Monday, February 28, 2011

पर्यावरण बचाओ मुहिम में बजट बना वाहन


 वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने बजट में जंगल, जमीन, हवा के साथ ही नदियों व तालाबों का भी खास ख्याल रखा है। बजट में इन्हें बचाने के उपायों पर 600 करोड़ रुपये की बजटीय सहायता के अलावा पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने के लिए उन पर उत्पाद व आयात शुल्क में छूट का प्रस्ताव भी है। पर्यावरण सुधार के लिए निर्धारित 600 करोड़ में से 200 करोड़ वनों के संरक्षण व नए वन लगाने पर खर्च होंगे। वहीं 200 करोड़ रुपये प्रदूषण नियंत्रण उपायों को बढ़ावा देने पर खर्च किए जाएंगे। वित्त मंत्री ने बजट में गंगा के अलावा दूसरी नदियों व तालाबों की भी सुध ली है। सांस्कृतिक व एतिहासिक महत्व की ऐसी नदियों व तालाबों को प्रदूषण मुक्त करने पर 200 करोड़ रुपये खर्च किए जाएंगे। बजट में पर्यावरण अनुकूल प्रौद्योगिकी को बढ़ावा देने का भरसक प्रयास किया गया है। इसके तहत बिजली की गाडि़यों के कलपुर्जो पर सीमा व उत्पाद शुल्क में दी जा रही रियायत के दायरे को बढ़ाते हुए बैटरियों के आयात को इसमें शामिल कर लिया गया है। वहीं हाइड्रोजन ईधन पर आधारित वाहनों को बढ़ावा देने के लिए उन पर 10 फीसदी का रियायती उत्पाद शुल्क लगाया जाएगा। डीजल-पेट्रोल के साथ ही सीएनजी व एलपीजी या दोनों से चलने वाले हाइब्रिड वाहनों पर रियायती उत्पाद शुल्क के अलावा उनमें लगने वाले कलपुर्जो को आयात शुल्क से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया है। इसी तरह सामान्य वाहनों को हाइब्रिड में बदलने के लिए लगने वाली स्वदेशी किट व उसके कलपुर्जो पर लगने वाले उत्पाद शुल्क को घटाकर पांच फीसदी कर दिया गया है। प्रणव मुखर्जी ने बिजली की कम खपत करने वाली एलईडी लाइटों को सस्ता करने का रास्ता भी साफ कर दिया है। इनके मूल अवयव एलईडी पर लगने वाली काउंटर वेलिंग ड्यूटी को कम कर दिया गया है। इसी तरह अब सोलर लैंपों पर उत्पाद शुल्क को आधा कर दिया गया है। यही नहीं, कपड़ों की धुलाई में पानी की अत्यधिक खपत रोकने के लिए साबुन में प्रयुक्त होने वाले पाम स्टीयरिंग पर सीमा शुल्क खत्म कर दिया गया है। इसी तरह चमड़ा उद्योग में हानिकारक रसायनों की जगह पर्यावरण अनुकूल एन्जाइमों को बढ़ावा देने के लिए इन एन्जाइमों को उत्पादन शुल्क से पूरी तरह मुक्त कर दिया गया है

