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Friday, July 22, 2011

ऑक्सीजन से भरी गंगा की बूंद-बूंद

 लगातार गंदगी की गिरफ्त में घिर रही गंगा अभी भी अपने मायके में पाक साफ है। प्राणदायक ऑक्सीजन गंगा की बूंद-बूंद में समाहित है। उत्तरकाशी से ऋषिकेश तक गंगा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा करीब 80 फीसदी तक है। हालांकि पिछले 10 सालों में गंदगी ने पानी में घुलित ऑक्सीजन (डिजॉल्व ऑक्सीजन) की मात्रा को कुछ हद तक प्रभावित किया है, लेकिन इसका असर ऋषिकेश तक ना के बराबर है। हरिद्वार व आगे के हिस्सों में जरूर गंगा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा 10-20 फीसदी तक कम है। केंद्रीय जल आयोग ने विभिन्न स्थानों पर गंगा के पानी की जांच की तो जीवनदायिनी नदी की नई तस्वीर सामने आई। पता चला कि गोमुख, उत्तरकाशी से लेकर ऋषिकेश तक गंगा के पानी में ऑक्सीजन की मात्रा 79 से 94 फीसदी तक पाई गई। जबकि हरिद्वार व आगे के हिस्सों में यह मात्रा 60-70 फीसदी के आसपास है। पिछले 10 साल की बात करें तो डिजॉल्व ऑक्सीजन का लेवल औसतन एक फीसदी तक घटा है। जल आयोग के अधिशासी अभियंता रितेष खट्टर ने बताया कि उत्तरकाशी से ऋषिकेश तक गंगा में प्रदूषण कम है। बहाव अधिक होने से पानी में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा अधिक हो जाती है। ऋषिकेश के बाद यह परिस्थिति एकदम उलटी हो जाती हैं। ऑक्सीजन के फायदे जिस पानी में ऑक्सीजन का स्तर जितना अधिक होता है, वह पानी सेहत के लिए उतना ही बेहतर माना जाता है। पानी में घुलित ऑक्सीजन जलीय जीव-जंतुओं के लिए भी बेहद मायने रखती है। यदि पानी में ऑक्सीजन का स्तर 04 मिलीग्राम प्रति लीटर से कम हो जाए तो मछलियां मरने लग जाती हैं। कैसे घटती-बढ़ती ऑक्सीजन वैज्ञानिकों के मुताबिक यदि पानी में गंदगी होगी तो उसका ऑर्गेनिक (कार्बनिक) लेवल बढ़ जाएगा और ऑक्सीजन घटने लगती है। इसी तरह जब पानी में बहाव अधिक होता है तो हवा में मौजूद ऑक्सीजन पानी में घुलने लगती है.

