करीब एक दशक की अवधि में यह पहला मौका है, जब देश में बाघों के कुनबे में कुछ इजाफा हुआ है। ताजा गणना के मुताबिक पिछले चार वर्षो के दौरान देश के जंगलों में बाघों की संख्या में 21 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है और इसके आधार पर उनकी अनुमानित संख्या 1706 मानी गई है। लेकिन कई विशेषज्ञ इस बढ़ोतरी पर सवाल उठा रहे हैं। उनका मानना है कि बाघों की संख्या इसलिए कुछ अधिक दर्ज हो पाई है कि पिछली गणना में अनेक इलाके छोड़ दिए गए थे। दरअसल, पिछली बार नक्सल प्रभावित इलाकों के अभयारण्यों में बाघों की गिनती नहीं की जा सकी थी। इसीलिए बाघों की संख्या में बढ़ोतरी के दावे को सही नहीं माना जा रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि बाघों की संख्या में कमी का लंबा इतिहास रहा है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, 20वीं सदी में दुनिया भर में बाघों की संख्या तकरीबन एक लाख थी। अब इस आबादी का 97 फीसदी विलुप्त हो चुका है। भारत की ही बात करें तो यहां 1989 में प्रोजेक्ट टाइगर के अंतर्गत बाघों की संख्या 4334 थी, जो 2002 में घटकर 3642 हो गई। 2006 में संख्या 1411 तक पहुंच गई। बाघ की खाल, उसकी हड्डियों और उसके दांतों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारी मांग है। चीन में तो बाघ के हर अंग को देसी दवाओं के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए आरोप लगे हैं कि तिब्बत और चीन में बैठे तस्कर भारतीय शिकारियों को बाघों को मारने के लिए प्रेरित करते हैं। देखा जाए तो भारत जैव विविधता संक्रमण से गुजर रहा है और तमाम दुर्लभ वन्यजीव जंतुओं के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ऐसे में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी निश्चित रूप से सकारात्मक संकेत है। लेकिन इसमें खतरे भी कम नहीं हैं। उदाहरण के लिए तराई व दक्षिण भारत में जहां बाघों की संख्या बढ़ी है, वहीं पूर्वोत्तर व मध्य भारत में इनकी कमी चिंता का विषय है। इस संबंध में दूसरी चिंता यह है कि बाघों की संख्या बढ़ने के बावजूद उनका इलाका लगातार संकुचित हो रहा है। चार साल पहले की गणना के अनुसार, बाघ 93,600 वर्ग किमी के क्षेत्र में विचरण करते थे, लेकिन अब उनका इलाका घटकर 72,800 वर्ग किमी रह गया है यानी चार वर्षो में बाघ तो 1411 से बढ़कर 1706 हुए, लेकिन उनका इलाका करीब 20,000 वर्ग किमी कम हो गया। बाघों के रिजर्व क्षेत्र में कमी का मुख्य कारण अवैध कब्जा है। देश में 39 बाघ रिजर्व है, जिनमें कहीं खनन माफिया ने कब्जा जमा लिया है तो कहीं भू-माफियाओं ने। जिस ढंग से अंधाधुंध विकास जल, जंगल और जमीन पर आधिपत्य जमा रहा है, उसकी कीमत बाघों के आवास को भी चुकानी पड़ रही है। बाघों के शिकार पर कानूनी प्रतिबंध के बावजूद शिकार का बदस्तूर जारी रहने का एक कारण अभयारण्यों के अंदर 50,000 परिवारों का निवास भी है। सरकार इन्हें वनों को छोड़ने के लिए कई लुभावनी योजनाएं लागू कर चुकी है, लेकिन वे सफल नहीं हुई। दरअसल, उनकी रोजी-रोटी वनों से जुड़ी है, इसीलिए वे अपने को वनपुत्र बताकर वनों को आसानी से छोड़ने को राजी नहीं हैं। अनुमान है कि सभी परिवारों के संतोषजनक पुनर्वास के लिए 5,000 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी, जो एक खर्चीला कार्य है। अभयारण्यों में मानवीय गतिविधियों को कम करने के नाम पर सरकार का पूरा ध्यान स्थानीय लोगों को ही उजाड़ने पर रहता है, जबकि सच यह है कि बाघों सहित दूसरे वन्य जीवों को सबसे ज्यादा खतरा पर्यटन और विकास के नाम पर हो रहे अतिक्रमण से है। अभयारण्यों के आसपास होटल, मनोरंजन स्थलों और कई विकास परियोजनाओं के अबाध गति से चलने व मशीनों आदि का शोर-शराबा बढ़ने से बाघों की स्वाभाविक जीवनशैली बाधित हुई है। इसके चलते बहुत सारे बाघ और दूसरे वन्यजीव अभयारण्यों से पलायन कर रिहाइशी इलाकों की तरफ चले जाते हैं, जहां गांव वाले उन्हें नरभक्षी कहकर मार डालते हैं। पर्यावरण मंत्रालय ने खुद स्वीकार किया है कि करीब तीस फीसदी बाघ अभयारण्यों से बाहर रहे हैं। फिर अभयारण्यों में कुशल वनकर्मियों व अत्याधुनिक हथियारों की कमी के साथ-साथ वन्य जीवों के आहार संबंधी इंतजाम आदि को लेकर घोर लापरवाही बरती जाती है। यह स्थिति न सिर्फ उनके स्वाभाविक जीवन व सुरक्षा के मामले में खतरनाक साबित होती है, बल्कि उनके प्रजनन पर भी प्रतिकूल असर डालती है। इन तमाम पहलुओं पर अभी काफी काम करने की जरूरत है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
Showing posts with label रमेश दुबे. Show all posts
Showing posts with label रमेश दुबे. Show all posts
Saturday, April 9, 2011
Monday, January 10, 2011