गंगा का जहर पिएंगे शैवाल


गंगा को प्रदूषणमुक्त करने की मुहिम वैज्ञानिकों के प्रयासों से परवान चढ़ती नजर आ रही है। वैज्ञानिकों ने शैवालों की दस हजार ऐसी प्रजातियों का पता लगाया है, जो गंगा में फैले विष का पान करेंगे। प्रयोगशाला में तैयार किए जा रहे ये शैवाल गंगा में रोपित किए जाएंगे। स्टेट फोरेंसिक साइंस लैबोरेट्री, करनाल और इलाहाबाद स्थित सैम हिंगिनबॉटम इंस्टीटयूट ऑफ एग्रीकल्चर, टेक्नोलॉजी एंड साइंसेज के स्कूल ऑफ फोरेंसिक साइंस के वैज्ञानिकों ने तीन वर्ष पूर्व गंगा में शैवालों पर एक शोध शुरू किया था। इस दौरान हरियाणा व उत्तर प्रदेश के विभिन्न स्थानों से गंगा में मौजूद शैवालों की प्रजातियां जमा की गईं। हरियाणा में 60 व इलाहाबाद में 30 प्रजातियां मिलीं। देश के विभिAन हिस्सों से लिए गए गंगाजल के नमूनों में दस हजार से अधिक प्रजातियों के शैवाल पाए गए। परियोजना पर काम कर रहीं एसएफएसएल, करनाल की डॉ.वंदना विनायक व शियाट्स के असिस्टेंट प्रोफेसर मुनीष मिश्र के मुताबिक साफ और गंदे पानी में शैवालों की भिन्न-भिन्न प्रजातियां मिली हैं। इनसे गंगा में प्रदूषण के स्तर का पता भी लगा है। अब तक के शोध में सामने आया कि जलीय वातावरण में शैवाल की कुछ प्रजातियां प्रदूषण का संकेत देती हैं, जबकि कुछ इसे कम करने में मदद करती हैं। इन परिणामों के आधार पर साफ पानी में मिली प्रजातियों को प्रयोगशाला में तैयार किया जा रहा है, जिन्हें बाद में गंगा में रोपित किया जाएगा|

Friday, February 25, 2011

बूँद-बूँद पानी को तरसते देश के जलाशय


विकास के नाम पर बुरांश के पेड़ों की बलि


एक ऐसा पेड़! जिसकी पत्तियों को रगड़ने से सिरदर्द दूर हो जाता है, फूलों से डायरिया व डायसेंटरी की दवा, गुलुकंद, जूस और चटनी तैयार होती है, छाल से मोमबत्ती बनती है। जिसकी लकड़ी भवन निर्माण में काम आती है। ऐसे बेशकीमती बुरांश के पेड़ों का वजूद खतरे में है। जम्मू कश्मीर में विकास के नाम पर खड़े होते कंक्रीट के जंगल और अंधाधुंध भवन निर्माण बेशकीमती बुरांश के पेड़ों की बलि ले रहे हैं, लेकिन इसके संरक्षण के प्रति न तो वन विभाग संजीदा है और न ही सरकार। वन विशेषज्ञ ओपी विद्यार्थी की मानें तो जम्मू कश्मीर में बुरांश की पांच किस्में हैं, जिनमें लाल, सफेद और नीले फूल लगते हैं। निचले क्षेत्रों में बुरांश के पेड़ों पर लाल और ऊंचाई वाले क्षेत्रों में छोटे-छोटे झाड़ीदारनुमा पेड़ों पर सफेद तथा नीले फूल लगते हैं। जागरूकता की कमी और संरक्षण के अभाव में पिछले पांच दशकों में राज्य के जंगलों से बुरांश के 30 फीसदी से भी अधिक पेड़ लुप्त हो गए हैं। चिंताजनक यह भी है कि मौसम के बदलते चक्र के कारण इसके पौधों की नर्सरी तैयार नहीं हो पा रही है। हालांकि अब सरकार ने पर्यटन को बढ़ावा देने की गरज से इस पेड़ की महत्ता को समझा है। इसी के तहत राजौरी जिले के डेरा की गली क्षेत्र में बुरांश के जंगलों को इको टूरिज्म से जोड़ा है। बुरांश के फूलों को निहारकर पर्यटक आनंदित हो उठते हैं। राजौरी जिले के निवासी पर्यावरणविद् मदन मोहन कहते हैं कि बुरांश के फूलों को मामूली न समझें। जब मार्च-अप्रैल में ये खिलते हैं तो पूरे जंगल में चमक ला देते हैं। अपने गुणों के कारण ही बुरांश के लाल फूल नेपाल के राष्ट्रीय फूल बन गए हैं, जबकि उत्तराखंड में इन्हें राजकीय फूल का दर्जा हासिल है। सफेद फूलों को हिमाचल सरकार ने राजकीय पुष्प घोषित कर रखा है। देश के पूर्वी राज्य सिक्किम ने तो बुरांश के पेड़ को संरक्षित करने के लिए सेंचुरी भी बनाई है। 2010 में सिक्किम के गंगटोक में आयोजित कार्यशाला में पर्यावरणविदें ने हिमालयी क्षेत्र में बुरांश के घटते पेड़ों पर गहन चिंता जताई थी। साथ ही प्रदेश सरकारों से अपील की थी कि वे इस पेड़ को बचाने के लिए काम करें। विशेषज्ञों का कहना है कि पश्चिमी हिमालयन राज्यों में बुरांस के पेड़ों की घटती संख्या चिंतनीय है। जम्मू-कश्मीर में तो स्थित बेहद गंभीर है।

