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Wednesday, June 29, 2011

पहाड़ों पर ऊपर चढ़ते जा रहे पौधे


किसी दिन विश्व प्रसिद्ध वैली ऑफ फ्लावर से फूल गायब मिलें तो..। यकीन नहीं आता, लेकिन वैज्ञानिकों के 10 साल के शोध इसी ओर इशारा कर रहे हैं। पहले पहाड़ों से इंसान का ही पलायन हो रहा था, अब यह संक्रमण पेड़ पौधों में भी फैल गया है। फर्क सिर्फ इतना है कि आदमी पहाड़ छोड़ मैदानों की ओर भाग रहा है और वनस्पतियां ऊंचाई की ओर। मसलन चीड़ के पेड़ अमूमन 3700 मीटर तक की ऊंचाई पर होते हैं, अब ये 700 मीटर का सफर कर साढ़े चार हजार मीटर तक जा पहुंचे हैं। वन पीपल और धूप घास भी इसी राह पर हैं। फूलों की घाटी का भी पलायन ऊंचाई की ओर जारी है। कुदरत के इस बदलाव से वैज्ञानिक चिंतित हैं। वनस्पति जगत में मची उथल-पुथल को अस्तित्व बचाने की जुगत के रूप में देखा जा रहा है। दरअसल जो पेड़-पौधे कम तापमान पर फलने-फूलने के आदी हैं, वे अधिक ऊंचाई की ओर माइग्रेट हो गए और उनका स्थान गर्म जलवायु के पेड़ पौधे लेने लगे। फूलों की घाटी में 10 साल से वनस्पतियों के विस्थापन पर नजर रख रहे हेमवती नंदन बहुगुणा गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूगर्भ विज्ञान विभाग के विशेषज्ञ डॉ. एमपीएस बिष्ट बताते हैं कि घाटी की वनस्पतियों के अनुक्रम में तेजी से परिवर्तन आया है। नई वनस्पति झुंड के रूप में पनपने लगी है। तापमान में आया बदलाव पौधों के पलायन का बड़ा कारण है। कम ऊंचाई पर मिलने वाले वन पीपल, चीड़ की पाइनस वेल्सेयाना प्रजाति, एरीनिरीया जैसी वनस्पतियां 3700 से 4440 मीटर की ऊंचाई में पनप रही हैं, जबकि पहले ये 3700 मीटर की ऊंचाई तक ही पाई जाती थीं। घाटी में 3700 मीटर तक उगने वाली धूप घास जैसी वनस्पतियां पुराने स्नो कवर एरिया तक उगती हैं। शोध को साइंस जनरल ने स्थान दिया.

तेजी से प्रदूषित हो रहे हैं पांचों महासागर


लगातार बढ़ रहे जल प्रदूषण, बड़ी मात्रा में मछली पकड़ने और अन्य मानव जनित समस्याओं के कारण दुनिया के पांचों महासागरों की स्थिति अनुमान से भी अधिक तेजी से बिगड़ रही है। अगर हालात इसीतरह बिगड़ते रहे थे यकीन मानिये इन महासागरों का अंतकाल का चरण शुरू हो गया है। चूंकि महासागरों के अंदर जीवन विलुप्ति की ओर बढ़ता जा रहा है। वैज्ञानिकों ने एक नई रिपोर्ट में यह दावा किया है। वैज्ञानिकों के एक वरिष्ठ पैनल की रिपोर्ट के मुताबिक, कई कारण एक साथ मिलकर महासागरों की सेहत खराब कर रहे हैं। पैनल ने अपनी यह रिपोर्ट मंगलवार को संयुक्त राष्ट्र को सौंपी। रिपोर्ट में बताया गया है कि ग्लोबल वार्मिग और प्रदूषण बढ़ाने के कई कारक एक साथ मिलकर स्थिति को बहुत ज्यादा खतरनाक बना रहे हैं। इन कारकों में समुद्र से बड़ी मात्रा में मछली पकड़ने के अलावा कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ने से पानी की अम्लीयता बढ़ना, समुद्री जीवों के प्राकृतिक निवास का नष्ट होना और समुद्री बर्फ का पिघलना शामिल है। जल स्रोतों के पास उद्योगों की बढ़ती हुई संख्या के कारण पानी में खतरनाक रसायन घुल रहे हैं। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर में वैश्विक समुद्री कार्यक्रमों के निदेशक कार्ल लंुडिन का कहना है, ऐसा एक साथ नहीं हुआ है, बल्कि चीजें कई स्तर पर खराब हो रही हैं। इन्हीं के दल ने महासागर की स्थिति को लेकर यह रिपोर्ट तैयार की है। उन्होंने कहा कि हम इन परेशानियों के कारण कई समुद्री जीवों को हमेशा के लिए खो रहे हैं। उन्होंने हिंद महासागर में मौजूद एक हजार साल पुराने प्रवाल (यानी मूंगे की चट्टानें) नष्ट होने को अविश्वसनीय बताया। साथ ही कहा कि अगर हम ऐसे ही अपने समुद्री जीवों को खोते रहे तो महज एक पीढ़ी के भीतर ही प्रवालों की जाति पूरी तरह खत्म हो जाएगी। पहले ही महासागरों में फलने-फूलने वाले कई जीव-जंतु और पौधे विलुप्त हो चुके हैं। ऑस्ट्रेलिया में क्वींसलैंड यूनिवर्सिटी के एक वैज्ञानिक ओव हेग गुल्डबर्ग के अनुसार जिस रफ्तार से हिंद महासागर में प्रवाल खत्म हो रहे हैं आर्टिक महासागर की बर्फ की परत भी आशंका से कहीं अधिक तेजी से पिघल रही है।


