मेट्रो के विस्तार से दिल्ली के पर्यावरण को बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी। तीसरे चरण में मेट्रो की राह में आने वाले 16 हजार से अधिक पेड़ काटे जायेंगे। इन पेड़ों को काटने की अनुमति के लिए मेट्रो प्रशासन दिल्ली सरकार पर दबाव बनाये हुए है। इन पेड़ों में वन क्षेत्र में स्थित 446 पेड़ ऐसे हैं जिनके कटान पर सुप्रीम कोर्ट का प्रतिबंध है। वन विभाग आम जनता के हित की परियोजना के तर्क को ध्यान में रखते हुए बाकी पेड़ों के कटान की अनुमति देने को तैयार है लेकिन डीएमआरसी से ऐसी भूमि की मांग की है जहां नियमानुसार इन पेड़ों से दस गुना पेड़ लगाये जा सकें। अनुमति मिलने पर डीएमआरसी को प्रति पेड़ 28 हजार का भुगतान भी करना होगा। सरकार इन पेड़ों को काटने की अनुमति देने के लिए तैयार हो गई है। इस संबंध में एक प्रस्ताव तैयार कर मंजूरी के लिए उपराज्यपाल के पास भी भेजा गया है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने बताया कि पेड़ काटने की अनुमति दिए जाने के संबंध में डीएमआरसी का पत्र उन्हें प्राप्त हुआ है। उन्होंने बताया कि इस संबंध में उन्होंने वन विभाग को उचित कार्रवाई करने के निर्देश दिए हैं। मेट्रो विस्तार के तीसरे चरण में तीन नये मेट्रो कोरीडोर कश्मीरी गेट से केंद्रीय सचिवालय, यमुना विहार से मुकुंदपुर तथा जनकपुरी से बोटेनिकल गार्डन तक बनाये जाने हैं। इन तीनों कोरीडोर की राह में लगभग 16 हजार ऐसे पेड़ आ रहे हैं जिन्हें काटना आवश्यक है। हालांकि दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन ने अपना सव्रे कर कुल 15838 पेड़ों की सूची वन विभाग को भेजी थी लेकिन वन विभाग ने जब मौके पर मुआयना किया तो डीएमआसी की सूची से लगभग एक हजार ज्यादा पेड़ मौके पर पाये गये हैं। इस प्रकार 16 हजार से अधिक पेड़ ऐसे हैं जिन्हें काटने की अनुमति देने के लिए मेट्रो प्रशासन दबाव बनाये हुए है। दिल्ली सरकार पेड़ों की कुर्बानी देने को सहमत हो गई है लेकिन अभी भी कई तकनीकी अड़चनें ऐसी हैं जिन्हें दूर किया जाना है। इस संबंध में मेट्रो प्रशासन ने एक पत्र दिल्ली सरकार को लिखा है। इन पेड़ों से होने वाली क्षति की प्रतिपूर्ति के लिए वन विभाग ने डीएमआरसी को ऐसी भूमि देने का आग्रह किया था जिस पर नियमानुसार इन पेड़ों के दस गुना डेढ़ लाख पेड़ लगाये जा सकें, क्योंकि एक पेड़ काटने पर दस पेड़ लगाने का नियम है। मेट्रो सूत्रों के अनुसार उक्त भूमि के लिए डीएमआरसी ने डीडीए से आग्रह किया था जिस पर डीडीए ने 70 हेक्टेयर भूमि तिलपट वैली में आवंटित की है। सूत्रों का कहना है कि उक्त भूमि पथरीली होने के कारण वन विभाग लेने को तैयार नहीं है। दिल्ली सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार जितने पेड़ काटे जायेंगे उनके बदले प्रति पेड़ 28 हजार रुपये की दर से क्षतिपूर्ति का भुगतान करना होगा। इस हिसाब से पेड़ों को काटने की अनुमति मिलने पर लगभग 50 करोड़ का भुगतान डीएमआरसी की ओर से वन विभाग को किया जायेगा। सूत्रों के अनुसार तिलपट वैली में भूमि पथरीली होने के कारण अब वन विभाग दिल्ली की अन्य वनभूमि पर ही डेढ़ लाख पेड़ लगाने पर सहमत है। सूत्रों के अनुसार वन विभाग की यह भी शर्त है कि जितने भी पेड़ काटे जायेंगे उन पेड़ों की लकड़ी श्मशान घाट में अंतिम संस्कारों में प्रयोग के लिए नगर निगम के हवाले की जायेगी। मेट्रो प्रशासन के सूत्रों के अनुसार तीसरे चरण में बनाये जाने वाले सभी नये कोरीडोरों में सर्वाधिक 6338 पेड़ जनकपुरी-बोटेनिकल गार्डन मेट्रो लाइन की राह में हैं जबकि 6030 पेड़ यमुना विहार-मुकुंदपुर लाइन पर हैं तथा 1468 पेड़ केन्द्रीय सचिवालय- कशमीरीगेट लाइन पर हैं। केंद्रीय सचिवालय से कश्मीरीगेट लाइन पर सर्वाधिक 977 पेड़ आईटीओ, दिल्लीगेट, जामा मस्जिद व लालकिला तक क्षेत्र में हैं। इनमें से 572 पेड़ों को काटने की अनुमति वन विभाग ने दे तो दी है। संबंधित फाइल मंजूरी के लिए उपराज्यपाल के पास गई है। 