Wednesday, February 23, 2011

एस्बेस्टस के खतरे


एस्बेस्टस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं लेखक
बिहार के मुजफ्फपुर जिले में प्रस्तावित एस्बेस्टस कारखाने के खिलाफ करीब साल भर से स्थानीय लोग आंदोलनरत हैं। किसानों का आरोप है कि कंपनी ने जमीन अधिग्रहण में धोखाधड़ी की है। कंपनी ने कृषि आधारित उद्योग के नाम पर किसानों की जमीन खरीदी थी, लेकिन आगे चलकर वह एस्बेस्टस कारखाना लगाने लगी और कंपनी ने इस उपजाऊ जमीन को पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन रिपोर्ट में धोखाधड़ी करके बंजर करार दिया। इसी कारण स्थानीय लोग विरोध कर रहे हैं। किसानों के साथ-साथ पर्यावरणविद भी मांग कर रहे हैं कि एस्बेस्टस कारखाने पर प्रतिबंध लगाया जाना चाहिए, क्योंकि इनसे निकलने वाली गर्द न सिर्फ इन कंपनियों में काम करने वाले मजदूरों, बल्कि आसपास रहने वाले लोगों की सेहत को भी गंभीर तौर पर प्रभावित करती है। यही कारण है कि विकसित देशों ने एस्बेस्टस से बनने वाली सामग्री पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा रखा है। इसे तैयार करने में जिस पदार्थ का इस्तेमाल किया जाता है उसमें क्रीमोलाइट नामक खनिज के रेशे मिले होते हैं। ये रेशे मनुष्य के शरीर में पहुंचकर बीड़ी-सिगरेट आदि के धुएं से भी अधिक नुकसान पहुंचाते हैं। इनसे सांस और गुर्दे संबंधी बीमारियां, बल्कि कहें कैंसर जैसे घातक रोग पैदा होते हैं। इसमें प्रयुक्त सामग्री में क्रीमोलाइट की मात्रा का मानक तय है, लेकिन इस कारोबार में लगी औद्योगिक इकाइयां इनका कम ही पालन करती हैं। देशभर में 700 छोटी और 33 बड़ी इकाइयां इस कारोबार में लगी हैं, जिनमें हर साल एक लाख टन एस्बेस्टस की खपत होती है। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक भारत में आठ हजार मजदूर इस उद्योग में हैं, जबकि गैर सरकारी सूत्रों के मुताबिक यह संख्या एक लाख से ज्यादा है। हालांकि भारत सरकार ने एस्बेस्टस के खनन पर पाबंदी लगा रखी है, लेकिन इसके व्यापार और निर्माण की अनुमति है। 2007 में कनाडा ने अपने यहां उत्पादित सफेद एस्बेस्टस का 95 फीसदी निर्यात किया जिसमें तकरीबन 43 फीसदी भारत को निर्यात किया गया। इसे देखते हुए एस्बेस्टस आयात पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जा रही है। यह आश्चर्यचकित करने वाली बात है कि जो कनाडा गाहे-बगाहे भारत को पर्यावरण मानकों का पाठ पढ़ाता रहता है वही भारत को ऐसे पदार्थ निर्यात कर रहा है जिससे न सिर्फ पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है, बल्कि हजारों लोगों की जान जोखिम में पड़ रही है। सरकार ने 2003 में एस्बेस्टस उद्योग को लाइसेंस मुक्त कर दिया। 1995 में एस्बेस्टस पर 78 फीसदी आयात शुल्क लगता था जिसे घटाकर 2004 में 15 फीसदी कर दिया गया। इसका परिणाम यह हुआ कि एस्बेस्टस सीमेंट का उत्पादन 1993 में 68 हजार टन से बढ़कर 2002 में तकरीबन 13 लाख टन हो गया। यह कारोबार सरकारों के लिए विदेशी मुद्रा कमाने का जरिया भी है। उदाहरण के लिए 2006 में करीब 12 अरब रुपये का एस्बेस्टस सीमेंट बिका था और इसने डेढ़ अरब रुपये मूल्य की विदेशी मुद्रा अर्जित की। आमदनी के साथ-साथ इस कारोबार में प्रभावशाली लोगों के शामिल होने के चलते भी सरकार रियायतों का पिटारा खोले रहती है। देश में एस्बेस्टस से बनी सीमेंट की चादर बनाने का उद्योग 10 फीसदी सालाना की दर से बढ़ रहा है। भारत सरकार की ग्रामीण आवास परियोजनाओं की वजह से इनकी मांग बढ़ गई है, क्योंकि इन योजनाओं में घर की कीमत को कम रखने पर जोर दिया जाता है। अन्य विकासशील देशों में एस्बेस्टस अभी भी अग्निरोधक छतों के निर्माण, पानी के पाइप, सस्ती और लोकप्रिय भवन निर्माण सामग्री के रूप में प्रयुक्त होता है। दुनिया के 55 से अधिक देशों में यह प्रतिबंधित है, लेकिन इन देशों से विकासशील देशों को निर्यात हो रहा है। कंपनियों का कहना है कि वे जो एस्बेस्टस निर्यात कर रही हैं वह अपेक्षाकृत सुरक्षित है, लेकिन वैज्ञानिकों के मुताबिक इसमें कैंसरकारी तत्व हैं। गौरतलब है कि सफेद एस्बेस्टस पर यूरोपीय संघ ने प्रतिबंध लगा रखा है, लेकिन भारत, चीन और रूस में अभी भी इसका प्रयोग होता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

