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Monday, December 20, 2010

जैवविविधता से ही बचेगी मानवता

रेत की टीलों और रेगिस्तान की अलग ही छटा है। कहीं मीलों तक फैले हरे-भरे घास के मैदान हैं तो कही मीलों तक फैले मरुस्थल। जीवों की बात करें तो नाना प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी। हवा में इठलाती फूलों पर मंडराती तितलियां। जमीन पर विचरने वाले जलचर और हवा में अठखेलियां करते नभचर। इसके अलावा बसने वाले लोग भी तरह-तरह के। जीव-जंतुओं की यही विविधता वैज्ञानिक शब्दावली में जैवविविधता कहलाती है।
हमारी पृथ्वी तो एक ही है। परंतु इस एकता में अनेकता के कई नजारे देखे जा सकते हैं। भांति-भांति के जंगल, पहाड़, नदी, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और तरह-तरह के लोग। जंगल व पहाड़ भी एक जैसे नहीं। कई किस्मों के। जंगल की बात करें तो कहीं सदाबहार तो कुछ जगहों पर शुष्क पर्ण पाती। कहीं मिश्रित भी। बर्फ के पहाड़ भी हैं और नग्न तपती चट्टानों वाले पहाड़ भी।
रेत की टीलों और रेगिस्तान की अलग ही छटा है। कहीं मीलों तक फैले हरे-भरे घास के मैदान हैं तो कही मीलों तक फैले मरुस्थल। जीवों की बात करें तो नाना प्रकार के रंग-बिरंगे पक्षी। हवा में इठलाती फूलों पर मंडराती तितलियां। जमीन पर विचरने वाले जलचर और हवा में अठखेलियां करते नभचर। इसके अलावा बसने वाले लोग भी तरह-तरह के। गोरे भी काले भी, लम्बे भी नाटे भी। उभरी आंख नाक वाले तो चपटी नाक और धंसी आंख वाले। मैदानी भी पहाड़ी भी। पुरवासी भी और आदिवासी भी।
जीव-जंतुओं की यही विविधता वैज्ञानिक शब्दावली में जैवविविधता कहलाती है। किसी एक स्थान पर मिलने वाले समस्त जीवों के प्रकारों को ही उस स्थान की जैवविविधता यानि बायोडायवरसिटी कहा जाता है। यह स्थानीय और वैश्विक दोनों ही तरह की होती है। इस वक्त दुनियाभर में जैवविविधता पर गंभीर खतरा मंडरा रहा है। इसी को ध्यान में रखते हुए यह 2010 वर्ष अंतर्राष्ट्रीय जैवविविधता वर्ष के रूप में पूरी दुनिया में मनाया जा रहा है। जंगल के उपकारों से हर कोई वाकिफ है। तो फिर ऐसी बेरुखी क्यों? याद रखिए हमारा सबका भविष्य दांव पर लगा है।
एक मोबाइल कम्पनी का एक विज्ञापन संवेदनशील मन को बार-बार झकझोरता है। विज्ञापन में बताया गया था कि यहां जंगल, भोजन, पानी, हवा नहीं है तो क्या हुआ, मोबाइल की तरंगें तो हैं। कितना बेतुका मजाक है ये। जैवविविधता खतरे में है लम्बी-चौड़ी सड़कों के निर्माण, बड़े-बांधों, उद्योगों व शहरीकरण के लिए जमीन लगती है। इनके कारण प्राकृतिक आवास स्थल नष्ट हो रहे हैं और वहां रह रहे जीव-जन्तु व पेड़-पौधों सब एक झटके में नष्ट हो जाते हैं। जनसंख्या के दबाव और विकास की चाह के चलते जहां कल घने जंगल थे वहां अब शहर हैं। कुछ वर्षों पूर्व जहां गांव थे वहां शहर बस गए हैं और जहां कल तक जंगल थे वहां अब खेती की जा रही है।
