट है। अमेरिका समेत कई विकसित देशों में दवाइयों में वन्य प्रजातियों का जमकर प्रयोग किया जाता है। उभयचर प्राणी नई दवाइयों की खोज में अहम भूमिका निभाते हैं जो उनके विनाश के कारण बन रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार 70 हजार से ज्यादा पेड़-पौधों का इस्तेमाल परंपरागत और आधुनिक दवाइयों के लिए हो रहा है। हाथी दांत के लिए हाथियों का शिकार लंबे समय से हो रहा है लेकिन पिछले दो दशकों में शिकार में काफी तेजी आई है। द कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन डैंजर्ड स्पेसीज ऑफ वाइल्ड फॉन एंड फ्लोरा यानी सीआइटीईएस ने कई देशों की सरकारों द्वारा जमा की सूचना के आधार पर यह रिपोर्ट तैयार की है। एक आंकड़े के अनुसार पिछले साल अवैध हाथीदांत के 14 बड़े खेप पकड़े गए। पिछले 23 सालों में ऐसा पहली बार हुआ जब किसी एक साल में दोहरी संख्या में इन अवैध खेपों को पकड़ा गया। अंधाधुंध विकास के कारण भारत को खासा नुकसान उठाना पड़ रहा है, उसकी जैव विविधता खतरे में नजर आ रही है। एक रिपोर्ट के अनुसार जैव पारिस्थितिकी में आए संकट के लिए अवैध खनन, पेड़ आच्छादित जगहों की कमी और कंट्रीट के खड़े होते नए जंगल जिम्मेदार हैं। वन्यजीवों के रहने लायक जंगल न रहने से उनके अस्तित्व पर संकट है। न सिर्फ जीवों पर संकट है, बल्कि कई पेड़-पौधे भी धरती पर अपने जीवन के लिए संघर्षरत हैं। पर्यावरण मंत्रालय की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि गिर जंगल के प्रसिद्ध एशियाई शेर रायल बंगाल टाइगर और भारतीय गिद्ध विलुप्ति की कगार पर हैं। दर्द निवारक दवा डाइक्लोफेनेक इनके लिए काल साबित हो रही है। दरअसल ये मरे हुए मवेशियों का सड़ा हुआ मांस खाने को मजबूर हैं, जिनका कभी डाइक्लोफेनेक दवा से इलाज हुआ हो। इतना ही नहीं पश्चिमी घाट के मशहूर गहरे रंग वाले नीलगिरी बंदर और देशी मेंढक भी लुप्त होने के करीब पहुंच गए हैं। जंगल काटकर खेत बनाने और नदी व तालाब सूखा कर बड़ी-बड़ी बिल्डिगं बनाने की चाह रखने वाले देश यह नहीं सोचते कि जब जंगल और नदी-तालाब ही नहीं रहेंगे तो इन जगहों पर रहने वाले कहां जाएंगे? लगातार जंगल नष्ट होने के कारण वन्यजीवों पर रहने का संकट बना हुआ है जिससे उनकी आबादी में निरंतर गिरावट आ रही है। यूं तो पूरी दुनिया में विकास का पहिया तेजी से घूम रहा है पर हर देश विकास की अंधाधुंध दौड़ में उन चीजों को नष्ट करने पर तुले हुए हैं जो उनके पर्यावरण मित्र हैं। यह भी हास्यास्पद है कि पर्यावरण संरक्षण के नाम पर करोड़ों रुपये खर्च कर दिए जाते हैं, लेकिन इनका कोई परिणाम नहीं निकलता।

