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Sunday, January 9, 2011

पानी नहीं होगा तो क्या होगा

क्या आपने कभी सोचा है कि धरती पर से पानी खत्म हो गया तो क्या होगा। लेकिन कुछ ही सालों बाद ऐसा हो जाए तो ताज्जुब नहीं होना चाहिए। भूगर्भीय जल का स्तर तेजी से कम हो रहा है। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। यही सही समय है कि पानी को लेकर कुछ तो चेतें।
क्या आपने कभी सोचा है कि अगर दुनिया में पानी खत्म हो गया तो क्या होगा। कैसा होगा तब हमारा जीवन। आमतौर पर ऐसे सवालों को हम और आप कंधे उचकाकर अनसुना कर देते हैं और ये मान लेते हैं कि ऐसा कभी नहीं होगा। काश हम बुनियादी समस्याओं की आंखों में आंखें डालकर गंभीरता से उसे देख पाएं तो तर्को, तथ्यों और हकीकत के धरातल पर महसूस होने लगेगा वाकई हम खतरनाक हालात की ओर बढ़ रहे हैं।
पानी की कमी की बात करते ही एक बात हमेशा सामने आती है कि दुनिया में कहीं भी पानी की कमी नहीं है। दुनिया के दो तिहाई हिस्से में तो पानी ही पानी भरा है तो भला कमी कैसे होगी। यहां ये बताना जरूरी होगा कि मानवीय जीवन जिस पानी से चलता है उसकी मात्रा पूरी दुनिया में पांच से दस फीसदी से ज्यादा नहीं है। नदियां सूख रही हैं। ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। झीलें और तालाब लुप्त हो चुके हैं। कुएं, कुंड और बावडियों का रखरखाव नहीं होता। भूगर्भीय जल का स्तर तेजी से कम होता जा रहा है। हालत सचमुच चिंताजनक है-आखिर किस ओर बढ़ रहे हैं हम। पूरी दुनिया को नापने वाला नासा के सेटेलाइट के आंकड़ें कहते हैं कि अब भी चेता और पानी को बचा लो...अन्यथा पूरी धरती बंजर हो जाएगी। लेकिन दुनिया से पहले अपनी बात करते हैं यानि अपने देश की। जिसके बारे में विश्व बैंक की रिपोर्ट का कहना है कि अगले कुछ सालों यानि करीब-करीब दो दशकों के बाद भारत में पानी को लेकर त्राहि-त्राहि मचने वाली है। सब कुछ होगा लेकिन हलक के नीचे दो घूंट पानी के उतारना ही मुश्किल हो जाएगा।
भाई हजारों साल पहले देश में जितना पानी था वो तो बढ़ा नहीं, स्रोत बढ़े नहीं लेकिन जनसंख्या कई गुना बढ़ गई। मांग उससे ज्यादा बढ़ गई। पानी के स्रोत भी अक्षय नहीं हैं, लिहाजा उन्हें भी एक दिन खत्म होना है। विश्व बैंक की रिपोर्ट को लेकर बहुत से नाक-भौं सिकोड़ सकते हैं, उसे कामर्शियल दबावों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों की साजिश से जोडकर देख सकते हैं। उन्हें लग सकता है कि अपनी इस रिपोर्ट के जरिए हो सकता है कि यूरोपीय देशों का पैरवीकार माना जाने वाला विश्व बैंक कोई नई गोटियां बिठाना चाहता हो। लेकिन इस रिपोर्ट से अपने देश के तमाम विशेषज्ञ इत्तफाक रखते हैं। पर्यावरणविज्ञानी चिल्ला-चिल्ला कर कहते रहे हैं कि पानी को बचाओ।
ये बात सही है कि जैयरे और कनाडा के बाद दुनिया में सबसे ज्यादा पानी भारत में है। अभी भी समय है कि हम चेतें और अपने पानी के स्रोतों को अक्षय ही बनाए रखें। एक सदी पहले हम देशी तरीके से पानी का ज्यादा बेहतर संरक्षण करते थे। लेकिन नई जीवनशैली के नाम पर हम उन सब बातों को भूल गये। हम भूल गये कि कुछ ही दशक पहले तक हमारी नदियों में कल-कल करके शुद्ध जल बहता था। अब ऐसा नहीं रहा। तथाकथित विकास की दौड़ में शुद्ध पानी और इसके स्रोत प्रदूषित होते चले गये। अनियोजित और नासमझी से भरे विकास ने नदियों को प्रदूषित और विषाक्त कर दिया। बेशक आजादी के बाद जल संरचना तैयार करने पर ध्यान तो दिया गया लेकिन कुछ ही समय तक जबकि ये एक सतत प्रक्रिया थी, जो चलती रहनी चाहिए थी। ये तत्कालीन विकसित जल योजनाएं ही थी, जिसके चलते हरित क्रांति और देश के खेत हरी-भरी फसलों से लहलहाने लगे। दूध की नदियां बह निकलीं। गरीबी कम हुई। लेकिन समय के साथ जिस तरह व्यापक तौर पर जल संरचना विकसित करने के लिए बड़ी और छोटी परियोजनाओं पर ध्यान देना था, वो नहीं हो सका। एशिया के 27 बड़े शहरों में, जिनकी आबादी 10 लाख या इससे ऊपर है, में चेन्नई और दिल्ली की जल उपलब्धता की स्थिति सबसे खराब है। मुंबई इस मामले में दूसरे नंबर पर है। जबकि कोलकाता चैथे नंबर पर। दिल्ली में तो पानी बेचने के लिए माफिया की समानांतर व्यवस्था ही सक्रिय हो चुकी है। हालत ये है कि पानी का कारोबार करने वाले इन लोगों ने कई इलाको में अपनी पाइप लाइनें तक बिछा रखी हैं। इनके टैंकर पैसों के बदले पानी बेचते हैं।