वन पर्यटन से जुड़े निजी व्यापार पर लगेगा सेस


देश के किसी भी राज्य में वनभूमि पर अब पर्यटन सुविधाओं के विकास के नाम पर किसी भी प्रकार का नया निर्माण कार्य न होगा। यही नहीं, संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से पांच किलोमीटर के दायरे में आने वाले इलाकों में पर्यटन से जुड़ी निजी क्षेत्र की गतिविधियों पर सेस लगाने की तैयारी है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा संरक्षित क्षेत्रों में इको टूरिज्म के नए दिशा निर्देश तो यही कहती है। पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश की ओर से संरक्षित क्षेत्रों में इकोटूरिज्म से संबंधित गाइडलाइन सभी राज्यों को जारी की गई है। इसके अनुसार, राज्य सरकारें 31 दिसंबर तक अपने यहां इकोटूरिज्म रणनीति तैयार करेंगे। हर राज्य में मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में स्टेयरिंग कमेटी बनेगी, जो हर तीन माह में इको टूरिज्म की समीक्षा करेगी। गाइडलाइन में साफ कहा गया है कि संरक्षित क्षेत्रों में पहले ही बड़ी संख्या गेस्ट हाउस आदि हैं। इसलिए टूरिस्ट सुविधाओं के लिए कोई नया निर्माण न होगा। संरक्षित क्षेत्रों की सीमा से पांच किमी की परिधि में निजी क्षेत्र की जितनी भी पर्यटन संबंधी गतिविधियां चल रही हैं, उनसेकुल टर्न ओवर का पांच फीसदी हिस्सा लोकल कंजर्वेशन सेस के रूप में लिया जाएगा। संरक्षित क्षेत्रों में पर्यटकों से होने वाली आय को सरकार के खजाने की बजाए सुरक्षा, संरक्षण, आजीविका विकास से संबंधित गतिविधियों में खर्च करने की बात भी कही गई। अभी तक केरल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश में ही ऐसी व्यवस्था है। केंद्र के दिशा-निर्देशों में वन विभाग को काफी ताकत दी गई है। पर्यटन योजनाओं और वन्यजीव संरक्षण के बीच विवाद की स्थिति में वन विभाग का मत लागू किया जाएगा। संरक्षित क्षेत्रों में इकोटूरिज्म की योजनाएं बनाने की जिम्मेदारी चीफ वाइल्ड लाइफ वार्डन को दी गई है, जो राज्य सरकार से अनुमोदन लेंगे। मंत्रालय ने राज्यों से इस गाइडलाइन पर 30 जून तक सुझाव भी मांगे हैं। इस सिलसिले में मंगलवार को वन सचिव समेत वन विभाग के अन्य आला अफसर इस पर मंथन करेंगे।