यूपी में सीवेज का जहर पीने को अभिशप्त नदियां


सभ्यता की पालनहार नदियों को प्रदेश में सीवेज रूपी गरल अरसे तक पीना पड़ेगा। वजह, सूबे की नदियों में गिरने वाले कुल सीवेज लोड के 40 फीसदी को ही शोधित करने की क्षमता फिलहाल उपलब्ध है। सीवेज शोधन संयंत्रों (एसटीपी) के निर्माण और सीवर लाइन बिछाने के भारी-भरकम खर्च से निपटने में संसाधनों की कमी आड़े आ रही है। कुछ स्थानों पर एसटीपी निर्माण के लिए जमीन का बंदोबस्त कर पाना प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। जो एसटीपी चालू हैं वे भी विभिन्न तकनीकी कारणों से अपनी क्षमता के अनुरूप सीवेज का शोधन नहीं कर पा रहे हैं। प्रदेश में नदियों के किनारे 54 नगर बसे हैं। इनमें 26 नगर गंगा, नौ यमुना, सात काली, तीन गोमती, दो-दो रामगंगा, घाघरा व सई तथा एक-एक ईसन, कोसी और राप्ती के किनारे हैं। इन 54 नगरों से 2934.92 एमएलडी सीवेज निकलता है। वहीं नदियों को प्रदूषणमुक्त करने के मकसद से प्रदेश में गंगा कार्य योजना के पहले और दूसरे चरण के तहत बनाए गए 33 एसटीपी की कुल सीवेज शोधन क्षमता सिर्फ 1193.85 एमएलडी है। यह नगरों से निकलने वाले कुल सीवेज लोड का सिर्फ 40 प्रतिशत है। नगरों का 60 फीसदी सीवेज लोड नदियों में यूं ही बहाया जा रहा है। प्रदेश में निर्माणाधीन 39 एसटीपी की कुल शोधन क्षमता भी 1370.05 एमएलडी ही है। इन 39 एसटीपी के बनकर चालू हो जाने पर भी प्रदेश में कुल सीवेज शोधन क्षमता 2563.9 एमएलडी ही रहेगी जो कि मौजूदा सीवेज लोड से भी कम है। जब तक नए एसटीपी बनकर तैयार होंगे तब तक सीवेज लोड और बढ़ जाएगा। जल निगम का आकलन है कि सन् 2025 तक इन नगरों का कुल सीवेज लोड 4264.27 एमएलडी हो जाएगा। सूबे के 630 नगरों में से 575 में सीवेज निस्तारण की समुचित व्यवस्था नहीं है। सिर्फ 55 नगर ही ऐसे हैं जिनमें सीवेज निस्तारण की आंशिक व्यवस्था है। सीवर सिस्टम न होने के कारण ज्यादातर नगरों में सीवेज को एसटीपी तक पहुंचाने में बरसाती पानी को बहाने के लिए बनाए गए नाले, नालियों का इस्तेमाल करना पड़ता है। इन नालियों की ढाल कम होती है जिससे कि सीवेज बहने पर यह अक्सर जाम हो जाते हैं। जल निगम का आकलन है कि प्रदेश के सभी नगरों में सीवेज निस्तारण की मुकम्मल व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए 350 अरब रुपये की दरकार है। इसके विपरीत अब तक महज 40 अरब की परियोजनाएं ही मंजूर जा सकी हैं। एसटीपी के निर्माण के लिए प्रदेश में कई स्थानों पर जमीन मिलने में भी दिक्कतें आ रही हैं। मसलन, वाराणसी में सथवा में 120 एमएलडी व 140 एमएलडी के दो एसटीपी के लिए तीन साल से जमीन नहीं मिल पा रही है, जबकि सीवेज को एसटीपी तक ले जाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर सीवर लाइन बिछाई जा चुकी है। वाराणसी के रमना क्षेत्र में प्रस्तावित 37 एमएलडी के एसटीपी का निर्माण कई वर्षों से प्रशासनिक गतिरोध का शिकार है। बलिया में भी जमीन न मिल पाने के कारण दो एसटीपी का निर्माण तीन वर्षों से अटका पड़ा है। यह स्थिति तब है जब वाराणसी और बलिया में प्रस्तावित एसटीपी के लिए जिलाधिकारी को प्रतिकर की धनराशि उपलब्ध कराई जा चुकी है। मुरादाबाद में एसटीपी के लिए चिन्हित जमीन को लेकर एक साल से विवाद चल रहा है। बिजनौर में एक और कन्नौज में दो एसटीपी बनाने के लिए जमीन का बंदोबस्त करने में प्रशासन को पसीने छूट रहे हैं। प्रदेश में अभी 33 एसटीपी संचालित हैं जिनकी उप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड नियमित तौर पर निगरानी करता है। इनमें से ज्यादातर विभिन्न कारणों से क्षमता के अनुसार सीवेज का शोधन नहीं कर पा रहे हैं। बोर्ड द्वारा हाल ही में किए गए परीक्षण में 22 एसटीपी के शुद्धीकृत सीवेज नमूनों में प्रदूषणकारी प्रचालक मानकों से अधिक पाए गए। उप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों के मुताबिक ज्यादातर एसटीपी के शुद्धीकृत उत्प्रवाह में कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा मानक से काफी ज्यादा पाई जाती है। यह कई जल जनित रोगों के लिए जिम्मेदार है। प्रदेश में 21 एसटीपी के संचालन का दायित्व जल निगम और 12 की स्थानीय निकायों के हाथ में है।

Saturday, June 23, 2012

यूपी में सीवेज का जहर पीने को अभिशप्त नदियां


सभ्यता की पालनहार नदियों को प्रदेश में सीवेज रूपी गरल अरसे तक पीना पड़ेगा। वजह, सूबे की नदियों में गिरने वाले कुल सीवेज लोड के 40 फीसदी को ही शोधित करने की क्षमता फिलहाल उपलब्ध है। सीवेज शोधन संयंत्रों (एसटीपी) के निर्माण और सीवर लाइन बिछाने के भारी-भरकम खर्च से निपटने में संसाधनों की कमी आड़े आ रही है। कुछ स्थानों पर एसटीपी निर्माण के लिए जमीन का बंदोबस्त कर पाना प्रशासन के लिए टेढ़ी खीर साबित हो रहा है। जो एसटीपी चालू हैं वे भी विभिन्न तकनीकी कारणों से अपनी क्षमता के अनुरूप सीवेज का शोधन नहीं कर पा रहे हैं। प्रदेश में नदियों के किनारे 54 नगर बसे हैं। इनमें 26 नगर गंगा, नौ यमुना, सात काली, तीन गोमती, दो-दो रामगंगा, घाघरा व सई तथा एक-एक ईसन, कोसी और राप्ती के किनारे हैं। इन 54 नगरों से 2934.92 एमएलडी सीवेज निकलता है। वहीं नदियों को प्रदूषणमुक्त करने के मकसद से प्रदेश में गंगा कार्य योजना के पहले और दूसरे चरण के तहत बनाए गए 33 एसटीपी की कुल सीवेज शोधन क्षमता सिर्फ 1193.85 एमएलडी है। यह नगरों से निकलने वाले कुल सीवेज लोड का सिर्फ 40 प्रतिशत है। नगरों का 60 फीसदी सीवेज लोड नदियों में यूं ही बहाया जा रहा है। प्रदेश में निर्माणाधीन 39 एसटीपी की कुल शोधन क्षमता भी 1370.05 एमएलडी ही है। इन 39 एसटीपी के बनकर चालू हो जाने पर भी प्रदेश में कुल सीवेज शोधन क्षमता 2563.9 एमएलडी ही रहेगी जो कि मौजूदा सीवेज लोड से भी कम है। जब तक नए एसटीपी बनकर तैयार होंगे तब तक सीवेज लोड और बढ़ जाएगा। जल निगम का आकलन है कि सन् 2025 तक इन नगरों का कुल सीवेज लोड 4264.27 एमएलडी हो जाएगा। सूबे के 630 नगरों में से 575 में सीवेज निस्तारण की समुचित व्यवस्था नहीं है। सिर्फ 55 नगर ही ऐसे हैं जिनमें सीवेज निस्तारण की आंशिक व्यवस्था है। सीवर सिस्टम न होने के कारण ज्यादातर नगरों में सीवेज को एसटीपी तक पहुंचाने में बरसाती पानी को बहाने के लिए बनाए गए नाले, नालियों का इस्तेमाल करना पड़ता है। इन नालियों की ढाल कम होती है जिससे कि सीवेज बहने पर यह अक्सर जाम हो जाते हैं। जल निगम का आकलन है कि प्रदेश के सभी नगरों में सीवेज निस्तारण की मुकम्मल व्यवस्था सुनिश्चित करने के लिए 350 अरब रुपये की दरकार है। इसके विपरीत अब तक महज 40 अरब की परियोजनाएं ही मंजूर जा सकी हैं। एसटीपी के निर्माण के लिए प्रदेश में कई स्थानों पर जमीन मिलने में भी दिक्कतें आ रही हैं। मसलन, वाराणसी में सथवा में 120 एमएलडी व 140 एमएलडी के दो एसटीपी के लिए तीन साल से जमीन नहीं मिल पा रही है, जबकि सीवेज को एसटीपी तक ले जाने के लिए करोड़ों रुपये खर्च कर सीवर लाइन बिछाई जा चुकी है। वाराणसी के रमना क्षेत्र में प्रस्तावित 37 एमएलडी के एसटीपी का निर्माण कई वर्षों से प्रशासनिक गतिरोध का शिकार है। बलिया में भी जमीन न मिल पाने के कारण दो एसटीपी का निर्माण तीन वर्षों से अटका पड़ा है। यह स्थिति तब है जब वाराणसी और बलिया में प्रस्तावित एसटीपी के लिए जिलाधिकारी को प्रतिकर की धनराशि उपलब्ध कराई जा चुकी है। मुरादाबाद में एसटीपी के लिए चिन्हित जमीन को लेकर एक साल से विवाद चल रहा है। बिजनौर में एक और कन्नौज में दो एसटीपी बनाने के लिए जमीन का बंदोबस्त करने में प्रशासन को पसीने छूट रहे हैं। प्रदेश में अभी 33 एसटीपी संचालित हैं जिनकी उप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड नियमित तौर पर निगरानी करता है। इनमें से ज्यादातर विभिन्न कारणों से क्षमता के अनुसार सीवेज का शोधन नहीं कर पा रहे हैं। बोर्ड द्वारा हाल ही में किए गए परीक्षण में 22 एसटीपी के शुद्धीकृत सीवेज नमूनों में प्रदूषणकारी प्रचालक मानकों से अधिक पाए गए। उप्र प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अधिकारियों के मुताबिक ज्यादातर एसटीपी के शुद्धीकृत उत्प्रवाह में कोलीफॉर्म बैक्टीरिया की मात्रा मानक से काफी ज्यादा पाई जाती है। यह कई जल जनित रोगों के लिए जिम्मेदार है। प्रदेश में 21 एसटीपी के संचालन का दायित्व जल निगम और 12 की स्थानीय निकायों के हाथ में है।

