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Saturday, April 9, 2011

पेयजल का संकट और हमारे शहर


दिल्ली की प्यास बुझाने के लिए पहले से ही टिहरी बांध से पानी लाया जाता है, लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में पानी की किल्लत है। इस किल्लत को दूर करने के लिए हिमाचल प्रदेश में रेणुका बांध बनाने की बात हो रही है, लेकिन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने रेणुका बांध की मांग को ठुकरा दिया है। बहरहाल हमारे देश में केवल दिल्ली ही ऐसा शहर नहीं है जहां लोगों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए सैकड़ों किलोमीटर से पानी लाया जाता है। चेन्नई में पानी 200 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी से पानी लाया जाता है। बेंगलुरू में 100 किलोमीटर दूर कावेरी से पानी लाया जा रहा है। आइजवेल में एक किलोमीटर नीचे घाटी से पानी लाया जाता है, जो कि दूरी के मामले में कई सौ किलोमीटर के बराबर है। हमारे देश में ऐसे कई शहर है जहां काफी दूर से पानी लाया जाता है, लेकिन इन सबके बावजूद शहरों में पानी की आवश्यकता पूरी नहीं हो पा रही है। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि एशिया के 27 शहरों में प्रतिदिन पानी की उपलब्धता की एक सूची विश्व बैंक के द्वारा तैयार की गई है। इस सूची में ऐसे शहरों को शामिल किया गया जिनकी आबादी 10 लाख से अधिक है। इसमें खराब प्रदर्शन के मामले में दिल्ली और चेन्नई सबसे ऊपर हैं तो दूसरे नंबर पर मुंबई है। इसी तरह चौथे नंबर पर कोलकाता है। इससे यह साफ तौर पर जाहिर होता है कि हमारे शहरों में पानी आपूर्ति की स्थिति अच्छी नहीं है। इसके पीछे एक वजह यह भी है कि शहरों में पानी की आपूर्ति नदी और झीलों से किया जाता है। इसके अलावा भूमिगत जल का भी उपयोग किया जाता है। इसके कारण भूमिगत जल का जलस्तर लगातार नीचे की ओर गिरता जा रहा है। यह भी एक चिंता की विषय है, क्योंकि भारत दुनिया में भूमिगत जल के उपयोग के मामले में सबसे आगे है। विश्व बैंक के मुताबिक पूरी दुनिया में जितना भूमिगत जल का उपयोग किया जाता है उसमें भारत की हिस्सेदारी 25 फीसदी है। एक ओर तो भूजल का दोहन बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर इसके रिचार्ज करने के साधन लगातार सिकुड़ते जा रहे है। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि साठ के दशक में बेंगलूर के भीतर 260 झील थी और अब वहां केवल दो ही झील ऐसे है जहां पीने का पानी मिल सकता है। अहमदाबाद के भीतर 137 झील सूचीबद्ध हैं, लेकिन 65 झीलों के ऊपर निर्माण हो चुका है। अगर दिल्ली की ही बात करें तो यहां 508 जलक्षेत्रों की पहचान की गई है, लेकिन यह संरक्षित नहीं हैं। दरअसल हम विकास के दौर में उन चीजों के महत्व को नहीं समझ पा रहे है जिनका हमारे जीवन से गहरा संबंध है। इसी का नतीजा है कि हमें शहरों में पीने के पानी के संकट का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि हमारे पूर्वजों की जो बची हुई विरासत है हम उसे बचाएं। साथ ही भविष्य में पानी के संकट के समाधान को गंभीरता से लेना होगा अन्यथा हालात बद से बदतर होते जाएंगे। इसके लिए सबसे अहम सवाल है कि शहरों में पानी की उपलब्धता को सुचारू बनाया जाए, क्योंकि हमारे देश के भीतर पानी के संग्रहण और वितरण की