Monday, July 4, 2011

मैली गंगा को निर्मल बनाने की कवायद


गंगा वैसे तो देश के करोड़ों भारतीयों की आस्था का प्रतीक है। मोक्षदायिनी है, लेकिन अपने प्रवाह क्षेत्र यानी देश की आबादी के चौथे हिस्से को सींचने वाली यह गंगा भीषण संकट के दौर से गुजर रही है। इसका सबसे बड़ा कारण है प्रदूषण, जो केंद्र और राज्य सरकारों की हृदयहीनता का तो जीता-जागता सबूत है ही, इसके प्रवाह क्षेत्र में रहने-बसने वाले लोगों, इसके किनारे बने मठों, श्रद्धालुओं की नासमझी का भी प्रमुख कारण है। यही वजह है कि गंगा बचाने को लेकर कुछ नामचीन तो कुछ अनजाने लोगों द्वारा दशकों से बहुतेरे अभियान छेड़े गए। अब इनमें एक नाम और जुड़ गया है भाजपा नेता उमा भारती का। पिछले दिनों गंगा बचाने के मुद्दे पर उमा भारती ने कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी से भेंट की। उनकी मांग है कि गंगा की सभी परियोजनाओं पर फैसले के लिए एक अलग बोर्ड बने। उन्होंने विश्वास जताया है कि गंगा को बचाने में सोनिया गांधी उनका साथ देंगी। अब देखना यह है कि वह भाजपा के झंडे तले उसके दिशा-निर्देशों के तहत किस तरह गंगा को बचाने में साथ देंगी। बीते दिनों गंगा से संबंधित दो अहम घटनाएं हुई। गंगा में अवैध खनन के विरोध में अनशन पर बैठे 36 वर्षीय युवा संन्यासी स्वामी निगमानंद सरस्वती ने 13 जून की रात में अपने प्राण की आहुति दे दी। वह 19 फरवरी से अनशन पर थे। देश में गंगा के मुद्दे पर किसी संत द्वारा अपने जान की आहुति देने की यह पहली घटना है। दूसरी घटना स्वामी निगमानंद की मृत्यु से एक सप्ताह पहले की है, जब गंगा ने काशी के घाटों का साथ छोड़ दिया। कहते हैं कि गंगा ने भगवान शिव को वादा दिया था कि वह कभी काशी के घाटों का साथ छोड़ कर नहीं जाएंगी। वैसे तीसरी घटना भी गंगा से ही जुड़ी है। वह यह कि स्वामी निगमानंद के बलिदान के तीसरे दिन भारत ने विश्व बैंक से गंगा की सफाई के लिए एक अरब डॉलर यानी 4,600 करोड़ रुपये का समझौता किया। यह राशि उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल को गंगा के सरंक्षण यानी वर्ष 2020 तक गंगा को गंदे पानी और उद्योगों के प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए मुहैया कराई जाएगी। पांच साल की अवधि में विश्व बैंक की यह राशि खर्च करने के लिए राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण को दी जाएगी, ताकि गंगा को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त किया जा सके। यह सर्वविदित है कि देश में गंगा सफाई के लिए सरकारी अभियान की शुरुआत आज से 26 साल पहले हुई थी। यह बात दीगर है कि आज उसका स्वरूप बदल गया है। उसके बाद भी गंगा का संकट खत्म नहीं हुआ है, बल्कि लगातार बढ़ता ही जा रहा है। प्रदूषण खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है। गंगा दिन-ब-दिन सूखती जा रही है। इसी का नतीजा है कि उसके जल-जीवों के अस्तित्व पर संकट मंडराने लगा है। बिहार में हालत यह है कि यहां गंगा के प्रवाह क्षेत्र में ऑक्सीजन समेत तमाम ऐसी चीजें जो जलजीवों के जीवन के लिए बहुत ही जरूरी हैं, वह धीरे-धीरे खत्म होती जा रही हैं। वहां पिछले 24 सालों में ऑक्सीजन की मात्रा 25 से 28 फीसदी तक कम हो गई है। यही नहीं, नदी में जैव-रासायनिक ऑक्सीजन की न्यूनतम मात्रा में 15 फीसदी से भी ज्यादा की कमी आई है। हालात यह है कि अब प्रदूषण के चलते गंगा के पतित पावनी स्वरूप पर भी सवालिया निशान लगने शुरू हो गए हैं। सरकार गंगा शुद्धि के दावे करते नहीं थकती, जबकि हकीकत यह है कि गंगा आज भी मैली है। उसका जल आचमन करने लायक तक नहीं बचा है। और तो और, हालत यह है कि इसके पीने से जानलेवा बीमारियों के चंगुल में आकर आए दिन लोग मौत के मंुह में जा रहे हैं। बीते वर्षो में किए गए शोध और अध्ययन इसके जीवंत प्रमाण हैं। गौरतलब है कि 2510 किलोमीटर लंबे गंगा के तटों पर तकरीब 29 बड़े, 23 मझोले और 48 छोटे कस्बे पड़ते हैं। इसके प्रवाह क्षेत्र में आने वाले एक लाख या उससे ज्यादा आबादी वाले तकरीब 116 शहरों में एक भी सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट नहीं है। 