काफी जद्दोजहद के बाद आखिरकार संयुक्त राष्ट्र जलवायु वार्ता एक मुकाम तक पहुंच ही गई। जलवायु वार्ता के आखिरी दिन एक समझौता हुआ, जिस पर सभी देशों ने अपनी सहमति व्यक्त की। समझौते के तहत विकसित देश अब क्योटो प्रोटोकॉल के तहत 2013 से अपने उत्सर्जन में कटौती करने को राजी हो गए हैं। नए करार के तहत अब सभी देश एक ही कानूनी व्यवस्था में आएंगे। इस कानूनी समझौते पर वार्ता अगले साल शुरू होगी और 2015 तक समाप्त हो जाएगी, जिसके बाद वर्ष 2020 में नया करार पूरी दुनिया में प्रभावी हो जाएगा। यानी शुरुआती ना-नुकुर के बाद विकसित देशों ने विकासशील देशों की इस मांग को मान लिया है कि पहले वे अपने यहां उत्सर्जन कम करें। डरबन सम्मेलन की खास उपलब्धि यह रही कि क्योटो संधि से शुरू से ही बाहर रहने वाले अमेरिका ने भी इस करार का समर्थन किया। गौरतलब है कि क्योटो प्रोटोकॉल कानूनी रूप से ऐसा अकेला नियामक है, जो अमीर देशों को कार्बन उत्सर्जन में कटौती के लिए बाध्य और भविष्य के एक प्रभावी करार की दिशा में मार्ग प्रशस्त करता है। ऐतिहासिक अंतरराष्ट्रीय करार क्योटो प्रोटोकॉल, जो साल 2004 से अमल में आया, इस समझौते में यह तय हुआ था कि 37 विकसित मुल्क स्वैच्छिक कटौती के तहत आहिस्ता-आहिस्ता अपने यहां साल 2012 तक 4 ग्रीन हाउस गैस और 2 दीगर खतरनाक गैसों का प्रदूषण 1990 के स्तर पर 6 फीसदी घटा देंगे, लेकिन हकीकत यह है कि कई देशों ने उस समय किए गए वादों को बिल्कुल भी नहीं निभाया। जापान, कनाडा, रूस, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका अपने वादे से पूरी तरह मुकर गए, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देखें तो हवा में कार्बन डाईऑक्साईड घोलने में अकेला अमेरिका 26 फीसदी का हिस्सेदार है। एक आकलन के मुताबिक भारत द्वारा उत्सर्जित ग्रीन हाउस गैसों के बरक्स अमेरिका दस गुना अधिक गैस वातावरण में उगलता है। प्रति व्यक्ति स्तर पर नापा जाए तो यह अनुपात और भी खतरनाक है। मसलन, औसत भारतीय की बनिस्बत औसत अमेरिकी 20 गुना से ज्यादा ऊर्जा का उपभोग करता है। जाहिर है, यही वह वजह है जिससे वातावरण में कहीं ज्यादा ग्रीन हाउस गैसें घुलती हैं। अमेरिका और तमाम विकसित देश जो सभी देशों को एक डंडे से हांकना चाहते हैं, उनसे क्या यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि भारत और बाकी विकासशील देशों को विकास के उस स्तर तक पहुंचने का क्या कोई हक नहीं है, जहां अमीर देश पहले ही पहुंच चुके हैं? जहां तक डरबन सम्मेलन में हमारे देश की भूमिका का सवाल है, कानकुन सम्मेलन की तरह इस सम्मेलन में भी भारत ने अपनी बात जोरदार तरीके से रखी। जलवायु सम्मेलन में भारत ने जोर देकर कहा कि जलवायु से जुड़ी वार्ताओं का केंद्र समानता होनी चाहिए। पर्यावरण मंत्री जयंती नटराजन ने सम्मेलन में भारत का पक्ष रखते हुए कहा, वह साल 2020 के बाद ही क्योटो करार जैसी नई संधि का हिस्सा बनने पर विचार करेगा, लेकिन इससे पहले विकसित देश अपना उत्सर्जन कम करें और विकासशील देशों को इसके लिए वित्तीय मदद और प्रौद्योगिकी उपलब्ध कराने की मौलिक प्रतिबद्धता का पालन करें। इस मामले में विकासशील और छोटे देशों की समानता, व्यापार में बाधक और बौद्धिक संपदा से जुड़ी चिंताओं का भी समाधान किया जाए। भारत के इस रुख पर यूरोपीय संघ हालांकि पहले नाराज हुआ, लेकिन बाद में उसने भी यह बातें मान लीं। डरबन सम्मेलन में एक अच्छी बात यह हुई कि पहली बार बेसिक समूह के देश मसलन ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, भारत और चीन एक साथ खड़े नजर आए। यहां तक कि भारत के पक्ष का उसके मुख्य प्रतिद्वंद्वी देश चीन ने भी समर्थन किया। कुल मिलाकर क्योटो जलवायु सम्मेलन के बाद डरबन सम्मेलन ऐसा दूसरा सम्मेलन है, जिसमें सभी देश एक समझौते पर एक राय हुए। सभी देशों ने इस बात पर रजामंदी जताई कि साल 2020 से वे अपने यहां कार्बन उत्सर्जन में कमी लाएंगे। जाहिर है, डरबन सम्मेलन की यह सबसे बड़ी कामयाबी है। दुनिया को बढ़ते तापमान के खतरे से बचाने के लिए यह समझौता लाजिमी भी था। क्योटो प्रोटोकाल को आगे बढ़ाने और उत्सर्जन कटौती का लक्ष्य तय नहीं करने का मतलब सीधे-सीधे पर्यावरण को नुकसान पहुंचाना होता। दुनिया और समूची इंसानी बिरादरी को बचाने के लिए जरूरी है कि आगामी सालों में डरबन समझौते को ईमानदारी से अमल में लाया जाए। वरना, बहुत देर हो जाएगी। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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Wednesday, December 14, 2011