334 पेड़ कश्मीरी गेट के पास, 32 पेड़ मंडी हाऊस स्टेशन की शाफट के लिए, 13 पेड़ जनपथ स्टेशन बनाने के लिए तथा 112 पेड़ दिल्ली गेट पर यातायात डायवर्जन के लिए काटे जाने हैं। यमुना विहार-मुकुंदपुर मेट्रो लाइन की राह में आने वाले 6030 पेड़ों में सर्वाधिक 2307 पेड़ शालीमार बाग व भीकाजी के बीच हैं जबकि हजरत निजामुद्दीन से यमुनाविहार के बीच 2151 पेड़ हैं। इसके अलावा विनोद नगर डिपो बनाने के लिए 1758 पेड़ काटे जाने हैं जबकि भीकाजी से निजामुद्दीन तक 1340 पेड़ काटे जाने हैं। मुकुंदपुर से शालीमार के बीच कुल 376 पेड़ काटे जाने हैं। इनके काटने की अनुमति संबंधी फाइल उपराज्यपाल के पास भेजी जा चुकी है। जनकपुरी से बोटेनिकल गार्डन कोरीडेार की राह में आने वाले लगभग साढ़े छह हजार पेड़ों में सर्वाधिक 2942 पेड़ आरकेपुरम व कालकाजी के बीच हैं जबकि 1386 पेड़ जनकपुरी से एनएच 8 के बीच हैं। कालकाजी से दिल्ली बार्डर के बीच 623 पेड़ व आरएसएस से आरकेपुरम के बीच 507 पेड़ हैं। इस लाइन पर वसंत विहार से आरकेपुरम के बीच यह कोरीडोर वन क्षेत्र से होकर जायेगा जहां लगभग 446 पेड़ वनभूमि पर स्थित हैं। वन भूमि पर लगे पेड़ों के कटान पर सर्वोच्च न्यायालय का प्रतिबंध है। सर्वोच्च न्यायालय से अनुमति मिलने के बाद ही वन विभाग इनको काटने की अनुमति देगा। वन क्षेत्र की भूमि पर स्थित पेड़ों के अलावा बाकी सभी पेड़ों को काटने की अनुमति को लेकर अब कोई संशय नहीं है क्योंकि दिल्ली सरकार के एक आला अधिकारी ने इस पर अपनी सहमति व्यक्त की है। उनका कहना है कि मेट्रो अब दिल्ली की जरूरत है तथा सार्वजनिक परिवहन को बेहतर बनाने के लिए मेट्रो का विस्तार आवश्यक है। सरकार की सैद्धांतिक सहमति के बावजूद पेड़ काटने की अनुमति मिलने में हो रही देरी से डीएमआरसी प्रशासन बेचैन है क्योंकि इससे परियोजनाओं को पूरा करने में भी देरी हो सकती है।
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Saturday, July 14, 2012
Friday, June 1, 2012
पवरे के नाम पर मलिन न हो गंगा
गंगा दशहरा- यानी ज्येष्ठ मास, शुक्ल पक्ष, तिथि दशमी और नक्षत्र हस्त। भगवान बाबा श्री काशी विनाथ की कलशयात्रा का पवित्र दिन! कभी इसी दिन बिंदुसर के तट पर राजा भगीरथ का तप सफल हुआ। पृथ्वी पर गंगा अवतरित हुई। ‘ग अव्ययं गमयति इति गंगा’ यानी जो स्वर्ग ले जाये, वह गंगा है। पृथ्वी पर आते ही सबको सुखी, समृद्ध व शीतल कर दुखों से मुक्त करने के लिए सभी दिशाओं में विभक्त होकर सागर में जाकर पुन: जा मिलने को तत्पर एक विलक्षण अमृत प्रवाह ! भगवान विष्णु के वामनावतार स्वरूप के बायें अंगूठे को धोकर ब्रrा के कमंडल में रखा पवित्र जल!
शिव जटा के निचोङ़ने से निकली तीन धाराओं में एक- जो अयोध्या के राजा सगर के शापित पुत्रों को पुनर्जीवित करने राजा दिलीप के पुत्र, अंशुमान के पौत्र और श्रुत के पिता राजा भगीरथ के पीछे चली और भागीरथी के नाम से प्रतिष्ठित हुई। जो अलकापुरी की तरफ से उतरी, वह अलकनंदा और तीसरी धारा भोगावती पातालगामिनी हो गई। विष्णुगंगा, नंदाकिनी, पिंडर, मंदाकिनी ने अलकनंदा के साथ मिलकर क्रमश: चार प्रयाग बनाये- विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग और रुद्रप्रयाग। देवप्रयाग के नामकरण वाले पांचवे प्रयाग का निर्माण स्वयं अलकनंदा और भागीरथी ने मिलकर किया। उल्लेखनीय है कि जब तक अन्य धाराएं अपने- अपने अस्तित्व की परवाह करती रहीं उतनी पूजनीय और परोपकारी नहीं बन सकीं, जितना एकाकार होने के बाद गंगा बनकर हो गई। पंच प्रयागों में प्रमुख देवप्रयाग के बाद गंगा बनकर बही धारा ने ही सबसे ज्यादा ख्याति पाई। अंतत: भागीरथी उद्गम पर्वत से ही दूसरी ओर उतरी गंगा की बड़ी बहन यमुना ने भी बड़प्पन दिखाया और मार्ग में एकाकार हो गईं। बड़प्पन ने यश पाया। इलाहाबाद, अद्वितीय संगम की संज्ञा से नवाजा गया। इतिहास गवाह है कि गंगा की स्मृति छाया में सिर्फ लहलहाते खेत या समृद्ध बस्तियां ही नहीं, बल्कि वाल्मीकि का काव्य, बुद्ध-महावीर के विहार, अशोक-अकबर-हर्ष जैसे सम्राटों का पराक्रम तथा तुलसी, कबीर, रैदास और नानक की गुरुवाणी- जैसे चित्र अंकित है। गंगा किसी धर्म, जाति या वर्ग विशेष की न होकर, पूरे भारत की अस्मिता और गौरव की पहचान बनी रही है। हरिद्वार, देवभूमि का प्रवेश द्वार बना रहा। गंगा किनारे की काशी इस पृथ्वीलोक से अलग लोक मानी गई। उसी की तर्ज में उत्तर हिमालय