1986 में गंगा के प्रवाह क्षेत्र में स्थित शहरों से निकलने वाले सीवेज की मात्रा 1.3 अरब लीटर थी, जो अब दोगुनी से भी ज्यादा हो गई है। छोटे-बड़े कारखानों का विषैला रसायनयुक्त कचरा और नगरों का तकरीब 2538 से अधिक एमएलडी सीवेज गंगा में गिरता है। उस हालत में, जबकि गंगा एक्शन प्लान एक के तहत 865 एमएलडी तथा दो के तहत 780 एमएलडी सीवेज का शोधन हो पाता है। जाहिर है यह तो मात्र 35 फीसदी ही है, जबकि 65 फीसदी बिना शोधन के सीधा गंगा में गिरता है। इसके अलावा गंगा के निकास से उसके किनारे बसे तीर्थ, आश्रम और होटलों का मल-मूत्र, कचरा भी तो गंगा में जाता है। यह तो शुरुआत से ही गंगा को प्रदूषित करता है। अगर पर्यावरण मंत्रालय के हालिया अध्ययनों पर दृष्टि डालें तो इसका खुलासा होता है कि कन्नौज, कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी और पटना सहित कई जगहों पर पानी नहाने लायक भी नहीं रहा है। यदि धार्मिक भावना के वशीभूत धोखे से एक बार भी गंगा में डुबकी लगा ली तो खैर नहीं। इतने भर से ही आप त्वचा रोग के शिकार हो जाएंगे। कानपुर को ही लें, एक समय उत्तर प्रदेश का यह औद्योगिक शहर पूरब के मैनचेस्टर के रूप में विख्यात था। यह शहर ही समूचे गंगा के प्रवाह क्षेत्र में सबसे ज्यादा गंगा में जहर उड़ेलता है। यहां के गंगा के किनारे स्थित चमड़े की 400 टेनरियां लगभग 1.40 करोड़ लीटर रसायन युक्त अपशिष्ट काले पानी के रूप में कचरा गंगा में छोड़ती हैं। इनमें क्रोमियम की मात्रा सबसे ज्यादा होती है। एक लीटर जल में निर्धारित मात्रा के अनुसार दो मिलीग्राम क्रोमियम से ज्यादा नहीं होना चाहिए, जबकि यह 60 से 70 मिलीग्राम तक आंकी गई है। विडंबना यह है कि इस शहर का तकरीब सौ साल पुराना सीवेज नेटवर्क ठीक-ठाक ढंग से काम ही नहीं करता। बनारस में अक्सर छह-सवा छह हजार मवेशियों के शव गंगा नदी में तैरते सड़ते पाए जाते हैं और लगभग 300 टन अधजला मांस गंगा में गिरता है। इसके अलावा गंगा किनारे कार्यरत 1400 औद्योगिक इकाइयां लगभग 7.5 करोड़ लीटर (75 एमएलडी) अशोधित रसायनयुक्त कचरा रोजाना गंगा में छोड़ती हैं। यहां के संकटमोचन फाउंडेशन के प्रमुख और संकटमोचन मंदिर के प्रमुख पुजारी प्रो. वीरभद्र मिश्र दशकों से गंगा में गिरने वाले नालों के खिलाफ संघर्ष कर रहे हैं। पटना में भी स्थिति कोई अच्छी नहीं है। यहां आज भी गंगा में सैकड़ों नालों से गंदा और जहरीला पानी गिरने का सिलसिला लगातार जारी है। सरकारी प्रयास नाकारा साबित हो रहे हैं। फरवरी 1985 में गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के उद्देश्य से तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा महत्वाकांक्षी परियोजना गंगा एक्शन प्लान की शुरुआत की गई थी। उसका लक्ष्य मार्च 1990 तक रखा गया था, लेकिन कार्य पूरा न होने पर उसे पहले वर्ष 2000 तक, फिर 2001 और बाद में 2008 तक बढ़ा दिया गया। इस बीच कुल 1387 करोड़ की राशि स्वाहा हो चुकी थी, लेकिन उसके बावजूद लक्ष्य पूरा न हो सका। 2008 के आखिर में सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित कर दिया। विडंबना यह है कि अब तक गंगा की सफाई के नाम पर सरकार 36,448 करोड़ रुपये बर्बाद कर चुकी है, लेकिन गंगा वर्ष 1985 से और गंदी हो गई है और उसके प्रदूषण का स्तर 28 फीसदी तक और बढ़ गया है। अब कहीं जाकर पर्यावरण मंत्रालय ने कन्नौज से वाराणसी के बीच के 500 किलोमीटर गंगा के तटीय क्षेत्र में चल रही तकरीब 500 औद्योगिक इकाइयों को प्रदूषण फैलाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। गंगा की अविलरता को बनाए रखने की खातिर और उत्तराखंड में गंगा पर बांध बनाए जाने के खिलाफ आइआइटी कानपुर के पूर्व विभागाध्यक्ष प्रो. जीडी अग्रवाल दो बार आमरण अनशन कर चुके हैं। उसी के फलस्वरूप केंद्र सरकर को उत्तराखंड में गंगा पर और बांध न बनाए जाने और वहां जारी पनबिजली परियोजनाए रद्द करने की घोषणा करनी पड़ी थी, लेकिन सरकार की नीयत में अब भी खोट है। केंद्र और राज्य सरकारों का रवैया इसकी गवाही देता है। बहरहाल, सरकार दावा कर रही है कि 2020 तक सरकार विश्व बैंक के इस कर्ज के साथ ही गंगा की सफाई पर कुल 7,000 करोड़ रुपये खर्च करेगी, लेकिन देखना यह है कि इसके बावजूद वह गंगा को प्रदूषण मुक्त कर पाएगी या नहीं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

