Friday, July 22, 2011

ऑक्सीजन से भरी गंगा की बूंद-बूंद

 लगातार गंदगी की गिरफ्त में घिर रही गंगा अभी भी अपने मायके में पाक साफ है। प्राणदायक ऑक्सीजन गंगा की बूंद-बूंद में समाहित है। उत्तरकाशी से ऋषिकेश तक गंगा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा करीब 80 फीसदी तक है। हालांकि पिछले 10 सालों में गंदगी ने पानी में घुलित ऑक्सीजन (डिजॉल्व ऑक्सीजन) की मात्रा को कुछ हद तक प्रभावित किया है, लेकिन इसका असर ऋषिकेश तक ना के बराबर है। हरिद्वार व आगे के हिस्सों में जरूर गंगा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा 10-20 फीसदी तक कम है। केंद्रीय जल आयोग ने विभिन्न स्थानों पर गंगा के पानी की जांच की तो जीवनदायिनी नदी की नई तस्वीर सामने आई। पता चला कि गोमुख, उत्तरकाशी से लेकर ऋषिकेश तक गंगा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा 79 से 94 फीसदी तक पाई गई। जबकि हरिद्वार व आगे के हिस्सों में यह मात्रा 60-70 फीसदी के आसपास है। पिछले 10 साल की बात करें तो डिजॉल्व ऑक्सीजन का लेवल औसतन एक फीसदी तक घटा है। जल आयोग के अधिशासी अभियंता रितेष खट्टर ने बताया कि उत्तरकाशी से ऋषिकेश तक गंगा में प्रदूषण कम है। बहाव अधिक होने से पानी में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा अधिक हो जाती है। ऋषिकेश के बाद यह परिस्थिति एकदम उलटी हो जाती हैं। ऑक्सीजन के फायदे जिस पानी में ऑक्सीजन का स्तर जितना अधिक होता है, वह पानी सेहत के लिए उतना ही बेहतर माना जाता है। पानी में घुलित ऑक्सीजन जलीय जीव-जंतुओं के लिए भी बेहद मायने रखती है। यदि पानी में ऑक्सीजन का स्तर 04 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम हो जाए तो मछलियां मरने लग जाती हैं। कैसे घटती-बढ़ती ऑक्सीजन वैज्ञानिकों के मुताबिक यदि पानी में गंदगी होगी तो उसका ऑर्गेनिक (कार्बनिक) लेवल बढ़ जाएगा और ऑक्सीजन घटने लगती है। इसी तरह जब पानी में बहाव अधिक होता है तो हवा में मौजूद ऑक्सीजन पानी में घुलने लगती है.

आखिर क्यों उफन जाती हैं नदियाँ


Monday, July 11, 2011

झारखंड में एंथ्रेक्स से मरे हजारों पशु


झारखंड के लातेहार,चतरा व डाल्टनगंज में हजारों पशुओं की मौत एंथ्रेक्स से हुई थी। प्रभावित गांवों में गई जांच टीम ने शासन को भेजी अपनी रिपोर्ट में ऐसी ही संभावना जाहिर की है। लातेहार, चतरा व डाल्टनगंज में हजारों पशुओं की एक साथ मौत होने पर पशु स्वास्थ्य एवं उत्पादन संस्थान के निदेशक डा. कमलाकांत सिंह ने डा. शैलेंद्र कुमार तिवारी तथा डा. सुरेंद्र कुमार को प्रभावित इलाकों में जांच के लिए भेजा था। जांच दल ने चतरा के प्रतापपुर, लातेहार के बालूमाथ, चंदवा आदि गांवों का दौरा कर पशुपालकों व पशु चिकित्सकों से बात की तथा प्रभावित क्षेत्रों का मौका-मुआयना किया। इसके बाद निदेशक को भेजी अपनी रिपोर्ट में कहा है कि जानवरों में थरथराहट, छटपटाकर मर जाना, बीमारी से मृत्यु के बीच बहुत कम समय होना, प्राकृतिक छिद्रों से खून आना, पेट फूलना आदि एंथ्रेक्स के ही लक्षण हैं। सुखाड़ के बाद भारी वर्षा की स्थिति में पशुओं में एंथे्रक्स बीमारी की संभावना बढ़ जाती है। रिपोर्ट में लिखा गया है कि जीवित पशुओं से लिए गए नमूने की जांच में एंथ्रेक्स नहीं पाया गया। पशु स्वास्थ्य एवं उत्पादन संस्थान के निदेशक ने रिपोर्ट पशुपालन एवं मत्स्य विभाग के सचिव अरुण कुमार सिंह को भेजते हुए कार्रवाई की मांग की है।


दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 10 जुलाई, 2011

भारत के चींटीखोर को चट कर रहा चीन


भारत के कई इलाकों में पाया जाने वाला छोटा-सा जीव चींटीखोर यानी पेंगोलिन चीनी सेहत के लिए अपनी जान गंवा रहा है। चीनी बाजार में दवाओं के लिए बढ़ रही मांग के चलते यह संरक्षित जीव अपने वजूद की लड़ाई लड़ रहा है। पूर्वोत्तर भारत से म्यांमार के रास्ते चीन और दक्षिणप‌रू्व एशियाई मुल्कों को हो रही हजारों किलो पेंगोलिन शल्क (त्वचा के ऊपर पाई जाने वाली चिकनी परत) की तस्करी ने भारतीय वन्य जीव संरक्षकों की नींद उड़ा दी है। चीन, थाइलैंड, वियतनाम, मलेशिया समेत कई मुल्कों में पारंपरिक दवाओं में पेंगोलिन शल्कों के इस्तेमाल की खातिर भारत में हर साल हजारों पेंगोलिन मारे जा रहे हैं। बीते एक माह के दौरान भारत में चेन्नई से लेकर इम्फाल में धर पकड़ और पेंगोलिन शल्क बरामदगी के आंकड़े यह बताने को काफी हैं कि इस काले कारोबार का दायरा कितना बड़ा है। इस दौरान म्यांमार से सटी मोरे सीमा, गुवाहाटी व कोलकाता हवाई अड्डों जैसे अनेक स्थानों पर दो सौ किलो से ज्यादा पेंगोलिन शल्क बरामद किए गए हैं। यह सब भी तब जबकि पेंगोलिन भारतीय वन्य जीव संरक्षण कानून की पहली अनुसूची के तहत संरक्षित जीव है। साथ ही इंटरनेशनल यूनियन फॉर द कंजरवेशन आफ नेचर (आइयूसीएन) की रेड लिस्ट और वन्य जीव अंगों का अवैध व्यापार रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय संधि साइटीज के तहत संरक्षित है। वन्य जीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो की अतिरिक्त महानिदेशक रीना मित्रा कहती हैं कि इसे रोकने की कोशिशों के दौरान तमिलनाडु, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, बंगाल और उत्तर पूर्व राज्यों में पेंगोलिन शल्क तस्करी के चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। वरिष्ठ आइपीएस अधिकारी मित्रा बताती हैं कि इसकी तस्करी के लिए शिकारी रेलवे मेल, विमान कार्गो, कूरियर जैसे रास्तों का भी इस्तेमाल भी कर रहे हैं। लिहाजा इन्हें बंद करने के लिए व्यापक तौर पर इसकी सुरक्षा व निगरानी स्टाफ को प्रशिक्षित किया जा रहा है। बढ़ी दबिश का ही नतीजा है कि कोलकाता हवाई अड्डे पर कार्गो में 80 किलो शल्क बरामद किए गए। वहीं चेन्नइ में पेंगोलिन तस्करों के एक गैंग का भी भंडाफोड़ किया गया। हालांकि मित्रा स्वीकार करती हैं कि बरामदगी से कहीं बड़ी मात्रा लगातार देश से बाहर जा रही है और अब भी देश में कई गैंग सक्रिय हैं, जो इस जीव की जान ले रहे हैं। भारत में पेंगोलिन की घटती आबादी को देखते हुए सेंट्रल जू अथॉरिटी ने 70 संकटग्रस्त प्रजातियों के लिए चलाए जा रहे संरक्षण कार्यक्रम में पेंगोलिन को भी शामिल किया है। महंगा पेंगोलिन : जानकारों के मुताबिक एक पेंगोलिन से करीब दो किलो शल्क प्राप्त होते हैं और वन्यजीव अंगों के बाजार में इसकी कीमत 70 हजार रुपये प्रति किलो तक आसानी से मिल जाती है। हालांकि पेंगोलिन भारत ही नहीं चीन में भी संरक्षित प्रजाति है। लेकिन चीन में इसकी मांग का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि पिछले साल चीनी सीमा शुल्क अधिकारियों ने एक नौका से दस टन मृत पेंगोलिन और पेंगोलिन शल्क बरामद किए थे। दरअसल, चीन में यह धारणा है कि पेंगोलिन शल्कों से बनी दवाएं जोड़ों की बीमारी, चर्मरोगों का इलाज करने के साथ रक्त संचार व्यवस्थित कर सकती है। चिकित्सा विज्ञान के किसी शोध में पेंगोलिन शल्कों के किसी चिकित्सक गुण की पुष्टि न होने के बावजूद चीन में पारंपरिक दवाओं के लिए इसका इस्तेमाल जारी है।