भारत में उपलब्ध पानी में 85 फीसदी कृषि क्षेत्र, 10 फीसदी उद्योगों और पांच फीसदी ही घरेलू इस्तेमाल में लाया जाता है। पानी का इस्तेमाल हाईजीन, सेनिटेशन, खाद्य और औद्योगिक जरूरतों में भी खासा होता है। सबसे दुखद पक्ष ये है कि पिछले कुछ बरसों में सार्वजनिक पेयजल आपूर्ति व्यवस्था की स्थिति खस्ता हो चुकी है। नतीजतन गांवों से लेकर शहरों तक प्रचुर मात्रा में भूगर्भीय जल का दोहन किया जा रहा है। सिंचाई का 70 फीसदी और घरेलू जल आपूर्ति का 80 फीसदी पानी ग्राउंडवाटर के जरिए आता है। इसी के चलते जल का स्तर भी तेजी से घट रहा है। नासा सेटेलाइट से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण करने के बाद अमेरिकी वैज्ञानिको ने आगाह किया है कि उत्तर भारत में भूजल स्तर खतरनाक स्थिति तक नीचे पहुंच चुका है। पिछले एक दशक में ये हर साल एक फुट की दर से कम हुआ है।
हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और नई दिल्ली में 2002 से 2008 के बीच 28 क्यूबिक माइल्स पानी नदारद हो गया। इतने पानी से दुनिया की सबसे बड़ी झील को तीन बार भरा जा सकता है। पंजाब का अस्सी फीसदी इलाका डार्क जोन या ग्रे जोन में बदल चुका है। यानि जमीन के नीचे का पानी या तो खत्म हो चुका है या खत्म होने जा रहा है। तीन नदियां विभाजन के बाद पाकिस्तान में चली गईं। सतलज और व्यास यहां बहती है लेकिन इनमें भी पानी धीरे धीरे कम होता जा रहा है। इनको बड़ा स्वरूप देने वाली जो धाराएं पंजाब में थी, वो खत्म हो चुकी हैं। शिवालिक की पहाडियों से निकलने वाली जयंती, बुदकी, सिसुआं नदी पूरी तरह से सूख चुकी हैं। ये उस पंजाब की हालत है, जहां जगह-जगह पानी था। लेकिन पंजाब में कितने बड़े स्तर पर जमीन से पानी खींचा जा रहा है, इसका अंदाज इससे लगाया जा सकता है कि वर्ष 1986 में वहां ट्यूबवैलों की संख्या कोई 55 हजार थी। जो अब पचीस लाख के ऊपर पहुंच चुकी है। अब तो ये पंप भी जवाब देने लगे हैं। एक तरह से कहें कि पिछले हजारों सालों से जो पानी धरती के अंदर जमा था, उसको हमने 35-40 सालों में अंदर से निकाल बाहर कर दिया है। पंजाब में 12 हजार गांव हैं, जिसमें 11,858 गांवों में पानी की समस्या है।
पानी को लेकर टकराव

पानी की कमी को लेकर टकराव तो अभी से पैदा हो गया है। कई राज्यों में दशको से विवाद जारी है। मसलन कावेरी के पानी को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में टकराव, गोदावरी के जल को लेकर महाराष्ट्र और कर्नाटक में तनातनी और नर्मदा जल पर गुजरात और मध्यप्रदेश में टकराव की स्थिति। ये टकराव कभी राज्यों के बीच गुस्सा पैदा करते रहे हैं तो कभी राजनीतिक विद्वेष का कारण बनते रहे हैं। दरअसल भारत का नब्बे फीसदी हिस्सा नदियों के जल पर निर्भर करता है, जो विभिन्न राज्यों के बीच बहती हैं।
हमारे देश में अब तक स्पष्ट नहीं हो सका है कि नदी का कितने जल पर किसका हक है। दूसरे देशों में जहां पानी को लेकर दिक्कतें हैं, वहां जल अधिकारों को साफतौर पर परिभाषित किया गया है। इनमें चिली, मैक्सिको, आस्ट्रेलिया और दक्षिण अफ्रीका जैसे देश शामिल हैं। पाकिस्तान और चीन भी पानी के अधिकारों को लेकर सिस्टम बनाने में लगे हैं। हालांकि अंतरराष्ट्रीय फ्रंट पर भारत और पाकिस्तान के बीच हालात एकदम अलग तरह के हैं। दोनों देशों के बीच इंडस वैली परियोजना में पानी के अधिकार स्पष्ट तौर पर तय हैं। इसके लिए दोनों देशों के बीच एक संधि है।
नये इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत

मौसम में बदलाव से भारत में पानी की समस्या और विकराल होगी। मानसून के प्रभावित होने और ग्लेशियर्स के पिघलने से भारत को स्थिति से निपटने के बारे में सोचना होगा। भारत में दोनों ही स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। कुछ इलाको में बाढ़ आ जाती है तो कुछ इलाके सूखे का शिकार हो जाते हैं। भारत के कृषि सेक्टर को मानसून के बजाये दूसरे विकल्प तलाशने अगर जरूरी हो चले हैं तो पानी के उचित संरक्षण की भी। भारत के बांध प्रति व्यक्ति करीब 200 क्यूबिक मीटर पानी स्टोर करते हैं, जो अन्य देशों चीन, मैक्सिको और दक्षिण अफ्रीका प्रति व्यक्ति 1000 मीटर से खासा कम है। नये इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत खासतौर पर उन क्षेत्रों में है, जहां पानी की बहुलता है, जहां बरसात की बहुलता को भगवान के कोप का कारण मानते रहे हैं। मसलन पूर्वोत्तर राज्यों में, जहां साल भर खासी बारिश होती है। बेहतर जल संरचना से मिलने वाला धन यहां की तस्वीर बदल सकता है। इन इलाको में हाइड्रोपॉवर प्रोजेक्ट्स की काफी संभावनाएं हैं। विकसित देशों की बिजली की अस्सी फीसदी जरूरतें अब भी हाइड्रोपॉवर के जरिए पूरी होती हैं। छोटे स्तर पर सामुदायिक जल एकत्रीकरण और वाटर हार्वेस्टिंग प्रोजेक्ट्स भी भविष्य में काम की चीज साबित हो सकते हैं।

गंगा में गिरने वाले जहरीले पानी से खतरा

गंगा में गिरने वाले जहरीले पानी से जल-जीवों व मानव दोनों को खतरा पैदा हो चुका है। जहां जल-जीव मर रहे हैं, वहीं इस पानी से इंसानों की मौतें भी हो रही है। लोग पीलिया, दमा व खुजली जैसे रोगों से पीड़ित हैं। गंगा में प्रदूषण को लेकर 1999 में केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के सिविल रिट पिटीशन नंबर 3727/1985 (एमसी मेहता बनाम केंद्र सरकार एवं अन्य) में इंटर लोकुटरी प्रार्थना पत्र पर संबंधित राज्य सरकारों से गंगा एक्शन प्लान के बारे में जवाब आया। इस पर 28 मार्च, 2001 को सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि गंगा में प्रदूषण को रोकने के वाटर ट्रीटमेंट प्लांट लगाए जाएं।
गंदगी के स्रोतों को रोका जाए, जिसमें लाशों का बहाना व औद्योगिक कचरा सीधे ही गंगा में डालना शामिल था। बोर्ड ने अपने प्रार्थना पत्र में कहा था कि गोमुख से बंगाल की खाड़ी तक 2,510 किलोमीटर में बहने वाली गंगा नदी में इसके किनारे बसे 12 बड़े शहरों सहित उत्तरप्रदेश (अब उत्तराखंड भी), बिहार व पश्चिम बंगाल की नगरपालिकाओं, उद्योगों तथा अन्य लोकल बॉडीज द्वारा सारा कचरा सीधे गंगा में डालना ही गंगा प्रदूषण का मुख्य कारण है। इसे दूर करने के लिए कोर्ट ने आदेश दिया।
अब तक 1500 करोड़ रुपया गंगा एक्शन प्लान पर खर्च होने के बाद भी गंगा में प्रदूषण कम नहीं हो रहा, बल्कि बढ़ा ही है। आज हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि 100 करोड़ लीटर गंदापानी रोजाना गंगा में बह रहा है, जिसमें हरिद्वार व बनारस जैसे धार्मिक स्थानों के कचरे के अलावा अकेले गाजियाबाद जिले की सिंभावली शराब मिल का मिथेन मिला हुआ पानी व कानपुर के चमड़े की 15,000 (टेनेरी) इकाइयां गंगा में प्रदूषण का प्रमुख कारण हैं।
उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार में पटना की औद्योगिक रासायनिक गंदगी व सिमरिया में मुंडन करवाने वालों का भी गंगा को गंदा करने में भारी सहयोग है। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने भी 5 मई, 1998 को गंगा की सफाई के लिए एक हाई पावर्ड कमेटी का गठन करने का आदेश दिया था, जो बनी भी, लेकिन कुछ खास काम नहीं कर पाई। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार गंगा में पीने का जो जल है, उसमें कोलीफार्म की मात्रा 50 से कम नहाने योग्य जल में इसकी मात्रा 300 से कम, और खेती में प्रयोग होने वाले जल में 5,000 से कम होना चाहिए। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इस कोलीफार्म को कम करने के आदेश राज्य सरकारों को दिए, लेकिन आश्चर्य है कि आज गंगाजल में कोलीफार्म व अन्य का स्तर चिंता का विषय है।
