साल दर साल बढ़ती गर्मी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल आदि ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं पेड़ लगाकर धरती को बचाने का संकल्प, जंगल व वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार व समाज प्रयास कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता "शहरीकरण" एक समग्र विषय के तौर पर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का, सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहर रूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फूलता-फलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या ३०२ हो गई है, जबकि १९७१ में ऐसे शहर मात्र १५१ थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है। इनकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर १६ हो गई है। पांच से १० लाख आबादी वाले शहर १९७१ में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैकड़ा हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का ८.५० प्रतिशत हिस्सा देश के २६ महानगरों में रह रहा है। एक बात और चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है यानी यह डर निराधार नहीं हैकि कहीं भारत आने वाली सदी में "अर्बन स्लम" या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील न हो जाए।
शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए और इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्रोत आदि सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु।
हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फूलता-फलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या ३०२ हो गई है, जबकि १९७१ में ऐसे शहर मात्र १५१ थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है। इनकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर १६ हो गई है। पांच से १० लाख आबादी वाले शहर १९७१ में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैकड़ा हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का ८.५० प्रतिशत हिस्सा देश के २६ महानगरों में रह रहा है। एक बात और चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है यानी यह डर निराधार नहीं हैकि कहीं भारत आने वाली सदी में "अर्बन स्लम" या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील न हो जाए।
शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए और इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्रोत आदि सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु।
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