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Thursday, March 24, 2011

ताकि सह सकें भूकंप के झटके


दिल्ली और उससे सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बार-बार आ रहे भूकंप के झटके इस आशंका को गहराते हैं कि किसी भी दिन इस क्षेत्र को भीषण भूकंप और तबाही का सामना करना पड़ सकता है। बीते साल केंद्रीय शहरी विकास मंत्री ने दिल्ली में आए भूकंप के झटकों के बाद देश के करीब सौ शहरों को भूकंप सहित अन्य आपदाओं से निपटने के लिए जागरूक रहने और चुनौतियों से मुकाबले के लिए शहरी आपदा प्रबंधन को और अधिक प्रभावी बनाने की अपील की थी। उनकी सक्रियता यह भी बताती थी कि फिलहाल स्थानीय प्रशासन-सरकार भूकंप का पूरी तरह मुकाबला करने में अक्षम है।
विद्रूप यह है कि यह अक्षमता राष्ट्रीय राजधानी में भी साफ-साफ दिखती है। पिछले साल दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में एक अवैध पांच मंजिला इमारत के ढहने के आठ दिन बाद तक राहत और मलबा हटाने का काम जारी रहा था। जब एक इमारत के ढहने पर आठ-दस दिन बाद तक मलबा नहीं हट सका, तो भूकंप जैसी आपदा के समय में राहत और पुनर्वास काम कैसा होगा, इसे समझा जा सकता है। उस हादसे से यह भी स्पष्ट हुआ था कि बिल्डर-पुलिस प्रशासन और एमसीडी को न तो नियम-कायदों की परवाह है और न ही लोगों के जान-माल की। उन्हें तो बस अपनी तिजोरियां भरने की ही चिंता बनी रहती है। सही बात तो यह है कि प्रशासन के स्तर पर कभी भूकंप से बचने की दूरदर्शिता दिखाई ही नहीं गई। जाहिर है, इस क्षेत्र में अभी हमें काफी काम करना है।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन चार में आती है। यहां भूकंप का मतलब है भारी तबाही। रिक्टर स्केल पर तीन की तीव्रता का भूकंप आने पर जमीन के अंदर की पाइपलाइनों के फटने से ही भारी तबाही होगी। यदि भूकंप की तीव्रता 4.5 रिक्टर स्केल की हुई, तो तबाही की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस रफ्तार से दिल्ली की आबादी बढ़ रही है, उससे तबाही की भयंकरता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन चार में मुरादाबाद, दिल्ली और सोहना के सर्वाधिक आबादी वाले क्षेत्र आते हैं। दिल्ली में निर्मित ज्यादातर इमारतें भूकंप का एक झटका भी बर्दाश्त नहीं कर सकतीं, क्योंकि इनकी नींव कमजोर है। खासकर पुरानी दिल्ली की इमारतें इतनी खस्ताहाल हैं कि वहां की इमारतें भूकंप का सामना शायद ही कर सकें। ऊपर से गलियां इतनी तंग और संकरी हैं कि प्राकृतिक आपदा की स्थिति में व्यक्ति घर से बाहर ही नहीं निकल पाएगा और निकल भी गया तो गली पार करना दूभर होगा। क्योंकि उस स्थिति में मलबे से गलियां पटी होंगी। यही वजह है कि भूकंप की स्थिति में फायर ब्रिगेड वालों के लिए राहत कार्य करना और फंसे लोगों को निकाल पाना मुश्किल होगा। इसे शहरी विकास मंत्री एस जयपाल रेड्डी ने भी स्वीकारा है।
इसी तरह भूकंप की स्थिति में यमुनापार इलाके में यमुना किनारे बनी इमारतें ज्यादा प्रभावित होंगी। इसमें जमीन के अंदर मौजूद पहाड़ी चट्टानों के विचलन से उपजी तीव्र तरंगें तबाही को भयावह बनाए, तो आश्चर्य नहीं। भगवान न करे, बरसात के दिनों में अगर 7.2 की तीव्रता का भूकंप आए, तो दिल्ली का नक्शा ही बदल जाएगा। इसी वजह से पर्यावरणविदों ने यमुना किनारे खेलगांव के निर्माण का पुरजोर विरोध किया था। यदि आईआईटी, कानपुर के भूकंप सूचना केंद्र की मानें, तो हिमालयी क्षेत्र यानी गढ़वाल में 7.5 की तीव्रता का भूकंप आता है, तो उसके 250 किलोमीटर के दायरे में आनेवाली दिल्ली के विनाश को रोका नहीं जा सकता।
बेशक आपदाएं बताकर नहीं आतीं, लेकिन उनसे बचाव की कोशिश तो हम कर ही सकते हैं। इसलिए कमजोर मकानों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारे यहां आधुनिक निर्माण संबंधी जानकारी व जरूरी कार्यकुशलता के अभाव के कारण जन-हानि का जोखिम और बढ़ गया है। ऐसी स्थिति में पुराने मकान तोड़े तो नहीं जा सकते, लेकिन भूकंप संभावित क्षेत्रों में नए निर्माण भूकंप-रोधी तो सकते हैं। भूकंप-रोधी निर्माण में मात्र पांच फीसदी ही अधिक धन खर्च होता है। ध्यान रखना चाहिए कि भूकंप नहीं मारता, बल्कि मकान मारते हैं। लिहाजा जापान की त्रासदी को देखते हुए और भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र में रहते हुए सावधानी और दूरदर्शिता ही समय की मांग है।