Friday, June 22, 2012

हरियाली की भरपाई में नीतिगत अड़ंगे


पर्यावरण पर मंडराते संकट को दूर करने के लिए हरियाली बढ़ाने की सरकारी कोशिशों के वांछित परिणाम नहीं मिल रहे हैं। यह विडंबना ही है कि विगत वर्षो में पौधरोपण के महत्वाकांक्षी लक्ष्यों को पूरा करने के बावजूद सूबे में हरियाली का दायरा सिकुड़ा है। विकास की भेंट चढ़ी हरियाली की भरपाई को राज्य के 550 करोड़ रुपये केंद्र के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के पास जमा हैं लेकिन कभी कानूनी बंदिशों तो कभी नीतिगत अड़चनों से इसका समुचित इस्तेमाल नहीं हो पा रहा है। कानूनी बंदिशें व नीतिगत अड़चनें : राजमार्गो को चौड़ा करने व अन्य विकास कार्यो के नाम पर बीते दस वर्षो में सूबे में लाखों पेड़ों पर आरी चला दी गई लेकिन उजाड़ी गई हरियाली की भरपाई की मुहिम कानूनी और नीतिगत पेचीदगियों में उलझकर रह गई है। विकास परियोजनाओं के लिए विकासकर्ता विभाग वन संरक्षण अधिनियम, 1980 के तहत पर्यावरण एवं वन मंत्रालय से वन भूमि हस्तांतरण की अनुमति लेता है। उसे जमीन की वर्तमान कीमत के साथ दोगुने क्षेत्रफल पर पौधरोपण और उसके रखरखाव का खर्च अदा करना पड़ता है। वर्ष 2002 से विकास परियोजनाओं के लिए ली गई वन भूमि के एवज में विकासकर्ता विभागों द्वारा जमीन और पौधरोपण के लिए दी गई धनराशि सुप्रीम कोर्ट के निर्देश पर पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा गठित क्षतिपूरक वृक्षारोपण प्रबंध एवं योजना संस्था (कैम्पा) के पास जमा की जा रही थी। कैम्पा के खाते में यूपी के करीब 550 करोड़ रुपये जमा हैं लेकिन हरियाली की भरपाई के लिए इस धन का इस्तेमाल नहीं हो सका। सुप्रीम कोर्ट ने एक याचिका पर वर्ष 2009 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय को निर्देश दिया कि वह राज्यों की धनराशि वापस कर दें। धन के इस्तेमाल के लिए राज्यों में कैम्पा का गठन किया जाए। सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुपालन में 12 अगस्त 2010 को सोसायटी के रूप में यूपी क्षतिपूरक वनीकरण निधि प्रबंध एवं नियोजन प्राधिकरण (यूपी कैम्पा) का पंजीकरण हुआ। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने यूपी कैम्पा को 2009-10 के लिए 47 करोड़ रुपये और 2010-11 के लिए 35 करोड़ रुपये जारी किए। कैम्पा के गठन में राज्य सरकार की लापरवाही के कारण यह राशि भी एक साल बाद मिली। राज्य सरकार इसका इस्तेमाल भी नहीं कर पाई थी कि 25 जनवरी 2012 को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयंती नटराजन की अध्यक्षता में हुई बैठक में यह फैसला हुआ कि यूपी में कैम्पा का गठन प्राधिकरण के रूप में किया जाए तभी आगे की किस्तें जारी की जाएंगी। तब से अब तक वन विभाग यूपी कैम्पा को प्राधिकरण बनाने की औपचारिकता पूरी नहीं कर पाया है। उधर केंद्र सरकार ने भी आगे की किस्तें जारी करने से हाथ खींच लिए हैं। कम हुआ हरियाली का दायरा : सूबे में 2001-02 से 2011-12 तक 5,75,657 हेक्टेयर क्षेत्रफल पर 215.13 करोड़ पौधे रोपे जा चुके थे। इतने वृहद स्तर पर पौधरोपण के बावजूद प्रदेश में हरियाली कम हुई है। भारतीय वन सर्वेक्षण की वर्ष 2001 की रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड के अलग राज्य बनने के बाद यूपी के 8.8 प्रतिशत भौगोलिक क्षेत्रफल पर वृक्षावरण और वनावरण था। 2005 के दौरान यह बढ़कर 9.26 फीसदी हो गया लेकिन नई रिपोर्ट के मुताबिक 2011 में यह घटकर 9.01 प्रतिशत ही रह गया। पौधों की सुरक्षा भगवान भरोसे : प्रमुख वन संरक्षक जेएस अस्थाना के मुताबिक पौधरोपण के बाद दो वर्ष बाद तक तो पौधों की सुरक्षा की जाती है, मृत पौधों की जगह नए पौधे रोपे जाते हैं, इसके बाद संसाधनों के अभाव में उनका रखरखाव नहीं हो पाता। इससे रोपी गई हरियाली का बड़ा हिस्सा बर्बाद हो जाता है।