2015 तक साफ होगी यमुना


यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने की तैयारी सरकार द्वारा फिर से शुरू की गई है। इस बार यह जिम्मा जल बोर्ड को मिला है। जल बोर्ड दावा कर रहा है कि यमुना को तीन-चार वर्षो में कम से कम नहाने लायक तो बना ही लिया जाएगा। बोर्ड के दावे के मुताबिक यमुना में प्रदूषण की वर्तमान मात्रा प्रति लीटर 40 मिलीग्राम बायलॉजिकल आक्सीजन डिमांड (बीओडी) से घटाकर 12 मिग्रा प्रति लीटर बीओडी तक लाया जाएगा। हालांकि राजधानी में 20 मिग्रा प्रति लीटर बीओडी को स्वीकार्य बताया गया है। इसके लिए राजधानी के सभी नालों को इंटरसेप्टर परियोजना के तहत एक-दूसरे से जोड़कर सीवर ट्रीटमेंट प्लांटों तक पहुंचाया जाएगा। ट्रीटमेंट प्लांट में शोधन के बाद ही इन्हें यमुना में छोड़ा जाएगा। केंद्र व राज्य सरकार की यमुना को प्रदूषण मुक्त करने की तमाम परियोजनाओं के बाद दिल्ली जलबोर्ड ने इस बाबत खम ठोंका है। बोर्ड के सीईओ रमेश नेगी के मुताबिक राजधानी में प्रतिदिन लगभग छह सौ एमजीडी (मिलियन गैलन डेली) अपशिष्ट जल निकलता है। इसमें से तीन सौ से 350 एमजीडी अवजल का विभिन्न सीवर ट्रीटमेंट प्लांटों में शोधन कर लिया जाता है। लगभग दो सौ एमजीडी अवजल विभिन्न नालों के माध्यम से सीधे यमुना तक पहुंच जाता है। नेगी के मुताबिक प्रस्तावित सीवर इंटरसेप्टर परियोजना के तहत इस दो सौ एमजीडी अवजल को यमुना में गिरने से पहले सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों (एसटीपी) तक पहुंचाया जाएगा। इसके लिए सीधे यमुना में गिरने वाले नालों को एक-दूसरे से जोड़कर ट्रीटमेंट प्लांटों तक पहुंचाया जाएगा। परियोजना को पूरा करने की जिम्मेदारी इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड को दी गई है। 1404 करोड़ रुपये की लागत से पूरी होने वाली यह परियोजना अगस्त के अंत तक शुरू हो जाएगी। कार्य छह समूहों में बांट कर किया जाएगा। वजीराबाद से लेकर ओखला बैराज के मध्य के नालों को जोड़ने का काम डेढ़ वर्ष से लेकर साढ़े तीन वर्ष के भीतर संपन्न कर लिया जाएगा। इस प्रकार 2015 तक यमुना में प्रदूषण की मात्रा को प्रति लीटर 12 मिग्रा बीओडी तक लाने की कोशिश की जाएगी। केंद्र व प्रदेश सरकार की कैबिनेट ने परियोजना की सहमति दे दी है।


Wednesday, June 15, 2011

बिजली परियोजनाओं से घट रहा है गंगा में जल प्रवाह


पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि उत्तराखंड की अलखनंदा और भागीरथी जल विद्युत परियोजनाओं के कारण गंगा नदी में जल प्रवाह घट रहा है। इस मामले में तत्काल ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार ने नदी की अविरल धारा बनाए रखने तथा 2020 तक नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त बनाने के मकसद से मंगलवार को विश्व बैंक के साथ करीब एक अरब डॉलर (4600 करोड़ रुपये) का कर्ज हासिल करने के लिए समझौता किया है। इस धनराशि से उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल को गंगा नदी के संरक्षण के लिए धनराशि मुहैया कराई जाएगी। जयराम रमेश ने मंगलवार को नई दिल्ली में विश्व बैंक के निदेशक (भारत) रॉबर्टो जागा के साथ इस संबंध में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस मौके पर रमेश ने कहा, गंगा नदी के संबंध में आइआइटी रुड़की के एक अध्ययन रिपोर्ट पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी है, जिसके मुताबिक, अलखनंदा और भागीरथी पनबिजली परियोजनाओं के कारण गंगा नदी के जल प्रवाह पर असर पड़ रहा है। अध्ययन रिपोर्ट से साबित होता है कि भागीरथी और अलकनंदा नदी के भराव क्षेत्र महत्वपूर्ण हैं। अगर इन दोनों नदियों में पानी नहीं होगा तो गंगा नदी में भी जल प्रवाह काफी कम हो जाएगा। गंगा में अविरल धारा बनाए रखने के लिए दोनों परियोजनाओं के तहत न्यूनतम जल प्रवाह निर्धारित करना होगा। हमने यह सिफारिश स्वीकार कर ली है और अब इस संबंध में कदम उठाए जाएंगे। रमेश ने विश्व बैंक के साथ हुए समझौते के विवरण देते हुए कहा, 2020 तक हमें गंगा को गंदे पानी और उद्योगों के प्रदूषण से मुक्त बनाना है। इसके लिए विश्व बैंक की मदद से पांच वर्ष की अवधि में राशि खर्च की जाएगी। राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण इस परियोजना का कार्यान्वयन करेगा। विश्व बैंक से मिलने वाले कर्ज की राशि को मिलाकर यह परियोजना कुल सात हजार करोड़ रुपए की है। उन्होंने कहा, उनके मंत्रालय ने गंगा नदी के तटीय क्षेत्रों में चल रही 60 इकाइयों को उनके द्वारा प्रदूषण फैलाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। इनमें से अधिकतर इकाइयां कन्नौज से वाराणसी के बीच के 500 किलोमीटर क्षेत्र में हैं। सरकार ने विश्व बैंक के साथ दो और समझौते किए हैं। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में जीवनयापन के सोत्रों को मजबूत करने के लिए 1.56 करोड़ डॉलर और जैव विविधता संरक्षण के लिए 81.4 लाख डॉलर का कर्ज मिलेगा।


