Saturday, July 14, 2012

तीसरे चरण में मेट्रो के लिए कटेंगे 16000 पेड़

मेट्रो के विस्तार से दिल्ली के पर्यावरण को बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। तीसरे चरण में मेट्रो की राह में आने वाले 16 हजार से अधिक पेड़ काटे जायेंगे। इन पेड़ों को काटने की अनुमति के लिए मेट्रो प्रशासन दिल्ली सरकार पर दबाव बनाये हुए है। इन पेड़ों में वन क्षेत्र में स्थित 446 पेड़ ऐसे हैं जिनके कटान पर सुप्रीम कोर्ट का प्रतिबंध है। वन विभाग आम जनता के हित की परियोजना के तर्क को ध्यान में रखते हुए बाकी पेड़ों के कटान की अनुमति देने को तैयार है लेकिन डीएमआरसी से ऐसी भूमि की मांग की है जहां नियमानुसार इन पेड़ों से दस गुना पेड़ लगाये जा सकें। अनुमति मिलने पर डीएमआरसी को प्रति पेड़ 28 हजार का भुगतान भी करना होगा। सरकार इन पेड़ों को काटने की अनुमति देने के लिए तैयार हो गई है। इस संबंध में एक प्रस्ताव तैयार कर मंजूरी के लिए उपराज्यपाल के पास भी भेजा गया है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बताया कि पेड़ काटने की अनुमति दिए जाने के संबंध में डीएमआरसी का पत्र उन्हें प्राप्त हुआ है। उन्होंने बताया कि इस संबंध में उन्होंने वन विभाग को उचित कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं। मेट्रो विस्तार के तीसरे चरण में तीन नये मेट्रो कोरीडोर कश्मीरी गेट से केंद्रीय सचिवालय, यमुना विहार से मुकुंदपुर तथा जनकपुरी से बोटेनिकल गार्डन तक बनाये जाने हैं। इन तीनों कोरीडोर की राह में लगभग 16 हजार ऐसे पेड़ आ रहे हैं जिन्हें काटना आवश्यक है। हालांकि दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन ने अपना सव्रे कर कुल 15838 पेड़ों की सूची वन विभाग को भेजी थी लेकिन वन विभाग ने जब मौके पर मुआयना किया तो डीएमआसी की सूची से लगभग एक हजार ज्यादा पेड़ मौके पर पाये गये हैं। इस प्रकार 16 हजार से अधिक पेड़ ऐसे हैं जिन्हें काटने की अनुमति देने के लिए मेट्रो प्रशासन दबाव बनाये हुए है। दिल्ली सरकार पेड़ों की कुर्बानी देने को सहमत हो गई है लेकिन अभी भी कई तकनीकी अड़चनें ऐसी हैं जिन्हें दूर किया जाना है। इस संबंध में मेट्रो प्रशासन ने एक पत्र दिल्ली सरकार को लिखा है। इन पेड़ों से होने वाली क्षति की प्रतिपूर्ति के लिए वन विभाग ने डीएमआरसी को ऐसी भूमि देने का आग्रह किया था जिस पर नियमानुसार इन पेड़ों के दस गुना डेढ़ लाख पेड़ लगाये जा सकें, क्योंकि एक पेड़ काटने पर दस पेड़ लगाने का नियम है। मेट्रो सूत्रों के अनुसार उक्त भूमि के लिए डीएमआरसी ने डीडीए से आग्रह किया था जिस पर डीडीए ने 70 हेक्टेयर भूमि तिलपट वैली में आवंटित की है। सूत्रों का कहना है कि उक्त भूमि पथरीली होने के कारण वन विभाग लेने को तैयार नहीं है। दिल्ली सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार जितने पेड़ काटे जायेंगे उनके बदले प्रति पेड़ 28 हजार रुपये की दर से क्षतिपूर्ति का भुगतान करना होगा। इस हिसाब से पेड़ों को काटने की अनुमति मिलने पर लगभग 50 करोड़ का भुगतान डीएमआरसी की ओर से वन विभाग को किया जायेगा। सूत्रों के अनुसार तिलपट