गजराज के घर में वनराज का आशियाना


गजराजों (हाथियों) की रियासत राजाजी नेशनल पार्क में अब वनराज (बाघों) का आशियाना संवारने की भी तैयारी है। कोशिश है कि यहां भी वनराज विचरण कर सकें और उनके ठाठबाट में भी कोई कमी न रहे। यह खालिश घर तो नहीं, लेकिन घर सरीखा ही होगा। हालांकि अभी इसमें वक्त लगेगा, लेकिन प्रयास संपूर्ण वन्य जीवन की झलक दिखाने की उम्मीद जगा रहे हैं। आठ सौ बीस वर्ग किमी भूभाग में विस्तारित राजाजी नेशनल पार्क में गजराज के झुंड और इनकी चिंघाड़ सैलानियों को बरबस ही आकर्षित करती है, लेकिन यह पार्क गजराज ही नहीं, बाघों के लिए भी उत्तम पर्यावास वाला है। पार्क की चार रेंजों चीला, गौहरी, मोतीचूर व धौलखंड में बाघों की मौजूदगी इसे तस्दीक करती है। पार्क प्रशासन के मुताबिक वर्तमान में उक्त रेंजों में 10 से 12 बाघ मौजूद हैं। बाघ के लिए अनुकूल परिस्थितियों को देखते हुए पार्क प्रशासन ने अब प्रोजेक्ट टाइगर की तरह अपने यहां भी बाघों के संरक्षण पर फोकस करने का निश्चय किया है। पार्क के निदेशक एसएस रसाईली के अनुसार, पार्क की चार रेंजों में बाघों के लिए उचित पर्यावास है। लिहाजा, वहां भी टाइगर के हिसाब से उनका मैनेजमेंट होना चाहिए। इस सिलसिले में चारों रेंज का सर्वे कर राजाजी में बाघ संरक्षण को कदम उठाने के मद्देनजर प्रमुख वन संरक्षक वन्य जीव को प्रस्ताव भेजा गया है। मामले में उच्च स्तर पर ही विचार होना है। कोशिश रंग लाई तो आने वाले दिनों में गजराज के अधिपत्य वाले राजाजी पार्क में वनराज का घर भी संवरेगा। सैलानियों को गजराज के साथ ही वनराज के भी दर्शन होंगे, जो उन्हें जंगल की संपूर्णता का अहसास दिलाएंगे। उल्लेखनीय है कि केंद्र सरकार बाघों के संरक्षण के प्रति बेहत सक्रिय है।


