Showing posts with label १२दिसम्बर २०१०. Show all posts
Showing posts with label १२दिसम्बर २०१०. Show all posts

Saturday, December 18, 2010

धरती को बचाने की दिखावटी बहस

 आजकल मैक्सिको के कानकुन शहर में संयुक्त राष्ट्र की ओर से धरती को बचाने के लिए एक और पर्यावरण सम्मेलन चल रहा है। पिछले वर्ष भी इसी प्रकार का एक सम्मेलन कोपेनहेगेन में हुआ था। वैसे इस प्रकार के सम्मेलन पिछले लगभग 16 वर्षो से लगातार चल रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों से चल रहे इस प्रकार के सम्मेलनों में से एक सम्मेलन वर्ष 1997 में जापान के क्योटो शहर में भी हुआ था। इस सम्मेलन में आपसी सहमति से पर्यावरण को बचाने के समाधान के तौर पर विश्व को तीन हिस्सों में बांटा गया था। एक अत्यधिक प्रदूषक देश, दूसरे कम प्रदूषक देश और तीसरे अति कम प्रदूषक देश। यह देखा गया कि आर्थिक दृष्टि से अत्यधिक विकसित देश, जिन्हें औद्योगिक देश भी कहते है, ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए सबसे अधिक दोषी हैं। दूसरी श्रेणी में भारत, चीन, ब्राजील सरीखे वे देश शामिल हैं जो ज्यादा तेजी से अपना आर्थिक विकास करने में लगे हैं। इनके द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन पहले की तुलना में तेजी से बढ़ा है, लेकिन औद्योगिक देशों की तुलना में यदि देखा जाए तो यह अभी भी बहुत कम है। ध्यातव्य है कि अमेरिका में प्रति व्यक्ति ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 20.6 टन है, जबकि भारत में यह मात्र 1.2 टन ही है। तीसरी श्रेणी में अल्प विकसित देश आते है जिनके द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन न के बराबर है। दुनिया में बढ़ते ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन के चलते वर्ष 1880 से लेकर अभी तक दुनिया का तापमान 0.6 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। औसत समुद्र का स्तर भी आज 10 से 20 सेंटीमीटर ऊपर उठ चुका है और आशंका जताई जा रही है कि वर्ष 2100 तक यह 40 सेंटीमीटर तक और बढ़ सकता है। यदि ऐसा हुआ तो दुनिया का एक बहुत बड़ा हिस्सा समुद्र के भीतर जलमग्न हो जाएगा। इसी तरह ओजोन परत में एक बड़ा छेद हो जाने के कारण भी त्वचा के कैंसर रोग फैलने के आसार बढ़ रहे हैं। इसलिए आवश्यकता इस बात की है कि ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कम किया जाए ताकि मानवता पर मंडरा रहे खतरों से समय रहते निपटा जा सके। क्योटो में हुए सम्मेलन में अंतिम संधि के अनुसार यह तय किया गया कि औद्यागिक देश वर्ष 2012 तक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन शून्य प्रतिशत से 8 प्रतिशत के बीच कम करेंगे। भारत, चीन, ब्राजील सरीखें देशों के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को घटाने संबंधी कोई प्रतिबद्धता नहीं रखी गई है। अल्प विकसित देशों को उनकी विकास की आवश्यकताओं के मद्देनजर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को 10 प्रतिशत तक बढ़ाने की भी छूट दे दी गई। इस सम्मेलन के बाद वर्ष 2001 में सबसे अधिक प्रदूषक देश अमेरिका ने क्योटो संधि से बाहर आने का फैसला किया था। क्योटो संधि के अनुसार उत्सर्जन घटाने की प्रतिबद्धता कुछ इस प्रकार से थी कि प्रदूषक कंपनियां विश्व भर से कार्बन क्रेडिट खरीद कर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर सकते हैं। इससे दुनिया के देशों के बीच कार्बन क्रेडिट के व्यापार के नाम से एक नया व्यवसाय शुरू हो गया। इसके अंतर्गत विश्व के दूसरे हिस्सों में यदि कोई संस्थान ग्रीन हाउस गैसों को कम करने का काम करता है। भले ही वह अपने उत्सर्जन को कम करके करे अथवा नए वृक्ष लगाकर पर्यावरण में ग्रीन हाउस गैसों को कम करने का प्रयास करे, वह कार्बन क्रेडिट प्वाइंट कमा सकता है और इसे अंतरराष्ट्रीय बाजार में बेच सकता है। उत्सर्जक देश और उसमें काम कर रहे संस्थानों के पास यह विकल्प होता है कि वह इस प्रकार के कार्बन क्रेडित खरीद कर ग्रीन हाउस गैसों को कम करने की अपनी