प्रणय उपाध्याय, दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 10 जुलाई, 2011

Tuesday, July 5, 2011

शहरीकरण पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट


साल दर साल बढ़ती गर्मी, गांव-गांव तक फैल रहा जल-संकट का साया, बीमारियों के कारण पट रहे अस्पताल आदि ऐसे कई मसले हैं जो आम लोगों को पर्यावरण के प्रति जागरूक बना रहे हैं। कहीं कोई नदी, तालाब के संरक्षण की बात कर रहा है तो कहीं पेड़ लगाकर धरती को बचाने का संकल्प, जंगल व वहां के बाशिंदे जानवरों को बचाने के लिए भी सरकार व समाज प्रयास कर रहे हैं। लेकिन भारत जैसे विकासशील देश में पर्यावरण का सबसे बड़ा संकट तेजी से विस्तारित होता "शहरीकरण" एक समग्र विषय के तौर पर लगभग उपेक्षित है। असल में देखें तो संकट जंगल का हो या फिर स्वच्छ वायु का या फिर पानी का, सभी के मूल में विकास की वह अवधारणा है जिससे शहर रूपी सुरसा सतत विस्तार कर रही है और उसकी चपेट में आ रही है प्रकृति और नैसर्गिकता।

हमारे देश में संस्कृति, मानवता और बसावट का विकास नदियों के किनारे ही हुआ है। सदियों से नदियों की अविरल धारा और उसके तट पर मानव-जीवन फूलता-फलता रहा है। बीते कुछ दशकों में विकास की ऐसी धारा बही कि नदी की धारा आबादी के बीच आ गई और आबादी की धारा को जहां जगह मिली वहां बस गई और यही कारण है कि हर साल कस्बे नगर बन रहे हैं और नगर महानगर। बेहतर रोजगार, आधुनिक जनसुविधाएं और उज्ज्वल भविष्य की लालसा में अपने पुश्तैनी घर-बार छोड़ कर शहर की चकाचौंध की ओर पलायन करने की बढ़ती प्रवृत्ति का परिणाम है कि देश में एक लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की संख्या ३०२ हो गई है, जबकि १९७१ में ऐसे शहर मात्र १५१ थे। यही हाल दस लाख से अधिक आबादी वाले शहरों की है। इनकी संख्या गत दो दशकों में दुगुनी होकर १६ हो गई है। पांच से १० लाख आबादी वाले शहर १९७१ में मात्र नौ थे जो आज बढ़कर आधा सैकड़ा हो गए हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि आज देश की कुल आबादी का ८.५० प्रतिशत हिस्सा देश के २६ महानगरों में रह रहा है। एक बात और चौंकाने वाली है कि भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में गरीबी की रेखा से नीचे रहने वालों की संख्या शहरों में रहने वाले गरीबों के बराबर ही है। यह संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है यानी यह डर निराधार नहीं हैकि कहीं भारत आने वाली सदी में "अर्बन स्लम" या शहरी मलिन बस्तियों में तब्दील न हो जाए।