गंगा नदी के किनारे करीब 30 करोड़ लोग बसे हुए हैं, जिसमें 1.8 करोड़ उत्तराखंड में और 17 करोड़ अकेले उत्तर प्रदेश में बसे हैं। और कुल गंगा की गंदगी का 60 प्रतिशत भाग इन्हीं दो राज्यों के हिस्से में है। जिसमें हरिद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, विंध्याचल, इलाहाबाद, बनारस और सिमिरिया मुख्य व बड़े हैं, जहां से तीर्थ यात्रियों की गंद इतनी होती है कि इन धार्मिक स्थानों की कुलगंद का 40 प्रतिशत होती है। इसके अलावा गाजियाबाद से सिंभावली शराब मिल से एक नहर के बराबर मिथेन मिला जहरीला पानी निकलता है, जो वहीं 30 किलोमीटर दूर पूठ गांव में गिरता है।
कानपुर में कम से कम 5,000 ट्रक लोड क्रोम निकलता है, जो जहरीला होता है। बनारस में बनारसी साड़ियों की प्रिंटिंग का रसायन भरा पानी भी कम जहरीला नहीं होता। इसके अलावा मिर्जापुर में कालीन बनाने का काम होता है और वहां लगभग 50,000 लीटर केमिकल का पानी रोज निकलता है।
गाजियाबाद जिले में जिला मुख्यालय से 50 किलोमीटर दूर गढ़मुक्तेश्वर क्षेत्र में सिंभावली कस्बा है, जहां उद्योगपति सरदार गुरमीत सिंह मान की शुगर व डिस्टिलरी मिलें हैं। सिंभावली शुगर मिल में जो शराब के प्लांट लगे हैं, उनसे जो जहरीला व गंदा पानी निकलता है, उसे गंगा में डाला जाता है, जिसकी प्रतिदिन की निकासी गंगा की एक नहर के बराबर है। कंपनी रम व व्हिस्की भी बनाती है। कंपनी के अधिकारियों ने कुछ ग्राम सभाओं के अध्यक्षों व यूपी पोल्यूशन कंट्रोल बोर्ड के अधिकारियों को लालच देकर शराब बनाने की प्रक्रिया से निकलने वाले पानी को गंगा में डालना आरंभ कर दिया। इसके लिए कंपनी ने एक बड़ा नाला बनवाया जो बक्सर, जमालपुर, निचोड़ी, सियाना, लोंगा, सिहेल, बहादुरगढ़, आलमपुर, पसवाड़ा, नवादा आदि गांवों के पास से होते हुए अंत में पूठ गांव के पास गंगा नदी में गिरता है।
इस पानी में शराब जैसी दुर्गंध आती है। जिसका कारण बताया गया कि इस पानी में मिथेन नामक जहर मिला होता है। कंपनी ने मिल के अंदर एक आरओ प्लांट भी लगाया हुआ है, जिसके साफ करने के बाद जो पानी निकलता है, उसे नाले में बहाकर गंगा में डाला जा रहा है। आरओ प्लांट से मिथेन नाम के जहरीले तत्व की मात्रा कम हो जाती है और जो मिथेन वहां निकलता है, उससे 20 हजार टन तक सालाना बायो कंपोस्ट तैयार की जाती है।
सिंभावली शुगर मिल में लगी डिस्टिलरी में इथेनलभी तैयार किया जाता है और वह इतनी बड़ी मात्रा में तैयार होता है कि देश की बड़ी कंपनियां उसे खरीदती हैं। ऑक्सीजन न होने से या कम होने से वहां जल जीवों का जिंदा रहना नामुमकिन-सा हो गया है। इसके अलावा सियाना में एक मिल्क प्लांट का रसायन भी गंगा में डाला जाता है, जो पानी की ऑक्सीजन को कम करता है। 2005 में वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फंड की संस्तुति पर गंगा नदी में 165 किलोमीटर के हिस्से में रामसर साइटकी घोषणा की थी, जिसमें राष्ट्रीय जल जीव डोलफिन से लेकर सभी प्रकार के जल जीवों की रक्षा के लिए सुरक्षा के व्यापक प्रबंध किए गये थे और उस क्षेत्र में इन जल जीवों को किसी भी प्रकार से मारने पर वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन एक्ट 1972 के अंतर्गत कार्रवाई तक करने की संस्तुति की गई थी। उस समय यहां 126 डोलफिन थीं, जो अब मात्र 29 ही रह गई हैं।
जहां यह जहरीला और गंदा पानी गंगा में पड़ रहा है, वहां हालत यह है कि मछलियां, कछुए व चिड़ियां जिंदा नहीं रह पाते। रामसर साइट को खतरा पैदा हो चुका है। उसके कम से कम पांच किलोमीटर के दायरे में गंगाजल दूषित हो चुका है। और इस क्षेत्र में जल जीव सुरक्षित नहीं हैं। 30 किलोमीटर लंबे इस नाले में गंदगी का असर यह है कि उसमें किसी भी प्रकार का जलजीव नहीं है। यहां तक कि इस पानी को पीने से लोगों की भैंसे मर चुकी हैं और पांच बच्चे भी इस पानी के संपर्क में आने पर अपनी जान गंवा चुके हैं। पीलिया, दानेदार खुजली होना तो यहां के लोगों के लिए आम बात है। असर जमीन के पानी तक में है। हैंडपंप व ट्यूबवेल तक से भी गंदा व दूषित पानी ही निकलता है।


नदी कटान से त्रस्त गांव

आपने कभी किसी व्यक्ति को अपने आवास की नींव को स्वयं उजाड़ते देखा है?