दो फीसदी हिस्से में होता 70 फीसदी प्रदूषण


यमुना नदी तीन दशकों में नाले में तब्दील हो चुकी है। प्रदूषण ने यम की बहन समझी जाने वाली यमुना नदी का गला घोंटकर रख दिया है। यमनोत्री से छोटी सी धारा के रूप में प्रकट हुई यमुना इलाहाबाद के संगम तक 1375 किलोमीटर का सफर तय करती है। दिल्ली आने से पहले स्वच्छ और निर्मल जल को अपने में समेटने वाली यह नदी दिल्ली के बाद प्रदूषित हो जाती है। यमुना को कभी राजधानी के जीवन रेखा के रूप में देखा जाता था। लेकिन यमुना के प्रदूषण में दिल्ली की भागीदारी 70 फीसदी है। यह हम नहीं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कहता है। जिसके अनुसार दिल्ली में यमुना का 22 किलोमीटर भाग नदी का मात्र 2 फीसदी हिस्सा है। इस भाग में यह कुल प्रदूषण भार के 70 फीसदी हिस्से का योगदान करता है। अब यमुना सिर्फ और सिर्फ बारिश के मौसम में बहा करती है। शेष समय यह राजधानी के जहरीले रसायनों, गंदगी और प्रदूषित सामग्री की संवाहक बनकर रह गई है। यमुना में मुर्दो के अवशेष, कल कारखानों का जहरीला विष, अपशिष्ट, जलमल निकासी का गंदा पानी और हर साल लगभग तीन हजार प्रतिमाओं का विसर्जन इसमें किया जाता है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय का कहना है कि यमुना कार्य योजना सन् 1993 में आरंभ की गई थी। 2009 में इसकी सफाई का बजट 1356 करोड रुपये रखा था। हालात देखकर लगता है कि यह पैसा भी गंदे नाले में ही बह गया है। दो माह पहले इलाहाबाद के संगम से साधु संतों की यात्रा भी दिल्ली पहुंची। जिसमें लोगों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। इनकी मांग यमुना को राष्ट्रीय नदी घोषित करने, इसे प्रदूषण मुक्त रखने और यमुना बेसिन प्राधिकरण का गठन करने को लेकर थी। सरकार ने 2009 में कहा था कि यमुना एक्शन प्लान एक और दो के तहत 2800 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। किंतु ठोस तकनीक न होने से वांछित परिणाम सामने नहीं आ सके। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इन्वायरमेंट साइंसेज में प्रो. एस. मुखर्जी कहते हैं कि यमुना एक बीमार नदी का रूप ले चुकी है। जिसका निदान सर्वेक्षण और सफाई अभियान से संभव है। जो कई स्तर पर किया जाना जरूरी है।