शहर के लिए सड़क चाहिए, बिजली चाहिए, मकान चाहिए, दफ्तर चाहिए और इन सबके लिए या तो खेत होम हो रहे हैं या फिर जंगल। जंगल को हजम करने की चाल में पेड़, जंगली जानवर, पारंपरिक जल स्रोत आदि सभी कुछ नष्ट हो रहा है। यह वह नुकसान है जिसका हर्जाना संभव नहीं है। शहरीकरण यानी रफ्तार, रफ्तार का मतलब है वाहन और वाहन हैं कि विदेशी मुद्रा भंडार से खरीदे गए ईंधन को पी रहे हैं और बदले में दे रहे हैं दूषित वायु।

Monday, July 4, 2011

मैली गंगा को निर्मल बनाने की कवायद


गंगा वैसे तो देश के करोड़ों भारतीयों की आस्था का प्रतीक है। मोक्षदायिनी है, लेकिन अपने प्रवाह क्षेत्र यानी देश की आबादी के चौथे हिस्से को सींचने वाली यह गंगा भीषण संकट के दौर से गुजर रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है प्रदूषण, जो केंद्र और राज्य सरकारों की हृदयहीनता का तो जीता-जागता सबूत है ही, इसके प्रवाह क्षेत्र में रहने-बसने वाले लोगों, इसके किनारे बने मठों, श्रद्धालुओं की नासमझी का भी प्रमुख कारण है। यही वजह है कि गंगा बचाने को लेकर कुछ नामचीन तो कुछ अनजाने लोगों द्वारा दशकों से बहुतेरे अभियान छेड़े गए। अब इनमें एक नाम और जुड़ गया है भाजपा नेता उमा भारती का। पिछले दिनों गंगा बचाने के मुद्दे पर उमा भारती ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भेंट की। उनकी मांग है कि गंगा की सभी परियोजनाओं पर फैसले के लिए एक अलग बोर्ड बने। उन्होंने विश्वास जताया है कि गंगा को बचाने में सोनिया गांधी उनका साथ देंगी। अब देखना यह है कि वह भाजपा के झंडे तले उसके दिशा-निर्देशों के तहत किस तरह गंगा को बचाने में साथ देंगी। बीते दिनों गंगा से संबंधित दो अहम घटनाएं हुई। गंगा में अवैध खनन के विरोध में अनशन पर बैठे 36 वर्षीय युवा संन्यासी स्वामी निगमानंद सरस्वती ने 13 जून की रात में अपने प्राण की आहुति दे दी। वह 19 फरवरी से अनशन पर थे। देश में गंगा के मुद्दे पर किसी संत द्वारा अपने जान की आहुति देने की यह पहली घटना है। दूसरी घटना स्वामी निगमानंद की मृत्यु से एक सप्ताह पहले की है, जब गंगा ने काशी के घाटों का साथ छोड़ दिया। कहते हैं कि गंगा ने भगवान शिव को वादा दिया था कि वह कभी काशी के घाटों का साथ छोड़ कर नहीं जाएंगी। वैसे तीसरी घटना भी गंगा से ही जुड़ी है। वह यह कि स्वामी निगमानंद के बलिदान के तीसरे दिन भारत ने विश्व बैंक से गंगा की सफाई के लिए एक अरब डॉलर यानी 4,600 करोड़ रुपये का समझौता किया। यह राशि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल को गंगा के सरंक्षण यानी वर्ष 2020 तक गंगा को गंदे पानी और उद्योगों के प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए मुहैया कराई जाएगी। पांच साल की अवधि में विश्व बैंक की यह राशि खर्च करने के लिए राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण को दी जाएगी, ताकि गंगा को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त किया जा सके। यह सर्वविदित है कि देश में गंगा सफाई के लिए सरकारी अभियान की शुरुआत आज से 26 साल पहले हुई थी। यह बात दीगर है कि आज उसका स्वरूप बदल गया है। उसके बाद भी गंगा का संकट खत्म नहीं हुआ है, बल्कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। प्रदूषण खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। गंगा दिन-ब-दिन सूखती जा रही है। इसी का नतीजा है कि उसके जल-जीवों के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है। बिहार में हालत यह है कि यहां गंगा के प्रवाह क्षेत्र में ऑक्सीजन समेत तमाम ऐसी चीजें जो जलजीवों के जीवन के लिए बहुत ही जरूरी हैं, वह धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं। वहां पिछले 24 सालों में ऑक्सीजन की मात्रा 25 से 28 फीसदी तक कम हो गई है। यही नहीं, नदी में जैव-रासायनिक ऑक्सीजन की न्यूनतम मात्रा में 15 फीसदी से भी ज्यादा की कमी आई है। हालात यह है कि अब प्रदूषण के चलते गंगा के पतित पावनी स्वरूप पर भी सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं। सरकार गंगा शुद्धि के दावे करते नहीं थकती, जबकि हकीकत यह है कि गंगा आज भी मैली है। उसका जल आचमन करने लायक तक नहीं बचा है। और तो और, हालत यह है कि इसके पीने से जानलेवा बीमारियों के चंगुल में आकर आए दिन लोग मौत के मंुह में जा रहे हैं। बीते वर्षो में किए गए शोध और अध्ययन इसके जीवंत प्रमाण हैं। गौरतलब है कि 2510 किलोमीटर लंबे गंगा के तटों पर तकरीब 29 बड़े, 23 मझोले और 48 छोटे कस्बे पड़ते हैं। इसके प्रवाह क्षेत्र में आने वाले एक लाख या उससे ज्यादा आबादी वाले तकरीब 116 शहरों में एक भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। 