मरुस्थलीकरण भी बड़ा खतरा
2000 ईसा पूर्व में सिंधु घाटी में वर्षा की मात्रा में भारी कमी आ गई थी, जिससे इस क्षेत्र का मरुस्थलीकरण शुरू हो गया और देखते-देखते दुनिया की पहली नगरीय सभ्यता अकाल मौत का शिकार हो गई। कुछ इसी प्रकार की परिघटना वर्तमान सभ्यता के साथ भी घटित हो सकती है। संयुक्त राष्ट्र की एक समिति के अनुसार मरुस्थलीकरण को कम करने संबंधी नीतियों पर अमल नहीं किया गया तो 2025 तक दुनिया का 70 फीसदी हिस्सा रेगिस्ताीन में तब्दील हो सकता है। दरअसल, मरुस्थलीकरण और मिट्टी क्षरण एक-दूसरे से गहराई से जुड़े होने के साथ-साथ इस समय की सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं हैं। मिट्टी की ऊपरी 20 सेंटीमीटर मोटी परत ही हमारे जीन का आधार है। यदि यह जीवनदायी परत नष्ट हो गई तो खाद्य पदार्थो की कीमतें तेजी से बढ़ेंगी और दुनिया भर में संघर्ष की नई स्थितियां पैदा होंगी। गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है और आज एक फीसदी प्रति वर्ष की दर से नष्ट हो रही है। इसी को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2010-2020 को मरुस्थलीकरण विरोधी दशक के रूप में मनाने का निश्चय किया। बढ़ती जनसंख्या से कृषि भूमि पर दबाव बढ़ रहा है। यह अनुमान है कि विश्व जनसंख्या 2011 में 7 अरब और 2050 में 9 अरब हो जाएगी। स्पष्ट है कि अगले 40 वर्षो में धरती पर दो अरब लोग बढ़ जाएंगे। ऐसे में खाद्यान्न में 40 फीसदी की बढ़ोतरी करनी होगी और इसका अधिकांश हिस्सा उस उपजाऊ मिट्टी पर उगाया जाएगा, जो कि कुल भूभाग का 11 फीसदी ही है। खाद्यान्न उत्पाादन के अधीन अब नई भूमि लाना संभव नहीं है, जो भूमि बची है, वह भी तेजी से क्षरित हो रही है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक प्रतिवर्ष 27 अरब टन मिट्टी अपरदन, जल भराव, क्षारीकरण के कारण नष्ट हो रही है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के बराबर है। यदि भूक्षरण की यही गति जारी रही तो अगले 30 वर्षो में दुनिया को खाद्य पदार्थो की भीषण कमी का सामना करना पड़ेगा। 2007-08 में खाद्य पदार्थो की कीमतों में वृद्धि का कारण शुष्कता का बढ़ना ही था, क्योंकि इसकी शुरुआत ऑस्ट्रेलिया में सूखा पड़ने से हुई थी। 2010 में भी रूस में सूखा पड़ने से खाद्यान्न की कीमतें ऊंची बनी हुई हैं। दुनिया भर में जिस ढंग से मरुस्थल का विस्तार हो रहा है, उससे उपजाऊ मिट्टी रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है। उदाहरण के लिए मध्य एशिया के गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया तक के उपजाऊ मैदानों को निगल रही है। वहीं, भारत में थार की रेत उत्तर भारत के मैदानों को दफना रही है। इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन (इसरो) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान तक सिमटे थार मरुस्थल ने अब हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है। थार के विस्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 तक 1.96150 वर्ग किमी में फैले रेगिस्तान का विस्तार अब 2.08110 वर्ग किमी तक हो गया है। विशेषज्ञों के अनुसार थार मरुस्थल मानसूनी हवाओं द्वारा प्रेरित रेतीला रेगिस्ताान है। यहां गर्मी के मौसम में वायु अपरदन एक बड़ी समस्या रहती है। अरावली की पहाडि़यां मरुस्थल के विस्तार में दीवार की भांति बाधा खड़ी करती रही हैं, लेकिन अंधाधुंध खनन के कारण इस प्राकृतिक दीवार में कई गलियारे बन गए हैं, जो मरुस्थल के विस्तार में सहायता पहुंचा रहे हैं। देश के दूसरे हिस्सों का भी तेजी से मरुस्थलीकरण हो रहा है। अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) ने 17 अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया गया है। इसके अनुसार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (टीजीए) का कोई 25 फीसदी हिस्सा रेगिस्तान हो चुका है और 32 फीसदी भूमि की गुणवक्ता घटी है। इसके अलावा देश के 69 फीसदी हिस्से को शुष्क क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है। धरती के मरुस्थलीकरण और मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण को रोकने का सबसे बेहतर तरीका है जल प्रबंधन, सूखा रोधी बीज और मिट्टी बचाने वाले समुदायों की आर्थिक सहायता। पृथ्वी पर कार्बन का 25 फीसदी मिट्टी में ही है। ऐसे में मिट्टी के संरक्षण से कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी और वैश्विक तापवृद्धि रोकने में भी मदद मिलेगी। दुर्भाग्यवश जलवायु परिवर्तन के इस अहम पहलू की ओर दुनिया नजर फेरे हुए है। (लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)
Subscribe to:
Posts (Atom)