में उत्तर की काशी- उत्तरकाशी स्थापित हुई। गंगा किनारे के तक्षशिला, नालन्दा, काशी और इलाहाबाद विविद्यालयों ने जो ख्याति पाई, भारत का कोई अन्य विविद्यालय आज तक उनका दशांश भी हासिल नहीं कर सका है। गंगा किनारे न जाने कितने आंदोलनों ने प्राण अर्जित किये। भारत का कोई काल नहीं है जो गंगा को स्पर्श किए बिना अपना सर्वश्रेष्ठ पा सका हो। राष्ट्र की हर महान आध्यात्मिक विभूति ने गंगा से शक्ति पाई, यह कोरी कल्पना नहीं, ऐतिहासिक तथ्य है। इस अद्वितीय महत्ता के कारण ही भारत का समाज युगों-युगों से अद्वितीय तीर्थ के रूप में गंगा का गुणगान करता आया है-न माधव समो मासो, न कृतेन युगं समम्। न वेद सम शास्त्र, न तीर्थ गंगया समम्। लेकिन लगता है मां गंगा ने अपनी कलियुगी संतानों के कुकृत्यों को पहले ही देख लिया था, इसीलिए अवतरण से इंकार करते हुए सवाल किया था- ‘मैं इस कारण भी पृथ्वी पर नहीं जाऊंगी क्योंकि मानव मुझमें अपने पाप, अपनी मलिनता धोयेंगे। मैं उसको धोने कहां जाऊंगी? तब भगीरथ ने उत्तर दिया था- ‘हे माता! जिन्होंने लोक-परलोक, धन-सम्पत्ति और स्त्री-पुत्र की कामना से मुक्ति ले ली है, जो ब्रह्मनिष्ठ और लोकों को पवित्र करने वाले परोपकारी सज्जन हैं, वे आप द्वारा ग्रहण किए गये पाप को अपने अंग के स्पर्श और श्रमनिष्ठा से नष्ट कर देगे।’
संभवत: इसीलिए गंगा रक्षा सिद्धांतों ने ऐसे परोपकारी सज्जनों को ही गंगा स्नान का हक दिया था। गंगा नहाने का मतलब ही है- सम्पूर्णता! जीवन में सम्पूर्णता हासिल किये बगैर गंगा स्नान का कोई मतलब नहीं। उन्हें गंगा स्नान का कोई अधिकार नहीं, जो अपूर्ण हैं। लक्ष्य से भी और विचार से भी। इसलिए किसी भी अच्छे काम के सम्पन्न होने पर हमारे समाज ने कहा- ‘हम तो गंगा नहा लिये।’
किंतु आज गंगा आस्था के नाम पर हम उसमें सिर्फ स्नान कर मलिनता ही बढ़ा रहे हैं। गंगा में वह सभी कृत्य कर रहे हैं, जिन्हे गंगा रक्षा सूत्र ने पापकर्म बताकर प्रतिबंधित किया था- मल मूत्र त्याग, मुख धोना, दंतधावन, कुल्ला करना, मैला फेंकना, बदन को मलना, स्त्री-पुरुष द्वारा जलक्रीडा करना, पहने हुए वस्त्र छोड़ना, जल पर आघात करना, तेल मलकर या मैले बदन गंगा में प्रवेश, गंगा किनारे मिथ्या भाषण, कुदृष्टि और अभक्तिक कर्म और अन्य द्वारा किए जाने को न रोकना। हमारे पास माघ मेला से लेकर कुंभ तक नदी के रूप में प्रकृति व समाज की समृद्धि के चिंतन-मनन के मौके थे लेकिन हमने इन्हें दिखावा, मैला और गंगा मां का संकट बढ़ाने वाला बना दिया। पौराणिक आख्यानों में भगवान विष्णु और तपस्वी जह्नु को छोड़कर और कोई प्रसंग नहीं मिलता, जब किसी ने गंगा को कैद करने का दुस्साहस किया हो किंतु कलियुग में अंग्रेजों के जमाने से गंगा को बांधने की शुरू हुई कोशिश को आजाद भारत ने आगे ही बढ़ाया है। दूसरी ओर मैले की मैली राजनीति इसे मलिन बना रही है। श्रद्धालु और कुछ न कर सकें, कम से कम गंगा दशहरा मनाने के नाम पर गंगा को मलिन न बनाने का संकल्प तो ले ही सकते हैं। आज गंगा की यही पुकार है। गंगा आज फिर सवाल कर रही है कि वह मानव प्रदत्त पाप से मुक्त होने कहां जाये? जिस देश, संस्कृति और सभ्यता ने अपनी अस्मिता के प्रतीकों को संजोकर नहीं रखा, वे देश, संस्कृतियां और सभ्यताएं मिट गईं। क्या भारत इतने बड़े आघात के लिए तैयार है? यदि नहीं, तो कम से कम मां गंगा की जन्मतिथि से ही सोचना शुरू कीजिए। संकल्प कीजिए कि हम-आप जो कर सकते है, उसे करें। गंगा रक्षा सूत्र की पालना हो, तभी गंगा दशहरा या ग्ांगा अवतरण तिथि का महात्म्य है अन्यथा अवतरण तिथि की ही तरह बन जायेगी एक दिन, गंगा मरण तिथि। क्या हमें स्वीकार है!Monday, April 30, 2012
हमने ही जमा किये हैं कचरे के ढेर
Monday, April 16, 2012
पिछले एक दशक में मरे 335 बाघ
