Monday, April 30, 2012
हमने ही जमा किये हैं कचरे के ढेर
Monday, April 23, 2012
यमुना की सफाई की सभी योजनाएं फेल
सरकार के गले की हड्डी बनी सीएजी ने अबकी बार यमुना सफाई की परियोजनाओं में सरकार को फेल घोषित कर दिया है। भारत के नियंत्रक व महा लेखा परीक्षक यानी सीएजी ने बड़े ही साफ शब्दों में सुप्रीम कोर्ट में कहा है कि दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में यमुना नदी में प्रदूषण रोकने के लिए चलाई जा रही सभी परियोजनाएं नाकाम हैं। वे नदी में प्रदूषण नियंत्रण काउद्देश्य पूरा नहीं कर रही हैं। इसके जवाब में केंद्र सरकार ने यमुना सफाई के लिए 19 वर्षों से की जा रही कवायद और 1306 करोड़ के खर्च का ब्योरा देते हुए कहा है कि जून 2012 तक यमुना एक्शन प्लान का दूसरा चरण भी पूरा हो जाएगा। हालांकि परियोजनाओं को लागू करने और नदी को प्रदूषण मुक्त करने की सारी जिम्मेदारी केंद्र ने राज्यों और स्थानीय एजेंसियों के सिर डाल दी है। यानि 19 साल, 13 सौ करोड़ और नतीजा शून्य। सीएजी और केंद्र सरकार ने ये बात यमुना सफाई पर सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने ताजा हलफनामे में कही हैं। कोर्ट के गत 27 फरवरी के आदेश का पालन करते हुए केंद्र सरकार, सीएजी और कुछ राज्य सरकारों ने हलफनामे दाखिल किये हैं। सुप्रीम कोर्ट पिछले 18 वर्षों से यमुना को प्रदूषण मुक्त करने की निगरानी कर रहा है। उत्तर प्रदेश सरकार का हलफनामा तो परियोजनाओं की अप टू डेट रिपोर्ट पेश करता है। जबकि सीएजी ने उन्हें नाकाम बताया है। सीएजी ने अपनी वर्ष 2000 की रिपोर्ट से लेकर 2011 -12 की भारत में जल प्रदूषण की रिपोर्ट तक का ब्योरा दिया है जो बताता है कि कुछ भी ठीक नहीं है। हलफनामे के साथ रिपोर्ट के अंश संलग्न किए गये हैं। सीएजी ने कहा है कि 2011-12 में जल प्रदूषण के परफार्मेंस आडिट (प्रदर्शन आंकलन) के मुताबिक दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश में चल रही परियोजनाएं यमुना में प्रदूषण रोकने के उद्देश्य को पूरा नहीं कर रही हैं। इससे पहले वर्ष 2000 में गंगा एक्शन प्लान के आडिट में सीएजी ने यमुना एक्शन प्लान की परियोजनाओं का भी आकलन किया था उस समय भी तीनों राज्यों की यही स्थिति थी। 2004 में सीएजी ने दिल्ली में यमुना की स्थिति का आंकलन किया। इस रिपोर्ट में यमुना की हालत गंभीर बताई गयी थी। 2011-12 की रिपोर्ट में सीएजी ने उत्तर प्रदेश में कानपुर, गाजियाबाद और लखनऊ की परियोजनाओं को फेल बताया है और गोमती, गंगा व हिंडन के पानी को बीमारियों का घर कहा है।
गंगा का गंभीर संकट
