जलवायु स्थरीकरण के बोझ को न्यायोचित ढंग से केवल प्रति व्यक्ति समान उत्सर्जन से ही नहीं बल्कि अनेक अन्य मानदंडों से भी बांटा जा सकता है। डरबन में होने वाले जलवायु सम्मेलन में भारत को किसी दुर्बल, अप्रभावी जलवायु समझौते के प्रति ‘कोपेनहेगन लालच’ से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा समझौता किसी को उत्तरदायी नहीं बनाएगा। इससे भारतीय जन और वैिक जलवायु को नुकसान होगा
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौते के अंतर्गत 1992 में ब्राजील के रियो डे जनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन के बाद से अब तक की समझौता वार्ताओं के अनेक चक्र मानव जाति के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण समझौता वार्ता कहे गये हैं जो अतिशयोक्ति नहीं है। जलवायु में हो रहे विनाशकारी, अपरिवर्तनीय बदलाव आज मानव जाति के सबसे गंभीर खतरे की ओर इशारा हैं। ग्लोबल वार्मिग के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, वष्रा का पैटर्न बदल रहा है। भयंकर चक्रवात, विराट सूनामियां तथा सूखे-मौसम में अक्सर हो रहीं इस प्रकार की घटनाओं के साथ वायुमंडल गर्म करने वाले कार्बन डाइऑसाइड तथा ऐसी ही अन्य गैसों के बढ़ते उत्सर्जनों के कारण पृथ्वी ग्रह तबाही की ओर बढ़ रहा है। जलवायु पण्राली ज्यादा से ज्यादा डेड़ से दो डिग्री सेल्सियस (पूर्व औद्योगिक स्तरों से ऊपर) तक ग्लोबल वार्मिंग बर्दाश्त कर सकती है परंतु ग्रीन हाउस उत्सर्जन के कारण पृथ्वी तापमान तीन से चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ रहा है। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित संस्थान, टिंडल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च के उप निदेशक सरीखे वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि 4 डिग्री तापमान बढ़ने पर दुनिया की मात्र दस फीसद आबादी ही जिंदा बच पाएगी। 2020 तक यदि उत्सर्जन स्थिर नहीं हो जाते और उसके बाद तेजी से नीचे नहीं आते तो 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पाना नामुमकिन हो जाएगा। इसलिए ग्रीनहाउस उत्सर्जनों में भारी कमी कर एक-दूसरे के सहयोग से जलवायु संकट के वैिक समाधान के लिए समझौता वार्ताएं आवश्यक व महत्वपूर्ण हैं। आशंका है कि दक्षिण अफ्रीका के डरबन में होने जा रहा 17वां जलवायु परिवर्तन समझौता कहीं झगड़ालू व अनुपयोगी न साबित हो। कोई यह आशा नहीं कर रहा है कि इससे वे विवादास्पद समस्याएं हल हो जाएंगी जिनमें शामिल है कि उत्तर के 40 देशों के साथ उत्सर्जन कटाव किसे करने चाहिए, इनका विस्तार और कानूनी रूप क्या होना चाहिए या दक्षिण के गरीब देशों के जलवायु संबंधी उपाय के लिए धन का प्रबंध किसे करना चाहिए। कहा जा रहा है कि उत्सर्जन घटाने में अगुआई उत्तरी देशों को करनी चाहिए क्योंकि वायुमंडल में जमा तीन चौथाई ग्रीन हाउस गैसों के लिए वही जिम्मेदार हैं और उन्हें दक्षिणी देशों की वित्तीय व तकनीकी मदद करनी चाहिए। पर विकसित देशों ने क्योटो प्रोटोकोल के अधीन अपने दायित्वों को पूरी तरह नहीं निभाया है। अमेरिका ने तो क्योटो का कभी अनुमोदन किया ही नहीं। वह 1990 की तुलना में पांच प्रतिशत अधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करेगा। आशंका है कि जापान, कनाडा, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, स्पेन और नीदरलैंड अपने लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएंगे। कुछ तो तीस प्रतिशत जितने बड़े अंतर से पीछे रह जाएंगे। 