Wednesday, December 28, 2011

डरबन के बाद की चुनौतियां


डरबन में जुटे दुनिया भर के राजनेताओं, पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों के लिए पिघलते हुए ग्लेशियर, उफनते समुद्र, बदलते मौसम और गर्म होती धरती जहां चिन्ता का विषय थे वहीं विकसित दुनिया की राजनीति पूरी तरह अपने हितों को साधने की कूटनीतिक चालों में व्यस्त थी। अन्ततोगत्वा इस नीले ग्रह को बचाने पर जीत पूंजी संचय के कूटनीतिक इरादों की हुई। जलवायु परिवर्तन पर कई दिनों तक चली डरबन वार्ता असफलताओं पर सहमति वार्ता सिद्ध हुई। अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों की कार्बन उत्सर्जन को थामने की वैधानिक बाध्यता बनने से रोकने की कोशिश कोई नई व पहली नहीं थी। दिसम्बर 1997 में जापान के क्योटो शहर में 150 देशों के प्रतिनिधियों ने एकत्र होकर एक प्रोटोकॉल तैयार किया जिसे क्योटो प्रोटोकॉल नाम से जाना जाता है। यह प्रोटोकॉल विकसित, औद्योगिक और कुछ मध्य यूरोपीय देशों को 2012 तक 1990 के स्तर से 6 से 8 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन घटाने की कानूनी बाध्यता बनाता था। इसको कानून बनाने के लिए 55 प्रतिशत औद्योगिक देशों के अनुमोदन की आवश्यकता थी परन्तु अमेरिका सहित कनाडा, जापान और आस्ट्रेलिया सरीखे उसके तमाम सहयोगी देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के कानून बनने से रोकने के लिए रुकावटबाजों की भूमिका अदा की। तीन महीने की लम्बी बहस के बाद 2002 में कनाडा और फरवरी 2005 में रूसी अनुमोदन के बाद ही क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी रूप ले सका। दुनिया बेशक तेजी से मानव निर्मित विनाश की और बढ़ रही हो मगर विकास के वकीलों के अपने तर्क और योजनाएं हैं, जिनके लिए वो दुनिया को धमकाना भी जानते हैं और ब्लैकमेल करना भी और यही योजनाएं वर्तमान विकास के पैरोकारो ने कोपेनहेगन से शुरू की जो डरबन तक आते-आते अपने निर्णायक मुकाम पर पंहुच गई। यदि क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा फेज कोपेनहेगेन में तैयार हो जाता तो 2050 तक पृथ्वी के बढ़ते तापमान को दो डिग्री की सीमा में रखने के लिए कम से कम पचास प्रतिशत की कटौती आवश्यक होती एवं औद्यागिक देशों के लिए यह कटौती अस्सी प्रतिशत तक होती। दुनिया के पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों के लिए कोपेनहेगन समिट का एजेन्डा जहां दूसरे क्योटो प्रोटोकॉल का रोडमेप तैयार करना प्राथमिकता थी, वहीं पहले क्योटो प्रोटोकॉल के रुकावटबाजों के लिए दूसरे प्रोटोकॉल को रोकना प्राथमिकता थी। कोपेनहेगन से शुरू हुई औद्योगिक देशों की इस योजना का अगला पड़ाव जहां कानकुन था वहीं डरबन में दुनिया के रुकावटबाज पूरी तरह कामयाब हो गए। ब्रिक देशों को सौ बिलियन डॉलर के मुआवजे का आासन देकर विकसित देशों ने तीसरी दुनिया के देशों को दो हिस्से में विभाजित कर दिया- अल्पविकसित और द्वीपीय देए एवं विकासशील देश। दरअसल कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन में अमेरिका की यही सबसे बडी जीत थी जिसकी गूंज डरबन में सुनाई दी जब ग्रेनाडा के प्रतिनिधि ने कहा कि आप बस बहस कर रहे हैं जबकि हम लोग मर रहे हैं। वास्तव में अल्पविकसित एवं द्वीपीय देशों की यही विडम्बना है कि वो उस दोष की सजा भुगत रहे हैं जिसे करने के वो आज तक काबिल नहीं हो पाए हैं दूसरी तरफ विकासशील देश जब विकास की राह पर तेजी से बढ़ रहे हैं तो पर्यावरण बचाव के नाम पर उनकी राह में अवरोध खड़े किए जा रहे हैं। दरअसल कोपेनहेगन से शुरू हुआ विफलताओं का यह समझौता चक्र गरीबों की जिंदगी पर अमीर दुनिया की सुविधाओं की जीत है। क्योटो प्रोटोकॉल सरीखे बाध्यकारी प्रावधान 2012 तक तैयार हो जाते तो दुनिया में कार्बन उत्सर्जन को एक सीमा में बांधकर बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिए प्रभावकारी काम किया जा सकता था। अब यह बाध्यकारी प्रावधान तैयार करने के लिए 2015 की समय सीमा तय की गई है और यदि यह तैयार हो गए तो वह 2020 से लागू होना शुरू हो जाएंगे परन्तु यदि कार्बन उत्सर्जन इसी गति से बढ़ता रहा तो 2020 तक ग्लोबल वार्मिंग का स्तर वर्तमान समय से तीन गुना अधिक बढ़ चुका होगा। मानव निर्मित तबाही के लिए जिम्मेदार देश आज अपने हाथों रचे इस भयावह खतरे को बेशक अनदेखा करना चाहते हैं मगर इसका खमियाजा उन द्वीपीय और गरीब देशों को भुगतना पड़ रहा है जो ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न खतरों को लगातार झेल रहे हैं और उनसे निपटने लायक संसाधन भी उनके पास नही हैं। हालांकि जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने के लिए बने क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यता 2012 के अन्त में समाप्त हो जाएगी परन्तु जैसी भावना और दुनिया की संभावित बर्बादी के प्रति लापरवाही का रवैया विकसित देशों ने जाहिर किया है, उससे 2015 तक भी किसी नए बाध्यकारी प्रावधानों की संभावना नजर नहीं आती। विकसित देशों ने जैसी मंशा डरबन में जाहिर की है, उससे पर्यावरण बचाने की चुनौती और गंभीर होती नजर आती है। बहरहाल अगले समिट में दुनिया साफतौर पर तीन खेमों में बंटी होगी और अमेरिका एवं उसके सहयोगी देश ऐसी स्थिति का फायदा अपने हितों को साधने के लिए उठाने के लिए पूरी कोशिश करेगें।