गंगा का अस्तित्व खतरे में है। वह भारतीय जन-गण-मन की आस्था, अध्यात्म व कृषि अर्थव्यवस्था की माता है। वह भारत का सांस्कृतिक प्रवाह है। दर्शन, भक्ति, योग और ज्ञान-विज्ञान का ढेर सारा सृजन गंगा के तट पर हुआ। वह मुक्तिदायिनी है, लेकिन वोटदायिनी नहीं। सो राजनीतिक एजेंडे से बाहर है। 861404 वर्ग किलोमीटर में विस्तृत गंगा क्षेत्र-बेसिन भारत की सभी नदियों के क्षेत्र से बड़ा है और दुनिया की नदियों में चौथा। 2525 किलोमीटर लंबा यह क्षेत्र देश के पांच राज्यों-उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड व पश्चिम बंगाल तक फैला हुआ है। गंगा तट पर सौ से ज्यादा आधुनिक नगर और हजारों गांव हैं। देश की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या गंगा क्षेत्र में रहती है। देश का 47 प्रतिशत सिंचित क्षेत्र गंगा बेसिन में है। पेयजल, सिंचाई का पानी और आस्था स्नान में गंगा की अपरिहार्यता है, लेकिन यही गंगा तमाम बांधों, तटवर्ती नगरों के सीवेज और औद्योगिक कचरे को ढोने के कारण मरणासन्न है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने गंगा बेसिन प्राधिकरण की बैठक में गंगा में रोजाना गिरने वाले 29,000 लाख लीटर कचरे पर चिंता व्यक्त की और कहा कि गंगा को बचाने का समय हाथ से निकल रहा है, लेकिन उन्होंने समय के सदुपयोग में सरकारी इच्छाशक्ति का कोई विवरण नहीं दिया। देश निराश हुआ है। प्रधानमंत्री बिना वजह ही समय का रोना रोते हैं। गंगा के जीवन मरण का प्रश्न अभी ही नहीं उठा। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में भी ऐसे ही सवाल उठे थे। उन्होंने 1979 में केंद्रीय जल प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को सर्वेक्षण का काम सौंपा था। उनके बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी की अध्यक्षता में फरवरी 1985 में केंद्रीय गंगा प्राधिकरण बना। 350 करोड़ के बजट प्रावधान थे। 14 जनवरी, 1986 को वाराणसी में गंगा एक्शन प्लान की घोषणा हुई। गंगा एक्शन प्लान (पहला चरण) 1990 तक पूरा करने की योजना थी। इसका समय 2001-2008 तक बढ़ाया गया। संसद की लोकलेखा समिति (2006) की रिपोर्ट में सरकारी कामकाज पर चिंता व्यक्त की गई। उत्तर प्रदेश और बिहार की अनेक योजनाएं अधूरी रहीं। गंगा एक्शन प्लान (दूसरा चरण) के लिए 615 करोड़ की स्वीकृतियां हुईं, 270 परियोजनाएं बनीं। उत्तर प्रदेश में 43 व पश्चिम बंगाल में 170 परियोजनाएं थीं। इसी तरह उत्तरांचल में 37 परियोजनाएं थीं। कुछ ही पूरी हुईं। भ्रष्टाचार व सरकारी तंत्र की ढिलाई से गंगा एक्शन प्लान फ्लॉप हो गया। गंगा असाधारण वरीयता का विषय है। अविरल और निर्मल गंगा राष्ट्र जीवन से जुड़ी असाधारण नदी है। गंगा को लेकर तमाम आंदोलन चले, आज भी चल रहे हैं। केंद्र इन्हें कर्मकांड की तरह लेता है, राज्य सरकारें भी इन्हें महत्व नहीं देतीं। अधिकांश आंदोलनकारी संगठन भी कोई प्रभाव नहीं डालते। राजनीतिक दलतंत्र वोट के हिसाब से सक्रिय होता है। व्यवस्था विनम्र आंदोलनों की अनदेखी करती है। कोई 14 बरस पहले एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट ने दुनिया की दस बड़ी नदियों के साथ गंगा के अस्तित्व को भी खतरा बताया था। प्रधानमंत्री को आज समय की कमी दिखाई पड़ रही है। राष्ट्रीय गंगा नदी बेसिन प्राधिकरण 20 फरवरी, 2009 में बना था। 