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Tuesday, June 19, 2012

गंगा मांग रही इंसाफ


गंगा बचाओ अभियान के तहत दिल्ली के जंतर-मंतर पर स्वामी स्वरूपानंद की अगुवाई में संत समाज का धरना-प्रदर्शन सरकार की संवेदनहीनता का नतीजा है। संत समाज एक अरसे से गंगा बचाओ अभियान छेड़ रखा है। वह गंगा को प्रदूषित करने वालों के खिलाफ कड़े कानून की मांग कर रहा है। साथ ही सरकार से गंगा पर किसी तरह का बांध न बनाए जाने का ठोस आश्वासन भी चाहता है, लेकिन सरकार न तो कड़े कानून बनाने को तैयार है और न ही संत समाज को ठोस आश्वासन दे रही है। ऐसे में संत समाज का उद्वेलित होना स्वाभाविक है। स्वामी स्वरूपानंद ने 25 जुलाई से रामलीला मैदान में आंदोलन का ऐलान भी कर दिया है। गंगा भारतीय जन की आराध्य हैं। उनकी पवित्रता और निर्मलता पूजनीय है। उनका स्वच्छ-निर्मल जल अमृत है, लेकिन सरकार के नाकारेपन के कारण आज गंगा देश की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है। गंगा का निर्मल जल जहर बनता जा रहा है। प्रख्यात पर्यावरणविद और आइआइटी खड़गपुर से सेवानिवृत्त प्रोफेसर स्वामी ज्ञानस्वरूप सांनद (प्रो. जीडी अग्रवाल) ने भी गंगा विमुक्ति का अभियान छेड़ रखा है। पिछले दिनों सरकार की उदासीनता से आजिज आकर उन्होंने आमरण अनशन भी किया, लेकिन सरकार उनकी मांगों पर सकारात्मक रुख दिखाने के बजाय उनके साथ कठोरता का व्यवहार करती देखी गई। उनके अनशन को जबरन तुड़वाने के लिए पाइप के जरिये उन्हें तरल आहार दिया गया। सानंद के साथ सरकारी क्रूरता को देखकर जनमानस उद्वेलित हो उठा था। देश भर से सरकार के खिलाफ प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई थीं। भारतीय जनमानस चकित है कि आखिर सरकार गंगा को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिए ठोस कदम क्यों नहीं उठा रही है। वह भी तब जब गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया जा चुका है। दिल्ली में संत समाज द्वारा छह प्रस्ताव पारित किया गया है, जिसमें मुख्य रूप से गंगा पर बन रहे बांधों को समाप्त करवाकर उनकी धारा अविरल बनाए रखने की बात कही गई है। लेकिन इसके लिए सरकार तैयार नहीं है। हालांकि सानंद की पहल पर ही सरकार को उत्तरकाशी क्षेत्र में लोहारी नागपाला पनबिजली परियोजना को मजबूरन रद करना पड़ा था। आज एक बार फिर संत समाज उसी रास्ते पर बढ़ता दिख रहा है। पर्यावरणविदों का भी मानना है कि अगर गंगा पर बन रही बिजली परियोजनाओं को बंद नहीं किया गया तो गंगा का कई सौ किलोमीटर लंबा क्षेत्र सूख जाएगा। गंगा पर बनाए जा रहे बांधों को लेकर संत समाज सरकार से दो टूक फैसला चाहता है, लेकिन सरकार की मंशा और नीयत साफ नहीं है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में जब राष्ट्रीय गंगा जल घाटी प्राधिकरण का गठन हुआ तो लोगों की उम्मीद बढ़ी कि गंगा सफाई अभियान तेज होगा, लेकिन सब हवा-हवाई साबित हुआ। गंगा सफाई को लेकर सरकार कितनी संवेदनहीन है, इसी से समझा जा सकता है कि राष्ट्रीय गंगा जल घाटी प्राधिकरण की बैठक और नदी सफाई अभियान की प्रतीक्षा करने के