वैली में भूमि पथरीली होने के कारण अब वन विभाग दिल्ली की अन्य वनभूमि पर ही डेढ़ लाख पेड़ लगाने पर सहमत है। सूत्रों के अनुसार वन विभाग की यह भी शर्त है कि जितने भी पेड़ काटे जायेंगे उन पेड़ों की लकड़ी श्मशान घाट में अंतिम संस्कारों में प्रयोग के लिए नगर निगम के हवाले की जायेगी। मेट्रो प्रशासन के सूत्रों के अनुसार तीसरे चरण में बनाये जाने वाले सभी नये कोरीडोरों में सर्वाधिक 6338 पेड़ जनकपुरी-बोटेनिकल गार्डन मेट्रो लाइन की राह में हैं जबकि 6030 पेड़ यमुना विहार-मुकुंदपुर लाइन पर हैं तथा 1468 पेड़ केन्द्रीय सचिवालय- कशमीरीगेट लाइन पर हैं। केंद्रीय सचिवालय से कश्मीरीगेट लाइन पर सर्वाधिक 977 पेड़ आईटीओ, दिल्लीगेट, जामा मस्जिद व लालकिला तक क्षेत्र में हैं। इनमें से 572 पेड़ों को काटने की अनुमति वन विभाग ने दे तो दी है। संबंधित फाइल मंजूरी के लिए उपराज्यपाल के पास गई है। 334 पेड़ कश्मीरी गेट के पास, 32 पेड़ मंडी हाऊस स्टेशन की शाफट के लिए, 13 पेड़ जनपथ स्टेशन बनाने के लिए तथा 112 पेड़ दिल्ली गेट पर यातायात डायवर्जन के लिए काटे जाने हैं। यमुना विहार-मुकुंदपुर मेट्रो लाइन की राह में आने वाले 6030 पेड़ों में सर्वाधिक 2307 पेड़ शालीमार बाग व भीकाजी के बीच हैं जबकि हजरत निजामुद्दीन से यमुनाविहार के बीच 2151 पेड़ हैं। इसके अलावा विनोद नगर डिपो बनाने के लिए 1758 पेड़ काटे जाने हैं जबकि भीकाजी से निजामुद्दीन तक 1340 पेड़ काटे जाने हैं। मुकुंदपुर से शालीमार के बीच कुल 376 पेड़ काटे जाने हैं। इनके काटने की अनुमति संबंधी फाइल उपराज्यपाल के पास भेजी जा चुकी है। जनकपुरी से बोटेनिकल गार्डन कोरीडेार की राह में आने वाले लगभग साढ़े छह हजार पेड़ों में सर्वाधिक 2942 पेड़ आरकेपुरम व कालकाजी के बीच हैं जबकि 1386 पेड़ जनकपुरी से एनएच 8 के बीच हैं। कालकाजी से दिल्ली बार्डर के बीच 623 पेड़ व आरएसएस से आरकेपुरम के बीच 507 पेड़ हैं। इस लाइन पर वसंत विहार से आरकेपुरम के बीच यह कोरीडोर वन क्षेत्र से होकर जायेगा जहां लगभग 446 पेड़ वनभूमि पर स्थित हैं। वन भूमि पर लगे पेड़ों के कटान पर सर्वोच्च न्यायालय का प्रतिबंध है। सर्वोच्च न्यायालय से अनुमति मिलने के बाद ही वन विभाग इनको काटने की अनुमति देगा। वन क्षेत्र की भूमि पर स्थित पेड़ों के अलावा बाकी सभी पेड़ों को काटने की अनुमति को लेकर अब कोई संशय नहीं है क्योंकि दिल्ली सरकार के एक आला अधिकारी ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त की है। उनका कहना है कि मेट्रो अब दिल्ली की जरूरत है तथा सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने के लिए मेट्रो का विस्तार आवश्यक है। सरकार की सैद्धांतिक सहमति के बावजूद पेड़ काटने की अनुमति मिलने में हो रही देरी से डीएमआरसी प्रशासन बेचैन है क्योंकि इससे परियोजनाओं को पूरा करने में भी देरी हो सकती है।

Thursday, July 5, 2012

घट रहा फसलों का उत्पादन


पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ने से अब मौसम चक्र भी प्रभावित होने लगा है। इसकी वजह से भारत जैसे कृषि प्रधान देश में मानसून का अनियमित हो जाना कृषि और कृषक समाज के हितों को व्यापक रूप से क्षति पहुंचाने वाला है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 21 प्रतिशत का योगदान देने वाली एक बड़ी कृषक आबादी खेती के लिए मानसून पर निर्भर रहता है। तापमान में महज एक प्रतिशत की वृद्धि गेहूं के उत्पादन को चार-पांच मिलियन टन कम कर देता है तथा बाकी उत्पादन भी 5 से 10 प्रतिशत तक प्रभावित होता है। कृषि के क्षेत्र में उत्पादन के स्तर पर हुए क्रांति ने जहां ग्लोबल वार्मिग को बढ़ाने में महती भूमिका निभाई है वहीं अब यह कृषि उत्पादकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ा है और मछली उद्योग से जुडे़ लाखों मछुआरों का धंधा भी चौपट हो रहा है। इस सदी के अंत तक यदि ग्लोबल वार्मिग की दर इसी प्रकार कायम रही तो अनुमान है कि समुद्र का जलस्तर चार से लेकर चालीस इंच तक बढ़ सकता है। जाहिर है इस विनाशलीला का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यदि समुद्र के जलस्तर में एक मीटर की भी बढ़ोतरी होती है तो इससे तटीय क्षेत्रों के सत्तर लाख लोग विस्थापित होंगे। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, ग्लेशियर पर जमे बर्फ का पिघलना, सूखा और बाढ़ की समस्या ऐसे मुद्दे हैं जो ग्लोबल वार्मिग की देन होंगे। हालांकि इन दुष्प्रभावों से संबंधित सामाजिक, आर्थिक, और जैविक नुकसान के मुद्दे अमूमन कम ही चर्चा में रहते हैं पर यह भी काफी महत्वपूर्ण है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रकृति के अंदर जैव विविधता पर पड़ने वाला नकारात्मक असर भी ऐसे ही मुद्दों में से एक है। औसतन 9.2 प्रतिशत स्तनधारी जीव-जंतु ग्लोबल वार्मिग के कारण प्रकृति से तारतत्म्य बैठाने के लिए अपने पलायन की गति को धीमी करने पर विवश है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि स्तनधारी जीव धीरे-धीरे वृद्धि करते हैं और इसमें उन्हें कई साल लगते हैं। इस तरह की वृद्धि के लिए उनका तेजी से विस्तृत भू-भाग क्षेत्र में फैलना आवश्यक होता है। पलायन की इस धीमी गति के कारण इन जीवों पर अस्तित्व का खतरा भी मंडरा रहा है। हालांकि 87 प्रतिशत जीव ऐसे हैं जिन्हें फैलने के लिए अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही साथ फिलहाल लगभग 39 प्रतिशत जीव-जंतु लगातार गर्म होती धरती में अनुकूल जलवायु दशा के अभाव के शिकार हैं। किसानों, मछुआरों और तटीय क्षेत्र की आबादी के साथ-सााथ सामाजिक-आर्थिक एवं जैव विविधता पर पड़ने वाले ग्लोबल वार्मिग के प्रभाव के लिए किसी निश्चित वक्त और मापदंड का इंतजार नहीं है, बल्कि ये अपना असर दिखाना शुरू कर चुके हैं। कार्बन उत्सर्जन से जुड़ी समस्याओं का निदान विकसित देश और विकासशील देशों के विकास संबंधी प्राथमिकताओं में फंसा हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया पर लगाम कसना उनके विकास संबंधी नीतियों पर कुठाराघात करने जैसा होगा। विकसित देश अपने हितों को किसी भी शर्त पर तिलांजलि देने के लिए तैयार नहीं हैं जबकि विकासशील देशों पर वह अपनी शर्त थोपना चाहते हैं। दुनिया भर में औसतन प्रति व्यक्ति उत्सर्जित होने वाली कार्बन दर का