जंगलों पर अतिक्रमण बढ़ता ही जा रहा है। पता नहीं यह दुष्चक्र कब थमेगा। जंगल नष्ट होने से प्राकृतिक आवास समाप्त हो जाते हैं और वन्य जीवों के साथ ही कई किस्मों की वनस्पतियां भी खत्म हो जाती हैं। जैवविविधता को दूसरा बड़ा खतरा वन्य जीवों के अवैध शिकार से है। हमारे शेर, बाघ, हिरण, चीता और खरगोश सब जानवर खतरे में हैं। इनकी चमड़ी, सींग, कस्तूरी, पंजे, नाखून और हड्डियों तक पर लालची और विलासी मनुष्यों की बुरी नजर है। शेर और बाघों को लेकर तो ऐसा लगता है कि मर्ज बढ़ता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की।
बिना सोचे समझे शहरीकरण और औद्योगिकरण किया जा रहा है। ऐसा विकास जैवविविधता का दुश्मन है। छोटे-बड़े तालाबों को पाटने से जलीय विविधता खतरे में पड़ जाती है। जल प्रदूषण हो या वायु प्रदूषण इनके बढ़ने से जैवविविधता घटती जाती है। नदियों व झीलों में प्रदूषण बढ़ने वहां रह रहे संवेदी किस्म के प्राणी और वनस्पतियां विलुप्त हो जाते हैं। केवल वे ही जीव बचते हैं जिनमें प्रदूषण को सहने की क्षमता ज्यादा होती है। ऐसा ही वायू प्रदूषण के साथ होता है। मिट्टी के प्रदूषण से जमीन के अन्दर रहने वाले केचुएं, बेक्टीरिया, अन्य प्रकार के कीट और शैवालों की संख्या एवं गुणात्मकता दोनों घट जाती हैं।
दुनिया भर में जीवों की लगभग 3 करोड़ जातियां हैं। ऐसे कई क्षेत्र हैं जहां जैवविविधता अत्यन्त सघन रूप में है तथा यहां विलुप्तीकरण की कगार पर पहुंचने वाली दुर्लभ प्रजातियां की अधिकता मिलती है। इन्हीं क्षेत्रों को जैवविविधता के हाटस्पाटकहा जाता है। विश्व में लगभग 25 ऐसे हाट स्पाट चिन्हित किए गए है इनमें से दो, पूर्वी हिमालय एवं पश्चिमी घाट भारत में हैं। ये ऐसे स्थान हैं जहां प्रजातियों की प्रचुरता है और वे संकटग्रस्त हैं तथा स्थानिक हैं अर्थात ये दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती। हमारे देश में लगभग 235 पौध प्रजातियां एवं 138 जन्तु प्रजातियों को संकटग्रस्त घोषित किया जा चुका है। संकटग्रस्त पौधों में घटपर्णी, सर्पगन्धा, बेलाडोना, चन्दन, चिलगोजा आदि प्रमुख हैं।
इन पेड़-पौधों और जन्तुओं का अपना महत्व है। कुछ महत्वपूर्ण औषधियां है तो कुछ विचित्र वनस्पतियां व कुछ सुन्दरतम जीव हैं। यह विविधता, विचित्रता कहीं आर्थिक पक्ष से जुड़ी है तो कहीं इसका सौन्दर्य बोध अमूल्य है।
सवाल यह है कि इस जैव विविधता को कैसे बचाया जाए? ऐसा नहीं है कि सब हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। अपने-अपने स्तर पर सभी प्रयास कर रहे हैं। परंतु जब तक इस महायज्ञ में स्थानीय स्तर पर जन भागीदारी नहीं होगी हमारी इस विरासत को बचाना मुश्किल है। शिकारी घात लगाए बैठा है वो शेर का शिकार भी करता है और सागौन का भी। हमें मिल जुलकर उसके हौंसले पस्त करना होंगे।

जैवविविधता शब्द का सबसे पहले प्रयोग वाल्टर जी, रासेन ने 1986 में किया था। तब से यह शब्द जीव विज्ञानियों एवं पर्यावरणवादियों के लिए एक महत्वपूर्ण शब्द बन गया है। जैवविविधता हमें प्राकृतिक आपदाओं के खतरे से बचाती है। पानी कम पड़े तो भी देसी गेहूं की किस्में अंधी पैदावार दे देती हैं। कीटों का प्रकोप हो या बीमारियों का, जैवविविधता के कारण कुछ किस्मों पर प्रकोप कम होने से नुकसान कम होता है। जैवविविधता आड़े वक्त भी काम आती है। अतः इसे बचाए रखना जरुरी है।