Saturday, June 4, 2011

गंगा की अविरल धारा का सवाल


राष्ट्रीय नदी जीवनदायिनी गंगा को बचाने के लिए आखिरकार हमारी सरकार संजीदा हुई है।। आर्थिक मामलों की कैबिनेट कमेटी ने हाल ही में गंगा की सफाई के लिए सात हजार करोड़ रुपये की एक महत्वाकांक्षी परियोजना पर सर्वसम्मति से अपनी मुहर लगा दी है। तीव्र औद्योगीकरण, शहरीकरण और प्रदूषण से अपने अस्तित्व के लिए जूझ रही गंगा को बचाने के लिए अब तक की यह सबसे बड़ी परियोजना होगी। हालांकि गंगा को साफ करने की पिछली परियोजनाओं की कामयाबी और नाकामयाबियों से सबक लेते हुए इस परियोजना को बनाया गया है। इसके तहत पर्यावरणीय नियमों का कड़ाई से पालन करना, नगर निगम के गंदे पानी के नालों, औद्योगिक प्रदूषण, कचरे और नदी के आस-पास के इलाकों का बेहतर और कारगर प्रबंधन शामिल है। कुल मिलाकर इस परियोजना का मकसद गंगा नदी का संरक्षण करना और पर्यावरणीय सुरक्षा को व्यापक योजना व प्रबंधन द्वारा बिगड़ने से बचाना है। गंगा की सफाई में आने वाली कुल लागत में से केंद्र 5,100 करोड़ रुपये खर्च का वहन करेगा, वहीं जिन पांच राज्यों से गंगा निकलती है, वहां की सरकारें 1900 करोड़ रुपये का खर्च उठाएंगी। 5100 करोड़ रुपये की जो भारी भरकम राशि केंद्र सरकार को खर्च करना है, उसमें से 4,600 करोड़ रुपये उसे विश्व बैंक से हासिल होंगे। बहरहाल, आठ साल की समय सीमा में पूरी होने वाली इस महत्वाकांक्षी परियोजना में ऐसे कई प्रावधान किए गए हैं कि यदि इन पर ईमानदारी से अमल किया गया तो गंगा नदी की पूरी तस्वीर बदल जाएगी। इस योजना के तहत गंगा सफाई अभियान को आगे बढ़ाने के लिए विशेष संस्थानों की स्थापना की जाएगी। इसके साथ ही स्थानीय संस्थाओं को भी मजबूती प्रदान की जाएगी, ताकि वे गंगा की सफाई में लंबे समय तक अपनी भूमिका निभा सकें। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की जिम्मेदारी नदियों में प्रदूषण रोकना है, उसे पहले से और भी ज्यादा मजबूत बनाया जाएगा। इसमें भी सबसे बड़ी बात कि जो शहर गंगा के किनारे बसे हुए हैं, उन शहरों में निकासी व्यवस्था सुधारी जाएगी। औद्योगिक प्रदूषण को दूर करने के लिए विशेष नीति बनाई जाएगी। कहने को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने कल-करखानों से निकलने वाले अपशिष्ट के लिए कड़े कायदे-कानून बना रखे हैं, लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद आज भी गंगा में इनका प्रवाह रुक नहीं पा रहा है। अकेले कानपुर में रोजाना 400 चमड़ा शोधक फैक्टि्रयों का तीन करोड़ लीटर अपशिष्ट गंगा में जाकर मिलता है। इसमें बड़े पैमाने पर क्रोमियम और जहरीले रासायनिक पदार्थ होते हैं। कमोबेश यही हाल बनारस का है। जहां हर दिन तकरीबन 19 करोड़ लीटर गंदा पानी बगैर शुद्धिकरण के खुली नालियों के जरिए गंगा में मिलता है। हालांकि देश में गंगा सफाई योजना को 25 साल से ज्यादा हो गए हैं और इसकी सफाई पर अभी तक अरबों रुपये भी बहाए जा चुके हैं, लेकिन रिहाइशी कॉलोनियों और कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी को इसमें मिलने से रोकना मुमकिन नहीं हो पाया है। औद्योगिक इकाइयां जहां मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के प्रति बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं होतीं, वहीं राज्य सरकारें और केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी कल-करखानों की मनमानियों के प्रति अपनी आंखें मूंदे रहती हैं। और तो और, न्यायपालिका के कठोर रुख के बाद भी राज्य सरकारें दोषी लोगों पर कोई कार्रवाई नहीं करतीं। गंगा को साफ करने