एक चौथाई प्रतिशत ही भारतीयों द्वारा उत्सर्जित किया जाता है। यहां तक कि भारत की दस प्रतिशत शहरी आबादी भी वैश्विक स्तर पर किए जाने वाले प्रति व्यक्ति औसत कार्बन उत्सर्जन दर से काफी कम कार्बन का उत्सर्जन करता है। ऐसी स्थिति में विकासशील देशों की एक बड़ी आबादी का हवाला देकर विकसित देशों द्वारा मनमाना शर्त थोपना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। वहीं विकासशील देश अधिक उपभोक्ता दर का हवाला देते हुए विकसित देशों को पहली जिम्मेदारी लेने की बात कर रहे हैं। हालांकि यह समस्या का समाधान नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो 2050 तक दुनिया की आबादी बढ़कर लगभग साढे़ नौ सौ करोड़ हो जाएगी। ऐसी स्थिति में दुनिया की समस्त आबादी के संदर्भ में एक जैसी उपभोक्ता दर की बात करना बेमानी होगा, क्योंकि यह पृथ्वी पर अत्यधिक दबाव डालने की बात होगी। जलवायु संकट की समस्या समाधान के लिए दुनिया के सभी छोटे-बडे़ देशों को अभी से गंभीर होना होगा और इस मसले को विनाशकारी चुनौती के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक और जैविक चुनौती के रूप में भी स्वीकार करना होगा।

बिगड़ते जलवायु चक्र की चिंता


इस साल अब तक मानसून की बारिश नहीं होने के कारण हाहाकार मचा है। उत्तर भारत में भीषण गरमी से जीव-जंतु से लेकर पशु-पक्षी, मनुष्य सभी बेहाल हंै तो खेती पर संकट के बादल दिख रहे है। जलवायु के बदलाव को लेकर की जा रही वैज्ञानिक भविष्यवाणियां सच साबित हो रही हैं और सर्दी, गर्मी व बरसात तीनों ही ऋतुओं की प्रकृति बदल चुकी है। मौजूदा समय में गर्मी और तापमान का सामान्य से ऊपर रहना और नित नए रिकॉर्ड बनाना जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की चेतावनी है। भारतीय मौसम विभाग की मानें तो 1901 के बाद से रिकॉर्ड किए गए अपने देश के दस सबसे गर्म सालों में से आठ पिछले दशक में दर्ज किए गए हैं। मौसम विभाग का यह भी कहना है कि 1993 के बाद से जितने भी बरस आए हैं उनमें एक को छोड़कर सभी का औसत तापमान सामान्य से ज्यादा रहा है। इससे एक बात तो साफ हो ही जाती है कि ग्लोबल वार्मिग की वजह से अपने देश के मौसम ने करवट लेनी शुरू कर दी है। यह असर हमें तब देखने को मिल रहा है जब यह कहा जा रहा है कि ग्लोबल वार्मिग का असर काफी आगे चलकर पता चलेगा या फिर इसका असर कभी-कभार ही देखने को मिलता है। चिलचिलाती गरमी, भयंकर बाढ़ और धरती से पानी की बूंद-बूंद चूस लेने वाले सूखे की वजह से देश को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। मौसम विभाग के इस खुलासे ने कुछ वैज्ञानिक अध्ययनों की इस आशंका की पुष्टि कर दी है कि इस सदी के अंत तक देश के मौसम का पारा 3 से 6 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ जाएगा। साथ ही मौसम के इस रूठे मिजाज की वजह से 22वीं सदी के आते-आते मानसून की बारिश में भी 15 से 50 फीसद तक का इजाफा हो जाएगा, लेकिन यह बारिश अगर किसी एक महीने में एक साथ हुई तो इससे खेती को भारी नुकसान हो सकता है। सूखे के बाद अचानक बाढ़ का खतरा पैदा हो सकता है। समस्या यह है कि ज्यादा बारिश के