जो व्यवस्था है वह अब पुरानी पड़ चुकी है और इसकी देखरेख भी बेहतर ढं़ग से नहीं हो पा रही है। इसका नतीजा यह होता है कि पानी की आपूर्ति करने वाले पाइप फटने की वजह से और लीकेज के कारण 25 से 30 फीसदी पानी घरों में पहुंचने से पहले रास्ते में ही बर्बाद हो जाता है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि पानी के संग्रहण और वितरण के तंत्र को दुरुस्त किया जाए ताकि रास्ते में पानी की बर्बादी कम से कम हो। पानी की बर्बादी को कम करने में आम लोगों की भागीदारी काफी महत्वपूर्ण है। पानी की बर्बादी को रोकने का सबसे बेहतर और सरल तरीका यह है कि हम पानी को लेकर अधिक संवेदनशील बने। यह कैसी विंडबना है कि दिल्ली अपने पीने के पानी का लगभग 50 फीसदी बर्बाद कर रही है, जिसमें से 30 फीसदी पानी का नुकसान तकनीकी खराबी के कारण बर्बाद हो रहा है। इस तरह प्रणाली में सुधार कर शहर में पानी की किल्लत को कम करने की बजाय हिमाचल प्रदेश से पानी लाने के लिए रेणुका बांध की बात हो रही है। यह बांध पर्यावरण के लिए कितना घातक होगा इसको सहज की महसूस किया जा सकता है। बांध प्रबंधन रिपोर्ट के मुताबिक बांधों की चपेट में एक लाख 67 हजार पेड़ आएंगे, जबकि निजी भूमि पर पेड़ों की गणना की जा रही है। इसलिए इस बात की सख्त जरूरत है कि शहरों में दूसरे जगहों से पानी लाने के बजाय संकट वाले शहरों को ही पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जाए। इसके लिए पहला तरीका तो यही है कि रेन वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम को अपनाएं। भारत में वर्षा का पानी काफी मात्रा में मानसून से प्राप्त होता है। यह शहरों को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक कारगर तरीका हो सकता है। दूसरा तरीका यह है कि वाटर ट्रीटमेंट द्वारा पानी की किल्लत को दूर किया जाए। सिंगापुर ने यह क्षमता हासिल कर लिया है कि वह जितने पानी का उपयोग करता है उस सारे पानी को रिसाइकिल करके पीने योग्य बना सकता है। यह अलग बात है कि वह केवल उपयोग किए गए 10 फीसदी पानी को ही रिसाइकिल कर पीने के लिए उपयोग कर रहा है। सिंगापुर में इस पानी को नया पानी बोला जाता है। भारत में भी ऐसे तकनीक को अपनाने की जरूरत है। ताकि समस्या का समाधान हो सके, क्योंकि तिरुपुर के 70 झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों द्वारा निजी पानी टैंकर को छह लाख रुपया दिया जाता है। यदि वाटर ट्रीटमेंट तकनीक को अपनाया जाए तो केवल 4.5 लाख रुपया खर्च आएगा। इससे पैसे की बचत के साथ-साथ निजी टैंकर की तुलना में बेहतर गुणवत्ता का पानी भी उपलब्ध हो पाएगा। तीसरा तरीका यह है कि हम पानी को बेवजह खर्च न करें, क्योंकि 1960 के दशक के पहले अमेरिका को भी पानी के संकट का सामना करना पड़ रहा था। वहां पानी को बेहतर तरीके से उपयोग करने का प्रयास किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि 1980-2000 के दौरान अमेरिका के भीतर प्रति व्यक्ति पानी के खपत में 20 फीसदी की कमी आई। अगर हम सब भी पानी को लेकर संवेदनशील बनें तो काफी हद तक पानी की समस्या का समाधान हो सकता है। जरा सोचिए 2020 मे क्या होगा, जब देश की 50 फीसदी आबादी शहरों में रहने लगेगी। इसलिए जरूरत इस बात की है कि पानी के मामले में शहरों को आत्मनिर्भर बनाया जाए। यहां पर यह भी याद करना जरूरी है कि भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित पूर्व अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने कभी कहा था कि हमने दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति के तौर पर महसूस किया कि पानी का केवल देशों, महादेशों से ही नहीं, बल्कि इसका आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक संबंध भी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


