Friday, June 1, 2012

पवरे के नाम पर मलिन न हो गंगा


गंगा दशहरा- यानी ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, तिथि दशमी और नक्षत्र हस्त। भगवान बाबा श्री काशी विनाथ की कलशयात्रा का पवित्र दिन! कभी इसी दिन बिंदुसर के तट पर राजा भगीरथ का तप सफल हुआ। पृथ्वी पर गंगा अवतरित हुई। ग अव्ययं गमयति इति गंगायानी जो स्वर्ग ले जाये, वह गंगा है। पृथ्वी पर आते ही सबको सुखी, समृद्ध व शीतल कर दुखों से मुक्त करने के लिए सभी दिशाओं में विभक्त होकर सागर में जाकर पुन: जा मिलने को तत्पर एक विलक्षण अमृत प्रवाह ! भगवान विष्णु के वामनावतार स्वरूप के बायें अंगूठे को धोकर ब्रrा के कमंडल में रखा पवित्र जल!
शिव जटा के निचोङ़ने से निकली तीन धाराओं में एक- जो अयोध्या के राजा सगर के शापित पुत्रों को पुनर्जीवित करने राजा दिलीप के पुत्र, अंशुमान के पौत्र और श्रुत के पिता राजा भगीरथ के पीछे चली और भागीरथी के नाम से प्रतिष्ठित हुई। जो अलकापुरी की तरफ से उतरी, वह अलकनंदा और तीसरी धारा भोगावती पातालगामिनी हो गई। विष्णुगंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी ने अलकनंदा के साथ मिलकर क्रमश: चार प्रयाग बनाये- विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग और रुद्रप्रयाग। देवप्रयाग के नामकरण वाले पांचवे प्रयाग का निर्माण स्वयं अलकनंदा और भागीरथी ने मिलकर किया। उल्लेखनीय है कि जब तक अन्य धाराएं अपने- अपने अस्तित्व की परवाह करती रहीं उतनी पूजनीय और परोपकारी नहीं बन सकीं, जितना एकाकार होने के बाद गंगा बनकर हो गई। पंच प्रयागों में प्रमुख देवप्रयाग के बाद गंगा बनकर बही धारा ने ही सबसे ज्यादा ख्याति पाई। अंतत: भागीरथी उद्गम पर्वत से ही दूसरी ओर उतरी गंगा की बड़ी बहन यमुना ने भी बड़प्पन दिखाया और मार्ग में एकाकार हो गईं। बड़प्पन ने यश पाया। इलाहाबाद, अद्वितीय संगम की संज्ञा से नवाजा गया। इतिहास गवाह है कि गंगा की स्मृति छाया में सिर्फ लहलहाते खेत या समृद्ध बस्तियां ही नहीं, बल्कि वाल्मीकि का काव्य, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक-अकबर-हर्ष जैसे सम्राटों का पराक्रम तथा तुलसी, कबीर, रैदास और नानक की गुरुवाणी- जैसे चित्र अंकित है। गंगा किसी धर्म, जाति या वर्ग विशेष की न होकर, पूरे भारत की अस्मिता और गौरव की पहचान बनी रही है। हरिद्वार, देवभूमि का प्रवेश द्वार बना रहा। गंगा किनारे की काशी इस पृथ्वीलोक से अलग लोक मानी गई। उसी की तर्ज में उत्तर हिमालय में उत्तर की काशी- उत्तरकाशी स्थापित हुई। गंगा किनारे के तक्षशिला, नालन्दा, काशी और इलाहाबाद विविद्यालयों ने जो ख्याति पाई, भारत का कोई अन्य विविद्यालय आज तक उनका दशांश भी हासिल नहीं कर सका है। गंगा किनारे न जाने कितने आंदोलनों ने प्राण अर्जित किये। भारत का कोई काल नहीं है जो गंगा को स्पर्श किए बिना अपना सर्वश्रेष्ठ पा सका हो। राष्ट्र की हर महान आध्यात्मिक विभूति ने गंगा से शक्ति पाई, यह कोरी कल्पना नहीं, ऐतिहासिक तथ्य है। इस अद्वितीय महत्ता के कारण ही भारत का समाज युगों-युगों से अद्वितीय तीर्थ के रूप में गंगा का गुणगान करता आया है-न माधव समो मासो, न कृतेन युगं समम्। न वेद सम शास्त्र, न तीर्थ गंगया समम्। लेकिन लगता है मां गंगा ने अपनी कलियुगी संतानों के कुकृत्यों को पहले ही देख लिया था, इसीलिए अवतरण से इंकार करते हुए सवाल किया था- मैं इस कारण भी पृथ्वी पर नहीं जाऊंगी क्योंकि मानव मुझमें अपने पाप, अपनी मलिनता धोयेंगे। मैं उसको धोने कहां जाऊंगी? तब भगीरथ ने उत्तर दिया था- हे माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुत्र की कामना से मुक्ति ले ली है, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं, वे आप द्वारा ग्रहण किए गये पाप को अपने अंग के स्पर्श और श्रमनिष्ठा से नष्ट कर देगे।
संभवत: इसीलिए गंगा रक्षा सिद्धांतों ने ऐसे परोपकारी सज्जनों को ही गंगा स्नान का हक दिया था। गंगा नहाने का मतलब ही है- सम्पूर्णता! जीवन में सम्पूर्णता हासिल किये बगैर गंगा स्नान का कोई मतलब नहीं। उन्हें गंगा स्नान का कोई अधिकार नहीं, जो अपूर्ण हैं। लक्ष्य से भी और विचार से भी। इसलिए किसी भी अच्छे काम के सम्पन्न होने पर हमारे समाज ने कहा- हम तो गंगा नहा लिये।
किंतु आज गंगा आस्था के नाम पर हम उसमें सिर्फ स्नान कर मलिनता ही बढ़ा रहे हैं। गंगा में वह सभी कृत्य कर रहे हैं, जिन्हे गंगा रक्षा सूत्र ने पापकर्म बताकर प्रतिबंधित किया था- मल मूत्र त्याग, मुख धोना, दंतधावन, कुल्ला करना, मैला फेंकना, बदन को मलना, स्त्री-पुरुष द्वारा जलक्रीडा करना, पहने हुए वस्त्र छोड़ना, जल पर आघात करना, तेल मलकर या मैले बदन गंगा में प्रवेश, गंगा किनारे मिथ्या भाषण, कुदृष्टि और अभक्तिक कर्म और अन्य द्वारा किए जाने को न रोकना। हमारे पास माघ मेला से लेकर कुंभ तक नदी के रूप में प्रकृति व समाज की समृद्धि के चिंतन-मनन के मौके थे लेकिन हमने इन्हें दिखावा, मैला और गंगा मां का संकट बढ़ाने वाला बना दिया। पौराणिक आख्यानों में भगवान विष्णु और तपस्वी जह्नु को छोड़कर और कोई प्रसंग नहीं मिलता, जब किसी ने गंगा को कैद करने का दुस्साहस किया हो किंतु कलियुग में अंग्रेजों के जमाने से गंगा को बांधने की शुरू हुई कोशिश को आजाद भारत ने आगे ही बढ़ाया है। दूसरी ओर मैले की मैली राजनीति इसे मलिन बना रही है। श्रद्धालु और कुछ न कर सकें, कम से कम गंगा दशहरा मनाने के नाम पर गंगा को मलिन न बनाने का संकल्प तो ले ही सकते हैं। आज गंगा की यही पुकार है। गंगा आज फिर सवाल कर रही है कि वह मानव प्रदत्त पाप से मुक्त होने कहां जाये? जिस देश, संस्कृति और सभ्यता ने अपनी अस्मिता के प्रतीकों को संजोकर नहीं रखा, वे देश, संस्कृतियां और सभ्यताएं मिट गईं। क्या भारत इतने बड़े आघात के लिए तैयार है? यदि नहीं, तो कम से कम मां गंगा की जन्मतिथि से ही सोचना शुरू कीजिए। संकल्प कीजिए कि हम-आप जो कर सकते है, उसे करें। गंगा रक्षा सूत्र की पालना हो, तभी गंगा दशहरा या ग्ांगा अवतरण तिथि का महात्म्य है अन्यथा अवतरण तिथि की ही तरह बन जायेगी एक दिन, गंगा मरण तिथि। क्या हमें स्वीकार है!

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