Friday, December 16, 2011

डरबन में बंधी नई उम्मीद

जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के मुद्दे पर आयोजित वार्ता सम्मेलन समाप्त हो चुका है। यह सत्रहवां मौका था जब जलवायु परिवर्तन के खतरों के मद्देनजर दुनिया के देश कार्बन उत्सर्जन पर चर्चा के लिए डरबन में जुटे थे। मुद्दा जहां का तहां था कि कैसे जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम किया जाए। करीब 20 साल पहले 1992 में युनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज बना था। तभी से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हुई। तब से डरबन वार्ता तक जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए 17 बैठकें संपन्न हो गई हैं लेकिन अब तक पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से निपटने के लिए किसी ठोस रणनीति पर क्रियान्वयन शुरू नहीं हो पाया है। जितना भी कार्य हुआ है, वह केवल नीतिगत स्तर पर हुआ है और उसका जमीनी धरातल पर उतरना बाकी है। जलवायु वार्ताओं में दो शब्दों का प्रमुखता से इस्तेमाल होता रहा है। ये हैं- मिटिगेशन और ऐडेप्टेशन। मिटिगेशन का मतलब उन गैसों के उत्सर्जन में कटौती से है, जिनकी वजह से धरती गर्म हो रही है। एडेप्टेशन का मतलब ऐसे उपायों से है, जिनसे जलवायु संकट का असर कम किया जा सके। क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण को ताक पर रखने के साथ हालांकि मिटिगेशन की बात एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दी गई है पर डरबन में बातचीत के दौरान कुछ निर्णय जरूर लिए गए जिन्हें डरबन प्लेटफार्म नाम दिया गया। इसमें भविष्य में एक समझौते पर चर्चा की बात कही गई है जिसमें कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए अधिक आक्रामक लक्ष्य तय किए जाएंगे ताकि दुनिया के औसतन तापमान में होने वाले इजाफे को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सके। बहस थी कि समझौता कानूनी रूप से सभी देशों पर बाध्यकारी होगा या नहीं? भारत समझौते की कानूनी बाध्यता का विरोध कर रहा था और उसे हाशिए पर डाल दिया गया। पश्चिमी मीडिया ने भारत को ऐसे देश के रूप में दर्शाया जो समझौता तोड़ने की कोशिश कर रहा था या जो प्रदूषण फैलाने का अधिकार मांग रहा है। वास्तव में यूरोपीय यूनियन दुनिया का ध्यान अपनी वादा खिलाफी से हटा इस मौके का फायदा उठाना चाहती थी। इससे पूर्व इन देशों ने क्योटो घोषणा के तहत वादा किया था कि वे वातावरण पर दुष्प्रभाव डालने वाली गैसों पर तय सीमा के अन्दर रोक लगाएंगे लेकिन डरबन सम्मेलन में इन्होंने सुर बदलते हुए ऐसी नई संधि की मांग कर डाली जो पूरी दूनिया पर समान रूप से लागू हो। भारत ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि पहले क्योटो घोषणा से बंधे अमीर मुल्क यह बतायें कि उन्होंने अपने वादे किस हद तक पूरे किये। सब जानते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान विकसित देशों का है, मगर वे कटौती नहीं करना चाहते। क्योटो प्रोटोकाल पर उनका मनमाना रवैया रहा है। अमेरिका जैसे दुनिया के दूसरे सबसे बड़े उत्सर्जक और मुखिया ने इस पर हस्ताक्षर ही नहीं किये हैं। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के मुताबिक 2012 तक विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन में 1990 के स्तर से पांच फीसद तक की कटौती करनी है, जबकि भारत और चीन जैसे देशों के लिए ऐसी बाध्यता नहीं है। पश्चिमी देश इसे पचा नहीं पा रहे हैं क्योंकि चीन और भारत की अथव्यवस्था तेजी से बढ़ रही हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि चीन कुछ ही सालों में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। खैर, डरबन में संपन्न जलवायु सम्मेलन में भारत और यूरोपीय संघ के बीच जारी गतिरोधों के बावजूद अंतिम समय में सहमति बन गई। अन्यथा कोपेनहेगन से जलवायु वार्ता ने जो मोड़ लिया था, डरबन वार्ता भी उसी मुकाम के करीब पहुंचती दिख रही थी पर अंतिम समय में भारत और यूरोपीय संघ ने गतिरोध खत्म करते हुए इसे नये मुकाम पर पहुंचा दिया। शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन का भाषण प्रभावशाली रहा। उन्होंने चेतावनी दी कि भारत किसी भी खतरे या दबाव के आगे नहीं झुकेगा। सुश्री नटराजन ने कहा कि क्या जलवायु परिवर्तन से लड़ने का अर्थ यह है कि हम निष्पक्षता के सवाल पर घुटने टेक दें? पर भारत किसी भी खतरे या दबाव के आगे नहीं झुकेगा। कुछ देशों ने यूरोपीय संघ का समर्थन किया, लेकिन चीन ने भारत का मजबूती से समर्थन किया। आखिरकार 2015 के लिए एक संतुलित समझौते की रूपरेखा मंजूर कर ली गई । इस समझौते के तहत भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन करने वाले सभी देश उत्सर्जन में कटौती के लिए पहली बार कानूनी तौर पर बाध्य होगें। इसके तहत पहली बार भारत और चीन भी उत्सर्जन कटौती के दायरे में आएंगे। साथ ही नए करार के तहत सभी देश एक समान कानूनी व्यवस्था में आएंगे। सम्मेलन में इस वार्ता की गति तेज करने पर भी सहमति बनी। कहा गया कि यह काम वर्ष 2015 तक कर लिया जाना चाहिए ताकि इस नए समझौते को कम से कम वर्ष 2020 तक लागू किया जा सके। इसके साथ डरबन बैठक में क्योटो प्रोटोकॉल के लिए दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के लिए सहमति जताई गई है जो विकासशील देशों की अत्यंत पुरानी मांग है। इस सम्मेलन की तीसरी बड़ी उपलब्धि रही ग्रीन क्लाइमेड फंड की स्थापना ताकि संवेदनशील मुल्कों को उत्सर्जन में कमी के बदले भुगतान किया जा सके। लेकिन इस फंड में कोई पैसा है ही नहीं। दरअसल विकसित देशों का कहना है कि मंदी के चलते फिलहाल वे किसी तरह के भुगतान की स्थिति में नहीं है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि इस जरूरी हस्तांतरण का भुगतान करने के लिए धन जुटाने के लिए किन नए तरीकों का इस्तेमाल किया जाए। याद रहे कि कोपेनहेगन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने गरीब और जलवायु परिवर्तन की वजह से खतरे में पड़ रहे देशों की मदद की खातिर 2020 तक के लिए सौ अरब डॉलर का हरित कोष तैयार करने का ऐलान किया था। लेकिन न वहां और न कानकुन में यह तय हो सका कि इसमें कौन सा देश कितनी रकम देगा और कब देगा और उस रकम से मदद देने का तरीका क्या होगा? कानकुन में बस एक बात यह उभर कर सामने आई कि यह मदद यूएनएफसीसीसी के जरिए ही दी जाएगी। अत: डरबन जलवायु सम्मेलन एक महत्वपूर्ण बदलाव का बिंदु है। इस सम्मेलन में समता के मसले पर दोबारा जोर दिया गया ल्ेकिन इस बिंदु पर अमीर देशों का खुला प्रतिरोध भी देखने को मिला। अब यह एक खुली लड़ाई है। अब यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होगा कि दक्षिण अफ्रीका की मेजबानी में संपन्न डरबन प्लेटफार्म जलवायु संकट से निपटने की दिशा में गहराते भेदभाव को और गहरा न कर दे।