Saturday, June 4, 2011
गंगा की अविरल धारा का सवाल
राष्ट्रीय नदी जीवनदायिनी गंगा को बचाने के लिए आखिरकार हमारी सरकार संजीदा हुई है।। आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने हाल ही में गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ रुपये की एक महत्वाकांक्षी परियोजना पर सर्वसम्मति से अपनी मुहर लगा दी है। तीव्र औद्योगीकरण, शहरीकरण और प्रदूषण से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही गंगा को बचाने के लिए अब तक की यह सबसे बड़ी परियोजना होगी। हालांकि गंगा को साफ करने की पिछली परियोजनाओं की कामयाबी और नाकामयाबियों से सबक लेते हुए इस परियोजना को बनाया गया है। इसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन करना, नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे और नदी के आस-पास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल है। कुल मिलाकर इस परियोजना का मकसद गंगा नदी का संरक्षण करना और पर्यावरणीय सुरक्षा को व्यापक योजना व प्रबंधन द्वारा बिगड़ने से बचाना है। गंगा की सफाई में आने वाली कुल लागत में से केंद्र 5,100 करोड़ रुपये खर्च का वहन करेगा, वहीं जिन पांच राज्यों से गंगा निकलती है, वहां की सरकारें 1900 करोड़ रुपये का खर्च उठाएंगी। 5100 करोड़ रुपये की जो भारी भरकम राशि केंद्र सरकार को खर्च करना है, उसमें से 4,600 करोड़ रुपये उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। बहरहाल, आठ साल की समय सीमा में पूरी होने वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना में ऐसे कई प्रावधान किए गए हैं कि यदि इन पर ईमानदारी से अमल किया गया तो गंगा नदी की पूरी तस्वीर बदल जाएगी। इस योजना के तहत गंगा सफाई अभियान को आगे बढ़ाने के लिए विशेष संस्थानों की स्थापना की जाएगी। इसके साथ ही स्थानीय संस्थाओं को भी मजबूती प्रदान की जाएगी, ताकि वे गंगा की सफाई में लंबे समय तक अपनी भूमिका निभा सकें। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जिम्मेदारी नदियों में प्रदूषण रोकना है, उसे पहले से और भी ज्यादा मजबूत बनाया जाएगा। इसमें भी सबसे बड़ी बात कि जो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उन शहरों में निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी। औद्योगिक प्रदूषण को दूर करने के लिए विशेष नीति बनाई जाएगी। कहने को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कल-करखानों से निकलने वाले अपशिष्ट के लिए कड़े कायदे-कानून बना रखे हैं, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद आज भी गंगा में इनका प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टि्रयों का तीन करोड़ लीटर अपशिष्ट गंगा में जाकर मिलता है। इसमें बड़े पैमाने पर क्रोमियम और जहरीले रासायनिक पदार्थ होते हैं। कमोबेश यही हाल बनारस का है। जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी बगैर शुद्धिकरण के खुली नालियों के जरिए गंगा में मिलता है। हालांकि देश में गंगा सफाई योजना को 25 साल से ज्यादा हो गए हैं और इसकी सफाई पर अभी तक अरबों रुपये भी बहाए जा चुके हैं, लेकिन रिहाइशी कॉलोनियों और कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को इसमें मिलने से रोकना मुमकिन नहीं हो पाया है। औद्योगिक इकाइयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं होतीं, वहीं राज्य सरकारें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी कल-करखानों की मनमानियों के प्रति अपनी आंखें मूंदे रहती हैं। और तो और, न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी राज्य सरकारें दोषी लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं करतीं। गंगा को साफ करने के लिए साल 1986 में शुरू हुई कार्ययोजना उसी वक्त परवान चढ़ गई होती, यदि इस पर गंभीरता से अमल किया गया होता। पांच सौ करोड़ रुपये की लागत से शुरू हुई इस योजना में बीते 15 सालों के दौरान तकरीबन नौ सौ करोड़ रुपये खर्च हो गए, लेकिन गंगा साफ होने की बजाय और भी प्रदूषित होती जा रही है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और कर्मकांड मुल्क की सबसे पवित्र और बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में रुकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि आज जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं इतना जहरीला हो गया है कि इस जहरीले पानी से न सिर्फ पशु-पक्षियों के लिए संकट पैदा हो गया है, बल्कि आसपास के इलाकों का भूजल भी प्रदूषित होने से बड़े पैमाने पर लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। सदियों से हमारे देश के निवासी यह मानते आए हैं कि गंगा नदी का पानी कभी खराब नहीं होता। गंदगी मिलने पर भी यह खुद इसे शुद्ध कर लेती है। वैज्ञानिक तथ्यों की कसौटी पर यह धारणा एक हद तक सही भी है, लेकिन अब गंगा में चौतरफा से इतनी गंदगी आकर मिल रही है कि उसे खुद साफ कर पाना उसकी क्षमता से कहीं बाहर की बात हो गई है। गंगा में प्रदूषण का आलम यह है कि बरसात के मौसम में कानपुर और बनारस जैसे शहरों में गंगा नदी के बीचों-बीच बालू के बड़े-बड़े टीले उभर आते हैं। जिस बनारस में कभी गंगा का जलस्तर 197 फीट हुआ करता था, वहां लगातार प्रदूषण के चलते आज कई जगहों पर जलस्तर महज 33 फुट के करीब ही रह गया है। गंगा की धारा को निर्मल व अविरल बनाने के लिए आज गाद एक बड़ी समस्या बनी हुई है। प्रदूषण के अलावा गंगा नदी को इस पर बने हुए बांधों ने भी खूब नुकसान पहुंचाया है। अंग्रेजी हुकूमत ने साल 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में गंगाभक्तों के साथ समझौता किया था कि गंगा का प्रवाह कभी नहीं रोका जाएगा। आजाद हिंदुस्तान के संविधान की धारा 363 की भावना भी कमोबेश यही कहती है। बावजूद इसके टिहरी बांध से गंगा का प्रवाह रोका गया। अकेले टिहरी बांध ने ही गंगा को काफी नुकसान पहुंचाया है। अब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक राज्य की तरक्की के लिए आने वाले समय में गंगा पर और भी बांध बनाना चाहते हैं। वे राज्य की हिमालयी नदियों से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा करना चाहते हैं। हालांकि तमाम बड़े-बड़े दावों के साथ बनाया गया टिहरी बांध आज भी अपने दावे के मुताबिक एक चौथाई बिजली तक नहीं बना पा रहा है। इसके विपरीत टिहरी बांध की वजह से गंगा का प्रवाह जरूर गड़बड़ा गया। असमंजस यह है कि बांध से लगे इलाके के 100 से भी ज्यादा गांवों में जहां पहले इफरात में पानी होता था, आज वह जल संकट से जूझ रहे हैं। किसान खेती को छोड़कर उसी दिल्ली की तरफ पलायन कर रहे हैं, जिसकी सुविधा के लिए यह बांध बनाया गया था। बहरहाल, गंगा नदी के संरक्षण की तमाम चुनौतियों के बावजूद उम्मीदें अब भी बाकी हैं। हर 10 में से चार भारतीय की प्यास बुझाने वाली गंगा को अब भी बचाया जा सकता है, लेकिन इसे बचाने के लिए सरकारी कोशिशों के अलावा व्यक्तिगत प्रयास भी जरूरी है। गंगा की सफाई के लिए भारी भरकम रकम खर्च करने से ज्यादा जरूरी है, हमारा जागरूक होना। जब तक हम जागरूक नहीं होंगे, तब तक गंगा स्वच्छ नहीं होगी। गंगा से हमने हमेशा लिया ही है, उसे दिया कुछ नहीं। गंगा से लेते वक्त हम यह भूल गए कि जिस दिन उसने देना बंद कर दिया या वह देने लायक नहीं रही, उस दिन हमारा और हमारी आने वाली पीढ़ी का क्या हश्र होगा।
Tuesday, May 3, 2011
गंगा को बचाने की नई मुहिम
आर्थिक मामलों की केबिनेट कमेटी ने हाल में गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ की महत्वाकांक्षी परियोजना पर मुहर लगा दी है। तीव्र औद्योगिकरण, शहरीकरण और प्रदूषण से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही गंगा को बचाने के लिए अब तक की यह सबसे बड़ी परियोजना होगी। गंगा को साफ करने की पिछली परियोजनाओं की कामयाबी और नाकामयाबियों से सबक लेते हुए इस परियोजना को बनाया गया है जिसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन करना, नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे और नदी के आस-पास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल है। परियोजना का मकसद गंगा-संरक्षण के साथ ही नदी घाटी जुड़ाव द्वारा पर्यावरणीय प्रवाह व्यापक बनाए रखना है। गंगा को साफ करने के नाम पर खर्च होने वाली कुल राशि में 5100 करोड़ रुपये जहां केंद्र वहन करेगा, वहीं जिन पांच राज्यों में गंगा प्रवाहित होती है, यानी उाराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल सरकारें शेष 1900 करोड़ रुपये का खर्च उठाएंगी। 