जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के मुद्दे पर आयोजित वार्ता सम्मेलन समाप्त हो चुका है। यह सत्रहवां मौका था जब जलवायु परिवर्तन के खतरों के मद्देनजर दुनिया के देश कार्बन उत्सर्जन पर चर्चा के लिए डरबन में जुटे थे। मुद्दा जहां का तहां था कि कैसे जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम किया जाए। करीब 20 साल पहले 1992 में युनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज बना था। तभी से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हुई। तब से डरबन वार्ता तक जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए 17 बैठकें संपन्न हो गई हैं लेकिन अब तक पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से निपटने के लिए किसी ठोस रणनीति पर क्रियान्वयन शुरू नहीं हो पाया है। जितना भी कार्य हुआ है, वह केवल नीतिगत स्तर पर हुआ है और उसका जमीनी धरातल पर उतरना बाकी है। जलवायु वार्ताओं में दो शब्दों का प्रमुखता से इस्तेमाल होता रहा है। ये हैं- मिटिगेशन और ऐडेप्टेशन। मिटिगेशन का मतलब उन गैसों के उत्सर्जन में कटौती से है, जिनकी वजह से धरती गर्म हो रही है। एडेप्टेशन का मतलब ऐसे उपायों से है, जिनसे जलवायु संकट का असर कम किया जा सके। क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण को ताक पर रखने के साथ हालांकि मिटिगेशन की बात एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दी गई है पर डरबन में बातचीत के दौरान कुछ निर्णय जरूर लिए गए जिन्हें डरबन प्लेटफार्म नाम दिया गया। इसमें भविष्य में एक समझौते पर चर्चा की बात कही गई है जिसमें कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए अधिक आक्रामक लक्ष्य तय किए जाएंगे ताकि दुनिया के औसतन तापमान में होने वाले इजाफे को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सके। बहस थी कि समझौता कानूनी रूप से सभी देशों पर बाध्यकारी होगा या नहीं? भारत समझौते की कानूनी बाध्यता का विरोध कर रहा था और उसे हाशिए पर डाल दिया गया। पश्चिमी मीडिया ने भारत को ऐसे देश के रूप में दर्शाया जो समझौता तोड़ने की कोशिश कर रहा था या जो प्रदूषण फैलाने का अधिकार मांग रहा है। वास्तव में यूरोपीय यूनियन दुनिया का ध्यान अपनी वादा खिलाफी से हटा इस मौके का फायदा उठाना चाहती थी। इससे पूर्व इन देशों ने क्योटो घोषणा के तहत वादा किया था कि वे वातावरण पर दुष्प्रभाव डालने वाली गैसों पर तय सीमा के अन्दर रोक लगाएंगे लेकिन डरबन सम्मेलन में इन्होंने सुर बदलते हुए ऐसी नई संधि की मांग कर डाली जो पूरी दूनिया पर समान रूप से लागू हो। भारत ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि पहले क्योटो घोषणा से बंधे अमीर मुल्क यह बतायें कि उन्होंने अपने वादे किस हद तक पूरे किये। सब जानते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान विकसित देशों का है, मगर वे कटौती नहीं करना चाहते। क्योटो प्रोटोकाल पर उनका मनमाना रवैया रहा है। अमेरिका जैसे दुनिया के दूसरे सबसे बड़े उत्सर्जक और मुखिया ने इस पर हस्ताक्षर ही नहीं किये हैं। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के मुताबिक 2012 तक विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन में 1990 के स्तर से पांच फीसद तक की कटौती करनी है, जबकि भारत और चीन जैसे देशों के लिए ऐसी बाध्यता नहीं है। पश्चिमी देश इसे पचा नहीं पा रहे हैं क्योंकि चीन और भारत की अथव्यवस्था तेजी से बढ़ रही हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि चीन कुछ ही सालों में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। खैर, डरबन में संपन्न जलवायु सम्मेलन में भारत और यूरोपीय संघ के बीच जारी गतिरोधों के बावजूद अंतिम समय में सहमति बन गई। अन्यथा कोपेनहेगन से जलवायु वार्ता ने जो मोड़ लिया था, डरबन वार्ता भी उसी मुकाम के करीब पहुंचती दिख रही थी पर अंतिम समय में भारत और यूरोपीय संघ ने गतिरोध खत्म करते हुए इसे नये मुकाम पर पहुंचा दिया। शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन का भाषण प्रभावशाली रहा। उन्होंने चेतावनी दी कि भारत किसी भी खतरे या दबाव के आगे नहीं झुकेगा। सुश्री नटराजन ने कहा कि क्या जलवायु परिवर्तन से लड़ने का अर्थ यह है कि हम निष्पक्षता के सवाल पर घुटने टेक दें? पर भारत किसी भी खतरे या दबाव के आगे नहीं झुकेगा। कुछ देशों ने यूरोपीय संघ का समर्थन किया, लेकिन चीन ने भारत का मजबूती से समर्थन किया। आखिरकार 2015 के लिए एक संतुलित समझौते की रूपरेखा मंजूर कर ली गई । इस समझौते के तहत भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन करने वाले सभी देश उत्सर्जन में कटौती के लिए पहली बार कानूनी तौर पर बाध्य होगें। इसके तहत पहली बार भारत और चीन भी उत्सर्जन कटौती के दायरे में आएंगे। साथ ही नए करार के तहत सभी देश एक समान कानूनी व्यवस्था में आएंगे। सम्मेलन में इस वार्ता की गति तेज करने पर भी सहमति बनी। कहा गया कि यह काम वर्ष 2015 तक कर लिया जाना चाहिए ताकि इस नए समझौते को कम से कम वर्ष 2020 तक लागू किया जा सके। इसके साथ डरबन बैठक में क्योटो प्रोटोकॉल के लिए दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के लिए सहमति जताई गई है जो विकासशील देशों की अत्यंत पुरानी मांग है। इस सम्मेलन की तीसरी बड़ी उपलब्धि रही ग्रीन क्लाइमेड फंड की स्थापना ताकि संवेदनशील मुल्कों को उत्सर्जन में कमी के बदले भुगतान किया जा सके। लेकिन इस फंड में कोई पैसा है ही नहीं। दरअसल विकसित देशों का कहना है कि मंदी के चलते फिलहाल वे किसी तरह के भुगतान की स्थिति में नहीं है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि इस जरूरी हस्तांतरण का भुगतान करने के लिए धन जुटाने के लिए किन नए तरीकों का इस्तेमाल किया जाए। याद रहे कि कोपेनहेगन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने गरीब और जलवायु परिवर्तन की वजह से खतरे में पड़ रहे देशों की मदद की खातिर 2020 तक के लिए सौ अरब डॉलर का हरित कोष तैयार करने का ऐलान किया था। लेकिन न वहां और न कानकुन में यह तय हो सका कि इसमें कौन सा देश कितनी रकम देगा और कब देगा और उस रकम से मदद देने का तरीका क्या होगा? कानकुन में बस एक बात यह उभर कर सामने आई कि यह मदद यूएनएफसीसीसी के जरिए ही दी जाएगी। अत: डरबन जलवायु सम्मेलन एक महत्वपूर्ण बदलाव का बिंदु है। इस सम्मेलन में समता के मसले पर दोबारा जोर दिया गया ल्ेकिन इस बिंदु पर अमीर देशों का खुला प्रतिरोध भी देखने को मिला। अब यह एक खुली लड़ाई है। अब यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होगा कि दक्षिण अफ्रीका की मेजबानी में संपन्न डरबन प्लेटफार्म जलवायु संकट से निपटने की दिशा में गहराते भेदभाव को और गहरा न कर दे।
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