Tuesday, February 22, 2011

एक नहीं कई भागीरथों का प्रयास लाएगा रंग


क्षेत्रीय प्रदूषण नियंतण्र बोर्ड की मानें तो गंगा के जल में सुधार आना शुरू हो गया है। इलाहाबाद में गंगा के जल में कलर का मान 40 हैजेन से घटकर 30 हैजेन रह गया है। हालांकि गंगा निर्मलीकरण की दिशा में यह बहुत छोटी उपलब्धि है लेकिन छोटे-छोटे प्रयासों से ही बेहतर और सुखदायक नतीजे पर पहुंचा जा सकता है। केंद्र सरकार और स्वयंसेवी संस्थाओं द्वारा गंगा को स्वच्छ और निर्मल बनाने की दिशा में किया जाने वाला प्रयास अब जोर पकड़ने लगा है। कुछ समय पहले केंद्र की पहल पर आईआईटी के वैज्ञानिकों की एक टीम ने गंगा सफाई की कार्ययोजना बनाकर नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी को सौंपी है जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री हैं। क्लीन गंगा योजना जिसकी समय सीमा 2020 निर्धारित है, यदि अपने उद्देश्य में सफल रही तो वह दिन दूर नहीं जब गंगा फिर से अपनी निर्मलता और पवित्रता से आस्थावानों को सराबोर करती दिखेगी। सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा प्रस्तुत करते हुए केंद्र सरकार द्वारा कहा भी गया है कि गंगा मिशन के तहत सुनिश्चित किया जाएगा कि 2020 के बाद गैर शोधित सीवर और औद्योगिक कचरा गंगा में न बहाया जाए। गंगा की दुगर्ति की मूल वजह सीवर और औद्योगिक कचरा ही है जो बिना शोधित किए उसमें बहा दिया जाता रहा है। र्वल्ड बैंक की रिपोर्ट में भी कहा गया है कि प्रदूषण की वजह से गंगा नदी में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम होती जा रही है, जो मानव जीवन के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरा बहाने के कारण ही क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों की मात्रा गंगा में बढ़ती गई है। भयंकर प्रदूषण के कारण गंगा में जैविक ऑक्सीजन का स्तर पांच हो गया है जबकि नहाने लायक पानी में कम से कम यह 3 से अधिक नहीं होना चाहिए। गोमुख से गंगोत्री तक गंगा के तकरीबन 2500 किमी के रास्ते में कालीफार्म बैक्टीरिया की उपस्थिति दर्ज की गयी है जो अनेक बीमारियों की जड़ बन रहा है।औद्योगिक विश-विज्ञान केंद्र लखनऊ के वैज्ञानिकों द्वारा भी अपनी रिपोर्ट में बताया गया है कि गंगा के पानी में मिले ई-काईल बैक्टीरिया में जहरीला जीन है। वैज्ञानिकों ने माना कि बैक्टीरिया पाए जाने की मुख्य वजह गंगा में मानव और जानवरों मैला बहाना है। ई-काईल बैक्टीरिया की वजह से लाखों लोग गंभीर बीमरियों की चपेट में आकर मर रहे हैं। गंगा के प्रदूषण खत्म करने के लिए आम लोगों को सरकार के साथ दो कदम आगे आना होगा। जब तक लोग यह नहीं समझेंगे कि गंगा के प्रदूषण और गंदगी से आम जनजीवन को क्षति पहुंच रही है, तब तक गंगा को स्वच्छ नहीं किया जा सकता। सरकार द्वारा गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए कई बार योजनाएं बनायी जा चुकी हैं लेकिन वे कागजी पुलिंदे से अधिक साबित नहीं हुई हैं। 