साथ-साथ गरमी की वजह से ग्लेशियर भी तेजी से पिघलने लगेंगे। इस वजह से समंदर का जलस्तर काफी बढ़ जाएगा, जिससे भूगोल भी बदल सकता है। इसका सबसे ज्यादा असर तो जंगली जीवों से भरे-पूरे सुंदरवन जैसे तटीय इलाकों पर पड़ेगा। दूसरी तरफ ग्लेशियरों के खत्म हो जाने की वजह से देश में गंगा जैसी बड़ी नदियों का अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा। सबसे ज्यादा असर खेती पर पड़ेगा। इस वजह से उन लाखों किसानों से उनकी रोजी-रोटी छिन जाएगी जो मौसम में आते इस बदलाव के कारण खुद को ढाल पाने में सक्षम नहीं है। सबसे खतरनाक बात तो यह है कि इस सदी के अंत तक अगर पारे का चढ़ना नहीं रुका तो खेती की पैदावार में 10 से लेकर 40 फीसद तक की गिरावट आ सकती है। साफ है कि ग्लोबल वार्मिग की सबसे ज्यादा कीमत किसी को चुकानी होगी तो वह कृषि क्षेत्र है, जबकि धरती के पारे को चढ़ाने में इसका योगदान सबसे कम है। इसका असर अभी से धान की फसल पर दिखाई देने लगी है। ग्लोबल वार्मिग का असर अब पूरी दुनिया पर दिख रहा है। ग्लोबल वार्मिग ने मौसम और जलवायु को काफी बदल दिया है। कहीं भीषण गरमी हो रही है तो कहीं भयंकर बाढ़ और चक्रवाती तूफान आ रहे हैं जिससे भारी तबाही मच रही है। संयुक्त राष्ट्र के जलवायु डाटा केंद्र की जलवायु निगरानी शाखा अनुसार पिछले तीन दशकों से ग्लोबल वार्मिग के अध्ययन के नतीजे हमारी धरती के लिए बहुत चौंकाने वाले रहे हैं। इस रिपोर्ट से विश्व के विभिन्न भागों में भारी बारिश एवं बाढ़, रिकॉर्ड गर्मी और गंभीर सूखे, हिमनदों एवं समुद्री बर्फ के पिघलने सहित मौसम में बदलाव की हाल की घटनाओं का उल्लेख किया गया है। ग्लोबल वार्मिग के कारण समुद्र के सतह का तापमान बढ़ने से तापमान में बढ़ोतरी हुई है। इससे हवा में भी नमी बढ़ी है, जिसने भारी हिमपात और तेज बारिश का आधार तैयार किया है। हिमालय की हिंदुकुश पर्वतमालाएं जैव विविधता की दृष्टि से दुनिया के लिए महत्वपूर्ण हैं। यह उत्तरी और दक्षिणी एशिया के बीच पारितंत्रीय बफर के रूप में काम करती है। यह पर्वतमाला मध्य एशिया और ज्यादातर एशिया और यूरेशिया में जीवन के मुख्य स्त्रोत जल संसाधन का घर है। यदि ग्लोबल वार्मिग से इसकी जलवायु बदलती है तो इसका दुष्परिणाम सारी दुनिया को झेलना पडे़गा। इसका असर खेती के फसल चक्र पर भी पड़ेगा और खाद्यान्न उत्पादन में भारी कमी आ सकती है। मौसम में बदलाव की यह मार कई रूपों में सामने आती है। इससे गरमी बढ़ती है और चक्रवाती तूफान आते हैं। तेजी से पिघलते ग्लेशियर भयंकर बाढ़ का कारण बन सकते हैं। समुद्र के बढ़ते जलस्तर की मार मछुआरों के जीवन संकट के रूप में सामने आएगा और तटीय क्षेत्रों पर खड़ी फसलें बर्बाद हो जाएंगी। इन विपरीत परिस्थितियों का असर खाद्यान्न उत्पादन पर भी पड़ता है। ग्लोबल ह्यूमेनेटोरियम फोरम, जिनेवा की एक रिपोर्ट के अनुसार इस तरह के बदलाव का प्रभाव 32 करोड़ 50 लाख लोगों पर पड़ रहा है। इसमें से हर साल तीन लाख 15 हजार लोगों की जान भुखमरी, बीमारी और मौसम की मार से जा रही है। हालत ऐसी ही बनी रही तो निश्चित ही आने वाले दिन अधिक विनाशकारी साबित होंगे। ऐसे कहर के शिकार