1986 में गंगा के प्रवाह क्षेत्र में स्थित शहरों से निकलने वाले सीवेज की मात्रा 1.3 अरब लीटर थी, जो अब दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है। छोटे-बड़े कारखानों का विषैला रसायनयुक्त कचरा और नगरों का तकरीब 2538 से अधिक एमएलडी सीवेज गंगा में गिरता है। उस हालत में, जबकि गंगा एक्शन प्लान एक के तहत 865 एमएलडी तथा दो के तहत 780 एमएलडी सीवेज का शोधन हो पाता है। जाहिर है यह तो मात्र 35 फीसदी ही है, जबकि 65 फीसदी बिना शोधन के सीधा गंगा में गिरता है। इसके अलावा गंगा के निकास से उसके किनारे बसे तीर्थ, आश्रम और होटलों का मल-मूत्र, कचरा भी तो गंगा में जाता है। यह तो शुरुआत से ही गंगा को प्रदूषित करता है। अगर पर्यावरण मंत्रालय के हालिया अध्ययनों पर दृष्टि डालें तो इसका खुलासा होता है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई जगहों पर पानी नहाने लायक भी नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत धोखे से एक बार भी गंगा में डुबकी लगा ली तो खैर नहीं। इतने भर से ही आप त्वचा रोग के शिकार हो जाएंगे। कानपुर को ही लें, एक समय उत्तर प्रदेश का यह औद्योगिक शहर पूरब के मैनचेस्टर के रूप में विख्यात था। यह शहर ही समूचे गंगा के प्रवाह क्षेत्र में सबसे ज्यादा गंगा में जहर उड़ेलता है। यहां के गंगा के किनारे स्थित चमड़े की 400 टेनरियां लगभग 1.40 करोड़ लीटर रसायन युक्त अपशिष्ट काले पानी के रूप में कचरा गंगा में छोड़ती हैं। इनमें क्रोमियम की मात्रा सबसे ज्यादा होती है। एक लीटर जल में निर्धारित मात्रा के अनुसार दो मिलीग्राम क्रोमियम से ज्यादा नहीं होना चाहिए, जबकि यह 60 से 70 मिलीग्राम तक आंकी गई है। विडंबना यह है कि इस शहर का तकरीब सौ साल पुराना सीवेज नेटवर्क ठीक-ठाक ढंग से काम ही नहीं करता। बनारस में अक्सर छह-सवा छह हजार मवेशियों के शव गंगा नदी में तैरते सड़ते पाए जाते हैं और लगभग 300 टन अधजला मांस गंगा में गिरता है। इसके अलावा गंगा किनारे कार्यरत 1400 औद्योगिक इकाइयां लगभग 7.5 करोड़ लीटर (75 एमएलडी) अशोधित रसायनयुक्त कचरा रोजाना गंगा में छोड़ती हैं। यहां के संकटमोचन फाउंडेशन के प्रमुख और संकटमोचन मंदिर के प्रमुख पुजारी प्रो. वीरभद्र मिश्र दशकों से गंगा में गिरने वाले नालों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। पटना में भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है। यहां आज भी गंगा में सैकड़ों नालों से गंदा और जहरीला पानी गिरने का सिलसिला लगातार जारी है। सरकारी प्रयास नाकारा साबित हो रहे हैं। फरवरी 1985 में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के उद्देश्य से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा महत्वाकांक्षी परियोजना गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की गई थी। उसका लक्ष्य मार्च 1990 तक रखा गया था, लेकिन कार्य पूरा न होने पर उसे पहले वर्ष 2000 तक, फिर 2001 और बाद में 2008 तक बढ़ा दिया गया। इस बीच कुल 1387 करोड़ की राशि स्वाहा हो चुकी थी, लेकिन उसके बावजूद लक्ष्य पूरा न हो सका। 2008 के आखिर में सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया। विडंबना यह है कि अब तक गंगा की सफाई के नाम पर सरकार 36,448 करोड़ रुपये बर्बाद कर चुकी है, लेकिन गंगा वर्ष 1985 से और गंदी हो गई है और उसके प्रदूषण का स्तर 28 फीसदी तक और बढ़ गया है। अब कहीं जाकर पर्यावरण मंत्रालय ने कन्नौज से वाराणसी के बीच के 500 किलोमीटर गंगा के तटीय क्षेत्र में चल रही तकरीब 500 औद्योगिक इकाइयों को प्रदूषण फैलाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। गंगा की अविलरता को बनाए रखने की खातिर और उत्तराखंड में गंगा पर बांध बनाए जाने के खिलाफ आइआइटी कानपुर के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. जीडी अग्रवाल दो बार आमरण अनशन कर चुके हैं। उसी के फलस्वरूप केंद्र सरकर को उत्तराखंड में गंगा पर और बांध न बनाए जाने और वहां जारी पनबिजली परियोजनाए रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी थी, लेकिन सरकार की नीयत में अब भी खोट है। केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया इसकी गवाही देता है। बहरहाल, सरकार दावा कर रही है कि 2020 तक सरकार विश्व बैंक के इस कर्ज के साथ ही गंगा की सफाई पर कुल 7,000 करोड़ रुपये खर्च करेगी, लेकिन देखना यह है कि इसके बावजूद वह गंगा को प्रदूषण मुक्त कर पाएगी या नहीं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