Wednesday, June 20, 2012

बाघों पर मंडराता खतरा


हाल ही में देश में बाघों की संख्या में कमी आने से इन्कार करते हुए सरकार ने कहा कि देशव्यापी स्तर पर बाघों की स्थिति के आकलन के दूसरे चरण से पता पता चला है कि बाघों की अनुमानित संख्या बढ़कर 1706 हो गई है। पर्यावरण राज्यमंत्री जयंती नटराजन के अनुसार देशव्यापी बाघ स्थिति आकलन का दूसरा चरण 2010 में पूरा हुआ है। वर्ष 2008 में बाघों की संख्या 1411 थी। हालांकि सरकार के इन दावों के बावजूद बाघों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पिछले दिनों सूचना के अधिकार के तहत बाघों की संख्या से संबंधित पूछे गए एक सवाल के जवाब में जानकारी मिली थी कि पिछले एक दशक में 337 बाघों की मौत हो चुकी है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पिछले दस साल में शिकार, संघर्ष, दुर्घटना, अधिक उम्र और कुछ अन्य कारणों की वजह से कुल 337 बाघों की मौत हुई। इस अवधि के दौरान 68 बाघ अवैध शिकार के कारण मारे गए। यह हाल तब है जब बाघ के संरक्षण के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित प्रोजक्ट टाइगर के तहत 17 राज्यों को 145 करोड़ रुपये की राशि जारी की गई। भारतीय वन्य जीव संस्थान की पिछले दिनों जारी एक रिपोर्ट से भी यह स्पष्ट हो गया था कि हमारे देश में अभी भी बाघों के शिकार की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। देश में बाघों की घटती संख्या के लिए अनियंत्रित शिकार तथा मानव-वन्य जीव संघर्ष जैसे कारक मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। वनों का नष्ट होना भी बाघों की मौत का कारण बन रहा है। 11 बाघ अभयारण्यों में वन क्षेत्र तेजी के साथ कम हुआ है। आश्चर्यजनक यह है कि पिछले कुछ सालों में ही देश के 728 वर्ग किलोमीटर भू-भाग से वन समाप्त हो चुके हैं। हमारे देश का वन क्षेत्र कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20.60 फीसदी है। इसमें यदि अन्य वृक्षों को भी शामिल कर लिया जाए तो यह 23.4 फीसद बैठता है। हमारे देश में तेजी से जंगलों का क्षरण हो रहा है। जब बाघ का प्राकृतिक वास जंगल नष्ट होने लगता है तो वह अपने प्राकृतिक वास से बाहर निकल आता है और आस-पास स्थित खेतों एवं गांवों में घरेलू पशुओं और लोगों पर हमला बोलता है। इस तरह की घटनाओं के कारण बाघों के विरुद्ध गांव वालों का गुस्सा बढ़ता है और यह बाघों की हत्याओं के रूप में सामने आता है। यह मानव-वन्य जीव संघर्ष ही विभिन्न तौर-तरीकों से हमारे पारिस्थितिक तंत्र पर गहरा प्रभाव डालता है। इसके अतिरिक्त बाघ की खाल तथा हड्डियां प्राप्त करने के लिए तस्कर इनकी हत्याएं करते हैं। पिछली शताब्दी के प्रारंभ में हमारे देश में बाघों की संख्या लगभग चालीस हजार थी, लेकिन 1972 में हुई गणना में बाघों की संख्या मात्र 1827 रह गई। 1969 में इंटरनेशनल यूनियन फार कंजरवेशन आफ नेचर एण्ड नेचुरल रिसोर्स (आईयूसीएन) की एक सभा में वन्य जीवन पर मंडराते खतरे के मद्देनजर अनेक कदम उठाए गए। इसके बाद 1970 में बाघों के शिकार पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाया गया और 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। इसी समय बाघों के संरक्षण के लिए किसी ठोस योजना के अस्तित्व पर विचार किया गया और 1973 में प्रोजक्ट टाइगर के रूप में यह योजना सामने आई। इस तरह बाघों के संरक्षण के लिए अनेक बाघ संरक्षित क्षेत्र बनाए गए। पैरियार और कार्बेट नेशनल पार्क में प्रोजेक्ट टाइगर योजना काफी सफल रहीं, लेकिन अधिकांश जगहों पर यह योजना अधिक सफल नहीं हो पाई और सरिस्का एवं रणथंभोर अभयारण्यों में बड़ी संख्या में बाघों के गायब होने की घटनाएं प्रकाश में आईं। आज जरूरत इस बात की है कि हम बाघों को बचाने के लिए कारगर नीतियां बनाएं, नहीं तो वन्य जीवन पर मंडराता यह खतरा हमारे अस्तित्व के लिए भी संकट का कारण बन जाएगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) भारत में बाघों के अवैध शिकार पर रोहित कौशिक की टिप्पणी 

