Friday, July 1, 2011

40 सालों में बर्फरहित होगा आर्कटिक


ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से आर्कटिक क्षेत्र की भविष्य में वैश्विक कार्बन सिंक के रूप में काम करने की क्षमता पर बुरा असर पड़ेगा। आर्कटिक पर मौजूद भारतीय मिशन के शोधकर्ताओं ने कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने से आर्कटिक कार्बन को सोखना बहुत कम कर देगा। यह स्थिति पूरी दुनिया के लिए बहुत घातक होगी चूंकि अकेले आकर्टिक महासागर और उसकी भूमि ही पूरी दुनिया का 25 फीसदी कार्बन सोख लेते हैं। हालात इतने विचलित करने वाले हो चुके हैं कि इस रफ्तार से बर्फ पिघलती रही तो अगले 40 सालों में आर्कटिक बर्फरहित हो जाएगा। हाल ही में आर्कटिक से जुड़े शोध करके लौटे राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, एनआईओ के पांच शोधकर्ताओं ने कहा है कि यह प्रवृत्ति गंभीर चिंता का विषय है। आर्कटिक के इस व्यवहार से ग्लोबल वार्मिग और बढ़ सकती है। एनआइओ के वरिष्ठ वैज्ञानिक एस प्रसन्नाकुमार ने कहा कि आर्कटिक महासागर और भूमि मिलकर विश्व का करीब 25 प्रतिशत कार्बन सोख लेते हैं। उन्होंने कहा कि ग्लेशियर और हिमखंड पिघलने का तात्पर्य यह हुआ कि कम असरदार कार्बन सिंक होगा। इससे ग्लोबल वार्मिग तेजी से बढ़ सकती है। प्रसन्नाकुमार ने कहा कि कांग्सफार्डन जोर्ड आर्कटिक महाद्वीप पर भारतीय शोध स्टेशन हिमाद्रि से केवल 100 मीटर दूर है। उन्होंने कहा कि सामान्य शब्दों में इसका मतलब यह हुआ कि आर्कटिक बड़ी मात्रा में कार्बन डाई आक्साइड अवशोषित करने की अपनी क्षमता को खो देगा। यह कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में ही रह जाएगी और अंतत: ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने के कारण के रूप में काम करेगी। वैज्ञानिकों को न केवल बर्फ के पिघलने का डर है बल्कि इससे समुद्र के स्तर में होने वाले इजाफे को लेकर वह चिंतित हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसा लग रहा है कि आर्कटिक क्षेत्र अगले 30 से 40 वर्षो में बर्फ से मुक्त हो जाएगा। वैज्ञानिकों ने कहा कि पिछले पांच साल में बर्फ ज्यादा तेजी से पिघली है। बर्फ के पिघलने के साथ ही वैश्विक कार्बन चक्र में भी बदलाव आ जाएगा। भारतीय वैज्ञानिकों का दल आर्कटिक पर एक विशेष रिसर्च के सिलसिले में है। भारतीय दल पता लगाने की कोशिश कर रहा है कि कार्बन को शोधित करने में छोटा पौधा फाइटोप्लांकटन क्या भूमिका निभा सकता है.

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