यह दर्दनाक दृश्य पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहराईच जिले के उन गांवों में बेहद आम हो चुका है जहां नदी का कटान तेजी से हो रहा है। जिस परिवार का आवास कटान की चपेट में आ रहा होता है वह स्वयं मजबूरी में अपने आवास को तोड़ता है ताकि कम से कम इंट-पत्थर ले जाकर कहीं स्थाई आवास बना सके।
यहां नदी के कटान से अनेक परिवार बेघर हो चुके हैं और तटबंध पर शरण लिए हुए हैं। खेती की जमीन उजड़ गई, घर भी न बचा तो जीवन कैसे बिताएं। बच्चे कहते हैं कि हमें यहां नहीं रहना, घर जाना है, तो मां की आंखों में आंसू आ जाते हैं। घर बचा ही नहीं तो किस घर में जाएं। यह दर्दनाक कहानी केवल बहराईच की ही नहीं, लखीमपुर खीरी जैसे नदी कटान से प्रभावित अन्य जिलों की भी है।
कहारनपुरवा, गोलगंज पंचायत, फखरपुर ब्लाक के लोगों ने बताया कि 75 प्रतिशत कृषि भूमि का कटान हुआ है पर क्षतिपूर्ति कुछ भी नहीं हुई है। इस वर्ष की बाढ़ में लगभग पूरी फसल नष्ट हो गई पर क्षतिपूर्ति किसी भी किसान को नहीं मिली। पिछले वर्ष भी खेती की बहुत बर्बादी होने पर कोई क्षतिपूर्ति नहीं मिली थी। दो वर्ष पहले मामूली राशि का सहायता चेक मिला था। कुछ वर्ष पहले आवास नष्ट होने पर 800 रुपए का चेक मिला था। यहां अपने-अपने पुरवे से आए गोलगंज पंचायत के अन्य किसानों की भी ऐसी ही स्थिति है। इस समय कहारनपुरवा के लोगों के पास बहुत कम अनाज है। वे भूख, कुपोषण, गर्म कपड़ों के अभाव, कर्ज व शीत लहर से त्रस्त हैं। सिलौटा गांव, फखरपुर ब्लाक के लोगों ने बताया कि उनका गांव कटान से बहुत बुरी तरह तबाह हुआ है व लोगों के घर व कृषि भूमि कटान से नष्ट हो गए हैं। अब वे तटबंध पर बहुत अभाव की स्थिति में रह रहे हैं। भूख, कुपोषण, अभाव व शीत लहर से त्रस्त हैं। घाघरा नदी ने हाल में कुछ मार्ग बदल कर उनकी पहले वाली भूमि को छोड़ा है। यहां के लोगों को उम्मीद है कि वे फिर इस पर खेती कर सकेंगें। इसलिए वे चाहते हैं कि इस जमीन की पैमाइश कर दी जाए। किसान अपनी जमीन के नजदीक बने रहना चाहते हैं। हालांकि प्रशासन द्वारा ऊंचे आश्रय स्थलों पर बनाए गए हैडपंप व शौचालय अच्छा प्रयास है, लेकिन स्थानीय लोगों का दर्द है कि भूमि कटान का कोई मुआवजा उन्हें अभी तक नहीं मिला है।
अटोडर पंचायत, फखरपुर ब्लाक के लोगों की कृषि भूमि व आवास बाढ़ तथा कटाव में बुरी तरह नष्ट हो गए. लोगों ने बहुत अभाव की स्थिति में तटबंधों पर शरण ली। अपने दुख-दर्द, भूख, अभाव की स्थिति बताते हुए महिलाओं की आंखों में आंसू आ गए। अब प्रशासन उनसे तटबंध से भी हटने को कहता है, ऐसे में वे कहां जाएंगे। महिलाओं के लिए शौचालय, स्नानघर आदि की कोई सुविधा नहीं है जिससे उन्हें बहुत कठिनाई होती है। भूमि कटान व फसल की क्षति का कोई मुआवजा अभी तक नहीं मिला है, पर आवास क्षति का कुछ मुआवजा मिला है। यहां व सिलौटा तथा गोलगंज में लोगों ने बताया कि कुछ स्वयंसेवी संगठनों से उन्हें जरूर अच्छी सहायता मिली है। मुन्सारी गांव, ब्लाक महसी पूरी तरह कटान की चपेट में आ गया है। इस तरह यह खुशहाल गांव तबाह हो गया व यहां के लोग अब महसी ब्लाक के कोढ़वा गांव में बसे हुए हैं. यहां के अधिकांश परिवार कटान के कारण तीन बार विस्थापित हुए हैं। अब वर्तमान स्थान कोढ़वा में भी कटान जारी है। इस वर्ष लगभग 50 परिवार फिर कटान से प्रभावित हुए। कटान के कारण यह स्थान भी खतरे में है। लोगों में भीषण अभाव व कर्ज है। अत: इन लोगों ने एक प्रस्ताव यह रखा है कि गैर आबाद हो चुके उनके पुराने मुन्सारी गांव में उन्हें फिर बसा दिया जाए। मनरेगा के अन्तर्गत उन्हें उजड़े खेतों को नए सिरे से तैयार करने का काम मिल सकता है। सिंचाई, बोरिंग व आवास के लिए भी कुछ सहायता की बेहद दरकार है। लोगों ने कहा कि अब मुन्सारी की मूल बस्ती को घाघरा से खतरा नहीं है। अत: उन्हें यहां फिर बसा देना चाहिए।
