Wednesday, December 14, 2011

डरबन सम्मेलन से जलवायु न्याय की आस


उड़ान के दौरान महिला क्रू मेंबर्स के साथ होने वाले भेदभाव के खिलाफ दशकों से जारी संघर्ष में सुप्रीम कोर्ट ने अहम फैसला सुनाया है। महिलाओं के एक छोटे-से समूह ने हासिल की यह छोटी-सी जीत जो सुपरवाइजर पद से संबधित है, महिलाओं के विभिन्न स्तरों पर जारी भेदभाव के खिलाफ एक अहम जीत है। बता दें कि एयर इंडिया के विमान के अंदर काम करने वाली महिलाओं ने अपने लिए बराबर के ओहदे की मांग की थी। यहां उड़ान के दौरान काम करने वाली महिलाओं को सुपरवाइजर का पद नहीं मिलता था। सुपरवाइजर सिर्फ पुरुष ही हो सकता था, जबकि सारी जिम्मेदारियां वे बराबर की निभाती थीं। वरिष्ठ महिला कर्मचारी जिन पुरुष कर्मचारियों को प्रशिक्षण देती थीं, वे भी उनके सुपरवाइजर बन सकते थे, लेकिन महिला होने के नाते उन्हें यह कार्यभार नहीं सौंपा जा सकता था। सुप्रीम कोर्ट ने गत 17 नवंबर को अपने एक फैसले में कहा कि इस भेदभाव का कोई आधार नहीं है और महिलाएं इस ओहदे की हकदार हंै। इस प्रतिरोध में विशेष बात यह देखने वाली है कि आमतौर पर लड़ाई मैनेजमेंट से लड़नी पड़ती है, लेकिन यहां मैनेजमेंट यानी एयर इंडिया ने 2005 में अपनी नीति में बदलाव करते हुए सुपरवाइजर का दर्जा सिर्फ पुरुषों तक सीमित रखने के अपने मध्ययुगीन किस्म के नियम को समाप्त कर इस पद पर महिलाओं की नियुक्ति को भी सुगम बनाया था। प्रबंधन के इस निर्णय को पुरुष सुपरवाइजरों ने चुनौती दी थी। कोर्ट में अपील दायर की गई थी कि वे महिला सुपरवाइजरों के मातहत काम नहीं कर सकते हंै। वर्ष 2007 में दिल्ली हाईकोर्ट ने एयर इंडिया के इस फैसले को सही ठहराया था, तब अपीलकर्ता सुप्रीम कोर्ट गए थे। एयर इंडिया में न सिर्फ इस स्तर पर, बल्कि विभिन्न स्तरों पर महिला कर्मचारियों को जेंडर भेदभाव का सामना करना पड़ता है तथा इसके खिलाफ संघर्ष भी चलते रहे हैं। जैसे कि रिटायरमेंट की उम्र महिला और पुरुष के लिए अलग-अलग होती है। यदि महिला कर्मचारी अपनी नियुक्ति के शुरुआती चार साल के भीतर गर्भवती हो गई तो उसे नौकरी छोड़नी पड़ती थी या उसका वजन मानक से अधिक नहीं होना चाहिए जैसी शर्त थी। इन सारे भेदभावों का आधार कहीं भी यह नहीं था कि वे अपनी जिम्मेदारी निभाने में कमतर या अक्षम थीं, बल्कि वजह उनका औरत होना था। अगर हम दूसरे क्षेत्र की कामकाजी महिलाओं के संघर्षो की तरफ ध्यान दें तो वहां भी यहीं साधारण-सी मांग है कि कार्यस्थलों पर उन्हें बराबर का अवसर और जिम्मेदारियां सौंपी जाएं। सिर्फ औरत होने के नाते योग्यता और क्षमता पर प्रश्न खड़ा करने का तुक क्या है? आखिर सेना में स्थायी कमीशन की मांग की वजह यही तो रही है कि उनकी नौकरी के दस साल पूरे होने पर उन्हें अनिवार्यत: रिटायर कर दिया जाता था, जबकि पुरुषों को नौकरी में बने रहने का विकल्प था। कानूनन कोर्ट ने महिलाओं को यह अवसर देने के पक्ष में फैसला सुनाया है, लेकिन अभी यह फैसला फौज के सिर्फ उसी विभाग पर लागू है, जिस विभाग की महिला कर्मचारियों ने कोर्ट में चुनौती दी थी। फौज में अभी विभिन्न स्तरों पर गैरबराबरी कायम है। समझने वाली बात है कि महिलाएं आखिर कौन-सी बड़ी सत्ता की या सुपर कर्मचारी बन जाने की मांग कर रही हैं। वे यही तो मांग रही हंै कि उन्हें सिर्फ औरत होने के नाते बराबरी से वंचित न किया जाए। कभी कहा जाता है कि औरत हो, इसलिए रात में काम न करो तो कभी अघोषित रूप से नियुक्ति