देश के विभिन्न अभ्यारण्यों के भीतर और बाहर पिछले एक दशक में 335 से अधिक बाघों की मौत हुई। सूचना के अधिकार के तहत पूछे गए सवाल के जवाब में यह जानकारी दी गई। जवाब में बताया गया, ‘‘पिछले दस साल में अन्य कारणों के अलावा शिकार, संघषर्, दुर्घटना और अधिक उम्र की वजह से कुल 335 बाघों की मौत हुई। इनमें सबसे अधिक 58 बाघ 2009 में मृत पाए गए। 2011 में 56 और 2007 व 2002 में 28-28 बाघ मृत पाए गए। प्रेस ट्रस्ट द्वारा मांगी गई जानकारी पर राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकार (एनटीसीए) ने बताया कि 2005 में शावकों सहित कुल 17 बाघ मृत पाए गए। 2003 और इस वर्ष जनवरी से मार्च के बीच 16-16 बाघ मृत पाए गए। जबकि 2006 में 14 बाघ मृत पाए गए। आंकड़ों के अनुसार 68 बाघ इस अवधि के दौरान अवैध शिकार के कारण मारे गए। अवैध शिकार के कारण वर्ष 2010 में सबसे ज्यादा 14 बाघों की मौत हुई। 2009 में इनकी संख्या 13, 2011 में 11, 2002 में नौ, 2007 और 2008 में छह- छह, 2006 में पांच, इस वर्ष जनवरी से मार्च तक तीन और 2004 में एक बाघ की मौत अवैध शिकार की वजह से हुई। इनके अलावा अन्य की मौत अधिक उम्र, भुखमरी, सड़क और रेल दुर्घटनाएं, करंट लगने और कमजोरी जैसे कारणों से हुई। दिलचस्प बात यह है कि तकरीबन बारह मामलों में बाघ के मरने की वजह मालूम नहीं हो सकी। 2003 में मारे गए दो बाघों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट आज तक नहीं मिल पाई इसलिए इनकी मौत की वजह मालूम नहीं हो सकी। एनटीसीए से कहा गया था कि वह वर्ष 2002 से 2012 के बीच के दशक में विभिन्न अभ्यारण्यों में मारे गए बाघों की संख्या और उनकी मौत के कारणों की जानकारी मुहैया कराए। पर्यावरण और वन मंत्रालय के दिशानिर्देशों के अनुसार किसी भी बाघ के मरने पर उसके अवशेषों को तब तक डीप फ्रीजर में सुरक्षित रखा जाता है, जब तक कि स्वतंत्र दल उसकी मौत के कारणों का विश्लेषण न कर ले। प्रत्येक बाघ की मौत की घटना की गहन जांच की जाती है।
Wednesday, December 28, 2011
डरबन के बाद की चुनौतियां
डरबन में जुटे दुनिया भर के राजनेताओं, पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों के लिए पिघलते हुए ग्लेशियर, उफनते समुद्र, बदलते मौसम और गर्म होती धरती जहां चिन्ता का विषय थे वहीं विकसित दुनिया की राजनीति पूरी तरह अपने हितों को साधने की कूटनीतिक चालों में व्यस्त थी। अन्ततोगत्वा इस नीले ग्रह को बचाने पर जीत पूंजी संचय के कूटनीतिक इरादों की हुई। जलवायु परिवर्तन पर कई दिनों तक चली डरबन वार्ता असफलताओं पर सहमति वार्ता सिद्ध हुई। अमेरिका के नेतृत्व में विकसित देशों की कार्बन उत्सर्जन को थामने की वैधानिक बाध्यता बनने से रोकने की कोशिश कोई नई व पहली नहीं थी। दिसम्बर 1997 में जापान के क्योटो शहर में 150 देशों के प्रतिनिधियों ने एकत्र होकर एक प्रोटोकॉल तैयार किया जिसे क्योटो प्रोटोकॉल नाम से जाना जाता है। यह प्रोटोकॉल विकसित, औद्योगिक और कुछ मध्य यूरोपीय देशों को 2012 तक 1990 के स्तर से 6 से 8 प्रतिशत ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन घटाने की कानूनी बाध्यता बनाता था। इसको कानून बनाने के लिए 55 प्रतिशत औद्योगिक देशों के अनुमोदन की आवश्यकता थी परन्तु अमेरिका सहित कनाडा, जापान और आस्ट्रेलिया सरीखे उसके तमाम सहयोगी देशों ने क्योटो प्रोटोकॉल के कानून बनने से रोकने के लिए रुकावटबाजों की भूमिका अदा की। तीन महीने की लम्बी बहस के बाद 2002 में कनाडा और फरवरी 2005 में रूसी अनुमोदन के बाद ही क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी रूप ले सका। दुनिया बेशक तेजी से मानव निर्मित विनाश की और बढ़ रही हो मगर विकास के वकीलों के अपने तर्क और योजनाएं हैं, जिनके लिए वो दुनिया को धमकाना भी जानते हैं और ब्लैकमेल करना भी और यही योजनाएं वर्तमान विकास के पैरोकारो ने कोपेनहेगन से शुरू की जो डरबन तक आते-आते अपने निर्णायक मुकाम पर पंहुच गई। यदि क्योटो प्रोटोकॉल का दूसरा फेज कोपेनहेगेन में तैयार हो जाता तो 2050 तक पृथ्वी के बढ़ते तापमान को दो डिग्री की सीमा में रखने के लिए कम से कम पचास प्रतिशत की कटौती आवश्यक होती एवं औद्यागिक देशों के लिए यह कटौती अस्सी प्रतिशत तक होती। दुनिया के पर्यावरणविदों और वैज्ञानिकों के लिए कोपेनहेगन समिट का एजेन्डा जहां दूसरे क्योटो प्रोटोकॉल का रोडमेप तैयार करना प्राथमिकता थी, वहीं पहले क्योटो प्रोटोकॉल के रुकावटबाजों के लिए दूसरे प्रोटोकॉल को रोकना प्राथमिकता थी। कोपेनहेगन से शुरू हुई औद्योगिक देशों की इस योजना का अगला पड़ाव