Wednesday, December 14, 2011

शुक्र है, क्योटो जैसा हश्र नहीं हुआ


काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता एक मुकाम तक पहुंच ही गई। जलवायु वार्ता के आखिरी दिन एक समझौता हुआ, जिस पर सभी देशों ने अपनी सहमति व्यक्त की। समझौते के तहत विकसित देश अब क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 2013 से अपने उत्सर्जन में कटौती करने को राजी हो गए हैं। नए करार के तहत अब सभी देश एक ही कानूनी व्यवस्था में आएंगे। इस कानूनी समझौते पर वार्ता अगले साल शुरू होगी और 2015 तक समाप्त हो जाएगी, जिसके बाद वर्ष 2020 में नया करार पूरी दुनिया में प्रभावी हो जाएगा। यानी शुरुआती ना-नुकुर के बाद विकसित देशों ने विकासशील देशों की इस मांग को मान लिया है कि पहले वे अपने यहां उत्सर्जन कम करें। डरबन सम्मेलन की खास उपलब्धि यह रही कि क्योटो संधि से शुरू से ही बाहर रहने वाले अमेरिका ने भी इस करार का समर्थन किया। गौरतलब है कि क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी रूप से ऐसा अकेला नियामक है, जो अमीर देशों को कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए बाध्य और भविष्य के एक प्रभावी करार की दिशा में मार्ग प्रशस्त करता है। ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय करार क्योटो प्रोटोकॉल, जो साल 2004 से अमल में आया, इस समझौते में यह तय हुआ था कि 37 विकसित मुल्क स्वैच्छिक कटौती के तहत आहिस्ता-आहिस्ता अपने यहां साल 2012 तक 4 ग्रीन हाउस गैस और 2 दीगर खतरनाक गैसों का प्रदूषण 1990 के स्तर पर 6 फीसदी घटा देंगे, लेकिन हकीकत यह है कि कई देशों ने उस समय किए गए वादों को बिल्कुल भी नहीं निभाया। जापान, कनाडा, रूस, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका अपने वादे से पूरी तरह मुकर गए, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो हवा में कार्बन डाईऑक्साईड घोलने में अकेला अमेरिका 26 फीसदी का हिस्सेदार है। एक आकलन के मुताबिक भारत द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों के बरक्स अमेरिका दस गुना अधिक गैस वातावरण में उगलता है। प्रति व्यक्ति स्तर पर नापा जाए तो यह अनुपात और भी खतरनाक है। मसलन, औसत भारतीय की बनिस्बत औसत अमेरिकी 20 गुना से ज्यादा ऊर्जा का उपभोग करता है। जाहिर है, यही वह वजह है जिससे वातावरण में कहीं ज्यादा ग्रीन हाउस गैसें घुलती हैं। अमेरिका और तमाम विकसित देश जो सभी देशों को एक डंडे से हांकना चाहते हैं, उनसे क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि भारत और बाकी विकासशील देशों को विकास के उस स्तर तक पहुंचने का क्या कोई हक नहीं है, जहां अमीर देश पहले ही पहुंच चुके हैं? जहां तक डरबन सम्मेलन में हमारे देश की भूमिका का सवाल है, कानकुन सम्मेलन की तरह इस सम्मेलन में भी भारत ने अपनी बात जोरदार तरीके से रखी। जलवायु सम्मेलन में भारत ने जोर देकर कहा कि जलवायु से जुड़ी वार्ताओं का केंद्र समानता होनी चाहिए। पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने सम्मेलन में भारत का पक्ष रखते हुए कहा, वह साल 2020 के बाद ही क्योटो करार जैसी नई संधि का हिस्सा बनने पर विचार करेगा, लेकिन इससे पहले विकसित देश अपना उत्सर्जन कम करें और विकासशील देशों को इसके लिए वित्तीय मदद और प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराने की मौलिक प्रतिबद्धता का पालन करें। इस मामले में विकासशील और छोटे देशों की समानता, व्यापार में बाधक और बौद्धिक संपदा से जुड़ी चिंताओं का भी समाधान किया जाए। भारत के इस रुख पर यूरोपीय संघ हालांकि पहले नाराज हुआ, लेकिन बाद में उसने भी यह बातें मान लीं। डरबन सम्मेलन में एक अच्छी बात यह हुई कि पहली बार बेसिक समूह के देश मसलन ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन एक साथ खड़े नजर आए। यहां तक कि भारत के पक्ष का उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी देश चीन ने भी समर्थन किया। कुल मिलाकर क्योटो जलवायु सम्मेलन के बाद डरबन सम्मेलन ऐसा दूसरा सम्मेलन है, जिसमें सभी देश एक समझौते पर एक राय हुए। सभी देशों ने इस बात पर रजामंदी जताई कि साल 2020 से वे अपने यहां कार्बन उत्सर्जन में कमी लाएंगे। जाहिर है, डरबन सम्मेलन की यह सबसे बड़ी कामयाबी है। दुनिया को बढ़ते तापमान के खतरे से बचाने के लिए यह समझौता लाजिमी भी था। क्योटो प्रोटोकाल को आगे बढ़ाने और उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य तय नहीं करने का मतलब सीधे-सीधे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना होता। दुनिया और समूची इंसानी बिरादरी को बचाने के लिए जरूरी है कि आगामी सालों में डरबन समझौते को ईमानदारी से अमल में लाया जाए। वरना, बहुत देर हो जाएगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