Tuesday, June 19, 2012

गंगा मांग रही इंसाफ


गंगा बचाओ अभियान के तहत दिल्ली के जंतर-मंतर पर स्वामी स्वरूपानंद की अगुवाई में संत समाज का धरना-प्रदर्शन सरकार की संवेदनहीनता का नतीजा है। संत समाज एक अरसे से गंगा बचाओ अभियान छेड़ रखा है। वह गंगा को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ कड़े कानून की मांग कर रहा है। साथ ही सरकार से गंगा पर किसी तरह का बांध न बनाए जाने का ठोस आश्वासन भी चाहता है, लेकिन सरकार न तो कड़े कानून बनाने को तैयार है और न ही संत समाज को ठोस आश्वासन दे रही है। ऐसे में संत समाज का उद्वेलित होना स्वाभाविक है। स्वामी स्वरूपानंद ने 25 जुलाई से रामलीला मैदान में आंदोलन का ऐलान भी कर दिया है। गंगा भारतीय जन की आराध्य हैं। उनकी पवित्रता और निर्मलता पूजनीय है। उनका स्वच्छ-निर्मल जल अमृत है, लेकिन सरकार के नाकारेपन के कारण आज गंगा देश की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है। गंगा का निर्मल जल जहर बनता जा रहा है। प्रख्यात पर्यावरणविद और आइआइटी खड़गपुर से सेवानिवृत्त प्रोफेसर स्वामी ज्ञानस्वरूप सांनद (प्रो. जीडी अग्रवाल) ने भी गंगा विमुक्ति का अभियान छेड़ रखा है। पिछले दिनों सरकार की उदासीनता से आजिज आकर उन्होंने आमरण अनशन भी किया, लेकिन सरकार उनकी मांगों पर सकारात्मक रुख दिखाने के बजाय उनके साथ कठोरता का व्यवहार करती देखी गई। उनके अनशन को जबरन तुड़वाने के लिए पाइप के जरिये उन्हें तरल आहार दिया गया। सानंद के साथ सरकारी क्रूरता को देखकर जनमानस उद्वेलित हो उठा था। देश भर से सरकार के खिलाफ प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई थीं। भारतीय जनमानस चकित है कि आखिर सरकार गंगा को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए ठोस कदम क्यों नहीं उठा रही है। वह भी तब जब गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है। दिल्ली में संत समाज द्वारा छह प्रस्ताव पारित किया गया है, जिसमें मुख्य रूप से गंगा पर बन रहे बांधों को समाप्त करवाकर उनकी धारा अविरल बनाए रखने की बात कही गई है। लेकिन इसके लिए सरकार तैयार नहीं है। हालांकि सानंद की पहल पर ही सरकार को उत्तरकाशी क्षेत्र में लोहारी नागपाला पनबिजली परियोजना को मजबूरन रद करना पड़ा था। आज एक बार फिर संत समाज उसी रास्ते पर बढ़ता दिख रहा है। पर्यावरणविदों का भी मानना है कि अगर गंगा पर बन रही बिजली परियोजनाओं को बंद नहीं किया गया तो गंगा का कई सौ किलोमीटर लंबा क्षेत्र सूख जाएगा। गंगा पर बनाए जा रहे बांधों को लेकर संत समाज सरकार से दो टूक फैसला चाहता है, लेकिन सरकार की मंशा और नीयत साफ नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में जब राष्ट्रीय गंगा जल घाटी प्राधिकरण का गठन हुआ तो लोगों की उम्मीद बढ़ी कि गंगा सफाई अभियान तेज होगा, लेकिन सब हवा-हवाई साबित हुआ। गंगा सफाई को लेकर सरकार कितनी संवेदनहीन है, इसी से समझा जा सकता है कि राष्ट्रीय गंगा जल घाटी प्राधिकरण की बैठक और नदी सफाई अभियान की प्रतीक्षा करने के बाद उसके तीन गैर-सरकारी सदस्यों जिसमें मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त राजेंद्र सिंह, रवि चोपड़ा तथा आरएच सिद्दीकी शामिल हैं, ने इस्तीफा दे दिया है। जानना जरूरी है कि प्राधिकरण की स्थापना गंगा कार्ययोजना के दो चरणों की असफलता के बाद की गई थी। गंगा में विष का प्रवाह सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा प्रस्तुत करते हुए केंद्र सरकार ने विश्वास दिलाया था कि गंगा मिशन के तहत सुनिश्चित किया जाएगा कि वर्ष 2020 के बाद गैर-शोधित सीवर और औद्योगिक कचरा गंगा में न बहाया जाए। लेकिन इस दिशा में सरकार दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है। आज गंगा की दुगर्ति की मूल वजह सरकार की उदासीनता है। सरकार की ढुलमुल नीति के कारण ही सीवर और औद्योगिक कचरा बिना शोधित किए गंगा में बहाया जा रहा है। गंगा बेसिन में प्रतिदिन लगभग 825 करोड़ लीटर गंदा पानी बहाया जाता है। व‌र्ल्ड बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदूषण की वजह से गंगा नदी में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम हो रही है, जो मानव जीवन के लिए बेहद ही खतरनाक है। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरे को बहाने के कारण ही क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों की मात्रा गंगा में बढ़ती जा रही है। भयंकर प्रदूषण के कारण गंगा में जैविक ऑक्सीजन का स्तर 5 हो गया है, जबकि नहाने लायक पानी में यह स्तर 3 से अधिक नहीं होना चाहिए। गोमुख से गंगोत्री तक तकरीबन 2500 किलोमीटर के रास्ते में कालीफार्म बैक्टीरिया की उपस्थिति दर्ज की गई है, जो अनेक बीमारियों की जड़ है। अब गंगा के प्रदूषण को खत्म कराने के लिए अगर संत समाज ने मोर्चाबंदी तेज की है तो यह स्वागतयोग्य है। देश के नागरिकों को भी संत समाज का समर्थन करना चाहिए। जब तक आम जनमानस गंगा प्रदूषण के खिलाफ उठ खड़ा नहीं होगा, सरकार हीलाहवाली करती रहेगी। गंगा में प्रवाहित की जा रही गंदगी से जनजीवन नर्क होता जा रहा है। सरकार द्वारा गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए कई बार योजनाएं बनाई गई, लेकिन सब कागजों का पुलिंदा से अधिक कुछ साबित नहीं हुई। वर्ष 1989 में राजीव गांधी सरकार ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट योजना बनाई, लेकिन यह योजना जनसहभागिता के अभाव में दम तोड़ गई। आस्था और स्वार्थ का घालमेल अदालतों ने भी सरकार को बार-बार हिदायत देते हुए कई पूछा कि आखिर क्या वजह है कि ढाई दशक गुजर जाने के बाद और बहुत-सी कमेटियां और प्राधिकरण के गठन के बावजूद गंगा प्रदूषण की समस्या का कोई प्रभावी हल नहीं निकला है। सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है। पिछले दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर गंगा के किनारे दो किलोमीटर के दायरे में पॉलिथिन एवं प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे कानूनी प्रतिबंधों के दम पर गंगा को प्रदूषण से मुक्त किया जा सकता है? भारत एक धर्म प्रधान देश है और गंगा लोगों की आस्था से जुड़ी हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आस्था के नाम पर गंगा के साथ खिलवाड़ हो रहा है। आस्था और धर्म के घालमेल का ही नतीजा है कि गंगा के घाटों पर प्रत्येक वर्ष हजारों-हजार शव जलाए जाते हैं। दूर स्थानों से जलाकर लाई गई अस्थियां भी प्रवाहित की जाती हैं। क्या ऐसी आस्थाएं गंगा को प्रदूषित नहीं करती हैं? हद तो तब हो जाती है, जब गंगा सफाई अभियान से जुड़ी एजेंसियों द्वारा गंगा से निकाली गई अधजली हड्डियां और राख पुन: गंगा में उड़ेल दी जाती हैं। ऐसे में सफाई अभियान से किस प्रकार का मकसद पूरा होगा? जब तक आस्था और स्वार्थ के उफनते ज्वारभाटे पर नैतिक रूप से विराम नहीं लगेगा, गंगा को प्रदूषित होने से नहीं बचाया जा सकता। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार गंगा सफाई अभियान को लेकर अपनी मंशा साफ करे। गंगा बचाओ अभियान से जुड़े संत समाज और स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ छल न करे। समझना होगा कि गंगा की निर्मलता और पवित्रता मानवजीवन के लिए संजीवनी है, लेकिन सरकार की निगाह में गंगा महज बिजली पैदा करने का संसाधन भर है। अब समय आ गया है कि गंगा बचाओ अभियान को जनआंदोलन का रूप दिया जाए। इसके लिए समाजसेवियों बुद्धिजीवियों और संत समाज सभी को एक मंच पर आना होगा। गंगा प्रदूषण की समस्या के निराकरण को सरकार की छलावा भरी हामी पर नहीं छोड़ा जा सकता। याद होगा, अभी पिछले साल ही गंगा के किनारे अवैध खनन के खिलाफ आंदोलनरत 34 वर्षीय निगमानंद को अपनी आहुति देनी पड़ी थी। सुखद यह है कि संत समाज दिल्ली कूच कर गया है। सरकार को अब ठोस वादे करने ही होंगे। गंगा भारतीय जन-मन-गण की आस्था है और उसके साथ तिजारत नहीं की जा सकती। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