जहां कानकुन था वहीं डरबन में दुनिया के रुकावटबाज पूरी तरह कामयाब हो गए। ब्रिक देशों को सौ बिलियन डॉलर के मुआवजे का आासन देकर विकसित देशों ने तीसरी दुनिया के देशों को दो हिस्से में विभाजित कर दिया- अल्पविकसित और द्वीपीय देए एवं विकासशील देश। दरअसल कोपेनहेगन जलवायु सम्मेलन में अमेरिका की यही सबसे बडी जीत थी जिसकी गूंज डरबन में सुनाई दी जब ग्रेनाडा के प्रतिनिधि ने कहा कि आप बस बहस कर रहे हैं जबकि हम लोग मर रहे हैं। वास्तव में अल्पविकसित एवं द्वीपीय देशों की यही विडम्बना है कि वो उस दोष की सजा भुगत रहे हैं जिसे करने के वो आज तक काबिल नहीं हो पाए हैं दूसरी तरफ विकासशील देश जब विकास की राह पर तेजी से बढ़ रहे हैं तो पर्यावरण बचाव के नाम पर उनकी राह में अवरोध खड़े किए जा रहे हैं। दरअसल कोपेनहेगन से शुरू हुआ विफलताओं का यह समझौता चक्र गरीबों की जिंदगी पर अमीर दुनिया की सुविधाओं की जीत है। क्योटो प्रोटोकॉल सरीखे बाध्यकारी प्रावधान 2012 तक तैयार हो जाते तो दुनिया में कार्बन उत्सर्जन को एक सीमा में बांधकर बिगड़ते पर्यावरण को बचाने के लिए प्रभावकारी काम किया जा सकता था। अब यह बाध्यकारी प्रावधान तैयार करने के लिए 2015 की समय सीमा तय की गई है और यदि यह तैयार हो गए तो वह 2020 से लागू होना शुरू हो जाएंगे परन्तु यदि कार्बन उत्सर्जन इसी गति से बढ़ता रहा तो 2020 तक ग्लोबल वार्मिंग का स्तर वर्तमान समय से तीन गुना अधिक बढ़ चुका होगा। मानव निर्मित तबाही के लिए जिम्मेदार देश आज अपने हाथों रचे इस भयावह खतरे को बेशक अनदेखा करना चाहते हैं मगर इसका खमियाजा उन द्वीपीय और गरीब देशों को भुगतना पड़ रहा है जो ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न खतरों को लगातार झेल रहे हैं और उनसे निपटने लायक संसाधन भी उनके पास नही हैं। हालांकि जलवायु परिवर्तन नियंत्रित करने के लिए बने क्योटो प्रोटोकॉल की बाध्यता 2012 के अन्त में समाप्त हो जाएगी परन्तु जैसी भावना और दुनिया की संभावित बर्बादी के प्रति लापरवाही का रवैया विकसित देशों ने जाहिर किया है, उससे 2015 तक भी किसी नए बाध्यकारी प्रावधानों की संभावना नजर नहीं आती। विकसित देशों ने जैसी मंशा डरबन में जाहिर की है, उससे पर्यावरण बचाने की चुनौती और गंभीर होती नजर आती है। बहरहाल अगले समिट में दुनिया साफतौर पर तीन खेमों में बंटी होगी और अमेरिका एवं उसके सहयोगी देश ऐसी स्थिति का फायदा अपने हितों को साधने के लिए उठाने के लिए पूरी कोशिश करेगें।
Friday, December 16, 2011
डरबन में बंधी नई उम्मीद
जलवायु परिवर्तन के खतरे से निपटने के मुद्दे पर आयोजित वार्ता सम्मेलन समाप्त हो चुका है। यह सत्रहवां मौका था जब जलवायु परिवर्तन के खतरों के मद्देनजर दुनिया के देश कार्बन उत्सर्जन पर चर्चा के लिए डरबन में जुटे थे। मुद्दा जहां का तहां था कि कैसे जलवायु परिवर्तन के खतरों को कम किया जाए। करीब 20 साल पहले 1992 में युनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कंवेन्शन ऑन क्लाइमेट चेंज बना था। तभी से जलवायु परिवर्तन से निपटने के उपायों पर चर्चा शुरू हुई। तब से डरबन वार्ता तक जलवायु परिवर्तन के खतरों से निपटने के लिए 17 बैठकें संपन्न हो गई हैं लेकिन अब तक पर्यावरण प्रदूषण के खतरों से निपटने के लिए किसी ठोस रणनीति पर क्रियान्वयन शुरू नहीं हो पाया है। जितना भी कार्य हुआ है, वह केवल नीतिगत स्तर पर हुआ है और उसका जमीनी धरातल पर उतरना बाकी है। जलवायु वार्ताओं में दो शब्दों का प्रमुखता से इस्तेमाल होता रहा है। ये हैं- मिटिगेशन और ऐडेप्टेशन। मिटिगेशन का मतलब उन गैसों के उत्सर्जन में कटौती से है, जिनकी वजह से धरती गर्म हो रही है। एडेप्टेशन का मतलब ऐसे उपायों से है, जिनसे जलवायु संकट का असर कम किया जा सके। क्योटो प्रोटोकॉल के दूसरे चरण को ताक पर रखने के साथ हालांकि मिटिगेशन की बात एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दी गई है पर डरबन में बातचीत के दौरान कुछ निर्णय जरूर लिए गए जिन्हें डरबन प्लेटफार्म नाम दिया गया। इसमें भविष्य में एक समझौते पर चर्चा की बात कही गई है जिसमें कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए अधिक आक्रामक लक्ष्य तय किए जाएंगे ताकि दुनिया के औसतन तापमान में होने वाले इजाफे को दो डिग्री सेल्सियस तक सीमित किया जा सके। बहस थी कि समझौता कानूनी रूप से सभी देशों पर बाध्यकारी होगा या नहीं? भारत समझौते की कानूनी बाध्यता का विरोध कर रहा था और उसे हाशिए पर डाल दिया गया। पश्चिमी मीडिया ने भारत को ऐसे देश के रूप में दर्शाया जो समझौता तोड़ने की कोशिश कर रहा था या जो प्रदूषण फैलाने का अधिकार मांग रहा है। वास्तव में यूरोपीय यूनियन दुनिया का ध्यान अपनी वादा खिलाफी से हटा इस मौके का फायदा उठाना चाहती थी। इससे पूर्व इन देशों ने क्योटो घोषणा के तहत वादा किया था कि वे वातावरण पर दुष्प्रभाव डालने वाली गैसों पर तय सीमा के अन्दर रोक लगाएंगे लेकिन डरबन सम्मेलन में इन्होंने सुर बदलते हुए ऐसी नई संधि की मांग कर डाली जो पूरी दूनिया पर समान रूप से लागू हो। भारत ने इसका पुरजोर विरोध करते हुए कहा कि पहले क्योटो घोषणा से बंधे अमीर मुल्क यह बतायें कि उन्होंने अपने वादे किस हद तक पूरे किये। सब जानते हैं कि कार्बन उत्सर्जन में सबसे ज्यादा योगदान विकसित देशों का है, मगर वे कटौती नहीं करना चाहते। क्योटो प्रोटोकाल पर उनका मनमाना रवैया रहा है। अमेरिका जैसे दुनिया के दूसरे सबसे बड़े उत्सर्जक और मुखिया ने इस पर हस्ताक्षर ही नहीं किये हैं। 1997 के क्योटो प्रोटोकॉल के मुताबिक 2012 तक विकसित देशों को कार्बन उत्सर्जन में 1990 के स्तर से पांच फीसद तक की कटौती करनी है, जबकि भारत और चीन जैसे देशों के लिए ऐसी बाध्यता नहीं है। पश्चिमी देश इसे पचा नहीं पा रहे हैं क्योंकि चीन और भारत की अथव्यवस्था तेजी से बढ़ रही हैं। कहा तो यह भी जा रहा है कि चीन कुछ ही सालों में अमेरिका को पीछे छोड़ देगा। खैर, डरबन में संपन्न जलवायु सम्मेलन में भारत और यूरोपीय संघ के बीच जारी गतिरोधों के बावजूद अंतिम समय में सहमति बन गई। अन्यथा कोपेनहेगन से जलवायु वार्ता ने जो मोड़ लिया था, डरबन वार्ता भी उसी मुकाम के करीब पहुंचती दिख रही थी पर अंतिम समय में भारत और यूरोपीय संघ ने गतिरोध खत्म करते हुए इसे नये मुकाम पर पहुंचा दिया। शिखर सम्मेलन के समापन सत्र में केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन का भाषण प्रभावशाली रहा। उन्होंने चेतावनी दी कि भारत किसी भी खतरे या दबाव के आगे नहीं झुकेगा। सुश्री नटराजन ने कहा कि क्या जलवायु परिवर्तन से लड़ने का अर्थ यह है कि हम निष्पक्षता के सवाल पर घुटने टेक दें? पर भारत किसी भी खतरे या दबाव के आगे नहीं झुकेगा। कुछ देशों ने यूरोपीय संघ का समर्थन किया, लेकिन चीन ने भारत का मजबूती से समर्थन किया। आखिरकार 2015 के लिए एक संतुलित समझौते की रूपरेखा मंजूर कर ली गई । इस समझौते के तहत भारी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन करने वाले सभी देश उत्सर्जन में कटौती के लिए पहली बार कानूनी तौर पर बाध्य होगें। इसके तहत पहली बार भारत और चीन भी उत्सर्जन कटौती के दायरे में आएंगे। साथ ही नए करार के तहत सभी देश एक समान कानूनी व्यवस्था में आएंगे। सम्मेलन में इस वार्ता की गति तेज करने पर भी सहमति बनी। कहा गया कि यह काम वर्ष 2015 तक कर लिया जाना चाहिए ताकि इस नए समझौते को कम से कम वर्ष 2020 तक लागू किया जा सके। इसके साथ डरबन बैठक में क्योटो प्रोटोकॉल के लिए दूसरी प्रतिबद्धता अवधि के लिए सहमति जताई गई है जो विकासशील देशों की अत्यंत पुरानी मांग है। इस सम्मेलन की तीसरी बड़ी उपलब्धि रही ग्रीन क्लाइमेड फंड की स्थापना ताकि संवेदनशील मुल्कों को उत्सर्जन में कमी के बदले भुगतान किया जा सके। लेकिन इस फंड में कोई पैसा है ही नहीं। दरअसल विकसित देशों का कहना है कि मंदी के चलते फिलहाल वे किसी तरह के भुगतान की स्थिति में नहीं है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि इस जरूरी हस्तांतरण का भुगतान करने के लिए धन जुटाने के लिए किन नए तरीकों का इस्तेमाल किया जाए। याद रहे कि कोपेनहेगन में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने गरीब और जलवायु परिवर्तन की वजह से खतरे में पड़ रहे देशों की मदद की खातिर 2020 तक के लिए सौ अरब डॉलर का हरित कोष