डरबन सम्मेलन से जलवायु न्याय की आस


उड़ान के दौरान महिला क्रू मेंबर्स के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ दशकों से जारी संघर्ष में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। महिलाओं के एक छोटे-से समूह ने हासिल की यह छोटी-सी जीत जो सुपरवाइजर पद से संबधित है, महिलाओं के विभिन्न स्तरों पर जारी भेदभाव के खिलाफ एक अहम जीत है। बता दें कि एयर इंडिया के विमान के अंदर काम करने वाली महिलाओं ने अपने लिए बराबर के ओहदे की मांग की थी। यहां उड़ान के दौरान काम करने वाली महिलाओं को सुपरवाइजर का पद नहीं मिलता था। सुपरवाइजर सिर्फ पुरुष ही हो सकता था, जबकि सारी जिम्मेदारियां वे बराबर की निभाती थीं। वरिष्ठ महिला कर्मचारी जिन पुरुष कर्मचारियों को प्रशिक्षण देती थीं, वे भी उनके सुपरवाइजर बन सकते थे, लेकिन महिला होने के नाते उन्हें यह कार्यभार नहीं सौंपा जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट ने गत 17 नवंबर को अपने एक फैसले में कहा कि इस भेदभाव का कोई आधार नहीं है और महिलाएं इस ओहदे की हकदार हंै। इस प्रतिरोध में विशेष बात यह देखने वाली है कि आमतौर पर लड़ाई मैनेजमेंट से लड़नी पड़ती है, लेकिन यहां मैनेजमेंट यानी एयर इंडिया ने 2005 में अपनी नीति में बदलाव करते हुए सुपरवाइजर का दर्जा सिर्फ पुरुषों तक सीमित रखने के अपने मध्ययुगीन किस्म के नियम को समाप्त कर इस पद पर महिलाओं की नियुक्ति को भी सुगम बनाया था। प्रबंधन के इस निर्णय को पुरुष सुपरवाइजरों ने चुनौती दी थी। कोर्ट में अपील दायर की गई थी कि वे महिला सुपरवाइजरों के मातहत काम नहीं कर सकते हंै। वर्ष 2007 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एयर इंडिया के इस फैसले को सही ठहराया था, तब अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट गए थे। एयर इंडिया में न सिर्फ इस स्तर पर, बल्कि विभिन्न स्तरों पर महिला कर्मचारियों को जेंडर भेदभाव का सामना करना पड़ता है तथा इसके खिलाफ संघर्ष भी चलते रहे हैं। जैसे कि रिटायरमेंट की उम्र महिला और पुरुष के लिए अलग-अलग होती है। यदि महिला कर्मचारी अपनी नियुक्ति के शुरुआती चार साल के भीतर गर्भवती हो गई तो उसे नौकरी छोड़नी पड़ती थी या उसका वजन मानक से अधिक नहीं होना चाहिए जैसी शर्त थी। इन सारे भेदभावों का आधार कहीं भी यह नहीं था कि वे अपनी जिम्मेदारी निभाने में कमतर या अक्षम थीं, बल्कि वजह उनका औरत होना था। अगर हम दूसरे क्षेत्र की कामकाजी महिलाओं के संघर्षो की तरफ ध्यान दें तो वहां भी यहीं साधारण-सी मांग है कि कार्यस्थलों पर उन्हें बराबर का अवसर और जिम्मेदारियां सौंपी जाएं। सिर्फ औरत होने के नाते योग्यता और क्षमता पर प्रश्न खड़ा करने का तुक क्या है? आखिर सेना में स्थायी कमीशन की मांग की वजह यही तो रही है कि उनकी नौकरी के दस साल पूरे होने पर उन्हें अनिवार्यत: रिटायर कर दिया जाता था, जबकि पुरुषों को नौकरी में बने रहने का विकल्प था। कानूनन कोर्ट ने महिलाओं को यह अवसर देने के पक्ष में फैसला सुनाया है, लेकिन अभी यह फैसला फौज के सिर्फ उसी विभाग पर लागू है, जिस विभाग की महिला कर्मचारियों ने कोर्ट में चुनौती दी थी। फौज में अभी विभिन्न स्तरों पर गैरबराबरी कायम है। समझने वाली बात है कि महिलाएं आखिर कौन-सी बड़ी सत्ता की या सुपर कर्मचारी बन जाने की मांग कर रही हैं। वे यही तो मांग रही हंै कि उन्हें सिर्फ औरत होने के नाते बराबरी से वंचित न किया जाए। कभी कहा जाता है कि औरत हो, इसलिए रात