Monday, January 10, 2011

मरुस्थलीकरण भी बड़ा खतरा

2000 ईसा पूर्व में सिंधु घाटी में वर्षा की मात्रा में भारी कमी आ गई थी, जिससे इस क्षेत्र का मरुस्थलीकरण शुरू हो गया और देखते-देखते दुनिया की पहली नगरीय सभ्यता अकाल मौत का शिकार हो गई। कुछ इसी प्रकार की परिघटना वर्तमान सभ्यता के साथ भी घटित हो सकती है। संयुक्त राष्ट्र की एक समिति के अनुसार मरुस्थलीकरण को कम करने संबंधी नीतियों पर अमल नहीं किया गया तो 2025 तक दुनिया का 70 फीसदी हिस्सा रेगिस्ताीन में तब्दील हो सकता है। दरअसल, मरुस्थलीकरण और मिट्टी क्षरण एक-दूसरे से गहराई से जुड़े होने के साथ-साथ इस समय की सबसे गंभीर पर्यावरणीय समस्याएं हैं। मिट्टी की ऊपरी 20 सेंटीमीटर मोटी परत ही हमारे जीन का आधार है। यदि यह जीवनदायी परत नष्ट हो गई तो खाद्य पदार्थो की कीमतें तेजी से बढ़ेंगी और दुनिया भर में संघर्ष की नई स्थितियां पैदा होंगी। गहन खेती के कारण 1980 से अब तक धरती की एक-चौथाई उपजाऊ भूमि नष्ट हो चुकी है और आज एक फीसदी प्रति वर्ष की दर से नष्ट हो रही है। इसी को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 2010-2020 को मरुस्थलीकरण विरोधी दशक के रूप में मनाने का निश्चय किया। बढ़ती जनसंख्या से कृषि भूमि पर दबाव बढ़ रहा है। यह अनुमान है कि विश्व जनसंख्या 2011 में 7 अरब और 2050 में 9 अरब हो जाएगी। स्पष्ट है कि अगले 40 वर्षो में धरती पर दो अरब लोग बढ़ जाएंगे। ऐसे में खाद्यान्न में 40 फीसदी की बढ़ोतरी करनी होगी और इसका अधिकांश हिस्सा उस उपजाऊ मिट्टी पर उगाया जाएगा, जो कि कुल भूभाग का 11 फीसदी ही है। खाद्यान्न उत्पाादन के अधीन अब नई भूमि लाना संभव नहीं है, जो भूमि बची है, वह भी तेजी से क्षरित हो रही है। संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक प्रतिवर्ष 27 अरब टन मिट्टी अपरदन, जल भराव, क्षारीकरण के कारण नष्ट हो रही है। मिट्टी की यह मात्रा एक करोड़ हेक्टेयर कृषि योग्य भूमि के बराबर है। यदि भूक्षरण की यही गति जारी रही तो अगले 30 वर्षो में दुनिया को खाद्य पदार्थो की भीषण कमी का सामना करना पड़ेगा। 2007-08 में खाद्य पदार्थो की कीमतों में वृद्धि का कारण शुष्कता का बढ़ना ही था, क्योंकि इसकी शुरुआत ऑस्ट्रेलिया में सूखा पड़ने से हुई थी। 2010 में भी रूस में सूखा पड़ने से खाद्यान्न की कीमतें ऊंची बनी हुई हैं। दुनिया भर में जिस ढंग से मरुस्थल का विस्तार हो रहा है, उससे उपजाऊ मिट्टी रेगिस्तान में तब्दील होती जा रही है। उदाहरण के लिए मध्य एशिया के गोबी मरुस्थल से उड़ी धूल उत्तर चीन से लेकर कोरिया तक के उपजाऊ मैदानों को निगल रही है। वहीं, भारत में थार की रेत उत्तर भारत के मैदानों को दफना रही है। इंडियन स्पेस रिसर्च आर्गनाइजेशन (इसरो) की हालिया रिपोर्ट के मुताबिक राजस्थान तक सिमटे थार मरुस्थल ने अब हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश तथा मध्य प्रदेश को अपनी चपेट में लेना शुरू कर दिया है। थार के विस्तार का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि 1996 तक 1.96150 वर्ग किमी में फैले रेगिस्तान का विस्तार अब 2.08110 वर्ग किमी तक हो गया है। विशेषज्ञों के अनुसार थार मरुस्थल मानसूनी हवाओं द्वारा प्रेरित रेतीला रेगिस्ताान है। यहां गर्मी के मौसम में वायु अपरदन एक बड़ी समस्या रहती है। अरावली की पहाडि़यां मरुस्थल के विस्तार में दीवार की भांति बाधा खड़ी करती रही हैं, लेकिन अंधाधुंध खनन के कारण इस प्राकृतिक दीवार में कई गलियारे बन गए हैं, जो मरुस्थल के विस्तार में सहायता पहुंचा रहे हैं। देश के दूसरे हिस्सों का भी तेजी से मरुस्थलीकरण हो रहा है। अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशंस सेंटर (एसएसी) ने 17 अन्य राष्ट्रीय एजेंसियों के साथ मिलकर मरुस्थलीकरण और भूमि की गुणवत्ता के गिरते स्तर पर देश का पहला एटलस बनाया गया है। इसके अनुसार देश के कुल भौगोलिक क्षेत्र (टीजीए) का कोई 25 फीसदी हिस्सा रेगिस्तान हो चुका है और 32 फीसदी भूमि की गुणवक्ता घटी है। इसके अलावा देश के 69 फीसदी हिस्से को शुष्क क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया गया है। धरती के मरुस्थलीकरण और मिट्टी की ऊपरी परत के क्षरण को रोकने का सबसे बेहतर तरीका है जल प्रबंधन, सूखा रोधी बीज और मिट्टी बचाने वाले समुदायों की आर्थिक सहायता। पृथ्वी पर कार्बन का 25 फीसदी मिट्टी में ही है। ऐसे में मिट्टी के संरक्षण से कार्बन उत्सर्जन में कमी आएगी और वैश्विक तापवृद्धि रोकने में भी मदद मिलेगी। दुर्भाग्यवश जलवायु परिवर्तन के इस अहम पहलू की ओर दुनिया नजर फेरे हुए है। (लेखक कृषि मामलों के जानकार हैं)

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