Wednesday, December 14, 2011

शुक्र है, क्योटो जैसा हश्र नहीं हुआ


काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता एक मुकाम तक पहुंच ही गई। जलवायु वार्ता के आखिरी दिन एक समझौता हुआ, जिस पर सभी देशों ने अपनी सहमति व्यक्त की। समझौते के तहत विकसित देश अब क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 2013 से अपने उत्सर्जन में कटौती करने को राजी हो गए हैं। नए करार के तहत अब सभी देश एक ही कानूनी व्यवस्था में आएंगे। इस कानूनी समझौते पर वार्ता अगले साल शुरू होगी और 2015 तक समाप्त हो जाएगी, जिसके बाद वर्ष 2020 में नया करार पूरी दुनिया में प्रभावी हो जाएगा। यानी शुरुआती ना-नुकुर के बाद विकसित देशों ने विकासशील देशों की इस मांग को मान लिया है कि पहले वे अपने यहां उत्सर्जन कम करें। डरबन सम्मेलन की खास उपलब्धि यह रही कि क्योटो संधि से शुरू से ही बाहर रहने वाले अमेरिका ने भी इस करार का समर्थन किया। गौरतलब है कि क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी रूप से ऐसा अकेला नियामक है, जो अमीर देशों को कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए बाध्य और भविष्य के एक प्रभावी करार की दिशा में मार्ग प्रशस्त करता है। ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय करार क्योटो प्रोटोकॉल, जो साल 2004 से अमल में आया, इस समझौते में यह तय हुआ था कि 37 विकसित मुल्क स्वैच्छिक कटौती के तहत आहिस्ता-आहिस्ता अपने यहां साल 2012 तक 4 ग्रीन हाउस गैस और 2 दीगर खतरनाक गैसों का प्रदूषण 1990 के स्तर पर 6 फीसदी घटा देंगे, लेकिन हकीकत यह है कि कई देशों ने उस समय किए गए वादों को बिल्कुल भी नहीं निभाया। जापान, कनाडा, रूस, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका अपने वादे से पूरी तरह मुकर गए, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो हवा में कार्बन डाईऑक्साईड घोलने में अकेला अमेरिका 26 फीसदी का हिस्सेदार है। एक आकलन के मुताबिक भारत द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों के बरक्स अमेरिका दस गुना अधिक गैस वातावरण में उगलता है। प्रति व्यक्ति स्तर पर नापा जाए तो यह अनुपात और भी खतरनाक है। मसलन, औसत भारतीय की बनिस्बत औसत अमेरिकी 20 गुना से ज्यादा ऊर्जा का उपभोग करता है। जाहिर है, यही वह वजह है जिससे वातावरण में कहीं ज्यादा ग्रीन हाउस गैसें घुलती हैं। अमेरिका और तमाम विकसित देश जो सभी देशों को एक डंडे से हांकना चाहते हैं, उनसे क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि भारत और बाकी विकासशील देशों को विकास के उस स्तर तक पहुंचने का क्या कोई हक नहीं है, जहां अमीर देश पहले ही पहुंच चुके हैं? जहां तक डरबन सम्मेलन में हमारे देश की भूमिका का सवाल है, कानकुन सम्मेलन की तरह इस सम्मेलन में भी भारत ने अपनी बात जोरदार तरीके से रखी। जलवायु सम्मेलन में भारत ने जोर देकर कहा कि जलवायु से जुड़ी वार्ताओं का केंद्र समानता होनी चाहिए। पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने सम्मेलन में भारत का पक्ष रखते हुए कहा, वह साल 2020 के बाद ही क्योटो करार जैसी नई संधि का हिस्सा बनने पर विचार करेगा, लेकिन इससे पहले विकसित देश अपना उत्सर्जन कम करें और विकासशील देशों को इसके लिए वित्तीय मदद और प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराने की मौलिक प्रतिबद्धता का पालन करें। इस मामले में विकासशील और छोटे देशों की समानता, व्यापार में बाधक और बौद्धिक संपदा से जुड़ी चिंताओं का भी समाधान किया जाए। भारत के इस रुख पर यूरोपीय संघ हालांकि पहले नाराज हुआ, लेकिन बाद में उसने भी यह बातें मान लीं। डरबन सम्मेलन में एक अच्छी बात यह हुई कि पहली बार बेसिक समूह के देश मसलन ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन एक साथ खड़े नजर आए। यहां तक कि भारत के पक्ष का उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी देश चीन ने भी समर्थन किया। कुल मिलाकर क्योटो जलवायु सम्मेलन के बाद डरबन सम्मेलन ऐसा दूसरा सम्मेलन है, जिसमें सभी देश एक समझौते पर एक राय हुए। सभी देशों ने इस बात पर रजामंदी जताई कि साल 2020 से वे अपने यहां कार्बन उत्सर्जन में कमी लाएंगे। जाहिर है, डरबन सम्मेलन की यह सबसे बड़ी कामयाबी है। दुनिया को बढ़ते तापमान के खतरे से बचाने के लिए यह समझौता लाजिमी भी था। क्योटो प्रोटोकाल को आगे बढ़ाने और उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य तय नहीं करने का मतलब सीधे-सीधे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना होता। दुनिया और समूची इंसानी बिरादरी को बचाने के लिए जरूरी है कि आगामी सालों में डरबन समझौते को ईमानदारी से अमल में लाया जाए। वरना, बहुत देर हो जाएगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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