प्रतिबद्धता को पूरा कर सकें। हाल ही में दिल्ली मेट्रो ने भी इस प्रकार के कार्बन के्रडिट अर्जन करने का कार्य किया गया। इससे एक खतरा यह है कि उत्सर्जक संस्थान एवं देश धन के बल पर दूसरों का कार्बन उत्सर्जन कम करवाने और अपना उत्सर्जन बढ़ाने का काम जारी रख सकते हैं। क्योटो संधि का कार्यकाल वर्ष 2012 में समाप्त हो रहा है। विश्व में मानवता को पर्यावरणीय संकट से बचाने के बारे में एक स्वाभाविक चिंता शुरू हो चुकी है। दो वर्ष पहले इंडोनेशिया के बाली और उसके बाद कोपेनहेगेन व अब कानकुन (मैक्सिको) में हो रहे इस संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सम्मेलन और विश्व भर में स्वयंसेवी संगठनों द्वारा चलाए जा रहे अभियानों और आंदोलनों से यह चिता स्पष्ट रूप से व्यक्त हो रही है। क्योटो संधि को आगे बढ़ाने के लिए विकसित देश अब तैयार नहीं है। अमेरिका जो पहले से ही इस संधि से बाहर था, अब अपने ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए तो तैयार है ही नहीं। इस कारण अब ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने का पूरा जिम्मा भारत और चीन पर डालने के लिए प्रयास हो रहा है। इनका कहना है कि चूंकि भारत और चीन द्वारा ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन पहले से काफी बढ़ गया है इसलिए पहले वे अपना उत्सर्जन कम करें। मानवता पर मंडराते गंभीर संकट के बावजूद विकसित देशों द्वारा यह कहा जा रहा है कि वे अपने जीवन शैली को नहीं बदल सकते और इसलिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को भी कम नहीं किया जा सकता। यहां ध्यान दिए जाने योग्य है कि अमेरिका में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन वर्ष 1990 से वर्ष 2004 के बीच 22 प्रतिशत बढ़ा है। नोबल पुरस्कार विजेता जोसेफ स्टिग्लिट्ज का कहना है कि यदि अमेरिका निरंतर इसी तरह ग्रीन हाउस गैसों को अधिक उत्सर्जन करता रहा है तो दुनिया के सामने के एक बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। इसलिए बेहतर तो यही होगा कि उत्सर्जन घटाने की जिम्मेदारी उन सब देशों की है जो अधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन कर रहें हैं। इसके साथ ही पर्यावरण में प्रदूषण को कम करने के लिए कई प्रकार की तकनीकें विकसित हुई हैं। इनमें से कई तकनीकों का उपयोग कर विकासशील देश अपने प्रदूषण को कम करने का प्रयास कर भी रहें हैं, लेकिन विकसित देशों के पास स्वाभाविक रूप से इस प्रकार की प्रौद्योगिकी पर्याप्त मात्रा में है। विकासशील देशों का कहना है कि इस प्रकार की प्रौद्योगिकी उन्हें उपलब्ध करवाई जानी चाहिए। समस्या यह है कि अपना प्रदूषण कम करना तो दूर विकसित देश इन तकनीकों को भी विकासशील देशों को देने के लिए तैयार नहीं है। पिछले ही वर्ष अमेरिका ने एक कानून बनाकर अपनी कंपनियों को इन तकनीकों को विकाशील देशों को देने पर रोक लगा दी है। कोपेनहेगेन सम्मेलन में फिर यह बात उठी कि विकासशील देशों को अपना उत्सर्जन कम करने हेतु विकसित देशों द्वारा आर्थिक सहायता प्रदान की जाए। आश्चर्यजनक विषय यह है कि विकसित देश इसके लिए भी तैयार नहीं हुए। कानकुन में हो रहें वर्तमान पर्यावरण सम्मेलन में भी फिलहाल कोई हल निकलता दिखाई नहीं दे रहा है। न तो अमेरिका समेत अन्य विकसित देश अपने प्रदूषण को कम करने के लिए तैयार हैं और न ही वह वैश्विक स्तर पर प्रदूषण को कम करने के लिए आर्थिक सहायता अथवा प्रौद्यौगिकी देने के लिए तैयार हो रहे है। भारत के पर्यावरण मंत्री द्वारा इस सम्मेलन में जाने से पूर्व एक बयान भी दिया गया कि यदि अमेरिका अपना उत्सर्जन कम करने के लिए तैयार हो तो भारत भी इस हेतु अपनी प्रतिबद्धता दे सकता है। फिलहाल अमेरिका और दूसरे विकसित देश किसी समाधान को मानने के लिए तैयार नहीं दिखते। विकसित सहित पूरी दुनिया पर्यावरण संकट से जूझ रही है। यदि समय रहते हम नहीं चेते तो बहुत देर हो जाएगी। इसलिए सभी को इसका समाधान समय रहते खोजना ही होगा। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार है)