गंगा के लिए 1083 दिन से अनशन कर रहा संत


गंगा को बचाने के लिए बनारस के संत बाबा नागनाथ करीब तीन साल (1083 दिन) से अनशन कर रहे है। हालांकि हालत बिगड़ने के कारण अस्पताल में भर्ती बाबा इन दिनों आक्सीजन पर टिके हैं, लेकिन उनका अनशन जारी है। बेहतर उपचार के लिए बीएचयू जाने से इंकार कर चुके संत का कहना है गंगा रक्षा के लिए जान देने से गुरेज नहीं। अस्पताल से छुट्टी मिलते ही दिल्ली में जंतर-मंतर पर अनशन शुरू करूंगा। गंगा रक्षा के संकल्प के साथ सिर्फ पानी के सहारे दिन काटने वाले बाबा नागनाथ ने टिहरी में बंधी गंगा को मुक्त कराने के लिए तीन साल से भी ज्यादा समय पहले अनशन शुरू किया। इस दौरान सात मर्तबा अस्पताल पहुंचाना पड़ा है। उपचार हुआ, डिस्चार्ज हुए, फिर अनशन शुरू। पुन: अस्पताल पहुंचाना पड़ा, फिर भर्ती, कुछ दिनों बाद फिर डिस्चार्ज लेकिन कुछ दिनों बाद फिर अस्पताल में। आम दिनों में श्मशाननाथ मंदिर के चबूतरे पर धूनी रमाए रहने वाले बाबा नागनाथ की दशा ने धर्मभीरुओं को विचलित कर रखा है। हालांकि संत समाज उनकी सुधि लेता रहता है, भक्त जन पहुंचते रहते हैं लेकिन हुक्मरानों को फुर्सत कहां। राष्ट्रीय नदी के नाम पर अरबों-अरब का खेल करने वाले सरकारी सिस्टम के पास इतनी संवेदना भी नहीं कि वह बाबा नागनाथ का हाल पूछे|

Friday, July 1, 2011

40 सालों में बर्फरहित होगा आर्कटिक


ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने से आर्कटिक क्षेत्र की भविष्य में वैश्विक कार्बन सिंक के रूप में काम करने की क्षमता पर बुरा असर पड़ेगा। आर्कटिक पर मौजूद भारतीय मिशन के शोधकर्ताओं ने कहा है कि ग्लेशियरों के पिघलने से आर्कटिक कार्बन को सोखना बहुत कम कर देगा। यह स्थिति पूरी दुनिया के लिए बहुत घातक होगी चूंकि अकेले आकर्टिक महासागर और उसकी भूमि ही पूरी दुनिया का 25 फीसदी कार्बन सोख लेते हैं। हालात इतने विचलित करने वाले हो चुके हैं कि इस रफ्तार से बर्फ पिघलती रही तो अगले 40 सालों में आर्कटिक बर्फरहित हो जाएगा। हाल ही में आर्कटिक से जुड़े शोध करके लौटे राष्ट्रीय समुद्र विज्ञान संस्थान, एनआईओ के पांच शोधकर्ताओं ने कहा है कि यह प्रवृत्ति गंभीर चिंता का विषय है। आर्कटिक के इस व्यवहार से ग्लोबल वार्मिग और बढ़ सकती है। एनआइओ के वरिष्ठ वैज्ञानिक एस प्रसन्नाकुमार ने कहा कि आर्कटिक महासागर और भूमि मिलकर विश्व का करीब 25 प्रतिशत कार्बन सोख लेते हैं। उन्होंने कहा कि ग्लेशियर और हिमखंड पिघलने का तात्पर्य यह हुआ कि कम असरदार कार्बन सिंक होगा। इससे ग्लोबल वार्मिग तेजी से बढ़ सकती है। प्रसन्नाकुमार ने कहा कि कांग्सफार्डन जोर्ड आर्कटिक महाद्वीप पर भारतीय शोध स्टेशन हिमाद्रि से केवल 100 मीटर दूर है। उन्होंने कहा कि सामान्य शब्दों में इसका मतलब यह हुआ कि आर्कटिक बड़ी मात्रा में कार्बन डाई आक्साइड अवशोषित करने की अपनी क्षमता को खो देगा। यह कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में ही रह जाएगी और अंतत: ग्लोबल वार्मिग बढ़ाने के कारण के रूप में काम करेगी। वैज्ञानिकों को न केवल बर्फ के पिघलने का डर है बल्कि इससे समुद्र के स्तर में होने वाले इजाफे को लेकर वह चिंतित हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसा लग रहा है कि आर्कटिक क्षेत्र अगले 30 से 40 वर्षो में बर्फ से मुक्त हो जाएगा। वैज्ञानिकों ने कहा कि पिछले पांच साल में बर्फ ज्यादा तेजी से पिघली है। बर्फ के पिघलने के साथ ही वैश्विक कार्बन चक्र में भी बदलाव आ जाएगा। भारतीय वैज्ञानिकों का दल आर्कटिक पर एक विशेष रिसर्च के सिलसिले में है। भारतीय दल पता लगाने की कोशिश कर रहा है कि कार्बन को शोधित करने में छोटा पौधा फाइटोप्लांकटन क्या भूमिका निभा सकता है.