बढ़ी संख्या, पर चिंता बरकरार


करीब एक दशक की अवधि में यह पहला मौका है, जब देश में बाघों के कुनबे में कुछ इजाफा हुआ है। ताजा गणना के मुताबिक पिछले चार वर्षो के दौरान देश के जंगलों में बाघों की संख्या में 21 फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की गई है और इसके आधार पर उनकी अनुमानित संख्या 1706 मानी गई है। लेकिन कई विशेषज्ञ इस बढ़ोतरी पर सवाल उठा रहे हैं। उनका मानना है कि बाघों की संख्या इसलिए कुछ अधिक दर्ज हो पाई है कि पिछली गणना में अनेक इलाके छोड़ दिए गए थे। दरअसल, पिछली बार नक्सल प्रभावित इलाकों के अभयारण्यों में बाघों की गिनती नहीं की जा सकी थी। इसीलिए बाघों की संख्या में बढ़ोतरी के दावे को सही नहीं माना जा रहा है। इसका एक कारण यह भी है कि बाघों की संख्या में कमी का लंबा इतिहास रहा है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, 20वीं सदी में दुनिया भर में बाघों की संख्या तकरीबन एक लाख थी। अब इस आबादी का 97 फीसदी विलुप्त हो चुका है। भारत की ही बात करें तो यहां 1989 में प्रोजेक्ट टाइगर के अंतर्गत बाघों की संख्या 4334 थी, जो 2002 में घटकर 3642 हो गई। 2006 में संख्या 1411 तक पहुंच गई। बाघ की खाल, उसकी हड्डियों और उसके दांतों की अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारी मांग है। चीन में तो बाघ के हर अंग को देसी दवाओं के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इसीलिए आरोप लगे हैं कि तिब्बत और चीन में बैठे तस्कर भारतीय शिकारियों को बाघों को मारने के लिए प्रेरित करते हैं। देखा जाए तो भारत जैव विविधता संक्रमण से गुजर रहा है और तमाम दुर्लभ वन्यजीव जंतुओं के अस्तित्व पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। ऐसे में बाघों की संख्या में बढ़ोतरी निश्चित रूप से सकारात्मक संकेत है। लेकिन इसमें खतरे भी कम नहीं हैं। उदाहरण के लिए तराई व दक्षिण भारत में जहां बाघों की संख्या बढ़ी है, वहीं पूर्वोत्तर व मध्य भारत में इनकी कमी चिंता का विषय है। इस संबंध में दूसरी चिंता यह है कि बाघों की संख्या बढ़ने के बावजूद उनका इलाका लगातार संकुचित हो रहा है। चार साल पहले की गणना के अनुसार, बाघ 93,600 वर्ग किमी के क्षेत्र में विचरण करते थे, लेकिन अब उनका इलाका घटकर 72,800 वर्ग किमी रह गया है यानी चार वर्षो में बाघ तो 1411 से बढ़कर 1706 हुए, लेकिन उनका इलाका करीब 20,000 वर्ग किमी कम हो गया। बाघों के रिजर्व क्षेत्र में कमी का मुख्य कारण अवैध कब्जा है। देश में 39 बाघ रिजर्व है, जिनमें कहीं खनन माफिया ने कब्जा जमा लिया है तो कहीं भू-माफियाओं ने। जिस ढंग से अंधाधुंध विकास जल, जंगल और जमीन पर आधिपत्य जमा रहा है, उसकी कीमत बाघों के आवास को भी चुकानी पड़ रही है। बाघों के शिकार पर कानूनी प्रतिबंध के बावजूद शिकार का बदस्तूर जारी रहने का एक कारण