कटान से बुरी तरह प्रभावित मुरौवा गांव, ब्लाक महसी के दो-तिहाई परिवार अपनी मूल बस्ती को छोड़ चुके हैं। इनमें से अनेक परिवार अब करहना पंचायत व कुछ परिवार फलेपुरवा पंचायत में रह रहे हैं। यह सब गांव महसी ब्लाक में ही स्थित हैं। भीषण कटान के बावजूद इन सब परिवारों को कटान की मुआवजा राशि नहीं मिली है।
कटान से बुरी तरह प्रभावित लोगों की मांग है कि उनके सरकारी कर्ज माफ कर दिया जाएं तथा उन सब को गरीबी की रेखा से नीचे मान कर उन्हें बीपीएल/अंत्योदय कार्ड तथा इससे जुड़े लाभ दिए जायें क्योंकि जमीन कटने के बाद उनका सबकुछ बर्बाद हो गया है। उन्हें जमीन कटने की क्षतिपूर्ति राशि शीघ्र से शीघ्र मिलनी चाहिए।
यहां के लोगों के विकट अभाव की स्थिति को देखते हुए शीतलहर का प्रकोप कम करने के लिए तुरंत विशेष राहत व सहायता अभियान चलाना जरूरी है

फ्लोराइड से घिरी वरुणा

वरुणा के जल में प्रदूषण की बात तो आम है लेकिन अब इसके दोनों किनारों पर भूजल में फ्लोराइड का भी आक्रमण हो चुका है। यह इस क्षेत्र में रहने वालों के लिए खतरे की घंटी है। काशी हिंदूविश्वविद्यालय के एक शोध में फ्लोराइड की मौजूदगी के सबूत मिले हैं
अब इस क्षेत्र में फ्लोराइड के और विस्तार का अध्ययन किया जाना है।विवि के रसायन अभियांत्रिकी विभाग के डॉ. पीके मिश्रा के अनुसार इस क्षेत्र में भूजल में फ्लोराइड की मौजूदगी ने चिंतित कर दिया है। संभवत: वरुणा के प्रदूषण और मात्रा में कमी ने फ्लोराइड के प्रसार को बल दिया है। उन्होंने बताया कि वरुणा के दोनों किनारों पर फुलवरिया से सलारपुर के बीच 30 स्थानों से सैंपल लिये गए। लैब में इनकी जांच की गई तो दो मिली ग्राम प्रति लीटर से अधिक के हिसाब से यह फ्लोराइड मिला है। उन्होंने बताया कि लगभग तीन सौ फीट नीचे से पानी का सैंपल लिया गया था। उन्होंने बताया कि कोटवा, फुलवरिया,पुरानापुल, सलारपुर, रुस्तमपुर, लेढ़ूपुर आदि से सैंपल लिये गए थे।
अब इसके विस्तार व कारण की जानकारी के लिए पहल की जाएगी।दूसरी ओर इंडियन मेडिकल एसोसिएशन की स्थानीय शाखा के पदाधिकारी डॉ. अरविंद सिंह कहते हैं कि फ्लोराइड स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है। इससे दांत तो खराब होते ही है हड्डियां भी कमजोर हो जाती हैं। रक्त संबंधी बीमारियों की भी आशंका बनी रहती है। यह कैंसर का जनक भी हो सकता है।

खत्म हो रही वरूणा

विश्व की सांस्कृतिक राजधानी प्राच्य नगरी वाराणसी को पहचान देने वाली वरूणा नदी तेजी से समाप्त हो रही है। कभी वाराणसी व आसपास के जनपदों की जीवनरेखा व आस्था की केन्द्र रही वरूणा आज स्वयं मृत्यु गामिनी होकर अस्तित्वहीन हो गयी है।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार सतयुग में भगवान विष्णु के दाहिने चरण के अंगूठे से निकली मोक्ष दायिनी वरूणा (जिसे आदि गंगा भी कहा जाता है) इलाहाबाद के फूलपुर तहसील के मेलहम गॉव के प्राकृतिक तालाब मेलहम ताल से निकलती है जो लगभग 110 किमी की यात्रा पूरी करते हुए सन्त रविदास नगर भदोही और जौनपुर की सीमा बनाते हुये वाराणसी जनपद के ग्रामीण इलाको से होते हुये कैण्टोमेन्ट जनपद मुख्यालय से लगते हुये राजघाट के पास सराय मोहाना (आदि विश्वेश्वर तीर्थ ) में गंगा से मिल जाती है।
