गंगा को बचाने के लिए संत समाज के सैकड़ों साधु-संतों ने सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ दी है। दर्जनों संत दिल्ली के जंतर-मंतर पर गंगा को बचाने और सरकार की नींद खोलने के लिए धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया है। सवाल उठता है कि संत समाज का यह आंदोलन क्या वास्तव में सरकार की नींद तोड़ पाएगा या फिर पिछले आंदोलन की तरह यह भी बिना किसी नतीजे के दम तोड़ देगा। संतों का आरोप है कि मौजूदा समय में देश के अधिकतर कारखानों का कचरा नदियों में ही बहाया जा रहा है। सरकार सब कुछ जानते हुए भी कारखानों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती हैं। गंगा की रक्षा के लिए संत समाज ने सरकार से आरपार की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया है। गंगाा को बचाने एवं पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दिशा में सरकार की ओर से चलाई जा रही तमाम योजनाएं अव्यवस्थाओं के चलते दम तोड़ रही हैं। इसी बेरुखी का कारण है कि गंगा मैली होती जा रही है। पर्यावरण भी लगातार असंतुलित होता जा रहा है। दूषित पर्यावरण के कारण गंगा में पाए जाने वाले जीवों की कई प्रजातियां भी खत्म होने के कगार पर हैं। कोई 36 महीने पहले गंगा की रक्षा के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई में गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन किया गया था। इस योजना पर अब तक 23 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन योजना पर काम न के बराबर हुआ है। दुख की बात यह है कि योजना पर आज तक महज तीन ही बैठकें हुई हैं। दरअसल, इस योजना के लिए प्रधानमंत्री के पास वक्त ही नहीं है। पिछली तीन बैठकें भी आंदोलनकारियों के दवाब में ही हुई थीं। अगर सरकार ने इस आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया तो जंतर-मंतर पर शुरू हुआ संतों का अनिश्चितकालीन अनशन निश्चित ही सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। गत 15 जनवरी से वाराणसी में गंगा को बचाने के लिए अनशन कर रहे प्रो. गुरुदास अग्रवाल ने खुद आरपार की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया है। हालांकि खराब स्वास्थ्य के चलते वे इस वक्त एम्स में भर्ती हैं, लेकिन उनका आंदोलन लगातार जारी है। उनके सेवक वाराणसी के तट पर बैठे अनशन कर रहे हैं। गंगा और पर्यावरण का सीधा सरोकार आमजन से होता है। जल ही जीवन है और इसके बगैर जिंदगी संभव नहीं, लेकिन इसके अथाह दोहन ने जहां कई तरह से पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। दिन प्रतिदिन गहराते जा रहे जल संकट ने पूरी मानव जाति को हिला कर रख दिया है। कारखानों के कचरे के कारण गंगा का पानी इतना गंदा हो गया कि वह आचमन के भी लायक भी नहीं है। पेय जल के विकल्प के तौर पर कुछ साल पहले सरकार ने जलाशयों को बनाने का निर्णय लिया था, जिसमें हजारों एकड़ वनों की कटाई की गई और काफी संख्या में आवासीय बस्तियों को उजाड़ा गया। लेकिन यह योजना भी पूरी तरह से विफल साबित हुई। देश के 76 विशाल और प्रमुख जलाशयों की जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग द्वारा 10 जनवरी 2007 तक के तालाबों की जल क्षमता के जो आंकड़े दिए हैं, वे बेहद गंभीर हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक 20 जलाशयों में पिछले दस वर्षो के औसत भंडारण से भी कम जल का भंडारण हुआ है। दिसंबर 2005 में केवल छह जलाशयों में ही पानी की कमी थी, जबकि फरवरी की शुरुआत में ही 14 और जलाशयों में पानी की कमी हो गई है। इन 76 जलाशयों में से जिन 31 जलाशयों से विद्युत उत्पादन किया जाता है, पानी की कमी के चलते विद्युत उत्पादन में लगातार कटौती की जा रही है। जिन जलाशयों में पानी की कमी है, उनमें उत्तर प्रदेश के माताटीला व रिहंद बांध, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राणा प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय शामिल हैं। चार जलाशय तो ऐसे हैं, जिनमें लगामार पानी कम हो रहा है। समय रहते अगर इस संवेदनशील मुद्दे पर विचार नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल, विद्युत और न जाने कौन-कौन सी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा, जिनसे निपटना सरकार और प्रशासन के सामर्थ्य की बात नहीं रह जाएगी। आज नदियों की निर्मलता को पुनस्र्थापित करने की हम सबके सामने चुनौती है। आमजन भी संतों के आंदोलन में साथ दे तो इस दिशा में काफी सुधार हो सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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