1989 में सरकार द्वारा गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट योजना बनायी गई लेकिन जनसहभागिता के अभाव में यह दम तोड़ गयी। अदालतों द्वारा भी सरकार को बार-बार हिदायत देते हुए पूछा गया कि आखिर क्या वजह है कि ढाई दशक गुजर जाने के बाद और बहुत सी कमेटियां और प्राधिकरण के गठन के बावजूद गंगा प्रदूषण की समस्या का प्रभावी हल नहीं ढूंढ़ा जा सका है। पिछले दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर सरकार द्वारा गंगा के किनारे दो किलामीटर के दायरे में पॉलिथिन एवं प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया गया लेकिन सवाल उठता है कि क्या ऐसे कानूनी प्रतिबंधों के दम पर गंगा को प्रदूषण से मुक्त किया जा सकता है? देखा जाए तो गंगा लोगों की आस्था से जुड़ी है और इसी के नाम पर उसके साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। गंगा के घाटों पर प्रत्येक वर्ष बेहिसाब लाशें जलायी जाती हैं या उन्हें जल में प्रवाहित किया जाता है। दूर स्थानों से जलाकर लायी गयी अस्थियां भी इसमें प्रवाहित होती हैं। हद तो तब पार हो जाती है जब गंगा सफाई अभियान से जुड़ी एजेंसियों द्वारा गंगा से निकाली गयी अधजली हड्डियां और राख पुन: उसी में उड़ेल दी जाती हैं। आखिर इस प्रकार के सफाई अभियान से कौन सा मकसद पूरा होता है? जब तक आस्था और स्वार्थ के उफनते ज्वार भाटे पर नैतिक रूप से और स्वविवेक से विराम नहीं लगेगा तब तक सरकार चाहे जितना प्रयास क्यों न करे, गंगा को प्रदूषण से बचाया नहीं जा सकता है। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार और स्वयंसेवी संस्थाएं अपने अडिग संकल्प, सार्थक मंशा और निष्पक्ष नीयत के साथ जनमानस को यह बताने की कोशिश करें कि गंगा की निर्मलता और पवित्रता मानव जीवन के लिए किस हद तक आवश्यक है। जब तक गंगा सफाई अभियान को जन अांदोलन का रूप नहीं दिया जाएगा तब तक सफलता मिलना असंभव है। प्रयास यह भी होना ना चाहिए कि देश के समाजसेवी, बुद्धिजीवी और साधु-संत एक मंच पर आकर की स्वच्छता के संदर्भ में जनमत तैयार करें। यह समस्या सिर्फ कानूनी दांवपेंचों से हल नहीं हो सकती है। भारतीय जन की आस्था और धर्म से जुड़ी गंगा को प्रदूषणमुक्त करने के लिए एक नहीं, हजारों भगीरथों की जरूरत है।