Tuesday, May 17, 2011

हिमालय के 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे



भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के अनुसार हिमालय के 75 फीसदी ग्लेशियर पिघल रहे हैं। अगर यही रफ्तार रही तो बर्फ से ढंकी यह पर्वत श्रंखला आने वाले कुछ सालों में बर्फ विहीन हो जाएगी। इसरो ने सीसोर्ससैट-1 उपग्रह से प्राप्त हिमालय के ताजा चित्रों के आधार पर कहा है कि हमेशा हिम से ढंका रहने वाला हिमालय अब बर्फ हीन होता जा रहा है। उसके मुताबिक बीते पंद्रह सालों में 3.75 किलोमीटर की बर्फ पिघल चुकी है। सन 1989 से लेकर वर्ष 2004 के सैटेलाइट चित्रों के आधार पर यह आकंलन किया गया है। इस हिसाब से इस हिम श्रृंखला की 75 फीसदी बर्फ पिघलती जा रही है। एक प्रमुख अंग्रेजी दैनिक के अनुसार स्पेस अप्लीकेशन सेंटर के अहमदाबाद कार्यालय में तैनात जीयो एंड प्लानेटरी साइंस ग्रुप (एमपीएसजी) के ग्रुप डायरेक्टर डॉ. अजय ने बताया कि यह एक बेचैन कर देनेवाली स्थिति है चूंकि आप देख सकते हैं कि 75 फीसदी ग्लेशियर पिघलकर नदी और झरने का रूप ले चुके हैं। सिर्फ आठ फीसदी ग्लेशियर दृढ और 17 फीसदी ग्लेशियर ही स्थिर हैं। डॉ. अजय का कहना है कि अभी भी कई ग्लेशियर बहुत ही अच्छी हालत में हैं। और यह ग्लेशियर कभी भी गायब नहीं होंगे। उन्होंने कहा कि इन ग्लेशियरों के खत्म होते जाने की वजह सिर्फ ग्लोबल वार्मिग नहीं है। हालांकि यह प्रोजेक्ट हिमालय के ग्लेशियर तेजी से गायब होने के मिथ को धता बताने के लिए शुरू किया गया था लेकिन इसके नतीजे वाकई काफी परेशान करने वाले हैं। इसरो के इस अभियान को विज्ञान, पर्यावरण और वन मंत्रालय ने मंजूरी दी थी। ताकि संयुक्त राष्ट्र की अंतरराष्ट्रीय रपट का मुंहतोड़ जवाब दिया जा सके। उल्लेखनीय है कि पिछले साल ही संयुक्त राष्ट्र की एक पर्यावरण रिपोर्ट में भी हिमालय के ग्लेशियर गायब होने की बात कही गई थी। इसरो के साथ मिलकर पचास विशेषज्ञों और 14 संगठनों ने 2190 ग्लेशियरों का अध्ययन किया। यह ग्लेशियर सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र नदियों के मुहाने पर स्थित हैं। इसके अलावा यह इनमें से कई ग्लेशियर चीन, नेपाल, भूटान और पाकिस्तान में भी हैं। उल्लेखनीय है कि आईपीसीसी ने भी 2007 में अपनी रिपोर्ट में कहा था कि 2035 तक हिमालय के सभी ग्लेशियर ग्लोबल वार्मिग के चलते खत्म हो जाएंगे।
हर साल सिकुड़ रहे आइसलैंड के ग्लेशियर : पर्यावरण विशेषज्ञों के अनुसार आने वाले 200 सालों में ग्लोबल वार्मिग के चलते आइसलैंड के सभी ग्लेशियर खत्म हो जाएंगे। आइसलैंड के तीन सबसे बड़े ग्लेशियर होफ्जुकुल, लौंगोकुल और वैटनोजोकुल खतरे में हैं। यह समुद्र तल से 1400 मीटर की ऊंचाई पर हैं




Friday, April 29, 2011

सात हजार करोड़ से होगी गंगा साफ


केंद्र सरकार ने विश्व बैंक की मदद से गंगा नदी को साफ करने के लिए 7,000 करोड़ रुपये की एक योजना को स्वीकृति दे दी है। सफाई की जिम्मेदारी नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी (एनजीआरबीए) को सौंपी गई है। कुल लागत में 5100 करोड़ रुपये केंद्र सरकार वहन करेगी, जबकि शेष 1900 करोड़ रुपये का इंतजाम उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल की सरकारों को करना होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में गुरुवार को यहां आर्थिक मामलों की मंत्रिमंडलीय समिति की बैठक में इस बारे में प्रस्ताव को हरी झंडी दिखाई गई। यह पूरी योजना आठ वर्षो में पूरी की जाएगी। गंगा की सफाई के लिए यह अभी तक की सबसे महत्वाकांक्षी योजना होगी। केंद्र सरकार का पहले ही विश्व बैंक के साथ इस बारे में समझौता हो चुका है। विश्व बैंक इसके लिए 4600 करोड़ रुपये की राशि बहुत ही कम ब्याज दर पर देगा। दूसरे शब्दों में कहें तो 5100 करोड़ रुपये जो केंद्र को देने हैं उसमें से 4600 करोड़ उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। गंगा सफाई की नई योजना अभी तक की योजनाओं की सफलताओं और विफलताओं से सबक सीखते हुए तैयार की जा रही है। योजना के तहत गंगा सफाई अभियान को आगे बढ़ाने के लिए विशेष संस्थान गठित किए जाएंगे। साथ ही स्थानीय संस्थानों को भी मजबूत बनाया जाएगा, ताकि वे गंगा की सफाई में लंबी अवधि में अपनी भूमिका निभा सके। इस राशि से गंगा ज्ञान केंद्र भी स्थापित किए जाएंगे और इसकी मदद से प्रदूषण नियंत्रक बोर्ड को भी ज्यादा सशक्त बनाया जाएगा। गंगा के किनारे बसने वाले शहरों में निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी और इन शहरों में औद्योगिक प्रदूषण को दूर करने के लिए नीति बनाई जाएगी|