जैवविविधता शब्द का सबसे पहले प्रयोग वाल्टर जी, रासेन ने 1986 में किया था। तब से यह शब्द जीव विज्ञानियों एवं पर्यावरणवादियों के लिए एक महत्वपूर्ण शब्द बन गया है। जैवविविधता हमें प्राकृतिक आपदाओं के खतरे से बचाती है। पानी कम पड़े तो भी देसी गेहूं की किस्में अंधी पैदावार दे देती हैं। कीटों का प्रकोप हो या बीमारियों का, जैवविविधता के कारण कुछ किस्मों पर प्रकोप कम होने से नुकसान कम होता है। जैवविविधता आड़े वक्त भी काम आती है। अतः इसे बचाए रखना जरुरी है। क्या पता कल कोई ऐसी वनस्पति मिल जाए या कोई ऐसा जीव खोज लिया जाए, जिससे कैंसर और एड्स जैसी भयावह बीमारियों की रोकथाम हो सके। पूर्व में ऐसा हो भी चुका है। टेक्स और विन्का रोजिया इसके उदाहरण है।
परंतु खेद इस बात का है कि हम में से कुछ लोगों को ऐसी विविधता रास नहीं आती। वे चाहते हैं कि देश के सभी खेतों में गेहूं, चावल या फिर सोयाबीन ही उगे। जरा सोचिए, कम संसाधनों में जीने वाले बाजरा, मक्का और ज्वार जैसे अल्प संख्यकों का फिर क्या होगा? कुछ लोग हैं जो चाहते हैं कि देश में सभी लोग एक ही रंग के कपड़े पहने या एक ही जैसी पगड़ी पहने। कोई तो उन्हें समझाएं कि तरह-तरह के फूल-पत्तियों से सजा गुलदस्ता ज्यादा खूबसूरत लगता है बजाए एक ही जैसे फूलों से लदी डाचमक-दमक बढ़ रही है व चंद लोगों के लिए भोग-विलास, आधुनिक सुख-सुविधाएं पराकाष्ठा पर पहंुच रही हैं, वहां दूसरी ओर बड़ी संख्या में लोग साफ हवा, पेयजल व अन्य बुनियादी जरूरतों से वंचित हो रहे हैं। पशु-पक्षी, कीट-पतंगे व अन्य जीव जितने खतरों से घिरे हैं उतने (डायनासोरों के लुप्त होने जैसे प्रलयकारी दौर को छोड़ दें तो) पहले कभी नहीं देखे गए। इस स्थिति में यह जानना बहुत जरूरी है कि प्रगति क्या है और विकास क्या है? इस पर गहराई से विचार किया जाए और उसके बाद ही सही दिशा तलाश कर आगे बढ़ा जाए।
उदाहरण के लिए 100 वर्ग किमी. के महानगरीय चमकदार क्षेत्रों के बारे में यदि हम जान सकें कि आज से लगभग 10000 वर्ष पहले वहां की स्थिति कैसी थी तो हम तब और अब की स्थिति की तुलना कर सकते हैं। अधिक संभावना यही है कि हमें पता चलेगा कि आज से दस हजार वर्ष पहले यह क्षेत्र मुख्य रूप से एक वन-क्षेत्र था। तब यहां एक हजार के आसपास मनुष्य रहते होंगे, जो तरह-तरह के कंद-मूल, फल आदि एकत्रित कर व शिकार कर अपना पेट भरते थे। आज यहां एक हजार के स्थान पर संभवतः बीस लाख लोग रह रहे हैं। पर शेष सभी जीवों की संख्या बहुत कम हो गई है। पहले यहां के वन-क्षेत्रों में जितने जीव भरे रहते थे, उनकी संख्या संभवतः करोड़ों में थी जो कि अब बहुत ही सिमट गई है। पहले इन सभी जीवों को साफ हवा-पानी, रहने के अनुकूल स्थितियां उपलब्ध थीं पर अब जो थोड़े से जीव बचे हैं उनके लिए भी प्रदूषण की अधिकता व हरियाली की कमी बड़ी समस्या बन गई हैं। वृक्षों की संख्या व विविधता में बहुत ही कमी आई है।