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Friday, January 21, 2011

मौसम का बदलता मिजाज़


वैश्विक स्तर पर प्रकृति क्रोध में है। प्रकृति का यही रौद्र रूप बताता है कि विश्व अब हिमयुग की ओर लौट रहा है। यही कारण है कि अमेरिका सहित विश्व के कई देश शीत ऋतु में पिछले सालों के मुकाबले इस बार भारी बर्फबारी झेल रहे हैं। देश में भी कई राज्य कड़ाके की ठंड की चपेट में है। जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के उच्च पर्वतीय क्षेत्र हिमपात से घिरे हैं। पर्यटक स्थल रोहतांग और पर्यटन नगरी मनाली में अब तक आठ फुट से भी अधिक बर्फ गिर चुकी है। लेह और कारगिल में तो पारा लगातार शून्य से भी चार-पांच डिग्री नीचे चल रहा है। शीतलहर व कोहरे के कारण दर्जनों उड़ानें रद हुईं। रेल व बस यातायात पर भी बुरा असर पड़ा। अत्यधिक कोहरे, बर्फबारी एवं ठंडी हवाओं के चलने से फसलें खराब होने लगी हैं। गरीब वर्ग का जीना दूभर हो गया है। सच्चाई यह है कि प्रकृति और मानव का रिश्ता धीरे-धीरे कटु होता जा रहा है। यह इसी का परिणाम है कि ऋतुओं का बारहमासी चक्र भी गड़बड़ा गया है। ठंड के इस मुद्दे पर सरकारें चुप हैं। गरीबों की शीत सुरक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट को दखल देना पड़ रहा है। निश्चित ही यह समय प्रकृति के इस बढ़ते असंतुलन को समझने के साथ-साथ भविष्य की प्रकृति को पढ़ने का भी है। मौसम के इस अतिरेकी परिवर्तन को कोई ग्लोबल वार्मिंग तो कोई इसे प्रकृति से छेड़छाड़ का नतीजा मान रहा है, परंतु यह ध्यान रहे कि प्रकृति का भी अपना एक विज्ञान है, जिसके अंतर्गत पकृति हमेशा अपना परिशोधन करती रहती है। जैसे हमें अपने कायरें में किसी का दखल असहनीय है, ठीक उसी तरह प्रकृति भी मानव दखल से अपना रौद्र रूप धारण कर लेती है। तीव्र गर्मी, आंधी, तूफान, सुनामी व भूकंप सहित न जाने कितने वेमौसम प्राकृतिक अतिरेक से प्रकृति अपने संतुलन को बनाए रखने का प्रयास करती है। हमारे आस-पास का निर्मित वातावरण प्रकृति को सीधे तौर पर प्रभावित करता है। औद्योगिक प्रतिष्ठानों से निकलने वाली हानिकारक गैसों के साथ में वाहनों से निकलने वाला धुआं, रेफ्रिजरेटर, वातानुकूलित यत्र व पॉलीथिन का जलना इत्यादि सीधे-सीधे ऐसे कारण हैं जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वातावरण को प्रदूषित करने व धरती को गर्म करने के लिए उत्तरदायी हैं। प्रकृति से जुड़े तथ्य बताते हैं कि वातावरण में निरंतर प्रदूषण के बढ़ने से एकत्रित विभिन्न गैसों ने वायुमंडल की सबसे निचली सतह यानि लोयर ट्रोपोस्फीयर के नजदीक गैसों की एक पर्त बना दी है। इसका दुष्परिणाम यह है कि वायुमंडल में अत्यधिक तापमान के बढ़ने व घटने से अत्यधिक गर्मी व अत्यधिक सर्दी का अहसास होने लगता है। प्रकृति के इन खतरों से जुड़े संकेत आने प्रारंभ भी हो गए हैं। पड़ोसी देश नेपाल का भूगोल साक्षी है कि वहां हिमालय की तलहटी में हजारों झीलों का निर्माण हो चुका है। जलवायु परिवर्तन के कारण बढ़ रही गर्मी से वहां पिघल रहे ग्लेशियरों का पानी वहां इन झीलों में जमा हो रहा है, जो मौसम को और ठंडा बना रहा है। अगर यह हिमजल का प्रवाह जारी रहा तो भविष्य में इन बर्फीली झीलों के फटने की आशंका है। रिकार्ड तोड़ सर्दी और देश के विभिन्न हिस्सों में भारी बर्फबारी से मौसम में आए इस बदलाव को आइस एज आने का संकेत माना जा रहा है। नि:संदेह विगत कुछ वषरें में मौसम में जो बदलाव परिलक्षित हो रहे हैं वह जलवायु में तीव्रगति से परिवर्तन के संकेत दे रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि ऐसे परिवर्तनों के लिए ग्लोबल वार्मिग उत्तरदायी है। जलवायु परिवर्तन से जुड़े विशेषज्ञ स्वीकार करते हैं कि ग्लोबल वार्मिग और आइस ऐज के विभिन्न कालखंड हमारी पृथ्वी के इतिहास का हिस्सा रहे हैं। पृथ्वी का भूगोल बताता है कि पृथ्वी गर्म होने के बाद पुन: ठंडी होती है। पृथ्वी की इसी संक्रमित प्रक्रिया को मौसम विज्ञानी इसे ही हिमयुग आने का संकेत मान रहे हैं। कुछ वैज्ञानिक भी स्वीकार करने लगे हैं कि कड़ाके की यह सर्दी हिम युग की शुरुआत की दस्तक ही है। वैज्ञानिक यह भी स्वीकार करते हैं कि भारत में भविष्य में इसके बड़े प्रभाव परिलक्षित होंगे। अपने सही अथरें में प्रकृति का हिमयुग की ओर प्रवेश अभी एक नूतन प्राकृतिक घटना है, जिस पर देश में अभी बहस होना बाकी है। प्रकृति आज घायल अवस्था में है। जैव विविधता का दामन भी मानव संरक्षण के लिए तरस रहा है। आक्रामक उपभोग का वैश्विक बाजार हमें भौतिक जरूरतों की चकाचौंध में तो ले गया, परंतु उपभोग के बदले पैदा होने वाले अवशिष्ट उत्पाद के प्रदूषण से मुक्त करने के तंत्र से वंचित कर दिया। तथ्य बताते हैं कि आक्रामक उपभोग का 86 फीसदी हिस्सा विश्व की अमीरतम दस-बारह फीसदी आबादी द्वारा किया जाता है। दूसरी ओर विश्व की गरीबतम बीस फीसदी आबादी उस उपभोग का मात्र दो-तीन फीसदी हिस्सा ही खर्च करती है। क्योटो प्रोटोकॉल से लेकर वर्तमान के जलवायु सम्मेलन तक की यात्रा विकसित देशों का ही एजेंडा अधिक रही है। यह चिंताजनक है कि प्रकृति से नित नूतन आने वाले नकारात्मक संदेशों को भी हम सभी अनसुना कर रहे हैं। (लेखक समाज शास्त्र के प्राध्यापक हैं)