वरूणा तट पर पंचकोशी तीर्थ के अनेकों मंदिर व रामेश्वर जैसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। पूर्व में यह सदानीरा नदी लगभग 150 से 250 किमी क्षेत्र के वर्षाजल को प्राकृतिक रूप से समेटती हुई आसपास के क्षेत्र में हरितिमा विखेरती हुई गंगा में समाहित हो जाती थी। आज से मात्र बीस साल पूर्व वरूणा नदी काफी गहरी हुआ करती थी और वर्ष पर्यन्त जल से भरी रहती थी जिससे आसपास के ग्रामवासी खेती, पेयजल दैनिक क्रियाकलाप, श्राद्ध तर्पण और पशुपालन के लिये इसी पर निर्भर रहते थे। वरूणा तट पर पाये जाने वाली वनस्पतियों नागफनी, घृतकुमारी, सेहुड़, पलाश, भटकैया,पुनर्नवा, सर्पगन्धा, चिचिड़ा, शंखपुष्पी, ब्राह्मी, शैवाल, पाकड़ के परिणाम स्वरूप वरूणा जल में विषहारिणी शक्ति होती थी जो एण्टीसेप्टिक का कार्य करती थी।
समय बीतने के साथ जनसंख्या के दबाव व पर्यावरण के प्रति उदासीनता के चलते नदी सूखने लगी। इसे जिन्दा रखने के लिये नहरों से पानी छोड़ा जाने लगा लेकिन नहरों से पानी कम और सिल्ट ज्यादा आने लगी। नदी की सफाई न होने से सिल्ट नदी में हर तरफ जमा हो गयी जिससे वरूणा काफी उथली हो गयी। परिणामत: अब झील और नदी में बरसाती पानी भी एकत्र नहीं हो पाता है और वरूणा अपने उद्गम से लेकर सम्पूर्ण मार्ग में सूखती जा रही है। कमोवेश यही हालत 20 किमी दूरभदोही जनपद तक है जहॉ नालों के मिलने से यह पुन: नदी के रूप में दिखाई देने लगती है। पुन:यही हालत वाराणसी में इसके संगम स्थल तक है।
गुरूदेव रविन्द्र नाथ टैगोर ने सामान्य क्षत्रि में जिस जीवन दायिनी, मोक्ष दायिनी वरूणा का विहंगम वर्णन कर आस्था के केन्द्र में इसे प्रति स्थापित किया वह आज राजघाट (सरायमुहाना) से फुलवरिया (39 जी टी सी कैन्टोमेन्ट) तक लगभग 20किमी क्षेत्र तक बदबूदार गन्दे नाले में तब्दील हो जाती है। मात्र इस बीस किलोमीटर के क्षेत्र में बड़े-बडे़ सीवर , ड्रेनेज खुले आम बहते देखा जा सकता है। लोहता, कोटवा क्षेत्र में मल, सीधे घातक रसायन नदी में बहाये जा रहे है। वही शहरी क्षेत्र में लगभग 17 नाले प्रत्यक्षत: वरूणा में मल व गन्दगी गिराते देखे जा सकते है। ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह जनपद मुख्यालय से सटे वरूणा पुल पर से प्रतिदिन मृत पशुओं के शव और कसाई खाने के अवशेष, होटलों के अवशिष्ट पदार्थ वरूणा में गिराये जाते है। वरूणा के किनारे स्थित होटलों, चिकित्सालयों एवं रंग फैक्ट्रियों कारखानों के सीवर लाइनें प्रत्यक्ष अथवा भूमिगत रूप से इसमें मिला दी गयी है।