के लिए साल 1986 में शुरू हुई कार्ययोजना उसी वक्त परवान चढ़ गई होती, यदि इस पर गंभीरता से अमल किया गया होता। पांच सौ करोड़ रुपये की लागत से शुरू हुई इस योजना में बीते 15 सालों के दौरान तकरीबन नौ सौ करोड़ रुपये खर्च हो गए, लेकिन गंगा साफ होने की बजाय और भी प्रदूषित होती जा रही है। भ्रष्टाचार, प्रशासनिक उदासीनता और कर्मकांड मुल्क की सबसे पवित्र और बड़ी नदी को स्वच्छ बनाने की दिशा में रुकावट बने हुए हैं। गंगा में जहरीला पानी गिराने वाले कारखानों के खिलाफ कठोर कदम नहीं उठाए जाने का ही नतीजा है कि आज जीवनदायिनी गंगा का पानी कहीं-कहीं इतना जहरीला हो गया है कि इस जहरीले पानी से न सिर्फ पशु-पक्षियों के लिए संकट पैदा हो गया है, बल्कि आसपास के इलाकों का भूजल भी प्रदूषित होने से बड़े पैमाने पर लोग असाध्य बीमारियों के शिकार हो रहे हैं। सदियों से हमारे देश के निवासी यह मानते आए हैं कि गंगा नदी का पानी कभी खराब नहीं होता। गंदगी मिलने पर भी यह खुद इसे शुद्ध कर लेती है। वैज्ञानिक तथ्यों की कसौटी पर यह धारणा एक हद तक सही भी है, लेकिन अब गंगा में चौतरफा से इतनी गंदगी आकर मिल रही है कि उसे खुद साफ कर पाना उसकी क्षमता से कहीं बाहर की बात हो गई है। गंगा में प्रदूषण का आलम यह है कि बरसात के मौसम में कानपुर और बनारस जैसे शहरों में गंगा नदी के बीचों-बीच बालू के बड़े-बड़े टीले उभर आते हैं। जिस बनारस में कभी गंगा का जलस्तर 197 फीट हुआ करता था, वहां लगातार प्रदूषण के चलते आज कई जगहों पर जलस्तर महज 33 फुट के करीब ही रह गया है। गंगा की धारा को निर्मल व अविरल बनाने के लिए आज गाद एक बड़ी समस्या बनी हुई है। प्रदूषण के अलावा गंगा नदी को इस पर बने हुए बांधों ने भी खूब नुकसान पहुंचाया है। अंग्रेजी हुकूमत ने साल 1916 में महामना मदनमोहन मालवीय के नेतृत्व में गंगाभक्तों के साथ समझौता किया था कि गंगा का प्रवाह कभी नहीं रोका जाएगा। आजाद हिंदुस्तान के संविधान की धारा 363 की भावना भी कमोबेश यही कहती है। बावजूद इसके टिहरी बांध से गंगा का प्रवाह रोका गया। अकेले टिहरी बांध ने ही गंगा को काफी नुकसान पहुंचाया है। अब उत्तराखंड के मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल निशंक राज्य की तरक्की के लिए आने वाले समय में गंगा पर और भी बांध बनाना चाहते हैं। वे राज्य की हिमालयी नदियों से 10 हजार मेगावाट बिजली पैदा करना चाहते हैं। हालांकि तमाम बड़े-बड़े दावों के साथ बनाया गया टिहरी बांध आज भी अपने दावे के मुताबिक एक चौथाई बिजली तक नहीं बना पा रहा है। इसके विपरीत टिहरी बांध की वजह से गंगा का प्रवाह जरूर गड़बड़ा गया। असमंजस यह है कि बांध से लगे इलाके के 100 से भी ज्यादा गांवों में जहां पहले इफरात में पानी होता था, आज वह जल संकट से जूझ रहे हैं। किसान खेती को छोड़कर उसी दिल्ली की तरफ पलायन कर रहे हैं, जिसकी सुविधा के लिए यह बांध बनाया गया था। बहरहाल, गंगा नदी के संरक्षण की तमाम चुनौतियों के बावजूद उम्मीदें अब भी बाकी हैं। हर 10 में से चार भारतीय की प्यास बुझाने वाली गंगा को अब भी बचाया जा सकता है, लेकिन इसे बचाने के लिए सरकारी कोशिशों के अलावा व्यक्तिगत प्रयास भी जरूरी है। गंगा की सफाई के लिए भारी भरकम रकम खर्च करने से ज्यादा जरूरी है, हमारा जागरूक होना। जब तक हम जागरूक नहीं होंगे, तब तक गंगा स्वच्छ नहीं होगी। गंगा से हमने हमेशा लिया ही है, उसे दिया कुछ नहीं। गंगा से लेते वक्त हम यह भूल गए कि जिस दिन उसने देना बंद कर दिया या वह देने लायक नहीं रही, उस दिन हमारा और हमारी आने वाली पीढ़ी का क्या हश्र होगा।