गंगा के लिए 1083 दिन से अनशन कर रहा संत


गंगा को बचाने के लिए बनारस के संत बाबा नागनाथ करीब तीन साल (1083 दिन) से अनशन कर रहे है। हालांकि हालत बिगड़ने के कारण अस्पताल में भर्ती बाबा इन दिनों आक्सीजन पर टिके हैं, लेकिन उनका अनशन जारी है। बेहतर उपचार के लिए बीएचयू जाने से इंकार कर चुके संत का कहना है गंगा रक्षा के लिए जान देने से गुरेज नहीं। अस्पताल से छुट्टी मिलते ही दिल्ली में जंतर-मंतर पर अनशन शुरू करूंगा। गंगा रक्षा के संकल्प के साथ सिर्फ पानी के सहारे दिन काटने वाले बाबा नागनाथ ने टिहरी में बंधी गंगा को मुक्त कराने के लिए तीन साल से भी ज्यादा समय पहले अनशन शुरू किया। इस दौरान सात मर्तबा अस्पताल पहुंचाना पड़ा है। उपचार हुआ, डिस्चार्ज हुए, फिर अनशन शुरू। पुन: अस्पताल पहुंचाना पड़ा, फिर भर्ती, कुछ दिनों बाद फिर डिस्चार्ज लेकिन कुछ दिनों बाद फिर अस्पताल में। आम दिनों में श्मशाननाथ मंदिर के चबूतरे पर धूनी रमाए रहने वाले बाबा नागनाथ की दशा ने धर्मभीरुओं को विचलित कर रखा है। हालांकि संत समाज उनकी सुधि लेता रहता है, भक्त जन पहुंचते रहते हैं लेकिन हुक्मरानों को फुर्सत कहां। राष्ट्रीय नदी के नाम पर अरबों-अरब का खेल करने वाले सरकारी सिस्टम के पास इतनी संवेदना भी नहीं कि वह बाबा नागनाथ का हाल पूछे|