तैयार करने का ऐलान किया था। लेकिन न वहां और न कानकुन में यह तय हो सका कि इसमें कौन सा देश कितनी रकम देगा और कब देगा और उस रकम से मदद देने का तरीका क्या होगा? कानकुन में बस एक बात यह उभर कर सामने आई कि यह मदद यूएनएफसीसीसी के जरिए ही दी जाएगी। अत: डरबन जलवायु सम्मेलन एक महत्वपूर्ण बदलाव का बिंदु है। इस सम्मेलन में समता के मसले पर दोबारा जोर दिया गया ल्ेकिन इस बिंदु पर अमीर देशों का खुला प्रतिरोध भी देखने को मिला। अब यह एक खुली लड़ाई है। अब यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होगा कि दक्षिण अफ्रीका की मेजबानी में संपन्न डरबन प्लेटफार्म जलवायु संकट से निपटने की दिशा में गहराते भेदभाव को और गहरा न कर दे।
Friday, December 2, 2011
डरबन में गुजरना होगा कड़ी परीक्षा से
जलवायु स्थरीकरण के बोझ को न्यायोचित ढंग से केवल प्रति व्यक्ति समान उत्सर्जन से ही नहीं बल्कि अनेक अन्य मानदंडों से भी बांटा जा सकता है। डरबन में होने वाले जलवायु सम्मेलन में भारत को किसी दुर्बल, अप्रभावी जलवायु समझौते के प्रति ‘कोपेनहेगन लालच’ से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा समझौता किसी को उत्तरदायी नहीं बनाएगा। इससे भारतीय जन और वैिक जलवायु को नुकसान होगा
संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन समझौते के अंतर्गत 1992 में ब्राजील के रियो डे जनेरियो में आयोजित पृथ्वी सम्मेलन के बाद से अब तक की समझौता वार्ताओं के अनेक चक्र मानव जाति के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण समझौता वार्ता कहे गये हैं जो अतिशयोक्ति नहीं है। जलवायु में हो रहे विनाशकारी, अपरिवर्तनीय बदलाव आज मानव जाति के सबसे गंभीर खतरे की ओर इशारा हैं। ग्लोबल वार्मिग के कारण ग्लेशियर पिघल रहे हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है, वष्रा का पैटर्न बदल रहा है। भयंकर चक्रवात, विराट सूनामियां तथा सूखे-मौसम में अक्सर हो रहीं इस प्रकार की घटनाओं के साथ वायुमंडल गर्म करने वाले कार्बन डाइऑसाइड तथा ऐसी ही अन्य गैसों के बढ़ते उत्सर्जनों के कारण पृथ्वी ग्रह तबाही की ओर बढ़ रहा है। जलवायु पण्राली ज्यादा से ज्यादा डेड़ से दो डिग्री सेल्सियस (पूर्व औद्योगिक स्तरों से ऊपर) तक ग्लोबल वार्मिंग बर्दाश्त कर सकती है परंतु ग्रीन हाउस उत्सर्जन के कारण पृथ्वी तापमान तीन से चार डिग्री सेल्सियस तक बढ़ रहा है। ब्रिटेन के प्रतिष्ठित संस्थान, टिंडल सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज रिसर्च के उप निदेशक सरीखे वैज्ञानिकों ने चेतावनी दी है कि 4 डिग्री तापमान बढ़ने पर दुनिया की मात्र दस फीसद आबादी ही जिंदा बच पाएगी। 2020 तक यदि उत्सर्जन स्थिर नहीं हो जाते और उसके बाद तेजी से नीचे नहीं आते तो 2 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य पाना नामुमकिन हो जाएगा। इसलिए ग्रीनहाउस उत्सर्जनों में भारी कमी कर एक-दूसरे के सहयोग से जलवायु संकट के वैिक समाधान के लिए समझौता वार्ताएं आवश्यक व महत्वपूर्ण हैं। आशंका है कि दक्षिण अफ्रीका के डरबन में होने जा रहा 17वां जलवायु परिवर्तन समझौता कहीं झगड़ालू व अनुपयोगी न साबित हो। कोई यह आशा नहीं कर रहा है कि इससे वे विवादास्पद समस्याएं हल हो जाएंगी जिनमें शामिल है कि उत्तर के 40 देशों के साथ उत्सर्जन कटाव किसे करने चाहिए, इनका विस्तार और कानूनी रूप क्या होना चाहिए या दक्षिण के गरीब देशों के जलवायु संबंधी उपाय के लिए धन का प्रबंध किसे करना चाहिए। कहा जा रहा है कि उत्सर्जन घटाने में अगुआई उत्तरी देशों को करनी चाहिए क्योंकि वायुमंडल में जमा तीन चौथाई ग्रीन हाउस गैसों के लिए वही जिम्मेदार हैं और उन्हें दक्षिणी देशों की वित्तीय व तकनीकी मदद करनी चाहिए। पर विकसित देशों ने क्योटो प्रोटोकोल के अधीन अपने दायित्वों को पूरी तरह नहीं निभाया है। अमेरिका ने तो क्योटो का कभी अनुमोदन किया ही नहीं। वह 1990 की तुलना में पांच प्रतिशत अधिक ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन करेगा। आशंका है कि जापान, कनाडा, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, स्पेन और नीदरलैंड अपने लक्ष्य पूरा नहीं कर पाएंगे। कुछ तो तीस प्रतिशत जितने बड़े अंतर से पीछे रह जाएंगे। 