अभयारण्यों के अंदर 50,000 परिवारों का निवास भी है। सरकार इन्हें वनों को छोड़ने के लिए कई लुभावनी योजनाएं लागू कर चुकी है, लेकिन वे सफल नहीं हुई। दरअसल, उनकी रोजी-रोटी वनों से जुड़ी है, इसीलिए वे अपने को वनपुत्र बताकर वनों को आसानी से छोड़ने को राजी नहीं हैं। अनुमान है कि सभी परिवारों के संतोषजनक पुनर्वास के लिए 5,000 करोड़ रुपये की जरूरत पड़ेगी, जो एक खर्चीला कार्य है। अभयारण्यों में मानवीय गतिविधियों को कम करने के नाम पर सरकार का पूरा ध्यान स्थानीय लोगों को ही उजाड़ने पर रहता है, जबकि सच यह है कि बाघों सहित दूसरे वन्य जीवों को सबसे ज्यादा खतरा पर्यटन और विकास के नाम पर हो रहे अतिक्रमण से है। अभयारण्यों के आसपास होटल, मनोरंजन स्थलों और कई विकास परियोजनाओं के अबाध गति से चलने व मशीनों आदि का शोर-शराबा बढ़ने से बाघों की स्वाभाविक जीवनशैली बाधित हुई है। इसके चलते बहुत सारे बाघ और दूसरे वन्यजीव अभयारण्यों से पलायन कर रिहाइशी इलाकों की तरफ चले जाते हैं, जहां गांव वाले उन्हें नरभक्षी कहकर मार डालते हैं। पर्यावरण मंत्रालय ने खुद स्वीकार किया है कि करीब तीस फीसदी बाघ अभयारण्यों से बाहर रहे हैं। फिर अभयारण्यों में कुशल वनकर्मियों व अत्याधुनिक हथियारों की कमी के साथ-साथ वन्य जीवों के आहार संबंधी इंतजाम आदि को लेकर घोर लापरवाही बरती जाती है। यह स्थिति न सिर्फ उनके स्वाभाविक जीवन व सुरक्षा के मामले में खतरनाक साबित होती है, बल्कि उनके प्रजनन पर भी प्रतिकूल असर डालती है। इन तमाम पहलुओं पर अभी काफी काम करने की जरूरत है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


बाघों की बढ़ोतरी पर कितना करें भरोसा


वर्ष 2010 में हुई बाघ गणना के आकड़ों को सही मानें तो देश में बाघों की संख्या 1411 से बढ़कर 1706 हो गई है, लेकिन केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्री जयराम रमेश ने अखिल भारतीय बाघ गणना का जो प्रतिवेदन जारी किया है, उसी का गंभीरता से आकलन करें तो जाहिर होता है यह गणना भ्रामक है। वर्ष 2006 की गणना में सुंदरवन के बाघ शामिल नहीं थे। नई गणना में इनकी संख्या 70 बताई गई है। दूसरे, बाघों की बढ़ी संख्या नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से आई है। इसमें नक्सली भय से वन अमले का प्रवेश वर्जित है। जब वन अमला दूरांचल और बियावान जंगलों में पहंुचा ही नहीं तो गणना कैसे संभव हुई? जाहिर है, यह गिनती अनुमान आधारित है। हालांकि यह तय है कि नक्सली वर्चस्व वाले भूखंडों में बाघों की ही नहीं, अन्य दुर्लभ वन्य जीवों की भी संख्या बढ़ी होगी। क्योंकि इन मुश्किल इलाकों में बाघ के अभ्यस्त शिकारी भी नक्सलियों से भय खाते हैं। लिहाजा, इन क्षेत्रों में बाघ बढ़े भी हैं तो इसका श्रेय वन विभाग को क्यों? इस रपट को जारी करते हुए खुद वनमंत्री ने माना है कि 2009-2010 में बड़ी संख्या में बाघ मारे गए। इसके बावजूद शिकारी और तस्कारों के समूहों को न हिरासत में लिया जा सका और न ही शिकार की घटनाओं पर अंकुश लगाया जा सका। ऐसे में सवाल उठता है कि जब शिकारी उन्मुक्त रहे तो बाघों का शिकार बाधित कहां हुआ। आधुनिक तकनीक से महज 615 बाघों के छाया चित्र लेकर गिनती की गई है। बाकी बाघों की गिनती परंपरागत पद्धतियों और रेडियो पट्टेधारी तकनीक से की गई है, जबकि पदचिह्न गिनती की वैज्ञानिक