Wednesday, June 20, 2012

बाघों पर मंडराता खतरा


हाल ही में देश में बाघों की संख्या में कमी आने से इन्कार करते हुए सरकार ने कहा कि देशव्यापी स्तर पर बाघों की स्थिति के आकलन के दूसरे चरण से पता पता चला है कि बाघों की अनुमानित संख्या बढ़कर 1706 हो गई है। पर्यावरण राज्यमंत्री जयंती नटराजन के अनुसार देशव्यापी बाघ स्थिति आकलन का दूसरा चरण 2010 में पूरा हुआ है। वर्ष 2008 में बाघों की संख्या 1411 थी। हालांकि सरकार के इन दावों के बावजूद बाघों के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। पिछले दिनों सूचना के अधिकार के तहत बाघों की संख्या से संबंधित पूछे गए एक सवाल के जवाब में जानकारी मिली थी कि पिछले एक दशक में 337 बाघों की मौत हो चुकी है। राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार पिछले दस साल में शिकार, संघर्ष, दुर्घटना, अधिक उम्र और कुछ अन्य कारणों की वजह से कुल 337 बाघों की मौत हुई। इस अवधि के दौरान 68 बाघ अवैध शिकार के कारण मारे गए। यह हाल तब है जब बाघ के संरक्षण के लिए केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित प्रोजक्ट टाइगर के तहत 17 राज्यों को 145 करोड़ रुपये की राशि जारी की गई। भारतीय वन्य जीव संस्थान की पिछले दिनों जारी एक रिपोर्ट से भी यह स्पष्ट हो गया था कि हमारे देश में अभी भी बाघों के शिकार की घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। देश में बाघों की घटती संख्या के लिए अनियंत्रित शिकार तथा मानव-वन्य जीव संघर्ष जैसे कारक मुख्य रूप से जिम्मेदार हैं। वनों का नष्ट होना भी बाघों की मौत का कारण बन रहा है। 11 बाघ अभयारण्यों में वन क्षेत्र तेजी के साथ कम हुआ है। आश्चर्यजनक यह है कि पिछले कुछ सालों में ही देश के 728 वर्ग किलोमीटर भू-भाग से वन समाप्त हो चुके हैं। हमारे देश का वन क्षेत्र कुल भौगोलिक क्षेत्रफल का 20.60 फीसदी है। इसमें यदि अन्य वृक्षों को भी शामिल कर लिया जाए तो यह 23.4 फीसद बैठता है। हमारे देश में तेजी से जंगलों का क्षरण हो रहा है। जब बाघ का प्राकृतिक वास जंगल नष्ट होने लगता है तो वह अपने प्राकृतिक वास से बाहर निकल आता है और आस-पास स्थित खेतों एवं गांवों में घरेलू पशुओं और लोगों पर हमला बोलता है। इस तरह की घटनाओं के कारण बाघों के विरुद्ध गांव वालों का गुस्सा बढ़ता है और यह बाघों की हत्याओं के रूप में सामने आता है। यह मानव-वन्य जीव संघर्ष ही विभिन्न तौर-तरीकों से हमारे पारिस्थितिक तंत्र पर गहरा प्रभाव डालता है। इसके अतिरिक्त बाघ की खाल तथा हड्डियां प्राप्त करने के लिए तस्कर इनकी हत्याएं करते हैं। पिछली शताब्दी के प्रारंभ में हमारे देश में बाघों की संख्या लगभग चालीस हजार थी, लेकिन 1972 में हुई गणना में बाघों की संख्या मात्र 1827 रह गई। 1969 में इंटरनेशनल यूनियन फार कंजरवेशन आफ नेचर एण्ड नेचुरल रिसोर्स (आईयूसीएन) की एक सभा में वन्य जीवन पर मंडराते खतरे के मद्देनजर अनेक कदम उठाए गए। इसके बाद 1970 में बाघों के शिकार पर राष्ट्रीय प्रतिबंध लगाया गया और 1972 में वन्य जीव संरक्षण अधिनियम लागू हुआ। इसी समय बाघों के संरक्षण के लिए किसी ठोस योजना के अस्तित्व पर विचार किया गया और 1973 में प्रोजक्ट टाइगर के रूप में यह योजना सामने आई। इस तरह बाघों के संरक्षण के लिए अनेक बाघ संरक्षित क्षेत्र बनाए गए। पैरियार और कार्बेट नेशनल पार्क में प्रोजेक्ट टाइगर योजना काफी सफल रहीं, लेकिन अधिकांश जगहों पर यह योजना अधिक सफल नहीं हो पाई और सरिस्का एवं रणथंभोर अभयारण्यों में बड़ी संख्या में बाघों के गायब होने की घटनाएं प्रकाश में आईं। आज जरूरत इस बात की है कि हम बाघों को बचाने के लिए कारगर नीतियां बनाएं, नहीं तो वन्य जीवन पर मंडराता यह खतरा हमारे अस्तित्व के लिए भी संकट का कारण बन जाएगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं) भारत में बाघों के अवैध शिकार पर रोहित कौशिक की टिप्पणी 

No comments:

Post a Comment