गंगा वैसे तो देश के करोड़ों भारतीयों की आस्था का प्रतीक है। मोक्षदायिनी है, लेकिन अपने प्रवाह क्षेत्र यानी देश की आबादी के चौथे हिस्से को सींचने वाली यह गंगा भीषण संकट के दौर से गुजर रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है प्रदूषण, जो केंद्र और राज्य सरकारों की हृदयहीनता का तो जीता-जागता सबूत है ही, इसके प्रवाह क्षेत्र में रहने-बसने वाले लोगों, इसके किनारे बने मठों, श्रद्धालुओं की नासमझी का भी प्रमुख कारण है। यही वजह है कि गंगा बचाने को लेकर कुछ नामचीन तो कुछ अनजाने लोगों द्वारा दशकों से बहुतेरे अभियान छेड़े गए। अब इनमें एक नाम और जुड़ गया है भाजपा नेता उमा भारती का। पिछले दिनों गंगा बचाने के मुद्दे पर उमा भारती ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भेंट की। उनकी मांग है कि गंगा की सभी परियोजनाओं पर फैसले के लिए एक अलग बोर्ड बने। उन्होंने विश्वास जताया है कि गंगा को बचाने में सोनिया गांधी उनका साथ देंगी। अब देखना यह है कि वह भाजपा के झंडे तले उसके दिशा-निर्देशों के तहत किस तरह गंगा को बचाने में साथ देंगी। बीते दिनों गंगा से संबंधित दो अहम घटनाएं हुई। गंगा में अवैध खनन के विरोध में अनशन पर बैठे 36 वर्षीय युवा संन्यासी स्वामी निगमानंद सरस्वती ने 13 जून की रात में अपने प्राण की आहुति दे दी। वह 19 फरवरी से अनशन पर थे। देश में गंगा के मुद्दे पर किसी संत द्वारा अपने जान की आहुति देने की यह पहली घटना है। दूसरी घटना स्वामी निगमानंद की मृत्यु से एक सप्ताह पहले की है, जब गंगा ने काशी के घाटों का साथ छोड़ दिया। कहते हैं कि गंगा ने भगवान शिव को वादा दिया था कि वह कभी काशी के घाटों का साथ छोड़ कर नहीं जाएंगी। वैसे तीसरी घटना भी गंगा से ही जुड़ी है। वह यह कि स्वामी निगमानंद के बलिदान के तीसरे दिन भारत ने विश्व बैंक से गंगा की सफाई के लिए एक अरब डॉलर यानी 4,600 करोड़ रुपये का समझौता किया। यह राशि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल को गंगा के सरंक्षण यानी वर्ष 2020 तक गंगा को गंदे पानी और उद्योगों के प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए मुहैया कराई जाएगी। पांच साल की अवधि में विश्व बैंक की यह राशि खर्च करने के लिए राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण को दी जाएगी, ताकि गंगा को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त किया जा सके। यह सर्वविदित है कि देश में गंगा सफाई के लिए सरकारी अभियान की शुरुआत आज से 26 साल पहले हुई थी। यह बात दीगर है कि आज उसका स्वरूप बदल गया है। उसके बाद भी गंगा का संकट खत्म नहीं हुआ है, बल्कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। प्रदूषण खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। गंगा दिन-ब-दिन सूखती जा रही है। इसी का नतीजा है कि उसके जल-जीवों के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है। बिहार में हालत यह है कि यहां गंगा के प्रवाह क्षेत्र में ऑक्सीजन समेत तमाम ऐसी चीजें जो जलजीवों के जीवन के लिए बहुत ही जरूरी हैं, वह धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं। वहां पिछले 24 सालों में ऑक्सीजन की मात्रा 25 से 28 फीसदी तक कम हो गई है। यही नहीं, नदी में जैव-रासायनिक ऑक्सीजन की न्यूनतम मात्रा में 15 फीसदी से भी ज्यादा की कमी आई है। हालात यह है कि अब प्रदूषण के चलते गंगा के पतित पावनी स्वरूप पर भी सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं। सरकार गंगा शुद्धि के दावे करते नहीं थकती, जबकि हकीकत यह है कि गंगा आज भी मैली है। उसका जल आचमन करने लायक तक नहीं बचा है। और तो और, हालत यह है कि इसके पीने से जानलेवा बीमारियों के चंगुल में आकर आए दिन लोग मौत के मंुह में जा रहे हैं। बीते वर्षो में किए गए शोध और अध्ययन इसके जीवंत प्रमाण हैं। गौरतलब है कि 2510 किलोमीटर लंबे गंगा के तटों पर तकरीब 29 बड़े, 23 मझोले और 48 छोटे कस्बे पड़ते हैं। इसके प्रवाह क्षेत्र में आने वाले एक लाख या उससे ज्यादा आबादी वाले तकरीब 116 शहरों में एक भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। 