सबसे ज्यादा गरीब ही होते हैं। विपदा खत्म होने के बाद अपना बचाव करने में साधनहीनता के कारण गरीब इस त्रासदी ेके शिकार बन जाते हैं या फिर विपदा के दौरान ही काल-कवलित हो जाते हैं। यह कुदरती कहर और कुछ नहीं, बल्कि आधुनिक विकास का नतीजा है। दुनिया के विकसित और विकासशील देश जिस तरह से धरती के प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करके अपने लिए ऐशो-आराम की सुविधाएं जुटा रहे हैं उससे वायुमंडल में कार्बन डाईआक्साइड और मीथेन की मात्रा तेजी से बढ़ रही है। इससे हमारे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ रहा है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा दुनिया की गरीब आबादी को ही झेलना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिग के प्रभावस्वरूप तटीय क्षरण हो रहा है जिससे खेतीयोग्य जमीनें कम हो रही हैं। भारत, बांग्लादेश और नेपाल के वन पर्यावरण बदलाव की सर्वाधिक मार झेलने वाले स्थान बन गए हैं और यहां का स्थानीय समुदाय इन बदलावों का शिकार हो रहा है। समुद्र का जलस्तर बढ़ने के कारण भारत के मैंग्रूव जंगलों वाले कई निर्जन टापू डूब गए हैं। विशेषज्ञों ने भविष्यवाणी की है कि मैंग्रूव वनों के दक्षिण-पश्चिमी भाग के एक दर्जन से ज्यादा टापू वर्ष 2015 तक अपनी जमीन का औसतन 65 प्रतिशत हिस्सा खो देंगे। इससे भी खराब बात है कि नदी के मुहानों पर खारेपन की बदलती प्रवृत्ति से अच्छी किस्म की मछलियों की तादाद अत्यधिक घट गई है जिससे मछुआरा समुदाय खतरे में है। ओडिशा के तटीय क्षेत्रों पर नेशनल सेंटर फॉर एग्रीकल्चरल इकोनॉमिक्स ऐंड पालिसी रिसर्च द्वारा किए गए शोध में पर्यावरण के कारण होने वाली प्राकृतिक विभीषिका का एक और आयाम सामने आया है। इससे पता चलता है कि समुद्रतटीय जिलों में सूखे की तीव्रता बढ़ गई है। स्थिति की विडंबना यह है कि ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने में कोई योगदान न करने वाले लोगों पर इसका सर्वाधिक प्रभाव पड़ रहा है। विश्व बैंक के एक अधिकारी के अनुसार चिंता का बड़ा कारण यह है कि पर्यावरण बदलाव से सूखा और बाढ़ की समस्या और गहरा जाएगी। इससे कृषि पैदावार में कमी आएगी तथा खाद्य पदार्थो की महंगाई बढ़ेगी। आज ज्यादातर देश खाद्य महंगाई की समस्या से जूझ रहे हैं। भारत पर इसका खतरा सर्वाधिक है, क्योंकि मध्यम व निम्न आय वर्ग समूहों के लोग अपनी आमदनी का एक बड़ा हिस्सा भोजन पर खर्च करते हैं। इससे देश की आर्थिक स्थिति प्रभावित होगी। जनसंख्या वृद्धि नगरीकरण, वैश्वीकरण, भूमि उपयोग की अकुशल योजनाएं, देश में आपदा प्रबंधन की पूर्व तैयारी आदि की त्रुटियों के कारण जान-माल व आर्थिक समृद्धि पर खतरा बढ-चढ़कर दिखाई दे रहा है। हर वर्ष आपदा के दौरान होने वाले नुकसान को कम करने के प्रयास सरकार और जनता दोनों की तरफ से होते हैं, पर बार-बार आने वाली बाढ़, सूखा व आगजनी की घटनाएं, सिंचाई उपायों की अपर्याप्तता के कारण आम आदमी पर जाोखिम बढ़ता जा रहा है जबकि इनसे मुकाबला करने की आम लोगों ताकत विभिन्न वजहों से लगातार कम हो रही है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)