में काम न करो तो कभी अघोषित रूप से नियुक्ति या पदोन्नति के रास्ते बंद किए जाते हैं। इतने बंधनों या अवरोधों वाले समाज में जब तुलनात्मक रूप से छोटे हिस्से की लड़ाई में कानूनी जीत हो या मैनेजमेंट या सरकार मांगें मान ले या एयर इंडिया जैसे खुद ही नीति बनाकर कम से कम कुछ गैरबराबरियों को ही समाप्त किया जाए तो वह शेष कामकाजी महिलाओं को अपने कार्यस्थल पर भी बराबरी की मांग करने का हौसला भी देता है। अभी तो पता नहीं कितने स्तरों, मोर्चो और क्षेत्रों में गैरबराबरी कितने रूपों में कायम रखी गई है, इसका पूरे समाज को पता भी नहीं है। जब कोई विरोध करता है या मुकदमा कोर्ट-कचहरी में जाता है, तब कई बातों का पता भी लगता है। जैसे कानून पढ़ने या कानूनी पेशा में रहने वालों को छोड़ दें तो किसे पता था कि कानून की भाषा में महिलाओं के लिए रखैल ंशब्द अब भी इस्तेमाल होता है। बराबर काम का बराबर वेतन औरत का हक है और इसे लागू नहीं करना किसी भी सरकार या निजी कंपनी या कोई भी नौकरी पेशा हो तो नियोक्ता की तरफ से इसे अपराध माना जाना चाहिए। हालांकि श्रम कानून के अंतर्गत बराबरी का नियम होता है, लेकिन हर जगह जेंडर भेद के लिए रास्ते निकाल लिए जाते हैं। दरअसल, ऐसे हालात तैयार करना भी सरकार और नियोक्ता की जिम्मेवारी बनती है, जिसमें महिलाएं बराबर का काम कर सकें और उन्हें बराबर की सारी सुविधाएं भी मिले। हमारे संविधान का अनुच्छेद 15 व्यवस्था देता है कि भारत का हरेक नागरिक लैंगिक तथा जातीय भेदभाव से मुक्त जीवन का अधिकारी है यानी ऐसे भेदभाव करना कानूनी अपराध माना जाएगा, लेकिन यहां की महिलाएं नागरिक होते हुए भी आसानी से और धड़ल्ले से आर्थिक शोषण की शिकार होती आई हैं। असंगठित क्षेत्र में यह भेदभाव अधिक देखने को मिलता है। आज भी कुशल श्रमिक के रूप में महिलाएं कुल श्रमशक्ति में बराबर का हिस्सेदार नहीं बन पाई हैं। श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट इस बात का खुलासा करती है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, महिला श्रमिकों की संख्या 12 करोड़ 72 लाख है, जो उनकी कुल संख्या 49 करोड़ 60 लाख का चौथा ( 25.60 प्रतिशत) हिस्सा ही हुआ। इनमें भी अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्र में हैं और उनका प्रतिशत ऊपर दी हुई कुल महिला श्रमिकों की संख्या का तीन हिस्से से भी ज्यादा (87 प्रतिशत) कृषि संबंधी रोजगार में है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह विचार भी व्यक्त किया कि उसे समझ नहीं आता कि आखिर 1997 में एयर इंडिया ने किस आधार पर जहाज के अंदर उड़ान के दौरान महिला सुपरवाइजर की पोस्ट से इनकार किया है। ऐसे कितने ही अवसरों और कार्यो के लिए जब-जब महिला विरोधी नीतियां बनती होंगी तो आखिर क्या-क्या कारण गिनाए जाते होंगे? यही न कि फलां काम उनके लिए नहीं है या वे यह नहीं कर पाएंगी, लेकिन मौका मिले तभी तो पता चल पाएगा कि क्यों नहीं कर पाएंगी। दरअसल, आज भी यह एक बड़ा मुद्दा है कि सार्वजनिक दायरा तथा हर प्रकार के कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए पूर्ण बराबरी कैसे कायम हो। इस दिशा में गैरबराबरी के खिलाफ महिलाओं द्वारा किया गया छोटा-मोटा संघर्ष भी बदलाव की बयार लाता है। इसलिए जरूरत है सबसे पहले नाइंसाफी को पहचानने तथा इस धारणा को पुराना करने की कि बराबर का काम हमारा हक है और औरत होने के नाते इससे वंचित नहीं किया जा सकता है। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

