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Sunday, January 9, 2011

गांधी का मॉडल

केंद्रीय पर्यावरण राज्यमंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि पर्यावरण की अनदेखी करके विकास नहीं होना चाहिए। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह आहलूवालिया ने उनके इस वक्तव्य का समर्थन किया है। पर इसमें नया क्या है? भारत वह देश है, जहां वृक्षों, नदियों, पर्वतों और पशु-पक्षियों तक की भी हजारों वर्षों से पूजा होती आई है। यहां के तीज-त्योहार, खानपान, पहनावा व दिनचर्या मौसम से संबंधित रही है। कौन-सा ऐसा देश है, जहां वर्षा ऋतु के लिए मल्हार राग गाया जाता है? कौन-सा ऐसा देश है, जहां नदी और पोखरों को मां या वरुण देवता का स्थान माना जाता है? सादा जीवन और उच्च विचार भारत की सनातन संस्कृति का हिस्सा रहे हैं। इसी परंपरा के अनुरूप महात्मा गांधी ने कहा था कि हम प्रकृति से जितना लें, उतना उसे दें भी; तभी प्रकृति का संतुलन बना रहेगा। इसलिए उन्होंने ग्राम स्वराज्य के आर्थिक विकास का मॉडल दिया था। पर क्या आजादी के बाद की सरकारों ने गांधी के इस मॉडल या भारत की सनातन संस्कृति की परंपरा पर कोई ध्यान दिया? नहीं। उन्होंने मशीन को मानव से, सीमेंटीकरण को पर्यावरण से और औद्योगिकीकरण को प्रकृति के विनाश से ज्यादा महत्व दिया। इन्होंने विकास का वह मॉडल अपनाया, जो न सिर्फ प्रकृति-विरोधी है, बल्कि मानव-विरोधी भी, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण दोहन नहीं, नृशंस विनाश किया जा रहा है। आंकड़े सिद्ध कर रहे हैं कि भारत का हरित क्षेत्र चिंताजनक स्थिति तक गिर चुका है। पर्वतों को डायनामाइट से उड़ाया जा रहा है। जो पर्वत लाखों साल में बने, उन्हें दो-चार साल में धूल-धूसरित किया जा रहा है। भू-जल का दोहन अविवेकपूर्ण तरीके से किया जा रहा है। नतीजतन देश के हर हिस्से में पानी का संकट बढ़ता जा रहा है।
पर्यावरण के मुद्दे पर नीति और कार्यक्रम भी बनते हैं और लोगों में जागृति भी फैलाई जाती है, पर पर्यावरण के विनाश को रोकने का कोई प्रयास नहीं किया जाता। नतीजतन हम क्रमश: अपनी कब्र खोदते जा रहे हैं। फिर हल्ला मचाने का क्या फायदा? क्या हममें इतनी ताकत है कि हम कटु निर्णय लेकर पर्यावरण-विरोधी कार्यों को रोक सकें? हर प्रांतीय सरकार स्वयं को पर्यावरण का रक्षक सिद्ध करना चाहती है। लेकिन परदे के पीछे माफियाओं से हाथ मिलाकर पर्यावरण का विनाश होने दिया जाता है। इसके विरुद्ध उठती आवाजों को दबा दिया जाता है। इन हालात में कोई सरकार सुधरने को तैयार नहीं, वह चाहे कर्नाटक हो या राजस्थान, उत्तर प्रदेश हो या झारखंड, मध्य प्रदेश हो या आंध्र प्रदेश।
हालात बदलने के लिए जिस क्रांतिकारी सोच की जरूरत होती है, वह हमारे नेताओं में नहीं। इसलिए वे गाल चाहें कितने बजा लें, जमीनी हकीकत उनके समर्थन में नहीं। जयराम रमेश के वक्तव्य आए दिन उनके पर्यावरण प्रेमी होने का डंका पीटते हैं। पर कई सामाजिक संगठन उन पर दोहरे आचरण का आरोप लगाते हैं। उनका कहना है कि जयराम रमेश ने अपने कुछ निर्णयों से पर्यावरण का भारी विनाश करवाया है, इसलिए उनके वक्तव्य को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। सचाई चाहे जो हो, इतना साफ है कि पर्यावरण के विनाश के मामले में हमने दुनिया से कुछ नहीं सीखा। विकास का जो मॉडल यूरोप-अमेरिका में औंधे मुंह पड़ा है, उसे हम अंधे की तरह अपनाने में जुटे हैं।