आमजन भी दें संतों का साथ


गंगा को बचाने के लिए संत समाज के सैकड़ों साधु-संतों ने सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ दी है। दर्जनों संत दिल्ली के जंतर-मंतर पर गंगा को बचाने और सरकार की नींद खोलने के लिए धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया है। सवाल उठता है कि संत समाज का यह आंदोलन क्या वास्तव में सरकार की नींद तोड़ पाएगा या फिर पिछले आंदोलन की तरह यह भी बिना किसी नतीजे के दम तोड़ देगा। संतों का आरोप है कि मौजूदा समय में देश के अधिकतर कारखानों का कचरा नदियों में ही बहाया जा रहा है। सरकार सब कुछ जानते हुए भी कारखानों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती हैं। गंगा की रक्षा के लिए संत समाज ने सरकार से आरपार की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया है। गंगाा को बचाने एवं पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दिशा में सरकार की ओर से चलाई जा रही तमाम योजनाएं अव्यवस्थाओं के चलते दम तोड़ रही हैं। इसी बेरुखी का कारण है कि गंगा मैली होती जा रही है। पर्यावरण भी लगातार असंतुलित होता जा रहा है। दूषित पर्यावरण के कारण गंगा में पाए जाने वाले जीवों की कई प्रजातियां भी खत्म होने के कगार पर हैं। कोई 36 महीने पहले गंगा की रक्षा के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई में गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन किया गया था। इस योजना पर अब तक 23 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन योजना पर काम न के बराबर हुआ है। दुख की बात यह है कि योजना पर आज तक महज तीन ही बैठकें हुई हैं। दरअसल, इस योजना के लिए प्रधानमंत्री के पास वक्त ही नहीं है। पिछली तीन बैठकें भी आंदोलनकारियों के दवाब में ही हुई थीं। अगर सरकार ने इस आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया तो जंतर-मंतर पर शुरू हुआ संतों का अनिश्चितकालीन अनशन निश्चित ही सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। गत 15 जनवरी से वाराणसी में गंगा को बचाने के लिए अनशन कर रहे प्रो. गुरुदास अग्रवाल ने खुद आरपार की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया है। हालांकि खराब स्वास्थ्य के चलते वे इस वक्त एम्स में भर्ती हैं, लेकिन उनका आंदोलन लगातार जारी है। उनके सेवक वाराणसी के तट पर बैठे अनशन कर रहे हैं। गंगा और पर्यावरण का सीधा सरोकार आमजन से होता है। जल ही जीवन है और इसके बगैर जिंदगी संभव नहीं, लेकिन इसके अथाह दोहन ने जहां कई तरह से पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। दिन प्रतिदिन गहराते जा रहे जल संकट ने पूरी मानव जाति को हिला कर रख दिया है। कारखानों के कचरे के कारण गंगा का पानी इतना गंदा हो गया कि वह आचमन के भी लायक भी नहीं है। पेय जल के विकल्प के तौर पर कुछ साल पहले सरकार ने जलाशयों को बनाने का निर्णय लिया था, जिसमें हजारों एकड़ वनों की कटाई की गई और काफी संख्या में आवासीय बस्तियों को उजाड़ा गया। लेकिन यह योजना भी पूरी तरह से विफल साबित हुई। देश के 76 विशाल और प्रमुख जलाशयों की जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग द्वारा 10 जनवरी 2007 तक के तालाबों की जल क्षमता के जो आंकड़े दिए हैं, वे बेहद गंभीर हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक 20 जलाशयों में पिछले दस वर्षो के औसत भंडारण से भी कम जल का भंडारण हुआ है। दिसंबर 2005 में केवल छह जलाशयों में ही पानी की कमी थी, जबकि फरवरी की शुरुआत में ही 14 और जलाशयों में पानी की कमी हो गई है। इन 76 जलाशयों में से जिन 31 जलाशयों से विद्युत उत्पादन किया जाता है, पानी की कमी के चलते विद्युत उत्पादन में लगातार कटौती की जा रही है। जिन जलाशयों में पानी की कमी है, उनमें उत्तर प्रदेश के माताटीला व रिहंद बांध, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राणा प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय शामिल हैं। चार जलाशय तो ऐसे हैं, जिनमें लगामार पानी कम हो रहा है। समय रहते अगर इस संवेदनशील मुद्दे पर विचार नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल, विद्युत और न जाने कौन-कौन सी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा, जिनसे निपटना सरकार और प्रशासन के साम‌र्थ्य की बात नहीं रह जाएगी। आज नदियों की निर्मलता को पुनस्र्थापित करने की हम सबके सामने चुनौती है। आमजन भी संतों के आंदोलन में साथ दे तो इस दिशा में काफी सुधार हो सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Friday, June 1, 2012