5100 करोड़ की जो भारी-भरकम राशि केन्द्र को खर्च करनी है, उसमें से 4600 करोड़ रुपए उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। आठ साल की समय सीमा में पूरी होने वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना में ऐसे कई प्रावधान हैं कि यदि इन पर ईमानदारी से अमल हुआ तो गंगा की तस्वीर बदलते देर न लगेगी। केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड, जिसकी जिम्मेदारी नदियों में प्रदूषण रोकना है, को पहले से ज्यादा मजबूत बनाया जाएगा। जो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उनमें निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी। औद्योगिक प्रदूषण दूर करने के लिए विशेष नीति बनाई जाएगी। कहने को केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने कल- करखानों से निकलने वाले कचरे के लिए कड़े कायदे- कानून बना रखे हैं लेकिन आज भी गंगा में इनका प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टरियों का तीन करोड़ लीटर गंदा गंगा में मिलता है, जिसमें बड़े पैमाने पर क्रोमियम और रासायनिक बाय प्रोडक्ट होते हैं। यही हाल बनारस का है, जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी खुली नालियों के जरिए गंगा में मिलता है। गंगा सफाई योजना को 25 साल से ज्यादा हो गये हैं और इसकी सफाई पर अरबों बहाये जा चुके हैं लेकिन रिहाइशी कॉलोनियों और कारखानों के गंदे पानी को इसमें मिलने से रोकना मुमकिन नहीं हो पाया है। औद्योगिक इकाइयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति लापरवाह हैं वहीं जिम्मेदार राज्य सरकारें और केन्द्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड कल-करखानों की मनमानियों के जानिब आंखें मूंदें रहते हैं। न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी सरकारें दोषियों पर कार्रवाई नहीं करतीं। गंगा को साफ करने के लिए 1986 में शुरू हुई कार्य योजना उसी वक्त परवान चढ़ गई होती, यदि इस पर गंभीरता से अमल होता। पांच सौ करोड़ रुपए की लागत से शुरू हुई इस योजना में बीते 15 सालों के दौरान तकरीबन नौ सौ करोड़ खर्च हो गये हैं लेकिन गंगा और प्रदूषित होती जा रही है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और धार्मिक कर्मकांड मुल्क की सबसे बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में लगातार रुकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं बहुत जहरीला हो गया है। आस- पास के इलाकों का भूजल तक इससे प्रदूषित हो रहा है और लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। कहा जाता है कि गंगाजल वर्षो खराब नहीं होता क्योंकि इसमें निहित खास वैक्टीरिया इसे प्राकृतिक रूप से शुद्ध रखते हैं। लेकिन अब गंगाजल के बैक्टीरिया खुद को नहीं बचा पा रहे हैं। जिस बनारस में कभी गंगा का जलस्तर 197 फुट हुआ करता था, वहां कई जगहों पर यह महज 33 फुट के करीब रह गया है। गंगा में गाद आज बड़ी समस्या है। गंगा को बांधों ने भी खूब नुकसान पहुंचाया है। ब्रिटिश काल में 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में समझौता हुआ था कि गंगा का प्रवाह कभी नहीं रोका जाएगा। संविधान की धारा 363 की भावना भी कमोबेश यही कहती है लेकिन टिहरी में बांध बना गंगा का प्रवाह रोका गया। यही नहीं, उत्तराखंड की मौजूदा सरकार गंगा पर और भी बांध बनाना चाहती है। मुख्यमंत्री निशंक राज्य की नदियों से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा करना चाहते हैं जबकि, बड़े-बड़े दावों के साथ बनाया गया टिहरी बांध आज भी अपने लक्ष्य से एक चौथाई बिजली नहीं बना पा रहा है। उल्टे टिहरी बांध की वजह से गंगा का प्रवाह गड़बड़ा गया है। बांध के आसपास के सौ से भी ज्यादा गांव आज गंभीर जल संकट से जूझ रहे हैं। वही ग्रामीण अपना घरबार छोड़कर मैदानी क्षेत्र में पलायन कर रहे हैं, जिनके कथित हितों के निमित्त यह बनाया गया था। बहरहाल, गंगा-संरक्षण की तमाम चुनौतियों के बावजूद उम्मीदें बाकी हैं। लेकिन इसके लिए सरकारी कोशिशों के अलावा व्यक्तिगत प्रयास भी जरूरी हैं। गंगा की सफाई के लिए भारी-भरकम रकम खर्च करने से ज्यादा जरूरी है, जन-जागरूकता। गंगा से लेते वक्त भूलते रहे हैं कि जिस दिन उसने देना बंद कर दिया, या वह देने लायक नहीं रहेगी, उस दिन हमारा और हमारी आने भावी पीढ़ी का क्या होगा?
Wednesday, March 30, 2011
जहरीला होता यमुना का पानी
हमारे मुल्क में नदियों के अंदर बढ़ते प्रदूषण पर आए दिन चर्चा होती रहती है। प्रदूषण को रोकने के लिए गोया कि बरसों से कई बड़ी परियोजनाएं भी चल रही हैं, लेकिन नतीजे के स्तर पर देखें तो वही ढाक के तीन पात। प्रदूषण के हालात इतने भयावह हो गए हैं कि हमारे सामने पेयजल तक का संकट गहरा गया है। राजधानी दिल्ली के 55 फीसदी लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की तादाद इतनी बढ़ गई है कि उसे साफ कर पीने योग्य बनाना तक मुश्किल हो गया है। बीते एक महीने में दिल्ली में यह दूसरी बार है, जब ऐसे हालात के चलते पेय जल शोधन संयंत्रों को रोक देना पड़ा। चंद्राबल और वजीराबाद के जलशोधन केंद्रों की सभी इकाइयों को महज इसलिए बंद करना पड़ा कि पानी में अमोनिया की मात्रा 0.02 से बढ़ते-बढ़ते 1.3 हो गई है, जिससे पानी जहरीला हो गया। जाहिर है, दिल्लीवासियों के लिए यह अच्छी खबर नहीं है। गर्मियों ने दस्तक दे दी है और समय रहते यदि इस समस्या पर पार नहीं पा लिया गया तो हालात और ज्यादा विकराल हो जाएंगे। कोई 15 दिन पहले जब यह शिकायत मिली थी तो पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने हस्तक्षेप किया था। पिछले दिनों यमुना के हालात का उन्होंने जायजा भी लिया, लेकिन देखना होगा कि नतीजा क्या निकलता है। वैसे बार-बार शिकायतें मिलने के बावजूद सरकार जहरीला पानी छोड़ने वाले कारखानों के खिलाफ कोई कठोर कदम नहीं उठा पा रही है। पानी में जहरीले रसायनों की तादाद ज्यादा होने को लेकर हरियाणा सरकार और दिल्ली जल बोर्ड के बीच कई दिनों से आपस में तनातनी चल रही है। दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि हरियाणा के उद्योगों द्वारा यमुना नदी में जो कचरा डाला जाता है, उसकी वजह से ही यमुना के पानी में अमोनिया की मात्रा ज्यादा हो गई है। जल बोर्ड ने इसकी शिकायत केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड से भी की, लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला। जबकि खुद केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कल-कारखानों से निकलने वाले पानी के संबंध में कड़े कायदे-कानून बना रखे हैं। इस बात को भी अभी कोई ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब जयराम रमेश ने कानपुर में एलान किया था कि नदियों में मिलने वाले जहरीले रसायनों की जबावदेही आखिरकार केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की होगी। यदि इस मामले में वह नाकाम साबित होता है तो उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे। रमेश ने उस वक्त इससे मुताल्लिक निर्देश पत्र भी जारी किए, लेकिन फिर भी हरियाणा व उत्तर प्रदेश के औद्योगिक इलाकों पानीपत और बागपत में लगे कारखानों का विषैला पानी बिना रुके यमुना में लगातार गिरता रहा। यमुना के पानी के प्रदूषण के लिए सिर्फ अकेला हरियाणा ही जिम्मेदार नहीं है, बल्कि इसमें दिल्ली भी शरीक है। शीला सरकार ने एक समय राजधानी के इलाकों में चल रहे कल-कारखानों को दिल्ली से बाहर बसाने के लिए बाकायदा एक मुहिम चलाई, जगह-जगह जल, मल शोधक संयत्र लगाए, लेकिन हालात आज भी ऐसे बने हुए हैं कि हजारों कारखाने रिहाइशी इलाकों के आसपास बने हैं और तिस पर रख-रखाव में लापरवाही के चलते ज्यादातर शोधन संयत्र भी काम करना बंद कर चुके हैं। पिछले दिनों हुए राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े बुनियादी ढांचा संबंधी विकास कार्यो ने भी यमुना को प्रदूषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बीते कुछ सालों में दिल्ली में न सिर्फ वायु प्रदूषण बढ़ा है, बल्कि उसी रफ्तार में जल प्रदूषण भी बढ़ा है। कारखानों से निकलने वाला कचरा यमुना में लगातार गिरता है। औद्योगिक इकाइयां ज्यादा मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के जानिब कतई संवेदनशील नहीं हैं। पसमंजर यह है कि यमुना के 1,376 किलोमीटर लंबे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी में से महज दो फीसदी रास्ते यानी 22 किलोमीटर में मिलने वाली दिल्ली की 79 फीसदी गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। मुल्क में सबसे ज्यादा पूज्यनीय माने जाने वाली गंगा और यमुना नदी बढ़ते-बढ़ते इतनी प्रदूषित हो गई हैं कि दोनों को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार अब तक 15 अरब रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है, लेकिन फिर भी उनकी मौजूदा हालत 20 साल पहले से कहीं ज्यादा बदतर है। गोया कि गंगा को राष्ट्रीय नदी एलान किए जाने के बावजूद इसमें प्रदूषण का स्तर जरा-सा भी कम नहीं हुआ है। यमुना सफाई अभियान के नाम पर भी सरकार ने काफी पैसा खर्च किया, लेकिन नतीजा सिफर ही रहा। करोड़ों रुपये यमुना की सफाई के नाम पर बहा दिए गए, मगर रिहाइशी कॉलोनियों और कल-कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी का का कोई माकूल इंतजाम नहीं किया गया। जाहिर है, जब तलक यह