या पदोन्नति के रास्ते बंद किए जाते हैं। इतने बंधनों या अवरोधों वाले समाज में जब तुलनात्मक रूप से छोटे हिस्से की लड़ाई में कानूनी जीत हो या मैनेजमेंट या सरकार मांगें मान ले या एयर इंडिया जैसे खुद ही नीति बनाकर कम से कम कुछ गैरबराबरियों को ही समाप्त किया जाए तो वह शेष कामकाजी महिलाओं को अपने कार्यस्थल पर भी बराबरी की मांग करने का हौसला भी देता है। अभी तो पता नहीं कितने स्तरों, मोर्चो और क्षेत्रों में गैरबराबरी कितने रूपों में कायम रखी गई है, इसका पूरे समाज को पता भी नहीं है। जब कोई विरोध करता है या मुकदमा कोर्ट-कचहरी में जाता है, तब कई बातों का पता भी लगता है। जैसे कानून पढ़ने या कानूनी पेशा में रहने वालों को छोड़ दें तो किसे पता था कि कानून की भाषा में महिलाओं के लिए रखैल ंशब्द अब भी इस्तेमाल होता है। बराबर काम का बराबर वेतन औरत का हक है और इसे लागू नहीं करना किसी भी सरकार या निजी कंपनी या कोई भी नौकरी पेशा हो तो नियोक्ता की तरफ से इसे अपराध माना जाना चाहिए। हालांकि श्रम कानून के अंतर्गत बराबरी का नियम होता है, लेकिन हर जगह जेंडर भेद के लिए रास्ते निकाल लिए जाते हैं। दरअसल, ऐसे हालात तैयार करना भी सरकार और नियोक्ता की जिम्मेवारी बनती है, जिसमें महिलाएं बराबर का काम कर सकें और उन्हें बराबर की सारी सुविधाएं भी मिले। हमारे संविधान का अनुच्छेद 15 व्यवस्था देता है कि भारत का हरेक नागरिक लैंगिक तथा जातीय भेदभाव से मुक्त जीवन का अधिकारी है यानी ऐसे भेदभाव करना कानूनी अपराध माना जाएगा, लेकिन यहां की महिलाएं नागरिक होते हुए भी आसानी से और धड़ल्ले से आर्थिक शोषण की शिकार होती आई हैं। असंगठित क्षेत्र में यह भेदभाव अधिक देखने को मिलता है। आज भी कुशल श्रमिक के रूप में महिलाएं कुल श्रमशक्ति में बराबर का हिस्सेदार नहीं बन पाई हैं। श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट इस बात का खुलासा करती है। रिपोर्ट के मुताबिक वर्ष 2001 की जनगणना के अनुसार, महिला श्रमिकों की संख्या 12 करोड़ 72 लाख है, जो उनकी कुल संख्या 49 करोड़ 60 लाख का चौथा ( 25.60 प्रतिशत) हिस्सा ही हुआ। इनमें भी अधिकांशत: ग्रामीण क्षेत्र में हैं और उनका प्रतिशत ऊपर दी हुई कुल महिला श्रमिकों की संख्या का तीन हिस्से से भी ज्यादा (87 प्रतिशत) कृषि संबंधी रोजगार में है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में यह विचार भी व्यक्त किया कि उसे समझ नहीं आता कि आखिर 1997 में एयर इंडिया ने किस आधार पर जहाज के अंदर उड़ान के दौरान महिला सुपरवाइजर की पोस्ट से इनकार किया है। ऐसे कितने ही अवसरों और कार्यो के लिए जब-जब महिला विरोधी नीतियां बनती होंगी तो आखिर क्या-क्या कारण गिनाए जाते होंगे? यही न कि फलां काम उनके लिए नहीं है या वे यह नहीं कर पाएंगी, लेकिन मौका मिले तभी तो पता चल पाएगा कि क्यों नहीं कर पाएंगी। दरअसल, आज भी यह एक बड़ा मुद्दा है कि सार्वजनिक दायरा तथा हर प्रकार के कार्यस्थलों पर महिलाओं के लिए पूर्ण बराबरी कैसे कायम हो। इस दिशा में गैरबराबरी के खिलाफ महिलाओं द्वारा किया गया छोटा-मोटा संघर्ष भी बदलाव की बयार लाता है। इसलिए जरूरत है सबसे पहले नाइंसाफी को पहचानने तथा इस धारणा को पुराना करने की कि बराबर का काम हमारा हक है और औरत होने के नाते इससे वंचित नहीं किया जा सकता है। (लेखिका स्त्री अधिकार संगठन से जुड़ी हैं)

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