दुनिया के 50 फीसद बाघ भारत में


दुनिया भर में बाघों की आधी से भी अधिक आबादी भारत में रहती है और ताजा सरकारी आंकड़ों से पता चला है कि देश के अभयारण्यों में बाघों की संख्या में इजाफा हुआ है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के मुताबिक देशव्यापी स्तर पर बाघों की संख्या के लिए कराए गए एक सर्वे से पता चला है कि बाघों की संख्या बढ़ रही है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण के 28 मार्च 2011 को जारी आंकड़े बताते हैं कि बाघ की अनुमानित संख्या 1706 है। यह संख्या कम से कम 1571 और अधिक से अधिक 1875 हो सकती है। प्राधिकरण के ये आंकड़े देश के 17 राज्यों में बाघों की आबादी पर आधारित हैं। 2008 में बाघों की संख्या 1411 थी। इस साल बाघों की गणना में शिवालिक गंगा मैदानी इलाके, मध्य भारत, पूर्वी घाट, पश्चिमी घाट, पूर्वोत्तर की पहाडि़यां, ब्रहमपुत्र का मैदानी इलाका और सुंदरबन शामिल किए गए। भारतीय वन्यजीव संरक्षण सोसाइटी ने बताया कि शिवालिक गंगा मैदानी इलाके में बाघ 5000 वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में रह रहे हैं और उनकी अनुमानित संख्या 297 है। मध्य भारत में लगभग 451 बाघ 47 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक इलाके में रहते हैं। पूर्वी घाट में 15000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में बाघ रह सकते हैं लेकिन अनुमान है कि साढे़ सात हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक इलाके में लगभग 53 बाघ रह रहे हैं। पश्चिम घाट में बाघ 21 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक इलाके में रहते हैं और उनकी अनुमानित संख्या 366 है। पूर्वोत्तर के पहाड़ी इलाके और ब्रहमपुत्र के मैदानी इलाके में बाघा 42 हजार वर्ग किलोमीटर से अधिक क्षेत्र में रह रहे हैं। यहां रहने वाले बाघों की संख्या को लेकर अलग अलग आंकडे़ हैं। पर्यावरण एवं वन मंत्री जयंती नटराजन ने कहा है कि बाघ रिजर्व में विशेष बाघ सुरक्षा बल का गठन करने और वन संरक्षकों को हथियार मुहैया कराने के लिए केंद्र सरकार राज्यों की सहायता कर रही है। जयंती ने बताया कि आंध्रप्रदेश सरकार ने अप्रैल 2012 को कवल बाघ रिजर्व अधिसूचित किया जो देश का 41वां बाघ रिजर्व है। राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड की 18 मार्च 2010 को हुई बैठक में खनन, ताप एवं पन बिजली बांध जैसी बड़ी विकास परियोजनाओं के बारे में चर्चा की गई, जो बाघों के रहने वाले स्थानों पर चल रही हैं। वन्यजीव संरक्षण सोसाइटी के अनुसार पिछले दस साल में हजारों वर्ग किलोमीटर वनक्षेत्र ऐसी परियोजनाओं के लिए बर्बाद कर दिया गया। इस तरह की परियोजनाओं का भारत में बाघ संरक्षण को लेकर किए जा रहे उपायों पर प्रतिकूल असर हो सकता है।