1986 में गंगा के प्रवाह क्षेत्र में स्थित शहरों से निकलने वाले सीवेज की मात्रा 1.3 अरब लीटर थी, जो अब दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है। छोटे-बड़े कारखानों का विषैला रसायनयुक्त कचरा और नगरों का तकरीब 2538 से अधिक एमएलडी सीवेज गंगा में गिरता है। उस हालत में, जबकि गंगा एक्शन प्लान एक के तहत 865 एमएलडी तथा दो के तहत 780 एमएलडी सीवेज का शोधन हो पाता है। जाहिर है यह तो मात्र 35 फीसदी ही है, जबकि 65 फीसदी बिना शोधन के सीधा गंगा में गिरता है। इसके अलावा गंगा के निकास से उसके किनारे बसे तीर्थ, आश्रम और होटलों का मल-मूत्र, कचरा भी तो गंगा में जाता है। यह तो शुरुआत से ही गंगा को प्रदूषित करता है। अगर पर्यावरण मंत्रालय के हालिया अध्ययनों पर दृष्टि डालें तो इसका खुलासा होता है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई जगहों पर पानी नहाने लायक भी नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत धोखे से एक बार भी गंगा में डुबकी लगा ली तो खैर नहीं। इतने भर से ही आप त्वचा रोग के शिकार हो जाएंगे। कानपुर को ही लें, एक समय उत्तर प्रदेश का यह औद्योगिक शहर पूरब के मैनचेस्टर के रूप में विख्यात था। यह शहर ही समूचे गंगा के प्रवाह क्षेत्र में सबसे ज्यादा गंगा में जहर उड़ेलता है। यहां के गंगा के किनारे स्थित चमड़े की 400 टेनरियां लगभग 1.40 करोड़ लीटर रसायन युक्त अपशिष्ट काले पानी के रूप में कचरा गंगा में छोड़ती हैं। इनमें क्रोमियम की मात्रा सबसे ज्यादा होती है। एक लीटर जल में निर्धारित मात्रा के अनुसार दो मिलीग्राम क्रोमियम से ज्यादा नहीं होना चाहिए, जबकि यह 60 से 70 मिलीग्राम तक आंकी गई है। विडंबना यह है कि इस शहर का तकरीब सौ साल पुराना सीवेज नेटवर्क ठीक-ठाक ढंग से काम ही नहीं करता। बनारस में अक्सर छह-सवा छह हजार मवेशियों के शव गंगा नदी में तैरते सड़ते पाए जाते हैं और लगभग 300 टन अधजला मांस गंगा में गिरता है। इसके अलावा गंगा किनारे कार्यरत 1400 औद्योगिक इकाइयां लगभग 7.5 करोड़ लीटर (75 एमएलडी) अशोधित रसायनयुक्त कचरा रोजाना गंगा में छोड़ती हैं। यहां के संकटमोचन फाउंडेशन के प्रमुख और संकटमोचन मंदिर के प्रमुख पुजारी प्रो. वीरभद्र मिश्र दशकों से गंगा में गिरने वाले नालों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। पटना में भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है। यहां आज भी गंगा में सैकड़ों नालों से गंदा और जहरीला पानी गिरने का सिलसिला लगातार जारी है। सरकारी प्रयास नाकारा साबित हो रहे हैं। फरवरी 1985 में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के उद्देश्य से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा महत्वाकांक्षी परियोजना गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की गई थी। उसका लक्ष्य मार्च 1990 तक रखा गया था, लेकिन कार्य पूरा न होने पर उसे पहले वर्ष 2000 तक, फिर 2001 और बाद में 2008 तक बढ़ा दिया गया। इस बीच कुल 1387 करोड़ की राशि स्वाहा हो चुकी थी, लेकिन उसके बावजूद लक्ष्य पूरा न हो सका। 2008 के आखिर में सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया। विडंबना यह है कि अब तक गंगा की सफाई के नाम पर सरकार 36,448 करोड़ रुपये बर्बाद कर चुकी है, लेकिन गंगा वर्ष 1985 से और गंदी हो गई है और उसके प्रदूषण का स्तर 28 फीसदी तक और बढ़ गया है। अब कहीं जाकर पर्यावरण मंत्रालय ने कन्नौज से वाराणसी के बीच के 500 किलोमीटर गंगा के तटीय क्षेत्र में चल रही तकरीब 500 औद्योगिक इकाइयों को प्रदूषण फैलाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। गंगा की अविलरता को बनाए रखने की खातिर और उत्तराखंड में गंगा पर बांध बनाए जाने के खिलाफ आइआइटी कानपुर के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. जीडी अग्रवाल दो बार आमरण अनशन कर चुके हैं। उसी के फलस्वरूप केंद्र सरकर को उत्तराखंड में गंगा पर और बांध न बनाए जाने और वहां जारी पनबिजली परियोजनाए रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी थी, लेकिन सरकार की नीयत में अब भी खोट है। केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया इसकी गवाही देता है। बहरहाल, सरकार दावा कर रही है कि 2020 तक सरकार विश्व बैंक के इस कर्ज के साथ ही गंगा की सफाई पर कुल 7,000 करोड़ रुपये खर्च करेगी, लेकिन देखना यह है कि इसके बावजूद वह गंगा को प्रदूषण मुक्त कर पाएगी या नहीं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).
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