Friday, July 1, 2011

40 सालों में बर्फरहित होगा आर्कटिक


ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से आर्कटिक क्षेत्र की भविष्य में वैश्विक कार्बन सिंक के रूप में काम करने की क्षमता पर बुरा असर पड़ेगा। आर्कटिक पर मौजूद भारतीय मिशन के शोधकर्ताओं ने कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने से आर्कटिक कार्बन को सोखना बहुत कम कर देगा। यह स्थिति पूरी दुनिया के लिए बहुत घातक होगी चूंकि अकेले आकर्टिक महासागर और उसकी भूमि ही पूरी दुनिया का 25 फीसदी कार्बन सोख लेते हैं। हालात इतने विचलित करने वाले हो चुके हैं कि इस रफ्तार से बर्फ पिघलती रही तो अगले 40 सालों में आर्कटिक बर्फरहित हो जाएगा। हाल ही में आर्कटिक से जुड़े शोध करके लौटे राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, एनआईओ के पांच शोधकर्ताओं ने कहा है कि यह प्रवृत्ति गंभीर चिंता का विषय है। आर्कटिक के इस व्यवहार से ग्लोबल वार्मिग और बढ़ सकती है। एनआइओ के वरिष्ठ वैज्ञानिक एस प्रसन्नाकुमार ने कहा कि आर्कटिक महासागर और भूमि मिलकर विश्व का करीब 25 प्रतिशत कार्बन सोख लेते हैं। उन्होंने कहा कि ग्लेशियर और हिमखंड पिघलने का तात्पर्य यह हुआ कि कम असरदार कार्बन सिंक होगा। इससे ग्लोबल वार्मिग तेजी से बढ़ सकती है। प्रसन्नाकुमार ने कहा कि कांग्सफार्डन जोर्ड आर्कटिक महाद्वीप पर भारतीय शोध स्टेशन हिमाद्रि से केवल 100 मीटर दूर है। उन्होंने कहा कि सामान्य शब्दों में इसका मतलब यह हुआ कि आर्कटिक बड़ी मात्रा में कार्बन डाई आक्साइड अवशोषित करने की अपनी क्षमता को खो देगा। यह कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में ही रह जाएगी और अंतत: ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने के कारण के रूप में काम करेगी। वैज्ञानिकों को न केवल बर्फ के पिघलने का डर है बल्कि इससे समुद्र के स्तर में होने वाले इजाफे को लेकर वह चिंतित हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसा लग रहा है कि आर्कटिक क्षेत्र अगले 30 से 40 वर्षो में बर्फ से मुक्त हो जाएगा। वैज्ञानिकों ने कहा कि पिछले पांच साल में बर्फ ज्यादा तेजी से पिघली है। बर्फ के पिघलने के साथ ही वैश्विक कार्बन चक्र में भी बदलाव आ जाएगा। भारतीय वैज्ञानिकों का दल आर्कटिक पर एक विशेष रिसर्च के सिलसिले में है। भारतीय दल पता लगाने की कोशिश कर रहा है कि कार्बन को शोधित करने में छोटा पौधा फाइटोप्लांकटन क्या भूमिका निभा सकता है.