पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ने से अब मौसम चक्र भी प्रभावित होने लगा है। इसकी वजह से भारत जैसे कृषि प्रधान देश में मानसून का अनियमित हो जाना कृषि और कृषक समाज के हितों को व्यापक रूप से क्षति पहुंचाने वाला है। भारत के सकल घरेलू उत्पाद में 21 प्रतिशत का योगदान देने वाली एक बड़ी कृषक आबादी खेती के लिए मानसून पर निर्भर रहता है। तापमान में महज एक प्रतिशत की वृद्धि गेहूं के उत्पादन को चार-पांच मिलियन टन कम कर देता है तथा बाकी उत्पादन भी 5 से 10 प्रतिशत तक प्रभावित होता है। कृषि के क्षेत्र में उत्पादन के स्तर पर हुए क्रांति ने जहां ग्लोबल वार्मिग को बढ़ाने में महती भूमिका निभाई है वहीं अब यह कृषि उत्पादकता को नकारात्मक रूप से प्रभावित कर रहा है। इससे किसानों की आर्थिक स्थिति पर विपरीत प्रभाव पड़ा है और मछली उद्योग से जुडे़ लाखों मछुआरों का धंधा भी चौपट हो रहा है। इस सदी के अंत तक यदि ग्लोबल वार्मिग की दर इसी प्रकार कायम रही तो अनुमान है कि समुद्र का जलस्तर चार से लेकर चालीस इंच तक बढ़ सकता है। जाहिर है इस विनाशलीला का अनुमान लगाना कठिन नहीं है। यदि समुद्र के जलस्तर में एक मीटर की भी बढ़ोतरी होती है तो इससे तटीय क्षेत्रों के सत्तर लाख लोग विस्थापित होंगे। समुद्र के जलस्तर में वृद्धि, ग्लेशियर पर जमे बर्फ का पिघलना, सूखा और बाढ़ की समस्या ऐसे मुद्दे हैं जो ग्लोबल वार्मिग की देन होंगे। हालांकि इन दुष्प्रभावों से संबंधित सामाजिक, आर्थिक, और जैविक नुकसान के मुद्दे अमूमन कम ही चर्चा में रहते हैं पर यह भी काफी महत्वपूर्ण है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। प्रकृति के अंदर जैव विविधता पर पड़ने वाला नकारात्मक असर भी ऐसे ही मुद्दों में से एक है। औसतन 9.2 प्रतिशत स्तनधारी जीव-जंतु ग्लोबल वार्मिग के कारण प्रकृति से तारतत्म्य बैठाने के लिए अपने पलायन की गति को धीमी करने पर विवश है। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि स्तनधारी जीव धीरे-धीरे वृद्धि करते हैं और इसमें उन्हें कई साल लगते हैं। इस तरह की वृद्धि के लिए उनका तेजी से विस्तृत भू-भाग क्षेत्र में फैलना आवश्यक होता है। पलायन की इस धीमी गति के कारण इन जीवों पर अस्तित्व का खतरा भी मंडरा रहा है। हालांकि 87 प्रतिशत जीव ऐसे हैं जिन्हें फैलने के लिए अपेक्षाकृत छोटे क्षेत्र की आवश्यकता होती है। इसके साथ ही साथ फिलहाल लगभग 39 प्रतिशत जीव-जंतु लगातार गर्म होती धरती में अनुकूल जलवायु दशा के अभाव के शिकार हैं। किसानों, मछुआरों और तटीय क्षेत्र की आबादी के साथ-सााथ सामाजिक-आर्थिक एवं जैव विविधता पर पड़ने वाले ग्लोबल वार्मिग के प्रभाव के लिए किसी निश्चित वक्त और मापदंड का इंतजार नहीं है, बल्कि ये अपना असर दिखाना शुरू कर चुके हैं। कार्बन उत्सर्जन से जुड़ी समस्याओं का निदान विकसित देश और विकासशील देशों के विकास संबंधी प्राथमिकताओं में फंसा हुआ है। विकासशील देशों में औद्योगीकरण की प्रक्रिया पर लगाम कसना उनके विकास संबंधी नीतियों पर कुठाराघात करने जैसा होगा। विकसित देश अपने हितों को किसी भी शर्त पर तिलांजलि देने के लिए तैयार नहीं हैं जबकि विकासशील देशों पर वह अपनी शर्त थोपना चाहते हैं। दुनिया भर में औसतन प्रति व्यक्ति उत्सर्जित होने वाली कार्बन दर का एक चौथाई प्रतिशत ही भारतीयों द्वारा उत्सर्जित किया जाता है। यहां तक कि भारत की दस प्रतिशत शहरी आबादी भी वैश्विक स्तर पर किए जाने वाले प्रति व्यक्ति औसत कार्बन उत्सर्जन दर से काफी कम कार्बन का उत्सर्जन करता है। ऐसी स्थिति में विकासशील देशों की एक बड़ी आबादी का हवाला देकर विकसित देशों द्वारा मनमाना शर्त थोपना न्यायसंगत नहीं माना जा सकता। वहीं विकासशील देश अधिक उपभोक्ता दर का हवाला देते हुए विकसित देशों को पहली जिम्मेदारी लेने की बात कर रहे हैं। हालांकि यह समस्या का समाधान नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो 2050 तक दुनिया की आबादी बढ़कर लगभग साढे़ नौ सौ करोड़ हो जाएगी। ऐसी स्थिति में दुनिया की समस्त आबादी के संदर्भ में एक जैसी उपभोक्ता दर की बात करना बेमानी होगा, क्योंकि यह पृथ्वी पर अत्यधिक दबाव डालने की बात होगी। जलवायु संकट की समस्या समाधान के लिए दुनिया के सभी छोटे-बडे़ देशों को अभी से गंभीर होना होगा और इस मसले को विनाशकारी चुनौती के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक और जैविक चुनौती के रूप में भी स्वीकार करना होगा।
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