Thursday, December 8, 2011

खतरे में हैं गढ़वाल हिमालय के ताल


गढ़वाल हिमालय की खूबसूरती में सदियों से चार चांद लगा रहे कई तालों (झील) के अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान में रहस्यमयी इतिहास को समेटे विश्र्व प्रसिद्ध रूपकुंड हो या फिर देवरिया ताल व नचिकेता ताल। इनके संरक्षण व संव‌र्द्धन की दिशा में जल्द ठोस कदम न उठाए गए, तो ऊंची चोटियों पर स्थित ये प्राकृतिक झीलें एक सुनहरा अतीत बनकर रह जाएंगी। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अधीन पिछले 23 साल से चल रहे एक अध्ययन के बाद हेमवती नंदन गढ़वाल विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग ने खूबसूरत तालों के प्रति यह गहरी चिंता जताई है। उत्तराखंड के गढ़वाल हिमालय वाले भाग को यूं तो नदियों के उद्वगम स्थल के रूप में जाना जाता है, लेकिन इसी भू-भाग में 64 प्राकृतिक ताल (झील) भी मौजूद हैं। केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के अधीन गढ़वाल विवि का पर्यावरण विज्ञान विभाग पिछले 23 साल से इन झीलों की स्थिति का अध्ययन कर रहा है। 1988 में डा. महावीर सिंह रावत ने अध्ययन की शुरुआत की और 1998 में डा. किशोर कुमार ने इसे आगे बढ़ाया। 1993-94 तक गढ़वाल हिमालय में सिर्फ 54 झीलों की जानकारी थी, लेकिन वर्तमान में 65 छोटी-बड़ी झीलों का ब्योरा उपलब्ध है। रूपकुंड, देवरिया ताल व नचिकेता ताल के संरक्षण के लिए यदि जल्द प्रयास न हुए, तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे। इनके अलावा वेदनी कुंड, डोडीताल, मासर ताल समेत कई अन्य तालों की स्थिति भी बेहतर नहीं है। हिमालय क्षेत्र में बढ़ती आवाजाही, पर्यावरणीय बदलाव व संरक्षण न होने के कारण से इन झीलों पर खतरा मंडराने लगा है। किनारे से लगातार मिट्टी के क्षरण, सफाई न होने से झीलें उथली हो रही हैं और उनके पानी व क्षेत्रफल में कमी आ रही है।

Friday, December 2, 2011

हर मिनट 9 हेक्टेयर वन हो गए गुम


दुनिया भर में वर्ष 1990 से 2005 के हर मिनट नौ हेक्टेयर जंगलों का सफाया किया गया है। वनों के खात्मे पर यह रिपोर्ट संयुक्त राष्ट्र ने जारी की है। दूसरे शब्दों में हर साल औसतन 49 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों की कटाई कई गई। पूरी धरती पर अब तीस फीसदी वन क्षेत्र ही बचा है, जो अपने आप में एक खतरे की घंटी है। वनों की तबाई और इसके चलते वन्य जीवों के विलुप्त होने के यह आंकड़े बहुत भी भयानक हैं। जबकि धरती पर्यावरण के असंतुलन की मार पहले ही झेल रही है। इसके चलते वायु प्रदूषण भी अपने चरम पर है। खाद्य और कृषि संगठन (एफएओ) के आंकड़ों के अनुसार वनों की यह कटाई इंसानों के आमतौर पर किये जाने वाले विकास कार्यो के नाम पर की है। इसके चलते 15 सालों (1990 से 2005) में पूरी दुनिया में 7 करोड़ 29 लाख हेक्टेयर में फैली वन संपदा पूरी तरह से खत्म हो चुकी है। यानी पिछले 15 सालों में शहर बसाने और विकास के नाम पर हर मिनट 9.3 हेक्टेयर वन उजाड़ दिए गए। नए तथ्यों से यह भी पता चलता है कि वर्ष 1990 से 2000 के बीच वनों की कटाई का अनुपात प्रतिवर्ष 41 लाख हेक्टेयर प्रति वर्ष था जो वर्ष 2000 से 2005 के बीच बढ़कर 64 लाख हेक्टेयर हो गया। हालांकि इस सर्वे में यह भी कहा गया है कि वर्ष 1990 से 2005 के बीच वनों की कटाई उतनी भी नहीं हुई जितनी अधिक पहले मानी जा रही थी। चूंकि वन क्षेत्रों में विस्तार भी पहले की अपेक्षा अधिक पाया गया है। एफएओ के वन विभाग के सह निदेशक रोजस ब्रियेल्स के अनुसार पहले वनों का क्षरण दो-तिहाई अधिक माना गया था। इसे पहले 107.4 मिलियन हेक्टेयर बताया गया था। तब विश्व में वनों की कटाई प्रति वर्ष एक करोड़ 45 लाख हेक्टेयर मानी गई थी। कटिबंधीय इलाकों में ही अधिक वन काटे गए हैं। इसमें ज्यादातर वनों को काटकर वहां खेत बना दिए गए हैं। कृषि भूमि के रूप में ही अब इसे इस्तेमाल किए जाएगा। लेकिन वनों की कटाई से पर्यावरण में शुद्ध हवा का अभाव है। इतना ही नहीं ओजोन परत का बढ़ने में भी वनों की अंधाधुंध कटाई जिम्मेदार है। इससे वन से मिलने वाली वस्तुओं का भी खात्मा होता जा रहा है। इतना ही नहीं, लाखों की तादाद में वन्य जीव लुप्त हो रहे हैं। या फिर एकदम ही खत्म हो चुके हैं। रोजस ने बताया कि सैटेलाइट से मिले चित्रों के अनुसार वर्ष 2005 में दुनिया भर में केवल 3.69 अरब हेक्टेयर क्षेत्रफल में वन फैले हुए हैं। दरअसल यह आंकड़ा बताता है कि अब पूरी धरती पर मौजूद जमीन में केवल 30 फीसदी हिस्सा ही वन क्षेत्र बचा है।