गंदा पानी यमुना में गिरने से नहीं रोका जाता, तब तलक यमुना सफाई अभियान की सारी मुहिम फिजूल हैं। सूबाई सरकारें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड दोनों ही कल-कारखानों की मनमानियों की जानिब आंखें मूंदे रहते हैं। नदियों में जहरीले पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कोई कठोर कदम नहीं उठाया जाता। कहने को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कायदे-कानून बना रखे हैं। फिर भी नदियों में गंदे पानी का प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। पर्यावरण मंत्रालय की नाक के नीचे पड़ोसी सूबों के कल-कारखानों से निकलने वाला लाखों लीटर गंदा पानी यमुना में आकर मिल जाता है और प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड हाथ पर हाथ धरे बैठा रहता है। देखा जाए तो यह साफ तौर पर कोई कार्रवाई न होने या उन्हें ढिलाई देने का ही नतीजा है। ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां रसूख वाले लोगों की हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड औद्योगिक-राजनीतिक दबाव के चलते औद्योगिक इकाइयों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। अगर कोशिश करता भी है तो वे अपने सियासी रसूख की वजह से बच निकलते हैं। जिसकी वजह से प्रदूषण बदस्तूर जारी रहता है। कुल मिलाकर इस पूरे मामले में दिल्ली सरकार भले ही हरियाणा सरकार को गुनहगार ठहराकर खुद को पाक-साफ साबित करने की कोशिश करे, लेकिन यमुना की साफ-सफाई में वह खुद कितनी संजीदा है, यह किसी से छिपा नहीं है। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करके ही यमुना को प्रदूषण से बचाया जा सकता है। विकास की अंधी दौड़ और मानव निर्मित प्रदूषण ने आहिस्ता-आहिस्ता हमारी नदियों के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया है। आलम यह है कि फिलवक्त मुल्क की 70 फीसदी नदियां प्रदूशित हैं और मरने की कगार पर हैं। नदियों में बढ़ता प्रदूषण केवल पेयजल की दृष्टि से ही बड़ी समस्या नहीं है, बल्कि इसके चलते आसपास के इलाकों में भू-जल के प्रदूषित होते जाने की वजह से लोगों में कई बीमारियां घर करती जा रही हैं। यही नहीं, खेतों की उर्वरा-शक्ति भी लगातार क्षीण हो रही है। सरकारों को राजनीतिक स्वार्थ और आपसी आरोपों-प्रत्यारोपों से ऊपर उठकर अवाम की सेहत और पर्यावरण की चिंता पहले करनी होगी, तब जाकर कुछ हालात सुधरेंगे। दिल्ली में पेयजल संकट की इस छोटी-सी मिसाल ने हमारे सामने भविष्य की भयावह तस्वीर खींचकर रख दी है। यदि समय रहते अब भी हमने कोई ठोस कार्रवाई नहीं की तो बहुत देर हो जाएगी|
Monday, March 7, 2011
जान पर बना यमुना का प्रदूषण
हमारे मुल्क में नदियों के अंदर बढ़ते प्रदूषण पर आए दिन र्चचा होती रहती है। प्रदूषण रोकने के लिए गोया बरसों से कई बड़ी परियोजनाएं भी चल रही हैं। लेकिन नतीजे देखें तो वही ‘ढाक के तीन पात’। प्रदूषण से हालात इतने भयावह हो गए हैं कि पेय जल तक का संकट गहरा गया है। राजधानी दिल्ली के 55 फीसद लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली- यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि उसे साफ कर पीने योग्य बनाना तक दुष्कर हो गया है। बीते एक महीने में दिल्ली में दूसरी बार ऐसे हालात के चलते पेयजल शोधन संयंत्रों को रोक देना पड़ा। चंद्राबल और वजीराबाद के जलशोधन केंद्रों की सभी इकाइयों को महज इसलिए बंद करना पड़ा कि पानी में अमोनिया की मात्रा .002 से बढ़ते-बढ़ते 13 हो गई, जिससे पानी जहरीला हो गया। अब गर्मी आने को है। समय रहते यदि समस्या पार नहीं पा ली गई, तो हालात और भी विकराल हो जाएंगे। यमुना का प्रदूषण आहिस्ता-आहिस्ता अब लोगों की जान पर बन आया है। यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की मात्रा ज्यादा होने को लेकर हरियाणा सरकार और दिल्ली जल बोर्ड के बीच तनातनी चल रही है। दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि हरियाणा के उद्योगों द्वारा यमुना नदी में जो कचरा डाला जाता है, उसकी वजह से ही पानी में अमोनिया की मात्रा ज्यादा हुई। जल बोर्ड ने इसकी शिकायत केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड से भी की लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला जबकि खुद केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने कल- कारखानों से निकलने वाले पानी के सम्बंध में कड़े कायदे- कानून बना रखे हैं। इस बात को भी अभी कोई ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कानपुर में ऐलान किया था कि, ‘‘नदियों में मिलने वाले जहरीले रसायनों की जवाबदेही अंतत: केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड की होगी। यदि इस मामले में वह नाकाम साबित होता है तो, उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे।’’ जयराम रमेश ने उस वक्त इसके बाबत निर्देश भी जारी किए। फिर भी हरियाणा और उत्तर प्रदेश के औद्योगिक इलाकों, पानीपत और बागपत में लगे कारखानों का विषैला पानी बिना रुके यमुना में लगातार गिरता रहा। यों, यमुना के प्रदूषण के लिए अकेला हरियाणा ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि इसमें दिल्ली भी बराबर भागीदार है। शीला सरकार ने एक समय राजधानी के इलाकों में चल रहे कल-कारखानों को दिल्ली से बाहर बसाने के लिए बाकायदा एक मुहिम चलाई, जगह-जगह जल, मलशोधक संयंत्र लगाए, लेकिन हालात आज भी ऐसे बने हुए हैं कि, हजारों कारखाने रिहाइशी इलाकों के आसपास बने हैं और तिस पर रख-रखाव में लापरवाही के चलते ज्यादातर शोधन संयंत्र भी काम करना बंद कर चुके हैं। पिछले दिनों हुए राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े बुनियादी ढांचा सम्बंधी विकास कायरें ने भी यमुना को प्रदूषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बीते कुछ सालों में दिल्ली में न सिर्फ वायु प्रदूषण बढ़ा है, बल्कि उसी रफ्तार में जल प्रदूषण भी। उद्योगों-कारखानों से निकलने वाला कचरा यमुना में लगातार गिरता है। औद्योगिक इकाइयां ज्यादा मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के जानिब कतई संवेदनशील नहीं हैं। मंजर यह है कि यमुना के 1,376 किलोमीटर लम्बे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी में से महज 2 फीसद रास्ते, यानी 22 किलोमीटर में मिलने वाली दिल्ली की 79 फीसद गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। गंगा-यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार अब तक 15 अरब रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है लेकिन उनकी वर्तमान हालत 20 साल पहले से कहीं बदतर है। गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने के बावजूद इसमें प्रदूषण जरा भी कम नहीं हुआ है। करोड़ों रुपये यमुना की भी सफाई के नाम पर बहा दिए गए, मगर रिहाइशी कॉलोनियों व कल-कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी का कोई माकूल इंतजाम नहीं किया गया। जाहिर है, जब तक यह गंदा पानी यमुना में गिरने से नहीं रोका जाता, यमुना सफाई अभियान की सारी मुहिमें फिजूल हैं। ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां रसूख वाले लोगों की हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड औद्योगिक-राजनीतिक दबाव के चलते औद्योगिक इकाइयों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। कार्रवाई होती भी है तो वे अपने सियासी रसूख की वजह से बच निकलते हैं। इस पूरे मामले में दिल्ली सरकार भले ही हरियाणा सरकार को गुनहगार ठहराकर खुद को पाक-साफ साबित करे लेकिन वह खुद कितनी संजीदा है, यह किसी से छिपा नहीं है। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर ही यमुना को बचाया जा सकता है।
Thursday, December 23, 2010
संकट बढ़ातीं धुआं उगलती कारें
जलवायु संकट मौजूदा दौर का एक न बदला जा सकने वाला नंगा सच है। विडंबना यह है कि हिमयुग के बाद पहली मर्तबा समूची इंसानी बिरादरी के सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है। दुनिया भर में यह समस्या कोई रातों-रात नहीं आ गई, बल्कि वातावरण में उन गैसों के बढ़ने से हुई, जिन्हें ग्रीन हाउस गैसें कहा जाता है। ये गैसें ऊर्जा केंद्रों, छोटी-बड़ी गाडि़यों, कल-कारखानों और खेती आदि से लगातार उत्सर्जित हो रही हैं। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में यातायात का एक बड़ा हिस्सा है, जिसमें भी सार्वजनिक यातायात की बजाय यातायात के लिए व्यक्तिगत साधन का इस्तेमाल इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है। हमारे मुल्क में, जहां बेलगाम कार्बन उत्सर्जन पहले ही पर्यावरण के सामने एक बड़ी चुनौती बना हुआ था, डीजल से चलने वाली बड़ी कारों के इस्तेमाल ने इस समस्या को और भी गंभीर बना दिया है। इस चुनौती से निपटने के लिए अभी हाल ही में पर्यावरण एवं राज्यमंत्री जयराम रमेश द्वारा जो प्रस्ताव लाया गया है, उसका न सिर्फ स्वागत किया जाना चाहिए, बल्कि इसे जल्द ही अमल में लाया जाना चाहिए। स्ंायुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा भारत में कम उत्सर्जन आधारित परिवहन विषय पर आयोजित कार्यशाला में जयराम रमेश ने कहा, हमें ऐसी वित्तीय नीति व्यवस्था बनानी चाहिए, जो एसयूवी या लग्जरी श्रेणी की कारों की खरीद को हतोत्साहित करती हो, इसके लिए हमें ऐसे वाहनों पर भारी कर या शुल्क लगा देना चाहिए, जिससे लोग किफायती ईधन खपत वाले वाहन खरीदने के लिए प्रेरित हों। परिवहन क्षेत्र में होने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए उन्होंने अपनी तरफ से यह प्रस्ताव भी रखा कि जीवाश्म ईधन के क्षेत्र में सरकार को सिर्फ रसोई गैस और कैरोसिन पर ही सब्सिडी देनी चाहिए, क्योंकि डीजल पर मिलने वाली सब्सिडी का फायदा बड़ी और आलीशान कारें चलाने वाले लोग उठा रहे हैं। जाहिर है पर्यावरण सुरक्षा के ऐतबार से यह प्रस्ताव काबिले तारीफ प्रस्ताव है। विलासिता के दर्जे में आने वाली कारों की खरीद को हतोत्साहित करने के लिए उन पर भारी टैक्स