प्रमाणिकता पर खुद वन मंत्री सवाल उठा चुके हैं। अब सवाल यह भी उठता हैं कि क्या बाघों की जान-बूझकर गिनती बढ़ाकर इसलिए बताई गई है, जिससे वन विभाग की साख बची रहे और बाघ संरक्षण के उपक्रमों के बहाने आवंटन के रूप में बड़ी धनराशि मिलती रहे? बाघों की यह गिनती उस दौर की है जिस दौर में भारत में ही नहीं, बल्कि दुनियाभर में बाघ मारे गए। ये बाघ अंगों के अवैध व्यापार के लिए शिकार बनाए गए। इस लुप्त प्राय वन्य जीव के अंगों की अवैध बरामदगी के मामले में बाघ बहुल 13 में से 11 देशों की सूची में भारत, चीन और नेपाल सबसे ऊपर हैं। वन्यजीव प्रणियों के अवैध व्यापार पर नजर रखने वाली अंतरराष्ट्रीय संस्था ट्रेफिक ने यह रिपोर्ट 2010 में प्रकाशित की थी। बाघों के अंगों का विश्लेषण करने के बाद पाया गाया कि हर वर्ष औसतन 104 से 199 बाघों का शिकार किया गया। यह संख्या सिर्फ उन बाघों की है, जिनके अंग व खालें वन अमले, पुलिस और प्रशासन ने शिकारियों के पास से बरामद किए हैं। जो शिकार और शिकारी पकड़े नहीं जा सके, उनका तो अनुमान ही लगाना मुश्किल है। भारत में बाघों के सर्वाधिक 276 अंग बरामद किए गए। इन अंगों की भिन्न पहचान करके साफ हुआ कि 469 से लेकर 533 बाघों को मारा गया। हत्या किए गए इन बाघों की गिनती का आधार खाल, कंकाल, जबड़ा, दांत और पूंछ शामिल थे। इसी दौरान सरिस्का और पन्ना से बाघों के सफाए की खबरें आई। सरिस्का से 24 बाघों और पन्ना से 16 से 32 बाघों के मारे जाने की खबरें आई। काजीरंगा में 9 बाघ 3 महीने के अंदर मार गिराए गए। भोपाल के वन विहार राष्ट्रीय उद्यान जो देश के सर्वाधिक सुरक्षित उद्यानों में से एक है, उसमें 16 बाघ अज्ञात कारणों से मारे गए। जबकि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल जैसे मुख्य स्थल पर होने के कारण यहां न शिकारियों का खतरा है और न ही ग्रामीणों द्वारा जहर देकर मार दिए जाने का भय। वन विभाग के अधिकारी और पशु चिकित्सकों का भी भोपाल बड़ा ठिकाना है। इसके बावजूद 16 बाघ, 5 तेंदुए और 3 शेर काल के गाल में समा गए। हल्ला मचने पर खासतौर से बाघों की मौत की जांच एक विशेष समिति से कराई गई। संपत्ति की जांच का नतीजा इतना हास्यापद था कि उस पर कोई भरोसा करने को तैयार नहीं है। भरोसा करने को तैयार नहीं है। पोस्टमार्टम रिपोर्ट और फॉरेंसिक जांच ने मौत की वजह बताई कि ये बाघ एक खास तरह के पिस्सू और मक्खी के संक्रमण से मारे गए। रिपोर्ट में बताया गया कि टेबनेस प्रजाति के पिस्सू और मक्खी बाघों पर बैठकर खून चूसते हैं और उनमें हीमोबोटेनेला तथा पायरोप्लाज्मा जैसे खतरनाक परजीवी छोड़ देते हैं। बाघ के शरीर में ये परजीवी तेजी से पनपते हैं, जो उसके इम्यून सिस्टम को कमजोर कर देते हैं। लिहाजा, बाघ की किडनी, लीवर और फेफड़े खराब होने लगते हैं और बाघ तिल-तिल कर मर जाते हैं। लेकिन यहां हैरानी में डालने वाली बात यह है कि वन विहार उद्यान बेहद सीमित दायरे में हैं और उसमें बाघों के आवास, आहार व प्रजनन के लिए बाड़े बने हुए हैं। जिन पर चौबीस घंटे निगरानी रखना आसान है। साथ ही भोपाल में पशु चिकित्सा की श्रेष्ठम सुविधाएं हैं। ऐसे अनुकूल माहौल में जब बीमार बाघों का उपचार नहीं किया जा सका और एक-एक कर 16 बाघ मर गए, तब सवाल उठता है कि वन अमला उन दुर्गम क्षेत्रों में कैसे निगरानी रख सकता है, जिन क्षेत्रों में नक्सली