डरबन में गुजरना होगा कड़ी परीक्षा से


जलवायु स्थरीकरण के बोझ को न्यायोचित ढंग से केवल प्रति व्यक्ति समान उत्सर्जन से ही नहीं बल्कि अनेक अन्य मानदंडों से भी बांटा जा सकता है। डरबन में होने वाले जलवायु सम्मेलन में भारत को किसी दुर्बल, अप्रभावी जलवायु समझौते के प्रति कोपेनहेगन लालचसे बचना चाहिए क्योंकि ऐसा समझौता किसी को उत्तरदायी नहीं बनाएगा। इससे भारतीय जन और वैिक जलवायु को नुकसान होगा
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौते के अंतर्गत 1992 में ब्राजील के रियो डे जनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन के बाद से अब तक की समझौता वार्ताओं के अनेक चक्र मानव जाति के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण समझौता वार्ता कहे गये हैं जो अतिशयोक्ति नहीं है। जलवायु में हो रहे विनाशकारी, अपरिवर्तनीय बदलाव आज मानव जाति के सबसे गंभीर खतरे की ओर इशारा हैं। ग्लोबल वार्मिग के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, वष्रा का पैटर्न बदल रहा है। भयंकर चक्रवात, विराट सूनामियां तथा सूखे-मौसम में अक्सर हो रहीं इस प्रकार की घटनाओं के साथ वायुमंडल गर्म करने वाले कार्बन डाइऑसाइड तथा ऐसी ही अन्य गैसों के बढ़ते उत्सर्जनों के कारण पृथ्वी ग्रह तबाही की ओर बढ़ रहा है। जलवायु पण्राली ज्यादा से ज्यादा डेड़ से दो डिग्री सेल्सियस (पूर्व औद्योगिक स्तरों से ऊपर) तक ग्लोबल वार्मिंग बर्दाश्त कर सकती है परंतु ग्रीन हाउस उत्सर्जन के कारण पृथ्वी तापमान तीन से चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ रहा है। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित संस्थान, टिंडल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च के उप निदेशक सरीखे वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि 4 डिग्री तापमान बढ़ने पर दुनिया की मात्र दस फीसद आबादी ही जिंदा बच पाएगी। 2020 तक यदि उत्सर्जन स्थिर नहीं हो जाते और उसके बाद तेजी से नीचे नहीं आते तो 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पाना नामुमकिन हो जाएगा। इसलिए ग्रीनहाउस उत्सर्जनों में भारी कमी कर एक-दूसरे के सहयोग से जलवायु संकट के वैिक समाधान के लिए समझौता वार्ताएं आवश्यक व महत्वपूर्ण हैं। आशंका है कि दक्षिण अफ्रीका के डरबन में होने जा रहा 17वां जलवायु परिवर्तन समझौता कहीं झगड़ालू व अनुपयोगी न साबित हो। कोई यह आशा नहीं कर रहा है कि इससे वे विवादास्पद समस्याएं हल हो जाएंगी जिनमें शामिल है कि उत्तर के 40 देशों के साथ उत्सर्जन कटाव किसे करने चाहिए, इनका विस्तार और कानूनी रूप क्या होना चाहिए या दक्षिण के गरीब देशों के जलवायु संबंधी उपाय के लिए धन का प्रबंध किसे करना चाहिए। कहा जा रहा है कि उत्सर्जन घटाने में अगुआई उत्तरी देशों को करनी चाहिए क्योंकि वायुमंडल में जमा तीन चौथाई ग्रीन हाउस गैसों के लिए वही जिम्मेदार हैं और उन्हें दक्षिणी देशों की वित्तीय व तकनीकी मदद करनी चाहिए। पर विकसित देशों ने क्योटो प्रोटोकोल के अधीन अपने दायित्वों को पूरी तरह नहीं निभाया है। अमेरिका ने तो क्योटो का कभी अनुमोदन किया ही नहीं। वह 1990 की तुलना में पांच प्रतिशत अधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करेगा। आशंका है कि जापान, कनाडा, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, स्पेन और नीदरलैंड अपने लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएंगे। कुछ तो तीस प्रतिशत जितने बड़े अंतर से पीछे रह जाएंगे। 