पानी का हिसाब-किताब


नदियों के जल की खपत के मौजूदा तौर-तरीकों को अनुचित ठहरा रहे हैं लेखक
इलाहाबाद हाई कोर्ट ने पाया कि गंगा का जल प्रदूषित है और स्नान करने योग्य भी नहीं रह गया है। कारण है कि गंगा से सिंचाई एवं बिजली उत्पादन के लिए भारी मात्रा में पानी निकाला जा रहा है। पानी की मात्रा कम हो जाने के कारण प्रदूषण का दबाव बढ़ गया है। समुद्र में एक किलो आर्सेनिक डाल दिया जाए तो वह प्रदूषित नहीं होता है। पानी की अथाह मात्रा में जहर निष्प्रभावी हो जाता है। गांव के तालाब में वही आर्सेनिक डाल दिया जाये तो मछलियां मृत हो जाती हैं। इस सिद्धांत के आधार पर कोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को आदेश दिया है कि किसी भी उपयोग के लिए 50 प्रतिशत से अधिक पानी नहीं निकाला जाए। वर्तमान में पानी की राजनीति बाहुबल के आधार पर चल रही है। नरोरा बैराज से जितना पानी छोड़ने का आदेश है उससे कम छोड़ा जाता है। किसानों का दल मौके पर पहुंच कर नदी का पानी रोक देता है और नहर का बढ़वा देता है। इससे मछुआरे और तीर्थयात्री प्रभावित होते हैं, परंतु संगठित न होने के कारण ये मौके पर पहुंचकर पानी को खुलवा नहीं पाते हैं। नदी में बहने वाले पानी से तमाम लोग लाभान्वित होते हैं। नदी के पानी से भूमिगत जल का पुनर्भरण होता है, विशेषकर बाढ़ के समय। सरकारी महकमा बाढ़ को पूर्णतया हानिप्रद मानता है। टिहरी जैसे बांधों में पानी रोककर अथवा तटबंध बनाकर बाढ़ के पानी को फैलने नहीं दिया जा रहा है। इससे भूमिगत जल का पुनर्भरण नहीं हो रहा है। ट्यूबवेल सूखते जा रहे हैं। देश की खाद्य सुरक्षा दांव पर लगी हुई है। मछुआरों की जीविका खतरे में है। फरक्का बैराज से इलाहाबाद तक हिलसा मछली समाप्तप्राय हो गई है। पानी के साथ-साथ नदी गाद को भी ढोकर लाती है। यह गाद ही हमारे समुद्र तटों को कटाव से बचाती है। पानी के साथ-साथ गाद भी निकल रही है और समुद्र को कम ही पहुंच रही है। गंगासागर द्वीप का तेजी से क्षरण हो रहा है। हमारी संस्कृति में सभी नदियां पूजनीय हैं। मैं 6-7 वर्ष का था। कानपुर के सरसैया घाट पर पिताजी हमें नहाने ले जाया करते थे। अपार भीड़ रहती थी। हम नाव से नदी के बीच बालू पर जाकर स्नान करते थे। आनंद आता था। आज नदी में पानी की कमी के कारण कानपुर के निवासी इस आनंद से वंचित हो गए हैं। नदी के मुक्त बहाव से तमाम जनता को सुख मिलता है। अमेरिका के वाशिंगटन राज्य में अल्हवा नदी पर दो बांध थे। इनसे सिंचाई होती थी और बिजली बनाई जाती थी। दूसरी ओर मछली पकड़ने वालों एवं नौकाविहार करने वाले टूरिस्टों को हानि होती थी। पशोपेश में पड़ी सरकार ने इस मुद्दे को सुलझाने के लिए नागरिकों के बीच सर्वे कराया। लोगों से पूछा गया कि बांधों को हटाकर नदी को स्वच्छंद बहने दिया जाए तो वे कितनी रकम देने को तैयार हैं। सर्वे से निष्कर्ष निकला कि बांधों को हटाने के लिए जनता ज्यादा रकम देने को तैयार थी, जबकि सिंचाई और बिजली से सरकार को तुलना में बहुत कम आय होती थी। इस आधार पर सरकार ने इन बांधों को बारूद से उड़ाने का निर्णय ले लिया। मैंने देवप्रयाग, ऋषिकेश एवं हरिद्वार में गंगा में स्नान को आए तीर्थ यात्रियों का सर्वे कराया था। पाया कि तीर्थयात्रियों को 4,666 करोड़ रुपये और देश की समस्त जनता को 7,980 करोड़ रुपये