Saturday, April 23, 2011

पानी को तरसेगा दिल्ली-एनसीआर


दिल्ली-एनसीआर में पानी की गुणवत्ता जहां लोगों को डरा रही है, वहीं इसकी उपलब्धता भी एनसीआर प्लानिंग बोर्ड के लिए चिंता का विषय बन गई है। खासकर तब जबकि जल प्रबंधन के लिए बनाया गया क्षेत्रीय प्लान-2001 पैसे और कार्यनीति के अभाव में पूरी तरह बिखर गया है। अगले दस वर्षो में दिल्ली-एनसीआर में अकेले पानी के इंतजाम पर सालाना लगभग हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। इसमें कोताही हुई तो राजधानी को पानी के लिए तरसना पड़ सकता है। यमुना, हिंडन और काली नदियों से घिरी दिल्ली को पानी परेशान करने वाला है। यहां जल प्रबंधन के लिए ठोस काम नहीं हो रहा है। बढ़ते शहरीकरण ने राजधानी में भूजल के पुनर्भरण (रीचार्ज) में अवरोध खड़ा कर दिया है। एनसीआर प्लानिंग बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली-एनसीआर के महज 2.9 प्रतिशत क्षेत्र में भूजल रीचार्ज हो रहा है, जबकि जरूरत कम से कम पांच फीसदी की है। दूसरी तरफ वितरण के दौरान 30 से 50 फीसदी पानी का हिसाब-किताब आंकड़ों से गायब हो जाता है। इसे 15 फीसदी तक सीमित किए बिना पानी बचाना मुश्किल है। दिल्ली में फिलहाल प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति 225 लीटर पानी की उपलब्धता है, लेकिन एनसीआर क्षेत्र में मेरठ से लेकर पानीपत तक उपलब्धता आधी से भी कम है। एनसीआरपीबी का आकलन है कि 2021 तक दिल्ली एनसीआर में प्रतिदिन 11,984 मिलियन लीटर पानी की जरूरत होगी। भूजल रीचार्ज की पूरी व्यवस्था हो तो दिल्ली-एनसीआर में प्रतिदिन 1,816 मिलियन लीटर पानी रीचार्ज हो सकता है। अतिरिक्त पानी की उपलब्धता के लिए अगले दस वर्षो में हर साल लगभग हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। हालांकि आगामी 12वीं योजना अवधि के लिए केंद्र सरकार ने कमर कसनी शुरू कर दी है, परंतु पिछले अनुभव डरा रहे हैं। दरअसल, राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय पूरी तरह योजना फंड पर निर्भर होते हैं। ऐसे में केंद्र को ही पूरी जिम्मेदारी उठानी पड़ सकती है|

Friday, April 22, 2011

एक शपथ इस धरती के लिए


इस धरती पर जन्म लेना ही मनुष्य का सौभाग्य है। इस मां रूपी धरती के श्रंृगार को हम मनुष्य ही उजाड़ कर उसे बंजर बना रहे हैं। धरती मां के गहने माने जाने वाले हरे-भरे पेड़ पौधों को हमने उजाड़ दिया और इस पर मौजूद जल स्त्रोतों को हमने इस तरह दुहा है कि वे भी जल विहीन हो चले हैं। इसके गर्भ में इतने परीक्षण हम कर चुके हैं कि इसकी कोख अब बंजर हो चुकी है, लेकिन अब भी हम इसके दोहन और शोषण से थके नहीं हैं। अब भी हम यह नहीं सोच पा रहे हैं कि जब धरती ही नहीं रहेगी तो क्या हम किसी नए ग्रह की खोज करके वहां रहने चले जाएंगे! हम क्यों रोते है कि अब मौसम बदल चुका है और वैश्विक तापमान निरंतर बढ़ता चला जा रहा है। आखिर इसके लिए कौन दोषी है? जब हम ही इसके लिए जिम्मेवार हैं तो फिर रोना किस बात का? हमारी पैसे की हवस ने, धरती जो कभी सोना उगला करती थी, केमिकल डाल-डाल कर बंजर बना दिया। फसल अच्छी लेने के लिए उसको बांझ बना दिया। इन कृत्रिम साधनों से जो उसका दोहन हो रहा है उससे हमने गुणवत्ता खो दी है। वैश्विक गर्मी या ग्लोबल वार्मिग दशकों से मानव जाति के लिए चिंता का सबब बने हुए हैं। पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है जिस कारण पर्यावरण का संतुलन भी बिगड़ रहा है। क्या हम विनाश की तरफ बढ़ रहे हैं या विनाश की शुरुआत हो चुकी है? क्या अभी भी हमारे पास चेतने और अपनी पृथ्वी तथा खुद अपने आपको बचाने का समय बचा है? जापान में आए विनाशकारी भूकंप और सुनामी से क्या हम कुछ सबक लेने को तैयार हैं। अन्यथा हम ऐसे ही धरती का अंधाधुंध दोहन करते रहेंगे। 22 अप्रैल, 1970 से धरती को बचाने की मुहिम अमेरिकी सीनेटर जेराल्ड नेल्सन द्वारा पृथ्वी दिवस के रूप में शुरू हो चुकी है, लेकिन वर्तमान में यह सिर्फ सेमीनार आयोजनों तक ही सीमित है। वास्तविकता यही है कि पर्यावरण संरक्षण हमारे राजनीतिक एजेंडे में शामिल ही नहीं है। पृथ्वी दिवस एक ऐसा दिन है जो सभी राष्ट्रों की सीमाओं को पार करता है, फिर भी सभी भौगोलिक सीमाओं को अपने आप में समाए हुए है। सभी पहाड़, महासागर और समय की सीमाएं इसमें शामिल हैं। यह पूरी दुनिया के लोगों को एक मिशन के द्वारा बांधने में मददगार की भूमिका निभाता है। यह दिवस प्राकृतिक संतुलन को समर्पित है। पिछले कई वर्षो से दुनिया भर के ताकतवर देशों के कद्दावर नेता हर साल पर्यावरण संबंधित सम्मेलनों में भाग लेते आ रहे हैं, लेकिन आज तक कोई ठोस लक्ष्य तय नहीं किया जा सका है। पूरे विश्व में कार्बन उत्सर्जन की दर लगातार बढ़ रही है। वास्तविकता तो यह है कि पिछले 18 वर्षो में जैविक ईधन के जलने की वजह से कार्बन डाई ऑक्साइड का उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक बढ़ा है और पृथ्वी का तापमान 0.8 डिग्री सेल्शियस बढ़ चुका है। अगर इस स्थिति में कोई सुधार नहीं आता तो सन 2030 तक पृथ्वी के वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड की मात्रा 90 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। 1950 के बाद से हिमालय के करीब 2000 ग्लेशियर पिघल चुके हैं और अनुमान है कि यही दर कायम रही तो 2035 तक सभी ग्लेशियर पिघल जाएंगे। सन 1870 के बाद से पृथ्वी की जल सतह 1.7 मिलीमीटर की दर से बढ़ रही है और अब तक 20 सेमी जितनी बढ़ चुकी है। इस दर से एक दिन मॉरीशस जैसे कई और देश और इसके निकटवर्ती तटीय शहर डूब जाएंगे। आर्कटिक समुद्र में बर्फ पिघलने से समुद्र के तट पर भूकंप आने से सुनामी का खतरा बढ़ जाएगा। पर्यावरण विनास का सवाल जब तक तापमान में बढ़ोतरी से मानवता के भविष्य पर आने वाले खतरों तक सीमित रहा तब तक विकासशील देशों का इसकी ओर उतना ध्यान नहीं गया, लेकिन अब जबकि जलवायु चक्र का खतरा खाद्यान्न उत्पादन में गिरावट के रूप में दिख रहा है तो पूरी दुनिया सशंकित हो उठी है। स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि किसान यह तय नहीं कर पा रहे है कि वह कब अपने फसलों की बुवाई करें और कब इन फसलों को काटें। यदि तापमान में बढ़ोतरी इसी तरह जारी रही तो खाद्य उत्पादन 40 प्रतिशत तक घट जाएगा। इससे पूरे विश्व में खाद्यान्नों की भारी कमी हो जाएगी। वैश्विक ताप के लिए जिम्मेदार कार्बन गैस को बढ़ाने में सबसे अधिक योगदान है क्रूड ऑयल यानी कच्चे तेल का और इसके बाद स्थान आता है कोयले का। कार्बन गैस का उत्सर्जन बढ़ाने के लिए जिम्मेदार कारकों में क्रूड ऑयल का हिस्सा 33.5 प्रतिशत है। इसमें से 19.2 प्रतिशत हिस्सा वाहनों को जाता है और इसके बाद 27.4 प्रतिशत हिस्सा कोयले का है। कोयला और क्रूड ऑयल का उत्पादन तथा उपयोग लगातार बढ़ रहा है और कार्बन गैस को बढ़ाने के लिए इनकी हिस्सेदारी 60 प्रतिशत तक है। भारत सरकार पहले ही कह चुकी है कि वह आगामी वर्षो में कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत तक की कमी लाने का प्रयास करेगी। यह एक बहुत बड़ा कदम होगा जिसे हासिल करना फिलहाल काफी मुश्किल दिख रहा है, लेकिन अगर हम सभी सामूहिक जिम्मेदारी से पृथ्वी को बचाने का संकल्प अपने मन में कर लें तो यह अवश्य संभव हो सकेगा। इसके अलावा हमें अपनी दिनचर्या में पर्यावरण संरक्षण को भी शामिल करना होगा। हमारी पृथ्वी की वर्तमान में जो हालत है अगर हम अभी भी अपनी बेहोशी से नहीं जागे तो समय हमें माफ नहीं करेगा। ज्वालामुखी, भूकंप, सुनामी, और भूस्खलन आदि तो इस पृथ्वी पीड़ा के प्रतीक हैं जो इस पृथ्वी को नेस्तानाबूद कर सकते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