लगाने और नई वित्तीय नीति बनाने की वकालत हर लिहाज से जायज है। सरकार द्वारा डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी का मकसद खेती के लिए किसानों और माल ढुलाई के काम में लगे ट्रक मालिकों को राहत देना है, न कि इसलिए कि कुछ लोग अपनी हैसियत और शान बघारने के लिए बड़ी गाडि़यां रखें और पर्यावरण को प्रदूषित करें। डीजल से चलने वाले वाहन कितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं और उससे पर्यावरण को कितना नुकसान होता है? इसका अंदाजा राजधानी दिल्ली के महज एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। साल 2000 में दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर 140 माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर था। वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए दिल्ली सरकार ने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए सार्वजनिक परिवहन के वास्ते सीएनजी का इस्तेमाल लाजमी कर दिया। जैसे ही सीएनजी अनिवार्य हुई, वायु प्रदूषण का स्तर पांच साल के अंदर घटकर साल 2005 में एक सौ माइक्रोग्राम रह गया। लेकिन बढ़ते बाजारवाद और नवउदारवादी नीतियों के अमल में आने के बाद हमारे यहां जो उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिला, उससे लोगों में निजी वाहन रखने की प्रवृत्ति बढ़ी। बहरहाल, सीएनजी सार्वजनिक परिवहन में तो अनिवार्य रही, लेकिन निजी कारें इससे बची रहीं। जिसका नतीजा यह निकला कि कम ईधन खर्चे की वजह से समाज में डीजल चालित कारों का चलन बढ़ता चला गया। डीजल कारें बढ़ीं तो वायु प्रदूषण का जो आंकड़ा 100 माइक्रो ग्राम रह गया था, एक बार फिर वह बढ़ते-बढ़ते 150 माइक्रोग्राम को पार कर गया। सरकार ने सीएनजी की अनिवार्यता दरअसल डीजल बसों और टैक्सी-ऑटो से होने वाले प्रदूषण से निजात पाने के लिए की थी, लेकिन आज हालात यह बने हैं कि दिल्ली में डीजल से चलने वाली कारें 30 हजार से ज्यादा बसों के बराबर धुआं फेंक रही हैं। कारों की कुल संख्या यदि देखें तो डीजल कारें फिलवक्त 30 फीसदी से ज्यादा हैं और यह सिलसिला अगर यों ही चलता रहा तो निकट भविष्य में इसके 50 फीसदी तक पहुंचने की उम्मीद है। जाहिर है हालात काफी विकराल हैं, यदि समय रहते कोई वाजिब कदम नहीं उठाए गए तो हालत और भी बिगड़ सकते हैं। भारत में होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में परिवहन क्षेत्र की हिस्सेदारी इस वक्त बढ़ते-बढ़ते 7.5 फीसदी हो गई है। और यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो आईदा 10 सालों में इसके बढ़कर 15 फीसदी होने की आशंका है। जाहिर है, परिवहन क्षेत्र में ही हमें हाल-फिलहाल सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी यानी संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरशासकीय पैनल की रिपोर्ट कहती है कि यातायात के तरीकों में बुनियादी बदलाव कर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में काफी कमी लाई जा सकती है। मसलन, सड़क की बजाय रेल या अंतरराज्यीय जल मार्ग, कम यात्री वाहनों की तुलना में अधिक यात्री वाहनों का इस्तेमाल और शहरों के बेहतर नियोजन से यातायात की मांग में कमी करना आदि। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए यह रिपोर्ट हमें सुझाव ही नहीं देती, बल्कि हमें भविष्य के लिए भी आगाह करती है कि वाहन ईधन क्षमता को बाजार की ताकतों के सहारे छोड़ देना सही नहीं होगा। रिपोर्ट नव उदारवाद के स्वीकृत सिद्धांत के खिलाफ जाकर अधिक से अधिक नियंत्रण की वकालत करती है। और यह नियंत्रण कोई मुश्किल काम नहीं, बल्कि कम ऊर्जा लागत, बेहतर बाजार क्षमताओं और प्रौद्योगिकी में सुधार लाकर आसानी से मुमकिन है। कुल मिलाकर जलवायु संकट आज सारी दुनिया के सामने एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा है। जिस पर वैश्विक स्तर पर और भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। अब वह वक्त आ गया है कि विकसित और विकासशील दोनों ही मुल्क एक साथ बैठकर आम अवाम के अधिकारों को केंद्र में रखते हुए अपनी पर्यावरणीय नीतियों को बनाएं, क्योंकि जिस तरह से लोगों के अधिकार जलवायु संकट से प्रभावित हो रहे हैं, उसे देखते हुए एक विधिक ढांचे की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए हालांकि हमारी सरकार ने हाल ही में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन किया है, लेकिन वैश्विक स्तर पर भी क्योटो प्रोटोकाल के प्रावधानों को सही तरह से लागू करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल की जरूरत है, जो वैश्विक स्तर पर पर्यावरण और जलवायु पर होने वाले परिवर्तनों पर नजर रखे, बल्कि समय-समय पर जरूरी हस्तक्षेप भी करे। जलवायु परिवर्तन पर विधिक प्रावधानों के कम होने के बावजूद खाद्य सुरक्षा, आजीविका और स्वास्थ्य हर नागरिक के अधिकार हैं, जिन्हें हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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