का नुकसान प्रति वर्ष टिहरी डैम से जल की गुणवत्ता घटने से हो रहा है। सिंचाई के लिए पानी निकालने के लाभ को भी बढ़ा-चढ़ाकर गिनाया जाता है। सरकारी अधिकारी सहज ही कहते हैं कि देश की खाद्य सुरक्षा के लिए सिंचाई का पानी देना जरूरी है, यह सच नहीं है। मैंने नहर से सिंचित क्षेत्रों का अध्ययन किया है। पाया कि नहर के हेड पर किसान पानी का भयंकर दुरूपयोग करते हैं। उनसे पानी का मूल्य भूमि के रकबे के आधार पर लिया जाता है। उनका प्रयास रहता है कि अधिकाधिक मात्रा में सिंचाई करें। सिंचाई से लाभ न्यून हो तो भी पानी डाला जाता है, क्योंकि इसका अतिरिक्त मूल्य नहीं देना पड़ता है। सच यह है कि पानी का उपयोग गन्ना तथा मेंथा जैसी विलासिता की फसलों के लिए किया जा रहा है। इसी प्रकार कर्नाटक में अंगूर, महाराष्ट्र में कपास तथा राजस्थान में मिर्च के उत्पादन में भारी मात्रा में पानी का उपयोग हो रहा है। देश की खाद्य सुरक्षा तो बाजरा, रागी, जौ तथा चने से भी स्थापित हो सकती है। फिर भी सरकारी महकमा अधिकाधिक सिंचाई पर कुर्बान है। इसका कारण यह कि बैराज एवं नहर निर्माण एवं इनके रखरखाव में ठेका और कमीशन मिलता है। पानी की इस खपत के पीछे राजनीति भी है। नहर से उत्पादित मेंथा, अंगूर और चीनी की खपत अधिकतर देश का संभ्रांत वर्ग करता है, जबकि नुकसान तीर्थ यात्रियों को होता है। सिंचाई महकमे का मूल उद्देश्य है गरीब के संसाधनों को जबरन छीनकर अमीर को देना। इस कार्य को खाद्य सुरक्षा के कवच के पीछे छिपाया जा रहा है। नदी के पानी को नरोरा परमाणु संयंत्रों को ठंडा करने केलिए भी निकाला जा रहा है। संयंत्र से निकले गरम पानी को सीधे नदी में छोड़ दिया जाता है। इससे बेजुबान निरीह मछली, केंचुए और कछुए मरते हैं। अधिकारियों का एकमात्र उद्देश्य लाभ कमाकर मंत्रालय को प्रसन्न करना होता है। गरम पानी को ठंडा करके पुन: उपयोग किया जा सकता है, परंतु अधिकारीगण इस मामूली खर्च को वहन करने के स्थान पर निरीह जंतुओं को मौत के घाट उतार रहे हैं। इस पृष्ठभूमि में हम आकलन कर सकते हैं कि नदी से कितना पानी निकालना उचित होगा। नदी से 100 फीसदी पानी निकाला जाए तो किसान को लाभ होगा, परंतु समुद्रतटवासियों, मछुआरों तथा तीर्थ यात्रियों को हानि बहुत ज्यादा होगी। यदि 90 प्रतिशत पानी निकाला जाए और 10 प्रतिशत छोड़ा जाए तो किसानों को मामूली हानि होगी, जबकि तीर्थयात्रियों को अधिक लाभ होगा। इसी प्रकार गणना करके पता लगाया जा सकता है कि किस स्तर पर किसान को लाभ एवं तीर्थयात्रियों को हानि बराबर हो जाएगी। पानी निकालने के तरीके पर भी पुनर्विचार करना चाहिए। वर्तमान में नदी के संपूर्ण पाट पर बैराज बनाकर पानी के बहाव को रोक लिया जाता है। बैराज के पीछे तालाब बन जाता है, जिसमें पानी सड़ता है और गाद जमा हो जाती है। मछलियां अपने प्रजनन क्षेत्र तक नहीं पहुंच पाती हैं। बैराज के स्थान पर आंशिक ठोकर बनानी चाहिए। मान लीजिए 40 प्रतिशत पानी निकालना है। ऐसे में नदी के 100 मीटर के पाट में 40 मीटर पर एक दीवार बनाकर 40 प्रतिशत पानी को नहर में निकाला जा सकता है। शेष 60 प्रतिशत पानी को बिना रूकावट बहने दिया जाना चाहिए। ऐसी व्यवस्था से बाहुबलियों द्वारा ज्यादा पानी नहीं लिया जा सकेगा। (लेखक आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं)