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Thursday, March 17, 2011

आधी-अधूरी तैयारी


भारत में आपदा प्रबंधन की तैयारियों को लेकर असंतोष जता रहे हैं लेखक

आकस्मिक रूप से घटने वाली प्राकृतिक और मानवीय आपदाएं यूं तो हमारे जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन यदि हम ऐसी किसी संभावित आपदा से निपटने के लिए समय रहते तैयारी कर लें, तो जानमाल का नुकसान कम किया जा सकता है। पिछले दिनों जापान में आए भूकंप और सुनामी के कारण वहां न केवल हजारों मानव जिंदगियां मौत के मुंह में समा गई, बल्कि अरबों की संपत्ति स्वाहा हो गई और अब परमाणु संयत्रों में विस्फोट के कारण जापान व उसके आसपास के देशों में परमाणु विकिरण फैल गया है। जापान के प्रधानमंत्री के मुताबिक द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उनका देश सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। जापान में विश्व में सबसे अधिक भूकंप आते हैं। वहां की सरकार अपने नागरिकों को इस बारे में न केवल जागरूक करती है, बल्कि उन्हें ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षण भी देती है। भूकंप की दृष्टि से भारत भी खतरनाक क्षेत्र में आता है। गुजरात में 26 जनवरी, 2001 को आए भूकंप और 26 दिसंबर, 2004 को आई सुनामी में लाखों लोगों की मौत को भूला नहीं जा सकता। इसी तरह 1999 में उड़ीसा में सुपरसाइक्लोन और महाराष्ट्र का लातूर भूकंप भयावह घटनाएं हैं। आंकड़ों के मुताबिक हर वर्ष भारत में औसतन 5000 लोग आपदाओं में अपनी जान गंवाते हैं। इससे हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 2.4 प्रतिशत और कुल राजस्व का 12.5 प्रतिशत का नुकसान हर वर्ष होता है। आपदा प्रबधंन के महत्व व जरूरत को देखते हुए ही 1994 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्थापना की गई। यह संस्थान शोध के अलावा जनजागरूकता फैलाने, आपदा कौशल का विकास करने व औपचारिक-अनौपचारिक प्रशिक्षण देने के अतिरिक्त सरकार को नीतिगत सलाह देने का कार्य करता है। सरकार द्वारा गठित एक उच्चस्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में सड़क दुर्घटनाओं, साइक्लोन और सुपर साइक्लोन समेत कुल 32 तरह की आपदाओं की संभावना व प्रभाव के बारे में बताया है। इनमें बाढ़, सूखा, भूकंप, सुनामी व चक्रवात को भारत के लिए सबसे ज्यादा विनाशकारी माना गया है। सुनामी और चक्रवात की पूर्व जानकारी के लिए अर्ली वार्निग सिस्टम लगाने का काम पूरा हो चुका है। भूकंप के संदर्भ में कई कदम उठाए जाने के बावजूद अभी काफी कुछ किया जाना है। हमारे देश का आधे से अधिक भाग भूकंप क्षेत्र में आता है, जिसमें नेपाल से सटे बिहार का क्षेत्र काफी संवेदनशील माना जाता है। इस क्षेत्र में अभी तक का सर्वाधिक तीव्रता वाला भूकंप 1934 में आया था, जिसे रिक्टर स्केल पर 8.9 मापा गया था। भारत को चार भूकंपीय क्षेत्रों में बांटा गया है, जिसमें जोन पांच और चार ज्यादा खतरनाक हैं। जोन पांच में हिमालयी क्षेत्र, कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा इनसे सटे राज्यों के जिले आते हैं। इसी तरह दिल्ली जोन चार में आता है जो खतरनाक क्षेत्र में शामिल है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी बड़ी दुर्घटना की स्थिति में हमारी तैयारियां अपर्याप्त सिद्ध होंगी। वैसे तो आपदा प्रबंधन का काम राज्य का विषय है और केंद्र सरकार जरूरत पड़ने पर ही उन्हें मदद देती है। इसके लिए रिजर्व फोर्स के तौर पर 10 हजार आपदा सुरक्षाकर्मियों को तैयार किया गया है। इसके अलावा एनसीसी, एनएसएस, एनवाइकेएस और नागरिक सुरक्षा बलों को भी प्रशिक्षण दिया जाता है। कक्षा आठ, नौ और दसवीं के छात्रों के लिए आपदा प्रबंधन की पढ़ाई को पाठ्यक्रम में शामिल कराया गया है, लेकिन इसे अभी भी इंजीनियरिंग, मेडिकल और कॉलेजों की पढ़ाई का हिस्सा नहीं बनाया जा सका है, जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है। यदि हम अग्निशमन उपकरणों की ही बात करें तो कितने लोग हैं जो इसका सही तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं। जापान जैसे देशों में आपदा प्रबंधन के बारे में केवल जानकारी ही नहीं दी जाती, इसे अमल में लाने के लिए बाकायदा ड्रिल प्रशिक्षण कराया जाता है ताकि यह लोगों की आदत में शुमार हो जाए। भारत में भी इसी तरह काम करना होगा। हमारे देश में अभी लोगों को यही नहीं पता है कि भूकंप आने पर सीढि़यों से भागने की कोशिश अथवा बालकनी में चहलकदमी की बजाय कमरे के किसी कोने में मेज आदि के नीचे छिपना चाहिए और अपने सिर की रक्षा करने की कोशिश करनी चाहिए। आपदा प्रबंधन के लिए मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य स्तर पर और जिलाधिकारी के नेतृत्व में जिले स्तर पर तैयारियां करने का विधान है, यह कार्य तहसील और गांव के स्तर पर भी होना चाहिए ताकि जरूरत के वक्त स्थानीय लोग आपस में समन्वय बना सकें और एक-दूसरे की मदद खुद कर सकें। आर्थिक तरक्की के द्वार खुलने के बाद निर्माण क्षेत्र तेजी पर है और ऊंचे-ऊंचे भवनों का निर्माण हो रहा है, लेकिन भूकंप सुरक्षा मानकों के लिहाज से इनमें तकरीबन 80-90 फीसदी भवन असुरक्षित हैं। 2005 में नया नेशनल बिल्डिंग कोड तो बना दिया गया, लेकिन इन पर अमल शायद ही कोई कर रहा है। इस बारे में सरकार को सख्त कदम उठाने होंगे, अन्यथा प्राकृतिक आपदा होने पर इस लापरवाही की बड़ी कीमत चुकानी होगी। हमारे यहां एक और बड़ी समस्या धार्मिक उत्सवों, आयोजनों व सार्वजनिक कार्यक्रमों के दौरान भगदड़ से होने वाली मौतों की बढ़ती संख्या का भी है। इसे रोकने के लिए दुरुस्त सुरक्षा व्यवस्था के साथ-साथ एक राष्ट्रीय चरित्र व संस्कार को विकसित करने की जरूरत है ताकि लोग अनुशासित होकर पंक्तिबद्ध अपनी बारी का इंतजार करें और धैर्य न खोते हुए ऐसी किसी स्थिति में भागदौड़ की प्रवृत्ति से बचें। हम जापान से सीख सकते हैं कि इतनी बड़ी तबाही के बावजूद लोग कतारों में खड़े होकर सहायता स्वरूप मिलने वाली चीजों को ले रहे हैं। जब तक हम व्यक्तिगत भावना से ऊपर नहीं उठेंगे और सामुदायिक व राष्ट्रीय चरित्र का विकास नहीं करेंगे, ऐसी घटनाओं को रोकना पूर्णतया संभव नहीं होगा। जहां तक हमारे परमाणु संयत्रों की सुरक्षा का सवाल है तो निश्चित ही हमारी तैयारी जापान से बेहतर है और हमारे यहां ऐसी कोई संभावना नहीं है। फिर भी परमाणु संयत्र वाली जगहों के 20-30 किलोमीटर इलाके में रह रहे नागरिकों को ऐसे हादसों से बचाव के लिए अभी तक कोई प्रशिक्षण अथवा जानकारी नहीं दी गई है कि किस तरह वे चेतावनी के संकेत और संकट को समझ कर अपना बचाव खुद कर सकें। उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस त्रासदी के वक्त अनेक लोगों की जानें सिर्फ इसलिए गई, क्योंकि उन्हें यही नहीं मालूम था कि उस समय उन्हें मुंह को रुमाल से ढंकना था। (लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान से संबद्ध हैं)


Friday, March 11, 2011

खतरे में जीव-जंतु


लेखक विलोपन के छठे दौर के खतरे से आगाह कर रहे हैं

पृथ्वी पर पिछले 54 करोड़ वर्षो के दौरान पांच बार जीव-जंतुओं का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। विनाश के प्रत्येक दौर में तीन-चौथाई या उससे अधिक जीव-जंतुओं की प्रजातियों का सफाया हो गया था। अब वैज्ञानिकों ने चेताया है कि मेंढकों, मछलियों और शेरों सहित अनेक जीव-जंतुओं की आबादी में तेजी से गिरावट को देखते हुए पृथ्वी पर जीवों के विनाश का छठा दौर शुरू हो सकता है। यदि जीव-जंतुओं का व्यापक विलोपन होता है तो 300 वर्षो के भीतर दुनिया के 75 प्रतिशत से अधिक जीवों का नामोनिशान मिट जाएगा। यह प्रलय एस्ट्रायड या क्षुद्रग्रह से नहीं आएगी, जिसकी वजह से करीब 6.5 करोड़ वर्ष पहले धरती से डायनासोर साम्राच्य का सफाया हो गया था। वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक नए अध्ययन के मुताबिक मनुष्य जिस तरह से जमीन का इस्तेमाल कर रहा है और जिस तरह से जलवायु में परिवर्तन हो रहे हैं, उससे पृथ्वी पर जीव-जंतुओं की बड़े पैमाने पर विलुप्ति का खतरा बहुत बढ़ गया है। बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीवाश्म-वैज्ञानिक टोनी बामोस्की के नेतृत्व में किए गए इस ताजा अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि यदि आज हम विलोपन की रफ्तार को थामने में नाकाम रहे तो दुनिया में तीन से लेकर 22 शताब्दियों के बीच छठा महाविलोपन हो सकता है। बामोस्की का कहना है कि आज हमने जो खोजा है, वह अच्छा भी है और बुरा भी। अच्छी बात यह है कि अभी इतना विलोपन नहीं हुआ है कि हम अभी से उम्मीद छोड़ दें, खराब बात यह है कि विलोपन की दर पर अंकुश नहीं लगा तो पृथ्वी को छठे बड़े विलोपन से बचाना मुश्किल हो जाएगा। बामोस्की के मुताबिक महाविलोपन का सबसे बड़ा कारण मनुष्य की गतिविधियां हैं। हम जीव-जंतुओं के कुदरती आवास को उजाड़ रहे हैं, पर्यावरण-संतुलन बिगाड़ रहे हैं और प्रजातियों को एक जगह से हटा कर दूसरी जगह ले जा रहे है ताकि बाहरी आक्रामक प्रजातियां स्थानीय प्रजातियों पर हावी हो जाएं। आज जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उसका कारण भी मनुष्य ही है। और फिर धरती पर आबादी का बोझ भी बढ़ रहा है, जिसके चलते संसाधनों पर भी दबाव पड़ रहा है। पांचवें विलोपन के दौरान डायनासोर और दूसरी प्रजातियां नष्ट हो गई थीं। बाकी सभी चार महाविलोपन डायनासोरों के लुप्त होने से पहले हो चुके थे। इन विलोपनों ने समुद्री जीवों को प्रभावित किया था। इस वक्त चल रहे विलोपन के दौर से कोई भी जीव-जंतु सुरक्षित नहीं है। खतरे में पड़े जीव-जंतुओं की सूची में गैंडे, हाथी, पांडा, ेल, डोल्फिन, शेर, समुद्री कछुए और ट्रि कंगारू आदि शामिल हैं। पेड़-पौधों और जीव जंतुओं की प्राय: हर श्रेणी में कोई न कोई खतरे में है। जिन प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है, उनकी संख्या 20 से लेकर 50 प्रतिशत के बीच आंकी गई है। यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के जीवाश्म-वैज्ञानिक डेविड जब्लोंस्की का कहना है कि इस अध्ययन में पहली बार वर्तमान विलोपन की तुलना पिछले जीवाश्म-रिकार्ड के साथ की गई है। रिसर्चरों ने प्रजातियों के आधुनिक रिकार्ड के मौजूदा आंकड़ों और जीवाश्म-रिकार्ड का गणितीय विश्लेषण करके विलोपन की वर्तमान दर की तुलना अतीत में हुए विलोपनों से की। यह मुश्किल और जटिल कार्य है। पिछले 3.5 अरब वर्षो के दौरान पृथ्वी पर चार अरब प्रजातियां विकसित हुई थीं और इनमें से 99 प्रतिशत अब लुप्त हो चुकी हैं, दूसरी तरफ चिंता की बात यह है कि हम अपने ग्रह पर अपनी गतिविधियों से धीरे-धीरे महाविलोपन जैसी परिस्थितियां उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी लोगों के समक्ष सुधरने का एक अच्छा मौका है। यदि लोग अपनी आदतें बदल दें और संरक्षण के कारगर उपाय करें तो खतरे में पड़ी प्रजातियों को संकट से उबारा जा सकता है। अभी पृथ्वी पर काफी जैव-विविधता बची हुई है। इसके संरक्षण से हम छठे विलोपन को टाल सकते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


Thursday, February 3, 2011

प्रदूषण की गंगा


हाल ही में प्रदूषित पानी को गंगा में बहाने से रोकने के क्रम मे उत्तर प्रदेश के प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कानपुर प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को पांच टेनरियां बंद करने का आदेश दिया। इसके अलावा बोर्ड ने राज्य प्रदूषण नियंत्रण से प्रदूषण फैलाने वाली नौ और टेनरियों को बंद करने की इजाजत मांगी है। उत्तर प्रदेश के राज्य प्रदूषण बोर्ड का कहना है कि कई नोटिस देने के बावजूद ये टेनरियां अपने यहां प्राइमरी ट्रीटमेंट प्लांट न लगाकर गंदा पानी सीधे गंगा में बहा रही हैं। उत्तर प्रदेश राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का कहना है कि अगर टेनरी मालिक आगे भी गंगा में प्रदूषण फैलाते रहे तो बंद होने वाली टेनरियों की संख्या में और इजाफा हो सकता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस तरह की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। गौरतलब है कि गंगा के किनारे लगभग 25 शहर, 65 कस्बे और हजारों गांव हैं। प्रतिदिन इस आबादी का लगभग 1.3 अरब लीटर अपशिष्ट गंगा में गिरता है। गंगा के आस-पास स्थित कारखाने भी गंगा को प्रदूषित कर रहे हैं। प्रतिदिन लगभग 26 करोड़ लीटर औद्योगिक अपशिष्ट गंगा में जहर घोल रहा है। पिछले दिनों जब वाराणसी में गंगा जल के नमूनों की जांच की गई तो प्रति 100 मिलीलीटर जल में हानिकारक जीवाणुओं की संख्या 50,000 पाई गई जो नहाने के पानी के लिए सरकार द्वारा जारी मानकों से 10,000 फीसदी ज्यादा है। अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 80 फीसदी स्वास्थ्यगत समस्याएं और एक-तिहाई मौतें जल-जनित बीमारियों के कारण ही होती हैं। ऋषिकेश से इलाहाबाद तक गंगा के आस-पास लगभग 146 औद्योगिक इकाइयां स्थित हैं। इनमें चीनी मिल, पेपर फैक्ट्री, फर्टिलाइजर फैक्ट्री, तेलशोधक कारखाने, फार्मा कंपनियां तथा चमड़ा उद्योग प्रमुख हैं। इन सभी औद्योगिक इकाइयों से निकलने वाला कचरा और रसायनयुक्त गंदा पानी गंगा में गिरकर गंगा के पारिस्थितिक तंत्र को भारी नुकसान पहुंचा रहा है। इन फैक्टि्रयों से निकलने वाले अपशिष्ट में मुख्य रूप से हाइड्रोक्लोरिक एसिड, मरकरी, भारी धातुएं, कीटनाशक तथा पॉलीक्लोरिनेटिड बाईफिनाइल जैसे खतरनाक रसायन होते हैं। इन रसायनों से जानवरों एवं मनुष्यों को बहुत सी गंभीर बीमारियां हो जाती हैं। चमड़ा उद्योग से निकलने वाले अपशिष्ट में विभिन्न कार्बनिक पदार्थ, क्रोमियम, सल्फाइड अमोनियम आदि अनेक हानिकारक तत्व होते हैं। पानी के साथ बहकर आने वाले रासायनिक उर्वरक एवं डीडीटी जैसे कीटनाशक भी गंगा को जहरीला बना रहे हैं। गौरतलब है कि जहरीला होने और कैंसर पैदा करने वाले प्रभावों को देखते हुए अमेरिका में डीडीटी का इस्तेमाल प्रतिबंधित है। गंगा किनारे होने वाले दाह-संस्कार, श्रद्धालुओं द्वारा विसर्जित फूल, पॉलीथीन और अन्य सामग्री तथा जले-अधजले शव भी गंगा को बीमार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि गंगा को स्वच्छ बनाने की योजना के अंतर्गत वर्ष 1985 से 2000 के बीच गंगा एक्शन प्लान एक और दो के क्रियान्वयन में लगभग 1000 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं, लेकिन गंगा अभी भी प्रदूषण की मार झेल रही है। गंगा को स्वच्छ रखने के लिए 3 मई, 2010 को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश तथा उत्तराखंड सरकार को गंगा में पर्याप्त पानी छोड़ने और गंगा के आस-पास पॉलीथीन को प्रतिबंधित करने का आदेश दिया था, लेकिन अब भी इन क्षेत्रों में पॉलीथीन पूरी तरह से प्रतिबंधित नहीं की जा सकी है। गंगा एक्शन प्लान में पर्याप्त सफलता न मिलने के बाद अब देश के सात भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों ने गंगा को स्वच्छ बनाने का बीड़ा उठाया है। व‌र्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड के अनुसार गंगा विश्व की उन दस नदियों में से एक है जिनके अस्तित्व पर खतरा मंडरा रहा है। हमें यह समझना होगा कि केवल सरकारी योजनाओं के भरोसे ही गंगा को स्वच्छ नहीं बनाया जा सकता। गंगा को प्रदूषण-मुक्त बनाने के लिए एक जन-जागरण अभियान की जरूरत है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)