पवरे के नाम पर मलिन न हो गंगा


गंगा दशहरा- यानी ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, तिथि दशमी और नक्षत्र हस्त। भगवान बाबा श्री काशी विनाथ की कलशयात्रा का पवित्र दिन! कभी इसी दिन बिंदुसर के तट पर राजा भगीरथ का तप सफल हुआ। पृथ्वी पर गंगा अवतरित हुई। ग अव्ययं गमयति इति गंगायानी जो स्वर्ग ले जाये, वह गंगा है। पृथ्वी पर आते ही सबको सुखी, समृद्ध व शीतल कर दुखों से मुक्त करने के लिए सभी दिशाओं में विभक्त होकर सागर में जाकर पुन: जा मिलने को तत्पर एक विलक्षण अमृत प्रवाह ! भगवान विष्णु के वामनावतार स्वरूप के बायें अंगूठे को धोकर ब्रrा के कमंडल में रखा पवित्र जल!
शिव जटा के निचोङ़ने से निकली तीन धाराओं में एक- जो अयोध्या के राजा सगर के शापित पुत्रों को पुनर्जीवित करने राजा दिलीप के पुत्र, अंशुमान के पौत्र और श्रुत के पिता राजा भगीरथ के पीछे चली और भागीरथी के नाम से प्रतिष्ठित हुई। जो अलकापुरी की तरफ से उतरी, वह अलकनंदा और तीसरी धारा भोगावती पातालगामिनी हो गई। विष्णुगंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी ने अलकनंदा के साथ मिलकर क्रमश: चार प्रयाग बनाये- विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग और रुद्रप्रयाग। देवप्रयाग के नामकरण वाले पांचवे प्रयाग का निर्माण स्वयं अलकनंदा और भागीरथी ने मिलकर किया। उल्लेखनीय है कि जब तक अन्य धाराएं अपने- अपने अस्तित्व की परवाह करती रहीं उतनी पूजनीय और परोपकारी नहीं बन सकीं, जितना एकाकार होने के बाद गंगा बनकर हो गई। पंच प्रयागों में प्रमुख देवप्रयाग के बाद गंगा बनकर बही धारा ने ही सबसे ज्यादा ख्याति पाई। अंतत: भागीरथी उद्गम पर्वत से ही दूसरी ओर उतरी गंगा की बड़ी बहन यमुना ने भी बड़प्पन दिखाया और मार्ग में एकाकार हो गईं। बड़प्पन ने यश पाया। इलाहाबाद, अद्वितीय संगम की संज्ञा से नवाजा गया। इतिहास गवाह है कि गंगा की स्मृति छाया में सिर्फ लहलहाते खेत या समृद्ध बस्तियां ही नहीं, बल्कि वाल्मीकि का काव्य, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक-अकबर-हर्ष जैसे सम्राटों का पराक्रम तथा तुलसी, कबीर, रैदास और नानक की गुरुवाणी- जैसे चित्र अंकित है। गंगा किसी धर्म, जाति या वर्ग विशेष की न होकर, पूरे भारत की अस्मिता और गौरव की पहचान बनी रही है। हरिद्वार, देवभूमि का प्रवेश द्वार बना रहा। गंगा किनारे की काशी इस पृथ्वीलोक से अलग लोक मानी गई। उसी की तर्ज में उत्तर हिमालय में उत्तर की काशी- उत्तरकाशी स्थापित हुई। गंगा किनारे के तक्षशिला, नालन्दा, काशी और इलाहाबाद विविद्यालयों ने जो ख्याति पाई, भारत का कोई अन्य विविद्यालय आज तक उनका दशांश भी हासिल नहीं कर सका है। गंगा किनारे न जाने कितने आंदोलनों ने प्राण अर्जित किये। भारत का कोई काल नहीं है जो गंगा को स्पर्श किए बिना अपना सर्वश्रेष्ठ पा सका हो। राष्ट्र की हर महान आध्यात्मिक विभूति ने गंगा से शक्ति पाई, यह कोरी कल्पना नहीं, ऐतिहासिक तथ्य है। इस अद्वितीय महत्ता के कारण ही भारत का समाज युगों-युगों से अद्वितीय तीर्थ के रूप में गंगा का गुणगान करता आया है-न माधव समो मासो, न कृतेन युगं समम्। न वेद सम शास्त्र, न तीर्थ गंगया समम्। लेकिन लगता है मां गंगा ने अपनी कलियुगी संतानों के कुकृत्यों को पहले ही देख लिया था, इसीलिए अवतरण से इंकार करते हुए सवाल किया था- मैं इस कारण भी पृथ्वी पर नहीं जाऊंगी क्योंकि मानव मुझमें अपने पाप, अपनी मलिनता धोयेंगे। मैं उसको धोने कहां जाऊंगी? तब भगीरथ ने उत्तर दिया था- हे माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुत्र की कामना से मुक्ति ले ली है, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं, वे आप द्वारा ग्रहण किए गये पाप को अपने अंग के स्पर्श और श्रमनिष्ठा से नष्ट कर देगे।
संभवत: इसीलिए गंगा रक्षा सिद्धांतों ने ऐसे परोपकारी सज्जनों को ही गंगा स्नान का हक दिया था। गंगा नहाने का मतलब ही है- सम्पूर्णता! जीवन में सम्पूर्णता हासिल किये बगैर गंगा स्नान का कोई मतलब नहीं। उन्हें गंगा स्नान का कोई अधिकार नहीं, जो अपूर्ण हैं। लक्ष्य से भी और विचार से भी। इसलिए किसी भी अच्छे काम के सम्पन्न होने पर हमारे समाज ने कहा- हम तो गंगा नहा लिये।
किंतु आज गंगा आस्था के नाम पर हम उसमें सिर्फ स्नान कर मलिनता ही बढ़ा रहे हैं। गंगा में वह सभी कृत्य कर रहे हैं, जिन्हे गंगा रक्षा सूत्र ने पापकर्म बताकर प्रतिबंधित किया था- मल मूत्र त्याग, मुख धोना, दंतधावन, कुल्ला करना, मैला फेंकना, बदन को मलना, स्त्री-पुरुष द्वारा जलक्रीडा करना, पहने हुए वस्त्र छोड़ना, जल पर आघात करना, तेल मलकर या मैले बदन गंगा में प्रवेश, गंगा किनारे मिथ्या भाषण, कुदृष्टि और अभक्तिक कर्म और अन्य द्वारा किए जाने को न रोकना। हमारे पास माघ मेला से लेकर कुंभ तक नदी के रूप में प्रकृति व समाज की समृद्धि के चिंतन-मनन के मौके थे लेकिन हमने इन्हें दिखावा, मैला और गंगा मां का संकट बढ़ाने वाला बना दिया। पौराणिक आख्यानों में भगवान विष्णु और तपस्वी जह्नु को छोड़कर और कोई प्रसंग नहीं मिलता, जब किसी ने गंगा को कैद करने का दुस्साहस किया हो किंतु कलियुग में अंग्रेजों के जमाने से गंगा को बांधने की शुरू हुई कोशिश को आजाद भारत ने आगे ही बढ़ाया है। दूसरी ओर मैले की मैली राजनीति इसे मलिन बना रही है। श्रद्धालु और कुछ न कर सकें, कम से कम गंगा दशहरा मनाने के नाम पर गंगा को मलिन न बनाने का संकल्प तो ले ही सकते हैं। आज गंगा की यही पुकार है। गंगा आज फिर सवाल कर रही है कि वह मानव प्रदत्त पाप से मुक्त होने कहां जाये? जिस देश, संस्कृति और सभ्यता ने अपनी अस्मिता के प्रतीकों को संजोकर नहीं रखा, वे देश, संस्कृतियां और सभ्यताएं मिट गईं। क्या भारत इतने बड़े आघात के लिए तैयार है? यदि नहीं, तो कम से कम मां गंगा की जन्मतिथि से ही सोचना शुरू कीजिए। संकल्प कीजिए कि हम-आप जो कर सकते है, उसे करें। गंगा रक्षा सूत्र की पालना हो, तभी गंगा दशहरा या ग्ांगा अवतरण तिथि का महात्म्य है अन्यथा अवतरण तिथि की ही तरह बन जायेगी एक दिन, गंगा मरण तिथि। क्या हमें स्वीकार है!