डरबन में जुटे दुनिया भर के राजनेताओं, पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों के लिए पिघलते हुए ग्लेशियर, उफनते समुद्र, बदलते मौसम और गर्म होती धरती जहां चिन्ता का विषय थे वहीं विकसित दुनिया की राजनीति पूरी तरह अपने हितों को साधने की कूटनीतिक चालों में व्यस्त थी। अन्ततोगत्वा इस नीले ग्रह को बचाने पर जीत पूंजी संचय के कूटनीतिक इरादों की हुई। जलवायु परिवर्तन पर कई दिनों तक चली डरबन वार्ता असफलताओं पर सहमति वार्ता सिद्ध हुई। अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों की कार्बन उत्सर्जन को थामने की वैधानिक बाध्यता बनने से रोकने की कोशिश कोई नई व पहली नहीं थी। दिसम्बर 1997 में जापान के क्योटो शहर में 150 देशों के प्रतिनिधियों ने एकत्र होकर एक प्रोटोकॉल तैयार किया जिसे क्योटो प्रोटोकॉल नाम से जाना जाता है। यह प्रोटोकॉल विकसित, औद्योगिक और कुछ मध्य यूरोपीय देशों को 2012 तक 1990 के स्तर से 6 से 8 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन घटाने की कानूनी बाध्यता बनाता था। इसको कानून बनाने के लिए 55 प्रतिशत औद्योगिक देशों के अनुमोदन की आवश्यकता थी परन्तु अमेरिका सहित कनाडा, जापान और आस्ट्रेलिया सरीखे उसके तमाम सहयोगी देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के कानून बनने से रोकने के लिए रुकावटबाजों की भूमिका अदा की। तीन महीने की लम्बी बहस के बाद 2002 में कनाडा और फरवरी 2005 में रूसी अनुमोदन के बाद ही क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी रूप ले सका। दुनिया बेशक तेजी से मानव निर्मित विनाश की और बढ़ रही हो मगर विकास के वकीलों के अपने तर्क और योजनाएं हैं, जिनके लिए वो दुनिया को धमकाना भी जानते हैं और ब्लैकमेल करना भी और यही योजनाएं वर्तमान विकास के पैरोकारो ने कोपेनहेगन से शुरू की जो डरबन तक आते-आते अपने निर्णायक मुकाम पर पंहुच गई। यदि क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा फेज कोपेनहेगेन में तैयार हो जाता तो 2050 तक पृथ्वी के बढ़ते तापमान को दो डिग्री की सीमा में रखने के लिए कम से कम पचास प्रतिशत की कटौती आवश्यक होती एवं औद्यागिक देशों के लिए यह कटौती अस्सी प्रतिशत तक होती। दुनिया के पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों के लिए कोपेनहेगन समिट का एजेन्डा जहां दूसरे क्योटो प्रोटोकॉल का रोडमेप तैयार करना प्राथमिकता थी, वहीं पहले क्योटो प्रोटोकॉल के रुकावटबाजों के लिए दूसरे प्रोटोकॉल को रोकना प्राथमिकता थी। कोपेनहेगन से शुरू हुई औद्योगिक देशों की इस योजना का अगला पड़ाव जहां कानकुन था वहीं डरबन में दुनिया के रुकावटबाज पूरी तरह कामयाब हो गए। ब्रिक देशों को सौ बिलियन डॉलर के मुआवजे का आासन देकर विकसित देशों ने तीसरी दुनिया के देशों को दो हिस्से में विभाजित कर दिया- अल्पविकसित और द्वीपीय देए एवं विकासशील देश। दरअसल कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन में अमेरिका की यही सबसे बडी जीत थी जिसकी गूंज डरबन में सुनाई दी जब ग्रेनाडा के प्रतिनिधि ने कहा कि आप बस बहस कर रहे हैं जबकि हम लोग मर रहे हैं। वास्तव में अल्पविकसित एवं द्वीपीय देशों की यही विडम्बना है कि वो उस दोष की सजा भुगत रहे हैं जिसे करने के वो आज तक काबिल नहीं हो पाए हैं दूसरी तरफ विकासशील देश जब विकास की राह पर तेजी से बढ़ रहे हैं तो पर्यावरण बचाव के नाम पर उनकी राह में अवरोध खड़े किए जा रहे हैं। दरअसल कोपेनहेगन से शुरू हुआ विफलताओं का यह समझौता चक्र गरीबों की जिंदगी पर अमीर दुनिया की सुविधाओं की जीत है। क्योटो प्रोटोकॉल सरीखे बाध्यकारी प्रावधान 2012 तक तैयार हो जाते तो दुनिया में कार्बन उत्सर्जन को एक सीमा में बांधकर बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिए प्रभावकारी काम किया जा सकता था। अब यह बाध्यकारी प्रावधान तैयार करने के लिए 2015 की समय सीमा तय की गई है और यदि यह तैयार हो गए तो वह 2020 से लागू होना शुरू हो जाएंगे परन्तु यदि कार्बन उत्सर्जन इसी गति से बढ़ता रहा तो 2020 तक ग्लोबल वार्मिंग का स्तर वर्तमान समय से तीन गुना अधिक बढ़ चुका होगा। मानव निर्मित तबाही के लिए जिम्मेदार देश आज अपने हाथों रचे इस भयावह खतरे को बेशक अनदेखा करना चाहते हैं मगर इसका खमियाजा उन द्वीपीय और गरीब देशों को भुगतना पड़ रहा है जो ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न खतरों को लगातार झेल रहे हैं और उनसे निपटने लायक संसाधन भी उनके पास नही हैं। हालांकि जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने के लिए बने क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यता 2012 के अन्त में समाप्त हो जाएगी परन्तु जैसी भावना और दुनिया की संभावित बर्बादी के प्रति लापरवाही का रवैया विकसित देशों ने जाहिर किया है, उससे 2015 तक भी किसी नए बाध्यकारी प्रावधानों की संभावना नजर नहीं आती। विकसित देशों ने जैसी मंशा डरबन में जाहिर की है, उससे पर्यावरण बचाने की चुनौती और गंभीर होती नजर आती है। बहरहाल अगले समिट में दुनिया साफतौर पर तीन खेमों में बंटी होगी और अमेरिका एवं उसके सहयोगी देश ऐसी स्थिति का फायदा अपने हितों को साधने के लिए उठाने के लिए पूरी कोशिश करेगें।
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