आज भी प्रतिदिन प्रात: काल तीन बजे से पॉच बजे के बीच होटलों और चिकित्सालयों के अपशिष्ट पदार्थ नदी में फेंके जाते है। नदी किनारे का जीवन जीने की लालसा में नदी के किनारे पंच सितारा होटल, कालोनियां और बड़े इमारतों का निर्माण निरन्तर जारी है। इसके लिये खुलेआम वरूणा को पाटा जा रहा है। दुखद तो यह है कि ये सभी कार्य जनपद मुख्यालय से सटे एवं प्रशासनिक अधिकारियों के आवास के पास हो रहा है। इस पूरे सन्दर्भ में प्रशासन की भूमिका भी कम नकारात्मक नही है। पूरे शहर में नई सीवर ट्रंक लाईन बेनियाबाग से लहुराबीर होते हुये चौकाघाट पुल तक विछाई जा रही है जिसमें सिगरा से लेकर लहुराबीर तक नई ट्रंक लाईन मिलाई जा रही है।हालांकि इस पूरे सीवर लाईन को वरूणा नदी में बनाये जा रहे। पंपिंग स्टेशन में मिलाया जायेगा परन्तु फिलहाल यह सीवर सीधे वरूणा नदी में बहाया जा रहा है और बहाया जाता रहेगा। इसी प्रकार गंगा प्रदूषण नियन्त्रण इकाई के अधिकारिक सूचना के अनुसार शहर में कुल सीवर का उत्पादन 290 एम एल डी प्रतिदिन है परन्तु कुल 102 एम एल डी / प्रतिदिन का ही शोधन हो पाता है। शेष 188 एम एल डी सीवर प्रतिदिन सीधे गंगा व वरूणा नदियों में बह जाता है। यह स्थिति विद्युत व्यवस्था न रहने पर ही कारगर होती है और वाराणसी में विद्युतपूर्ति की स्थिति किसी से छिपी नही है।
वर्तमान समय में वाराणसी के पहचान देने वाली दूसरी नदी अस्सी भू-माफियाओं और सरकारी तन्त्र के उदासीनता के चलते समाप्त हो चुकी है। वह मात्र अपने ऐतिहासिक सन्दर्भो में ही जीवित है जबकि भौगोलिक धरातल पर उसका पता अब नाम मात्र को ही मिलता है। वही स्थिति आज वरूणा नदी की भी है। सोची समझी साजिश के तहत वरूणा को समाप्त करने का प्रयास किया जा रहा है।
कभी नदी के तट से 200 मीटर दूर रहने वालों के मकान कोठियॉँ व होटल नदी के बीचो-बीच बन गये हैं। सदानीरा रहने वाली कलकल करती यह नदी आज गन्दी नाली के शक्ल में परिवर्तित हो चुकी है।पुराने पुल के पास इसे बॉध कर इसका प्राकृतिक स्वरूप ही समाप्त किया जा चुका है। आज की स्थिति में वरूणा भारत की सर्वाधिक प्रदूषित नदियों में से एक है जिसमें एक भी जीव जन्तु जीवित नहीं है। प्रयोगशाला के मानकों के अनुसार वरूणा नदी रासायनिक जॉच के सभी मानदण्डों को ध्वस्त कर चुकी है। भारत सरकार केन्द्रीय व पर्यावरण मन्त्रालय ने इसे डेड रिवर्स मृत नदियों की सूची में शामिल कर लिया गया है और इसे मृत नदी मान लिया गया है। वरूणा जल में प्रदूषण का अन्दाजा मात्र इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि रासायनिक तत्वों के प्रभाव पद कार्य करने वाली संस्था टाक्सिक लिंक के द्वारा वरूणा तट पर स्थित लोहता और शिवपुर में उगाई जा रही सब्जियों के अध्ययन से यह निष्कर्ष प्राप्त हुआ है कि वरूणा जल में भारी तत्वों की मात्रा अत्यधिक है जिनमें जिंक, क्रोमियम, मैग्नीज निकाल कैडमियम कापर लेड की मात्रा विश्व स्वास्थ्य संगठनों के मानक से अत्यधिक है जो मानक जीवन के लिये अत्यन्त घातक है।
वरूणा नदी में बह रहे सीवर व अपशिष्ठ पदार्थों के चलते तटवर्ती इलाकों का जल अत्यधिक प्रदूषित हो गया है जिससे आस-पास के इलाकों में पेट ऑत लीवर सम्बन्धी बीमारियों के साथ-साथ चर्म रोग बढ़ रहे है।
भौगोलिक और भू भौतिकी दृष्टि से वरूणा नदी के सूखने से आस पास के क्षेत्रों में भू-जल स्तर की समस्या गहराती ही जा रही है। वाराणसी भदोही जौनपुर में भूजल काफी तेजी से नीचे जा रहा है। प्रथम स्टेट पूरी तरह प्रदूषित हो चुका है। संक्षेप में कहे तो संपूर्ण स्थिति निराशाजनक है। भारतीय संस्कृति एवं दर्शन में नदी को माँ के समान माना गया है जो हमारे खेतों को हमारे फसलों को अमृतरूपी जल देती है। ऐसे में वरूणा का दु:ख हमारी माँ का दु:ख है। वरूणा हमारी माँ है और हम अपनी माँ पर आये संकट की अवहेलना नही कर सकते है।