24 सदस्यीय इस प्राधिकरण के अध्यक्ष स्वयं प्रधानमंत्री ही हैं। पर्यावरण, वित्त, नगर विकास, जल संसाधन, ऊर्जा, विज्ञान विभागों के केंद्रीय मंत्री, योजना आयोग के उपाध्यक्ष व गंगा प्रवाह वाले पांच राज्यों के मुख्यमंत्री इसके सदस्य हैं। आठ प्रमुख सदस्य अपने-अपने क्षेत्रों के प्रतिष्ठित सामाजिक कार्यकर्ता हैं। विश्व बैंक धन और तकनीकी ज्ञान की सहायता देने को तत्पर है। मूलभूत प्रश्न है कि प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले इस महाशक्तिशाली गंगा बेसिन प्राधिकरण ने चार साल में कुल जमा तीन बैठकों के अलावा क्या प्रगति की? क्या प्रधानमंत्री द्वारा समय की कमी बताना ही बैठक का मुख्य एजेंडा था? गंगा का संकट भारत की नई सभ्यता का संकट है। यह संस्कृतिविहीन राजनीति का भी संकट है। गंगा रुग्ण है, प्रतिपल मर रही है। यूरोप की टेम्स, राइन और डेन्यूब भी प्रदूषण का शिकार थीं। यूरोपवासियों ने उनके पर्यावरणीय महत्व को सर्वोपरिता दी। प्रदूषित नदियां राष्ट्रीय चिंता बनीं, सरकारों ने ठोस कार्यक्रम बनाए। नदियां प्रदूषण मुक्त हो गईं। हमारी गंगा न अविरल है, न जलमग्न और न ही निर्मल। गंगा बेसिन प्राधिकरण की बैठक में उत्तराखंड के मुख्यमंत्री ने गंगा का नहीं, बांधों का महत्व समझाया। गोमुख से लेकर ऋषिकेश और हरिद्वार में ही अविरल गंगाजल का अभाव है। उत्तर प्रदेश की गंगा में महानगरीय कचरा है। यमुना दिल्ली आदि नगरों का कचरा प्रयाग में मिलाती है। प्रयाग में अब औद्योगिक कचरे का संगम है। आगे पश्चिम बंगाल तक यही स्थिति है। प्रधानमंत्री की मानें तो राज्य सरकारें ही समुचित प्रस्ताव व प्रदूषणकारी उद्योगों के खिलाफ ठोस कार्रवाई न करने की गुनहगार हैं। राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड नाकाम है। सवाल यह है कि राज्य सरकारें अपना कर्तव्य पालन क्यों नहीं करतीं? उद्योगों को ट्रीटमेंट प्लांट लगाने के लिए बाध्य क्यों नहीं करतीं? नगर निकायों से सीवेज योजनाओं के प्रस्ताव क्यों नहीं लिए जाते? कानपुर नगर निगम ने गंगा के किनारे दूषित जल निस्तारण संग्रहण और ट्रीटमेंट का सुझाव बहुत पहले ही शासन को भेजा था, लेकिन सरकारें नगर निकायों के प्रस्तावों पर गौर नहीं करतीं। सीवेज ट्रीटमेंट पर तेज रफ्तार काम करते हुए गंगा, यमुना आदि में कचरा और गंदगी को डालने से रोका जा सकता है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले गंगा बेसिन प्राधिकरण की तर्ज पर राज्यों में भी मुख्यमंत्री की अध्यक्षता और गंगा तटवर्ती सभी नगरों के प्रमुखों, महापौरों की सदस्यता वाले प्राधिकरण गठित करने में कठिनाई क्या है? प्रश्न राष्ट्रीय नदी की अस्तित्व रक्षा का है। केंद्र राज्यों पर जिम्मेदारी डालकर अपने दायित्व से मुक्त नहीं हो सकता। राज्य अधिक धनराशि के प्रस्ताव भेजकर ही अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते। स्वामी सानंद संघर्षरत हैं। हिंदू जागरण मंच, सिटीजन फार