व्यवस्था में सुपरबग


ब्रिटिश पत्रिका लासेंट में छपे शोध पत्र में दिल्ली के पानी में सुपरबग बैक्टीरिया होने का दावा किया है। इस पत्रिका ने पिछले साल भी ऐसा ही दावा किया था। सुपरबग ऐसे बैक्टीरिया होते हैं जिन पर किसी भी एंटीबॉयोटिक दवा का असर नहीं होता। हालांकि पिछले दिनों सरकार ने इस रिपोर्ट को खारिज कर दिया था, परंतु अब खुलासा हुआ है कि दिल्ली सरकार द्वारा नल के पानी के 50 नमूनों में से दो में तथा तालाब व गड्ढों के 171 नमूनों में से 51 में सुपरबग जीवाणु मिले हैं। खास बात यह है कि इन नमूनों में कुल 11 प्रकार के बैक्टीरिया पाए गए हैं। कार्डिफ यूनिवर्सिटी के टिमोथी वॉल्स और डॉ. मार्क टॉलेमन ने दिल्ली के पेयजल के नमूनों की जांच की थी। शोधकर्ताओं ने दावा किया कि दिल्ली के चार फीसदी पेयजल और तीस फीसदी गंदे पानी में बैक्टीरिया के एनडीएम-1 जीन पाए गए हैं। ये वही जीन हैं जो व्यापक तौर पर प्रयोग किए जाने वाले एंटीबॉयोटिक्स का प्रतिरोध करते हैं। इन तथ्यों के अलावा उस सैंपल में पेचिस और हैजे के जीवाणु भी पाए गए हैं। इस मुद्दे पर इतनी खतरनाक रिपोर्ट आने के बावजूद सरकार द्वारा पेयजल की शुद्धता के लिए कदम न उठाए जाना आश्चर्यजनक है। दिल्ली में दूषित पेयजल की आपूर्ति तथा भूजल के पीने योग्य न रह जाने की घोषणा सरकार खुद करती रही है। दिल्ली के पानी में आर्सेनिक के साथ-साथ अनेक नुकसानदायक रसायनों की मौजूदगी की खबरें पिछले दिनों आती रही हैं। यमुना के जल के प्रदूषित होने की खबरें तो किसी से छिपी नहीं हैं। शायद यही कारण है कि सार्वजनिक नलों तथा गंदे पानी के नमूनों में खतरनाक जीवाणुओं का पाया जाना अब सरकार के लिए कोई खास बात नहीं रह गई है। सुपरबग संबंधी यह रिपोर्ट भारत में सवालों के घेरे में है। कुछ विशेषज्ञ इस रिपोर्ट को भारत के खिलाफ दुष्प्रचार मान रहे हैं। सच यह है कि चिकित्सा पर्यटन के क्षेत्र में भारत की पूरे विश्व में धाक है। विदेशों की कई एजेंसियां विकासशील देशों में ऐसी शोध रिपोर्ट को प्रचारित-प्रसारित करके अपने व्यावसायिक हितों की पूर्ति करना चाहती हैं। ऐसी विदेशी एजेंसियों ने ही पहले आयोडीन व एचआइवी वायरस का हौव्वा खड़ा किया और अब एनडीएम 1 (नई दिल्ली मेटैलो-बीटा-लैक्टामेज) सुपरबग के नाम पर चिकित्सा पर्यटकों को दिल्ली आने से रोकने की साजिश की जा रही है। सस्ते इलाज के कारण हर वर्ष 10 लाख से भी अधिक व्यक्ति भारत में चिकित्सा कराने आते हैं। इसीलिए भारत में चिकित्सा पर्यटन का कारोबार 31 करोड़ डॉलर तक पहुंच गया है। सीआइआइ की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 2012 तक चिकित्सा पर्यटन का कारोबार दो अरब डॉलर तक पहुंच जाएगा। यही कारण है कि चिकित्सा पर्यटन के क्षेत्र में भारत के बढ़ते कदमों से पश्चिमी मुल्क परेशान हैं। पश्चिम के देशों को भय है कि यदि भारत ने इस क्षेत्र में और प्रगति की तो चिकित्सा का बड़ा कारोबार उनके हाथ से छिन जाएगा। बेंगलूर के नारायण हार्ट इंस्टीट्यूट के चिकित्सकों के अनुसार लासेंट के इस अध्ययन की प्रायोजक वे विदेशी कंपनियां हैं, जो सुपरबग जीवाणु के लिए एंटीबॉयोटिक्स तैयार करना चाहती हैं। उन्होंने कहा है कि आखिर ऐसा शोध करने की भारत में ही आवश्यकता क्यों पड़ी? इस संदर्भ में पश्चिम के वैज्ञानिकों का स्पष्ट मत है कि एनडीएम-1 नामक जीन भारत के अलावा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी पाया जाता है। इसके साथ-साथ इस जीन की पहुंच अब ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, आस्ट्रेलिया और हॉलेंड तक हो चुकी है। रिपोर्ट पर उठने वाले इन सवालों के बावजूद इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि आज नागरिकों को जो पेयजल उपलब्ध कराया जा रहा है वह दूषित है। शुद्ध पेयजल की आपूर्ति कराने में सरकार की विफलता के कारण ही आज मानवीय संस्कृति के अपरिहार्य तत्व से बाहर निकलकर जल एक व्यावसायिक उत्पाद का हिस्सा बन रहा है। एनडीएम-1 के रूप में सुपरबग की मौजूदगी जल के प्रति हमारी संक्रमित सोच और लापरवाही का ही दुष्परिणाम है। यदि हम पेयजल का प्रदूषण नहीं रोक सकते तो फिर धरती को बचाने का भरोसा कैसे दिला सकते हैं? सरकारें जिस प्रकार से घाटे व मुनाफे के आधार पर कार्य कर रही हैं उससे भविष्य में ऐसे ज्वलंत मुद्दों पर प्रभावी कार्ययोजना बनाने एवं उस पर अमल कराने के लिए नागरिक समाज को आगे आना होगा। ध्यान रहे सरकारों के कानों को तभी धमक सुनाई देती है जब समाज के ज्वलंत मुद्दों पर जनांदोलन का डंका बजता है। शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के मामले में सरकारों की हीलाहवाली तथा म्यूनिसिपल संस्थाओं की लापरवाही ने ही प्राकृतिक जल को इस दुर्दशा में पहुंचाया है। सुपरबग जैसे जीवनरक्षक मुद्दे पर भी सिविल सोसाइटी को एक बहस छेड़नी होगी। तभी जल के मुद्दों पर सरकारों की नींद टूटेगी और पेयजल व्यापारिक कॉमोडिटी से बाहर निकल सकेगा। (लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं).

देश में फिर बढ़ने लगी गिद्धों की आबादी


 प्रकृति के सफाईकर्मियों अर्थात गिद्धों के अस्तित्व पर छाए संकट के बादल धीरे-धीरे छंटने लगे हैं। बदलाव की यह बयार राजाजी नेशनल पार्क में साफ देखी जा सकती है। देशभर में मिलने वाली गिद्धों की नौ प्रजातियों में पांच की राजाजी में मौजूदगी है और वह भी ठीकठाक संख्या में। और तो और इस मर्तबा तो हिमालयी गिद्ध भी वहां अभी तक अच्छी-खासी तादाद में डेरा डाले हुए हैं। इसे पार्क में सुदृढ़ पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखा जा रहा है। देशभर में एक-डेढ़ दशक पहले गिद्ध दिखाई देना ही बंद हो गए थे और उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं था। चिंता का विषय बने इस मसले की पड़ताल हुई तो पता चला कि मवेशियों को दी जाने वाली डाइक्लोरोफिनैल नामक दवा, खेती में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग और गड़बड़ाता पारिस्थितिकी तंत्र इसकी मुख्य वजह है। खैर, अब स्थितियां बदली हैं और गिद्धों की अच्छी खासी संख्या दिखाई पड़ने लगी है। देश में पाई जाने वाली गिद्धों की नौ प्रजातियों में से पांच का दीदार तो राजाजी पार्क में हो रहा है। हिमालयन गिद्ध तो अभी तक यहां मौजूद है। राजाजी नेशनल पार्क में गिद्धों की बढ़ती तादाद से वन्यजीव विशेषज्ञों और पार्क प्रशासन की खुशी का ठिकाना नहीं है। वन्यजीव विशेषज्ञ डा.रितेश जोशी के अनुसार, राजाजी पार्क में गिद्धों की अच्छी तादाद वहां पारिस्थितिकीय तंत्र की सेहत सुदृढ़ होने का संकेत देता है। उन्होंने कहा कि पार्क में कार्नीबोर व हर्बीबोर दोनों की संख्या ठीक है और गिद्धों को पर्याप्त भोजन मिल रहा है। पार्क के निदेशक एसएस रसाईली के मुताबिक पार्क प्रशासन की ओर से पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत बनाने का ही नतीजा है कि वहां गिद्धों की अच्छी संख्या देखने को मिल रही है। देश में गिद्धों की प्रजातियां : किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड, स्कैवेंजर, हिमालयन ग्रीफॉर्न, यूरेशियन, सिनेरियस, सिलेंडर बिल व लैमर गियर राजाजी पार्क में मौजूद प्रजातियां : किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड, स्कैवेंजर, हिमालयन ग्रीफॉर्न इन पर है ज्यादा संकट : बर्ड लाइफ इंटरनेशनल संस्था के मुताबिक किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड प्रजातियों को गंभीर रूप से संकटग्रस्त घोषित किया है। स्कैवेंजर नामक गिद्ध को संकटग्रस्त घोषित किया गया है|

Saturday, April 16, 2011

बर्फबारी ने रोकी गोमुख की राह


 लगातार बारिश और बर्फबारी के चलते इस बार गोमुख की राह काफी कठिन हो गई है। हालांकि गंगोत्री नेशनल पार्क से ट्रैक के लिए अनुमति लेने का सिलसिला कायम है, लेकिन अभी एक ही ट्रैकर गोमुख पहुंच सका है। मौसम का मिजाज इस बार पिछले कुछ वर्षो से हटकर है। बीते वर्ष अप्रैल के पहले पखवाड़े तक 52 ट्रैकर गोमुख तक चहलकदमी कर लौट आए थे, लेकिन इस बार स्थितियां विपरीत हैं। गंगोत्री नेशनल पार्क क्षेत्र के वार्डन डॉ.आईपी सिंह ने बताया कि गोमुख ट्रैक की अनुमति तो दी जा रही है, लेकिन मौसम साथ नहीं दे रहा है। सुरक्षा व्यवस्था बढ़ाने के प्रयास किए जा रहे हैं। पर्यटकों की सुविधा के लिए अब गंगोत्री में भी परमिट जारी करने की व्यवस्था की जा रही है। गोमुख ट्रैक पर सोनगाड के बाद भारी बर्फ है। भोजवासा तथा चीड़वासा जैसे पड़ाव भी बर्फ से ढके हैं। बीते वर्ष तक अप्रैल में चीड़वासा के बाद ही ट्रैक पर कुछ बर्फ थी। इस बार मार्च में सेना का एक अभियान दल गंगोत्री से कुछ आगे चलकर ही लौट आया था। एक अप्रैल से गोमुख ट्रैक खोल दिए जाने से गंगोत्री नेशनल पार्क के कर्मचारी भी कनखू बैरियर पर तैनात हैं। भोजवासा-चीड़वासा तक कर्मियों को पहुंचना है, लेकिन हालत यह है कि अप्रैल की शुरुआत से ही करीब आधा दर्जन ट्रैकिंग दल ट्रैक बीच में छोड़कर लौट चुके हैं। अभी एक विदेशी पर्यटक ही गोमुख तक पहुंचने में सफल हो सका है, जबकि अप्रैल के लिए अभी तक 24 परमिट जारी किए जा चुके हैं। इनमें अधिकांश विदेशी पर्यटक हैं। मई में स्थितियां ठीक होने पर ट्रैकरों की भीड़ बढ़ने की उम्मीद है। चारधाम यात्रा शुरू होने के बाद गोमुख ट्रैक पर श्रद्धालुओं की चहलकदमी बढ़ जाएगी, पर मौसम को देखते हुए अप्रैल अंत तक ट्रैक के मुश्किल बने रहने के आसार हैं। गंगोत्री नेशनल पार्क की ओर से इस बार ट्रैकरों सहित ट्रैक से संबंधित सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए कर्मियों को वाकी-टाकी सेट दिए जा रहे हैं। अब तक इस क्षेत्र में संवाद के अभाव में समस्याएं पैदा होती रही हैं। सही समय पर सूचना न मिलने से दुर्घटनाओं की आशंका बनी रहती है|

झारखंड में जी का जंजाल बना जैविक कचरा


अस्पतालों का खतरनाक जैविक कचरा झारखंड शासन के लिए जी का जंजाल बन गया है। जैविक कचरे के निष्पादन के लिए राज्य में पांच कॉमन बायो मेडिकल वेस्ट ट्रीटमेंट फैसलिटी (सीबीडब्ल्यूटीएफ) का निर्माण होना है। इसे ही लेकर शासन में असमंजस बना हुआ है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के निर्देश पर झारखंड में पांच सीबीडब्ल्यूटीएफ बनाए जाने हैं। निजी भागीदारी से बनने वाले इस प्लांटों के लिए कुछ कंपनियों ने आवेदन भी दे रखा है। इसके लिए दो बार निविदा निकाली जा चुकी है, लेकिन कोई परिणाम सामने नहीं आया। हाल ही में निकाली गई निविदा में एक कंपनी ने कम रेट कोट किया, जिसके कारण राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड असमंजस में है। नियमत: सबसे कम रेट कोट करने वाले के पक्ष में निविदा दी की जाती है। एक करोड़ की लागत वाले इन प्लांट में केंद्र और राज्य सरकार की ओर से 50 फीसदी अनुदान होने के कारण बोर्ड सतर्कता बरत रहा है। इस बारे में फैसला लेने के लिए बोर्ड की बैठक होने वाली है। सूत्रों के मुताबिक, धनबाद और जमशेदपुर में दो प्लांट बनकर तैयार हैं लेकिन मानकों के अनुरूप न होने के कारण बोर्ड इन्हें मंजूरी नहीं दे रहा है। निजी भागीदारी से बनने वाले प्लांट बीआओ (बिल्ड, ऑपरेट एंड ओन) पर आधारित होंगे। दस हजार बेड पर एक प्लांट : केंद्रीय बोर्ड के निर्देशानुसार विभिन्न अस्पतालों और निजी नर्सिंग होम के दस हजार बेड अथवा 150 वर्ग किमी में एक सीबीडब्ल्यूटीएफ की स्थापना की जानी है। इस लिहाज से राज्य में कम से कम पांच प्लांट की आवश्यकता है। निजी कंपनियां प्रति बेड अस्पतालों से 3 रुपये की दर से अपशिष्ट निस्तारण का शुल्क वसूलेंगी। वे प्रति बेड एक रुपया परिवहन के मद में भी लेंगी। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष सीआर सहाय ने कहा कि जैविक अपशिष्ट के निस्तारण को कॉमन ट्रीटमेंट प्लांट की स्थापना के लिए टेंडर निकाला गया है। बैठक में टेंडर पर निर्णय लिया जाएगा|