बाद उसके तीन गैर-सरकारी सदस्यों जिसमें मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त राजेंद्र सिंह, रवि चोपड़ा तथा आरएच सिद्दीकी शामिल हैं, ने इस्तीफा दे दिया है। जानना जरूरी है कि प्राधिकरण की स्थापना गंगा कार्ययोजना के दो चरणों की असफलता के बाद की गई थी। गंगा में विष का प्रवाह सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा प्रस्तुत करते हुए केंद्र सरकार ने विश्वास दिलाया था कि गंगा मिशन के तहत सुनिश्चित किया जाएगा कि वर्ष 2020 के बाद गैर-शोधित सीवर और औद्योगिक कचरा गंगा में न बहाया जाए। लेकिन इस दिशा में सरकार दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सकी है। आज गंगा की दुगर्ति की मूल वजह सरकार की उदासीनता है। सरकार की ढुलमुल नीति के कारण ही सीवर और औद्योगिक कचरा बिना शोधित किए गंगा में बहाया जा रहा है। गंगा बेसिन में प्रतिदिन लगभग 825 करोड़ लीटर गंदा पानी बहाया जाता है। व‌र्ल्ड बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रदूषण की वजह से गंगा नदी में ऑक्सीजन की मात्रा लगातार कम हो रही है, जो मानव जीवन के लिए बेहद ही खतरनाक है। सीवर का गंदा पानी और औद्योगिक कचरे को बहाने के कारण ही क्रोमियम और मरकरी जैसे घातक रसायनों की मात्रा गंगा में बढ़ती जा रही है। भयंकर प्रदूषण के कारण गंगा में जैविक ऑक्सीजन का स्तर 5 हो गया है, जबकि नहाने लायक पानी में यह स्तर 3 से अधिक नहीं होना चाहिए। गोमुख से गंगोत्री तक तकरीबन 2500 किलोमीटर के रास्ते में कालीफार्म बैक्टीरिया की उपस्थिति दर्ज की गई है, जो अनेक बीमारियों की जड़ है। अब गंगा के प्रदूषण को खत्म कराने के लिए अगर संत समाज ने मोर्चाबंदी तेज की है तो यह स्वागतयोग्य है। देश के नागरिकों को भी संत समाज का समर्थन करना चाहिए। जब तक आम जनमानस गंगा प्रदूषण के खिलाफ उठ खड़ा नहीं होगा, सरकार हीलाहवाली करती रहेगी। गंगा में प्रवाहित की जा रही गंदगी से जनजीवन नर्क होता जा रहा है। सरकार द्वारा गंगा को प्रदूषण से मुक्त करने के लिए कई बार योजनाएं बनाई गई, लेकिन सब कागजों का पुलिंदा से अधिक कुछ साबित नहीं हुई। वर्ष 1989 में राजीव गांधी सरकार ने गंगा को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट योजना बनाई, लेकिन यह योजना जनसहभागिता के अभाव में दम तोड़ गई। आस्था और स्वार्थ का घालमेल अदालतों ने भी सरकार को बार-बार हिदायत देते हुए कई पूछा कि आखिर क्या वजह है कि ढाई दशक गुजर जाने के बाद और बहुत-सी कमेटियां और प्राधिकरण के गठन के बावजूद गंगा प्रदूषण की समस्या का कोई प्रभावी हल नहीं निकला है। सरकार के पास इसका कोई जवाब नहीं है। पिछले दिनों इलाहाबाद हाईकोर्ट के निर्देश पर गंगा के किनारे दो किलोमीटर के दायरे में पॉलिथिन एवं प्लास्टिक पर प्रतिबंध लगाया गया, लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या ऐसे कानूनी प्रतिबंधों के दम पर गंगा को प्रदूषण से मुक्त किया जा सकता है? भारत एक धर्म प्रधान देश है और गंगा लोगों की आस्था से जुड़ी हैं, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि आस्था के नाम पर गंगा के साथ खिलवाड़ हो रहा है। आस्था और धर्म के घालमेल का ही नतीजा है कि गंगा के घाटों पर प्रत्येक वर्ष हजारों-हजार शव जलाए जाते हैं। दूर स्थानों से जलाकर लाई गई अस्थियां भी प्रवाहित की जाती हैं। क्या ऐसी आस्थाएं गंगा को प्रदूषित नहीं करती हैं? हद तो तब हो जाती है, जब गंगा सफाई अभियान से जुड़ी एजेंसियों द्वारा गंगा से निकाली गई अधजली हड्डियां और राख पुन: गंगा में उड़ेल दी जाती हैं। ऐसे में सफाई अभियान से किस प्रकार का मकसद पूरा होगा? जब तक आस्था और स्वार्थ के उफनते ज्वारभाटे पर नैतिक रूप से विराम नहीं लगेगा, गंगा को प्रदूषित होने से नहीं बचाया जा सकता। आज जरूरत इस बात की है कि सरकार गंगा सफाई अभियान को लेकर अपनी मंशा साफ करे। गंगा बचाओ अभियान से जुड़े संत समाज और स्वयंसेवी संस्थाओं के साथ छल न करे। समझना होगा कि गंगा की निर्मलता और पवित्रता मानवजीवन के लिए संजीवनी है, लेकिन सरकार की निगाह में गंगा महज बिजली पैदा करने का संसाधन भर है। अब समय आ गया है कि गंगा बचाओ अभियान को जनआंदोलन का रूप दिया जाए। इसके लिए समाजसेवियों बुद्धिजीवियों और संत समाज सभी को एक मंच पर आना होगा। गंगा प्रदूषण की समस्या के निराकरण को सरकार की छलावा भरी हामी पर नहीं छोड़ा जा सकता। याद होगा, अभी पिछले साल ही गंगा के किनारे अवैध खनन के खिलाफ आंदोलनरत 34 वर्षीय निगमानंद को अपनी आहुति देनी पड़ी थी। सुखद यह है कि संत समाज दिल्ली कूच कर गया है। सरकार को अब ठोस वादे करने ही होंगे। गंगा भारतीय जन-मन-गण की आस्था है और उसके साथ तिजारत नहीं की जा सकती। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

आमजन भी दें संतों का साथ


गंगा को बचाने के लिए संत समाज के सैकड़ों साधु-संतों ने सरकार के खिलाफ मुहिम छेड़ दी है। दर्जनों संत दिल्ली के जंतर-मंतर पर गंगा को बचाने और सरकार की नींद खोलने के लिए धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया है। सवाल उठता है कि संत समाज का यह आंदोलन क्या वास्तव में सरकार की नींद तोड़ पाएगा या फिर पिछले आंदोलन की तरह यह भी बिना किसी नतीजे के दम तोड़ देगा। संतों का आरोप है कि मौजूदा समय में देश के अधिकतर कारखानों का कचरा नदियों में ही बहाया जा रहा है। सरकार सब कुछ जानते हुए भी कारखानों के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती हैं। गंगा की रक्षा के लिए संत समाज ने सरकार से आरपार की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया है। गंगाा को बचाने एवं पर्यावरण को स्वच्छ रखने की दिशा में सरकार की ओर से चलाई जा रही तमाम योजनाएं अव्यवस्थाओं के चलते दम तोड़ रही हैं। इसी बेरुखी का कारण है कि गंगा मैली होती जा रही है। पर्यावरण भी लगातार असंतुलित होता जा रहा है। दूषित पर्यावरण के कारण गंगा में पाए जाने वाले जीवों की कई प्रजातियां भी खत्म होने के कगार पर हैं। कोई 36 महीने पहले गंगा की रक्षा के लिए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अगुआई में गंगा बेसिन प्राधिकरण का गठन किया गया था। इस योजना पर अब तक 23 