वाटर डेमोक्रेसी, राष्ट्रीय पानी मोर्चा, रामदेव आदि अनेक संगठनों, सामाजिक कार्यकर्ताओं ने पहले भी आंदोलन किए हैं। वाराणसी में जनजागरण जारी है, लेकिन प्रधानमंत्री की अध्यक्षता वाले प्राधिकरण की बैठक किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंची। गंगा का अस्तित्व भारतीय संस्कृति और राष्ट्रभाव से जुड़ा हुआ है। गंगोत्री ग्लेशियर सिकुड़ रहा है, रास्ते में बांध हैं। नीचे हिंसक औद्योगिक सभ्यता। सरस्वती लुप्त हो गई, अब गंगा भी महाप्रयाण की तैयारी में हैं। भविष्य भयावह है, गंगाजल न अर्पण के लिए होगा, न तर्पण के लिए और न ही सिंचाई या विद्युत ऊर्जा के लिए। हम भारतवासी मरने के दिन भी दो बूंद गंगाजल नहीं पाएंगे। (लेखक उप्र विधान परिषद के सदस्य हैं) 1ी2श्चश्रल्ल2ी@Aंॠ1ंल्ल.Yश्रे
Monday, April 16, 2012
पिछले एक दशक में मरे 335 बाघ
देश के विभिन्न अभ्यारण्यों के भीतर और बाहर पिछले एक दशक में 335 से अधिक बाघों की मौत हुई। सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवाल के जवाब में यह जानकारी दी गई। जवाब में बताया गया, ‘‘पिछले दस साल में अन्य कारणों के अलावा शिकार, संघषर्, दुर्घटना और अधिक उम्र की वजह से कुल 335 बाघों की मौत हुई। इनमें सबसे अधिक 58 बाघ 2009 में मृत पाए गए। 2011 में 56 और 2007 व 2002 में 28-28 बाघ मृत पाए गए। प्रेस ट्रस्ट द्वारा मांगी गई जानकारी पर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार (एनटीसीए) ने बताया कि 2005 में शावकों सहित कुल 17 बाघ मृत पाए गए। 2003 और इस वर्ष जनवरी से मार्च के बीच 16-16 बाघ मृत पाए गए। जबकि 2006 में 14 बाघ मृत पाए गए। आंकड़ों के अनुसार 68 बाघ इस अवधि के दौरान अवैध शिकार के कारण मारे गए। अवैध शिकार के कारण वर्ष 2010 में सबसे ज्यादा 14 बाघों की मौत हुई। 2009 में इनकी संख्या 13, 2011 में 11, 2002 में नौ, 2007 और 2008 में छह- छह, 2006 में पांच, इस वर्ष जनवरी से मार्च तक तीन और 2004 में एक बाघ की मौत अवैध शिकार की वजह से हुई। इनके अलावा अन्य की मौत अधिक उम्र, भुखमरी, सड़क और रेल दुर्घटनाएं, करंट लगने और कमजोरी जैसे कारणों से हुई। दिलचस्प बात यह है कि तकरीबन बारह मामलों में बाघ के मरने की वजह मालूम नहीं हो सकी। 2003 में मारे गए दो बाघों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आज तक नहीं मिल पाई इसलिए इनकी मौत की वजह मालूम नहीं हो सकी। एनटीसीए से कहा गया था कि वह वर्ष 2002 से 2012 के बीच के दशक में विभिन्न अभ्यारण्यों में मारे गए बाघों की संख्या और उनकी मौत के कारणों की जानकारी मुहैया कराए। पर्यावरण और वन मंत्रालय के दिशानिर्देशों के अनुसार किसी भी बाघ के मरने पर उसके अवशेषों को तब तक डीप फ्रीजर में सुरक्षित रखा जाता है, जब तक कि स्वतंत्र दल उसकी मौत के कारणों का विश्लेषण न कर ले। प्रत्येक बाघ की मौत की घटना की गहन जांच की जाती है।
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