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन के बाद से उत्तर ने दक्षिण से उत्सर्जन में खुद से भी ज्यादा कमी का वचन ले लिया है। इनमें 2020 तक कार्बन डाइऑक्साइड के शून्य से अधिकतम 3.8 अरब टन तक के उत्सर्जन के वचन हैं, जो व्यक्त महत्वाकांक्षा, घोषित शतरें और लेखा नियमों में ढील पर आधारित हैं। इसके विपरीत दक्षिणी देशों के वचन 3.6 से 5.2 टन तक हैं। सामूहिक रूप से दक्षिण उत्तर की तुलना में उत्सर्जन में 37 प्रतिशत अधिक गहरे कटाव के वचन देता है। अमेरिका, यूरोपीय यूनियन, रूस, कनाडा और आस्ट्रेलिया सहित उत्तर के चोटी के छह प्रदूषकों की अपेक्षा चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, मेक्सिको और दक्षिण कोरिया ने कुल मिलाकर 40 से 300 प्रतिशत अधिक के वचन दिए हैं। बड़े औद्योगिक प्रदूषकों की तुलना में न्यूनतम विकसित देशों और लघु द्वीप राज्यों की संधि ने अधिक उदार वचन दिए हैं। यह समझौते के सिद्धांत को अड़ियल ढंग से उलट जलवायु स्थरीकरण का अधिक बोझ उन पर डाल देता है जो जलवायु ग्लोबल वार्मिग के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। इस बदलाव की साजिश कोपेनहेगन में अमेरिका, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन के नवगठित गुट बेसिकने रची थी जिसका मकसद महत्वाकांक्षी उत्तरदायित्व से बचना था। शर्मनाक यह है कि भारत अपनी घोषित रेड लांइस (खतरे की रेखाओं) के विरुद्ध सांठगांठ में शामिल हो गया था। कानकुन में भी अमेरिका प्रायोजित वचन और पुनर्विचार दृष्टिकोण हावी रहा जिसने वि को आशंकित जलवायु विनाश के रास्ते पर डाल दिया। अत: जलवायु संकट और जलवायु वार्ताओ में अविास तथा अनास्था के लिए केवल विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं। दक्षिण के बढ़ते उत्सर्जनों की दोषी उनकी उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं जिनका प्रतिनिधित्व मुख्यत: बेसिककरता है। बेसिकऔर दक्षिण एशिया के बाकी हिस्से के बीच अंतर किया जाना चाहिए। बेसिक के उत्सर्जन शेष वि की तुलना में कहीं तेजी से बढ़ रहे हैं। पिछले साल चीन के उत्सर्जन 2009 से 10 प्रतिशत बढ़े थे और भारत के 9 प्रतिशत। जबकि पूरे वि में 6 प्रतिशत बढ़े। 1990 और 2000 के बीच ईंधन दहन से वैिक उत्सर्जन में 37.2 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि ओईसीडी देशों में यह 8 प्रतिशत थी। लेकिन इस बीच भारत के उत्सर्जन 175.9 प्रतिशत और चीन के इससे भी अधिक 196.8 प्रतिशत बढ़े। ब्राजील के उत्सर्जनों में 68.4 और दक्षिण अफ्रीका में 53.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई। आज का चीन 1992 के चीन से जुदा है जब संयुक्त राष्ट्र जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। अब उसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन लगभग पश्चिमी यूरोपीय देशों के बराबर है और 2035 तक यह अमेरिकी स्तर तक पहुंच जाएगा। जलवायु संबंधी दायित्वों से बचने के लिए भारत गरीबी की आड़ नहीं ले सकता। उसके उत्सर्जनों में बढ़ोतरी की बड़ी वजह गरीबों की जरूरत पूरी करना नहीं बल्कि अमीर वर्ग का ऐशोआराम है। हालांकि बेसिक को उत्तर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता फिर भी भविष्य में उसे अधिक दायित्व निभाने होंगे। वैिक समझौता वार्ताओं से बड़ी हद तक अपरिचित भारत को डरबन में जहां कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ेगा वहीं जलवायु के मामले में पक्षपात से बचने के लिए दोहरी भूमिका अदा करनी होगी। विकासशील देशों के गुट जी-77 के सदस्य के तौर पर और दूसरे बेसिक राज्य के तौर पर। केंद्रीय प्रश्न यह है कि उत्तर से उस अतिरिक्त स्थान को किस प्रकार खाली कराया जाए जो उसने दक्षिण की कीमत पर वैिक वायुमंडल मामलों में हथिया रखा है। जलवायु स्थरीकरण के बोझ को न्यायोचित ढंग से केवल प्रति व्यक्ति समान उत्सर्जन से ही नहीं बल्कि अनेक अन्य मानदंडों से भी बांटा जा सकता है। डरबन में भारत को किसी दुर्बल, अप्रभावी जलवायु समझौते के प्रति कोपेनहेगन लालचसे बचना चाहिए क्योंकि ऐसा समझौता किसी को उत्तरदायी नहीं बनाएगा। इससे भारतीय जन और वैिक जलवायु को नुकसान होगा।