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन के बाद से उत्तर ने दक्षिण से उत्सर्जन में खुद से भी ज्यादा कमी का वचन ले लिया है। इनमें 2020 तक कार्बन डाइऑक्साइड के शून्य से अधिकतम 3.8 अरब टन तक के उत्सर्जन के वचन हैं, जो व्यक्त महत्वाकांक्षा, घोषित शतरें और लेखा नियमों में ढील पर आधारित हैं। इसके विपरीत दक्षिणी देशों के वचन 3.6 से 5.2 टन तक हैं। सामूहिक रूप से दक्षिण उत्तर की तुलना में उत्सर्जन में 37 प्रतिशत अधिक गहरे कटाव के वचन देता है। अमेरिका, यूरोपीय यूनियन, रूस, कनाडा और आस्ट्रेलिया सहित उत्तर के चोटी के छह प्रदूषकों की अपेक्षा चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, मेक्सिको और दक्षिण कोरिया ने कुल मिलाकर 40 से 300 प्रतिशत अधिक के वचन दिए हैं। बड़े औद्योगिक प्रदूषकों की तुलना में न्यूनतम विकसित देशों और लघु द्वीप राज्यों की संधि ने अधिक उदार वचन दिए हैं। यह समझौते के सिद्धांत को अड़ियल ढंग से उलट जलवायु स्थरीकरण का अधिक बोझ उन पर डाल देता है जो जलवायु ग्लोबल वार्मिग के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। इस बदलाव की साजिश कोपेनहेगन में अमेरिका, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन के नवगठित गुट ‘बेसिक’ ने रची थी जिसका मकसद महत्वाकांक्षी उत्तरदायित्व से बचना था। शर्मनाक यह है कि भारत अपनी घोषित रेड लांइस (खतरे की रेखाओं) के विरुद्ध सांठगांठ में शामिल हो गया था। कानकुन में भी अमेरिका प्रायोजित वचन और पुनर्विचार दृष्टिकोण हावी रहा जिसने वि को आशंकित जलवायु विनाश के रास्ते पर डाल दिया। अत: जलवायु संकट और जलवायु वार्ताओ में अविास तथा अनास्था के लिए केवल विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं। दक्षिण के बढ़ते उत्सर्जनों की दोषी उनकी उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं जिनका प्रतिनिधित्व मुख्यत: ‘बेसिक’ करता है। ‘बेसिक’ और दक्षिण एशिया के बाकी हिस्से के बीच अंतर किया जाना चाहिए। बेसिक के उत्सर्जन शेष वि की तुलना में कहीं तेजी से बढ़ रहे हैं। पिछले साल चीन के उत्सर्जन 2009 से 10 प्रतिशत बढ़े थे और भारत के 9 प्रतिशत। जबकि पूरे वि में 6 प्रतिशत बढ़े। 1990 और 2000 के बीच ईंधन दहन से वैिक उत्सर्जन में 37.2 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि ओईसीडी देशों में यह 8 प्रतिशत थी। लेकिन इस बीच भारत के उत्सर्जन 175.9 प्रतिशत और चीन के इससे भी अधिक 196.8 प्रतिशत बढ़े। ब्राजील के उत्सर्जनों में 68.4 और दक्षिण अफ्रीका में 53.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई। आज का चीन 1992 के चीन से जुदा है जब संयुक्त राष्ट्र जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। अब उसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन लगभग पश्चिमी यूरोपीय देशों के बराबर है और 2035 तक यह अमेरिकी स्तर तक पहुंच जाएगा। जलवायु संबंधी दायित्वों से बचने के लिए भारत गरीबी की आड़ नहीं ले सकता। उसके उत्सर्जनों में बढ़ोतरी की बड़ी वजह गरीबों की जरूरत पूरी करना नहीं बल्कि अमीर वर्ग का ऐशोआराम है। हालांकि बेसिक को उत्तर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता फिर भी भविष्य में उसे अधिक दायित्व निभाने होंगे। वैिक समझौता वार्ताओं से बड़ी हद तक अपरिचित भारत को डरबन में जहां कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ेगा वहीं जलवायु के मामले में पक्षपात से बचने के लिए दोहरी भूमिका अदा करनी होगी। विकासशील देशों के गुट जी-77 के सदस्य के तौर पर और दूसरे बेसिक राज्य के तौर पर। केंद्रीय प्रश्न यह है कि उत्तर से उस अतिरिक्त स्थान को किस प्रकार खाली कराया जाए जो उसने दक्षिण की कीमत पर वैिक वायुमंडल मामलों में हथिया रखा है। जलवायु स्थरीकरण के बोझ को न्यायोचित ढंग से केवल प्रति व्यक्ति समान उत्सर्जन से ही नहीं बल्कि अनेक अन्य मानदंडों से भी बांटा जा सकता है। डरबन में भारत को किसी दुर्बल, अप्रभावी जलवायु समझौते के प्रति ‘कोपेनहेगन लालच’ से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा समझौता किसी को उत्तरदायी नहीं बनाएगा। इससे भारतीय जन और वैिक जलवायु को नुकसान होगा।
No comments:
Post a Comment