खतरा हर वक्त मंडराता रहता है? देश के कुल 54 चिडि़याघरों में इस वक्त 275 बाघ हैं। उड़ीसा के नंदन कानन में 16 और आंध्र प्रदेश के इंदिरा गांधी चिडि़याघर में 14 बाघ हैं, लेकिन कृत्रिम जीवन जीने के कारण चिडि़याघर के बाघों की प्राकृतिक क्रियाएं बाधित हो जाती हैं। इनकी प्रजनन क्षमता बुरी तरह प्रभावित हो जाती है। लिहाजा, इनके वंशों में वृद्धि नहीं होती। चिडि़याघर के बाघ भी बाघ-गणना में शामिल हैं। यहां विचारणीय बिंदु यह है कि जब बाघों की इतनी बड़ी और संरक्षित आबादी नंपुसकता के हश्र को प्राप्त हो गई तो बाघों की वह कौन-सी आबादी है, जिसने जोड़ा बनाकर वंशवृद्धि की है? बाघों की गिनती और निगरानी के बाबत यहां दो बातें और भी उल्लेखनीय हैं। गौरतलब है कि जब 2009-10 में पन्ना बाघ परियोजना से बाघों के गायब होने की खबरें आ रही थीं, तब 2008 में वन विभाग ने बताया था कि पन्ना में 16 से लेकर 32 बाघ हैं। इस गणना में 50 प्रतिशत का लोचा है, जबकि यह गणना आधुनिकतम तरकीब से ली गई थी। मसलन, जब हम एक उद्यान की सटीक गिनती नहीं कर सकते तो देश के जंगलों में रह रहे बाघों की सटीक गिनती कैसे कर पाएंगे? बाघों की मौजूदा गिनती को यदि पन्ना की बाघ गणना से तुलना करें तो देश में बाघों की अनुमानित संख्या 853 से लेकर 1706 तक भी हो सकती है। बाघों की हाल में हुई गिनती में तकनीक भले ही नई रही है, लेकिन गिनती करने वाला अमला वही था, जिसने 2008 में पन्ना क्षेत्र में बाघों की गिनती की थी। नवंबर-दिसंबर 2010 में श्योपुर-मुरैना की जंगली पट्टी में एक बाघ की आमद दर्ज की गई थी। इसने कई गाय-भैसों का शिकार किया और करीब दर्जन भर ग्रामीणों ने इसे देखने की तसदीक भी की। वन अमले ने दावा किया था कि यह बाघ राजस्थान के राष्ट्रीय उद्यान से भटक कर या मादा की तलाश में श्योपुर-मुरैना के जंगलों में चला आया है। इस बाघ को खोजने में पूरे दो माह ग्वालियर अंचल का वन अमला इसके पीछे लगा रहा। इसके छायांकन के लिए संवेदनशील कैमरे और कैमरा टेप पद्धतियों का भी भी इस्तेमाल किया गया, लेकिन इसके फोटो नहीं लिए जा सके। आखिर पंजे के निशान और शिकार के तरीके से प्रमाणित किया गया कि कोई नर बाघ ने ही श्योपुर-मुरैना में धमाल मचाया हुआ है। यह बाघ वाकई में एक निश्चित क्षेत्र में था। फिर भी इसे हम ट्रेस करने में दो माह की कोशिशों के बाद भी नाकाम रहे। तब एक पखवाड़े के भीतर 1706 बाघों की गिनती कैसे कर ली? बाघों की गणना के ताजा और पूर्व प्रतिवेदनों से भी यह तय हुआ है कि 90 प्रतिशत बाघ आरक्षित बाघ अभ्यारण्यों से बाहर रहते हैं। इन बाघों के संरक्षण में न वनकर्मियों का कोई योगदान होता है और न ही बाघों के लिए मुहैया कराई जाने वाली धनराशि बाघ संरक्षण के उपायों में खर्च होती हैं? इस तथ्य की पुष्टि जयराम रमेश के इस बयान से भी होती है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में जो जंगल हैं, उनमें बाघों की संख्या में गुणात्मक वृद्धि हुई है। जाहिर है, इन क्षेत्रों में बाघ संरक्षण के सभी सरकारी उपाय पहुंच से बाहर हैं। लिहाजा, वक्त का तकाजा है कि जंगल के रहबर वनवासियों को ही जंगल के दावेदार के रूप में देखा जाए तो संभव है कि वन प्रबंधन का कोई मानवीय संवेदना से जुड़ा जनतांत्रिक सहभागितामूलक मार्ग प्रशस्त हो। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)