2009 के कोपेनहेगन सम्मेलन के बाद से उत्तर ने दक्षिण से उत्सर्जन में खुद से भी ज्यादा कमी का वचन ले लिया है। इनमें 2020 तक कार्बन डाइऑक्साइड के शून्य से अधिकतम 3.8 अरब टन तक के उत्सर्जन के वचन हैं, जो व्यक्त महत्वाकांक्षा, घोषित शतरें और लेखा नियमों में ढील पर आधारित हैं। इसके विपरीत दक्षिणी देशों के वचन 3.6 से 5.2 टन तक हैं। सामूहिक रूप से दक्षिण उत्तर की तुलना में उत्सर्जन में 37 प्रतिशत अधिक गहरे कटाव के वचन देता है। अमेरिका, यूरोपीय यूनियन, रूस, कनाडा और आस्ट्रेलिया सहित उत्तर के चोटी के छह प्रदूषकों की अपेक्षा चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया, मेक्सिको और दक्षिण कोरिया ने कुल मिलाकर 40 से 300 प्रतिशत अधिक के वचन दिए हैं। बड़े औद्योगिक प्रदूषकों की तुलना में न्यूनतम विकसित देशों और लघु द्वीप राज्यों की संधि ने अधिक उदार वचन दिए हैं। यह समझौते के सिद्धांत को अड़ियल ढंग से उलट जलवायु स्थरीकरण का अधिक बोझ उन पर डाल देता है जो जलवायु ग्लोबल वार्मिग के लिए सबसे कम जिम्मेदार हैं लेकिन सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। इस बदलाव की साजिश कोपेनहेगन में अमेरिका, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन के नवगठित गुट ‘बेसिक’ ने रची थी जिसका मकसद महत्वाकांक्षी उत्तरदायित्व से बचना था। शर्मनाक यह है कि भारत अपनी घोषित रेड लांइस (खतरे की रेखाओं) के विरुद्ध सांठगांठ में शामिल हो गया था। कानकुन में भी अमेरिका प्रायोजित वचन और पुनर्विचार दृष्टिकोण हावी रहा जिसने वि को आशंकित जलवायु विनाश के रास्ते पर डाल दिया। अत: जलवायु संकट और जलवायु वार्ताओ में अविास तथा अनास्था के लिए केवल विकसित देशों को जिम्मेदार ठहराना सही नहीं। दक्षिण के बढ़ते उत्सर्जनों की दोषी उनकी उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं जिनका प्रतिनिधित्व मुख्यत: ‘बेसिक’ करता है। ‘बेसिक’ और दक्षिण एशिया के बाकी हिस्से के बीच अंतर किया जाना चाहिए। बेसिक के उत्सर्जन शेष वि की तुलना में कहीं तेजी से बढ़ रहे हैं। पिछले साल चीन के उत्सर्जन 2009 से 10 प्रतिशत बढ़े थे और भारत के 9 प्रतिशत। जबकि पूरे वि में 6 प्रतिशत बढ़े। 1990 और 2000 के बीच ईंधन दहन से वैिक उत्सर्जन में 37.2 प्रतिशत वृद्धि हुई, जबकि ओईसीडी देशों में यह 8 प्रतिशत थी। लेकिन इस बीच भारत के उत्सर्जन 175.9 प्रतिशत और चीन के इससे भी अधिक 196.8 प्रतिशत बढ़े। ब्राजील के उत्सर्जनों में 68.4 और दक्षिण अफ्रीका में 53.7 प्रतिशत की बढ़ोतरी दर्ज की गई। आज का चीन 1992 के चीन से जुदा है जब संयुक्त राष्ट्र जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे। अब उसका प्रति व्यक्ति उत्सर्जन लगभग पश्चिमी यूरोपीय देशों के बराबर है और 2035 तक यह अमेरिकी स्तर तक पहुंच जाएगा। जलवायु संबंधी दायित्वों से बचने के लिए भारत गरीबी की आड़ नहीं ले सकता। उसके उत्सर्जनों में बढ़ोतरी की बड़ी वजह गरीबों की जरूरत पूरी करना नहीं बल्कि अमीर वर्ग का ऐशोआराम है। हालांकि बेसिक को उत्तर के समकक्ष नहीं रखा जा सकता फिर भी भविष्य में उसे अधिक दायित्व निभाने होंगे। वैिक समझौता वार्ताओं से बड़ी हद तक अपरिचित भारत को डरबन में जहां कड़ी परीक्षा से गुजरना पड़ेगा वहीं जलवायु के मामले में पक्षपात से बचने के लिए दोहरी भूमिका अदा करनी होगी। विकासशील देशों के गुट जी-77 के सदस्य के तौर पर और दूसरे बेसिक राज्य के तौर पर। केंद्रीय प्रश्न यह है कि उत्तर से उस अतिरिक्त स्थान को किस प्रकार खाली कराया जाए जो उसने दक्षिण की कीमत पर वैिक वायुमंडल मामलों में हथिया रखा है। जलवायु स्थरीकरण के बोझ को न्यायोचित ढंग से केवल प्रति व्यक्ति समान उत्सर्जन से ही नहीं बल्कि अनेक अन्य मानदंडों से भी बांटा जा सकता है। डरबन में भारत को किसी दुर्बल, अप्रभावी जलवायु समझौते के प्रति ‘कोपेनहेगन लालच’ से बचना चाहिए क्योंकि ऐसा समझौता किसी को उत्तरदायी नहीं बनाएगा। इससे भारतीय जन और वैिक जलवायु को नुकसान होगा।
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