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन योजना पर काम न के बराबर हुआ है। दुख की बात यह है कि योजना पर आज तक महज तीन ही बैठकें हुई हैं। दरअसल, इस योजना के लिए प्रधानमंत्री के पास वक्त ही नहीं है। पिछली तीन बैठकें भी आंदोलनकारियों के दवाब में ही हुई थीं। अगर सरकार ने इस आंदोलन को गंभीरता से नहीं लिया तो जंतर-मंतर पर शुरू हुआ संतों का अनिश्चितकालीन अनशन निश्चित ही सरकार के लिए परेशानी का सबब बन सकता है। गत 15 जनवरी से वाराणसी में गंगा को बचाने के लिए अनशन कर रहे प्रो. गुरुदास अग्रवाल ने खुद आरपार की लड़ाई लड़ने का ऐलान कर दिया है। हालांकि खराब स्वास्थ्य के चलते वे इस वक्त एम्स में भर्ती हैं, लेकिन उनका आंदोलन लगातार जारी है। उनके सेवक वाराणसी के तट पर बैठे अनशन कर रहे हैं। गंगा और पर्यावरण का सीधा सरोकार आमजन से होता है। जल ही जीवन है और इसके बगैर जिंदगी संभव नहीं, लेकिन इसके अथाह दोहन ने जहां कई तरह से पर्यावरणीय संतुलन बिगाड़ कर रख दिया है। दिन प्रतिदिन गहराते जा रहे जल संकट ने पूरी मानव जाति को हिला कर रख दिया है। कारखानों के कचरे के कारण गंगा का पानी इतना गंदा हो गया कि वह आचमन के भी लायक भी नहीं है। पेय जल के विकल्प के तौर पर कुछ साल पहले सरकार ने जलाशयों को बनाने का निर्णय लिया था, जिसमें हजारों एकड़ वनों की कटाई की गई और काफी संख्या में आवासीय बस्तियों को उजाड़ा गया। लेकिन यह योजना भी पूरी तरह से विफल साबित हुई। देश के 76 विशाल और प्रमुख जलाशयों की जल भंडारण की स्थिति पर निगरानी रखने वाले केंद्रीय जल आयोग द्वारा 10 जनवरी 2007 तक के तालाबों की जल क्षमता के जो आंकड़े दिए हैं, वे बेहद गंभीर हैं। इन आंकड़ों के मुताबिक 20 जलाशयों में पिछले दस वर्षो के औसत भंडारण से भी कम जल का भंडारण हुआ है। दिसंबर 2005 में केवल छह जलाशयों में ही पानी की कमी थी, जबकि फरवरी की शुरुआत में ही 14 और जलाशयों में पानी की कमी हो गई है। इन 76 जलाशयों में से जिन 31 जलाशयों से विद्युत उत्पादन किया जाता है, पानी की कमी के चलते विद्युत उत्पादन में लगातार कटौती की जा रही है। जिन जलाशयों में पानी की कमी है, उनमें उत्तर प्रदेश के माताटीला व रिहंद बांध, मध्य प्रदेश के गांधी सागर व तवा, झारखंड के तेनूघाट, मेथन, पंचेतहित व कोनार, महाराष्ट्र के कोयना, ईसापुर, येलदरी व ऊपरी तापी, राजस्थान का राणा प्रताप सागर, कर्नाटक का वाणी विलास सागर, उड़ीसा का रेंगाली, तमिलनाडु का शोलायार, त्रिपुरा का गुमटी और पश्चिम बंगाल के मयुराक्षी व कंग्साबती जलाशय शामिल हैं। चार जलाशय तो ऐसे हैं, जिनमें लगामार पानी कम हो रहा है। समय रहते अगर इस संवेदनशील मुद्दे पर विचार नहीं किया गया तो पूरे राष्ट्र को जल, विद्युत और न जाने कौन-कौन सी प्राकृतिक आपदाओं का सामना करना पड़ेगा, जिनसे निपटना सरकार और प्रशासन के साम‌र्थ्य की बात नहीं रह जाएगी। आज नदियों की निर्मलता को पुनस्र्थापित करने की हम सबके सामने चुनौती है। आमजन भी संतों के आंदोलन में साथ दे तो इस दिशा में काफी सुधार हो सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)