Tuesday, March 22, 2011

यमुना का दर्द


प्रदूषण रोकने के लिए वैज्ञानिक मॉडल की जरूरत
यमुना शुद्धि की मांग को लेकर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनभावनाएं प्रबल होती जा रही हैं। यह एक शुभ संकेत है। पर क्या मात्र संकल्प लेने भर से हम यमुना को शुद्ध कर पाएंगे? इस पर गहराई से सोचने की जरूरत है। यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की लंबी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास यमुना की गंदगी के कारणों का संपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और सॉलिड वेस्ट के आकार-प्रकार, सृजन व उत्सर्जन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की गंदगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है, तो उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढांचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं?
हम मथुरा के ध्रुव टीले के नाले पर बोरी रखकर उसे रोकने का प्रयास करें और उस नाले में आने वाले गंदे पानी को ट्रीट करने या डाइवर्ट करने की कोई व्यवस्था न करें, तो यह केवल नाटक बनकर रह जाएगा। ठीक उसी तरह, जिस तरह यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले, पर उन्हीं के आश्रम-भंडारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्मोकोल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। ऐसा करने के लिए जरूरी है, मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े और बरतन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। आखिर कितने लोग यमुना केप्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या और जीवन-शैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?
राधारानी ब्रज चौरासी कोस की अनेक यात्राओं के दौरान हमने देखा कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पॉलिथीन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बॉक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाले करते हैं। जितना बड़ा आदमी या आश्रम या गेस्ट हाउस या कारखाना हो, यमुना में उतना ही ज्यादा उत्सर्जन।
नदी प्रदूषण के मामले में प्रधानमंत्री के सलाहकार मंडल के सदस्यों से बात करके मैंने जानना चाहा कि यमुना शुद्धि के लिए उनके पास लागू किए जाने योग्य ऐक्शन प्लान क्या है? उत्तर मिला कि देश के सात आईआईटी को मिलाकर एक संगठन बनाया गया है, जो डीपीआर (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट) तैयार करेगा। उसके बाद सरकार पर दबाव डालकर इसे लागू करवाया जाएगा। यह पूरी प्रक्रिया ही हास्यास्पद है। भारत सरकार के मंत्रालय बीते छह दशकों से इन समस्याओं के हल के लिए अरबों रुपये वेतन में ले चुके हैं और खरबों रुपये जमीन पर खर्च कर चुके हैं। फिर चाहे शहरों का प्रबंधन हो या नदियों का, नतीजा हमारे सामने है। यमुना सहनशीलता की सारी हदें पार कर बुरी तरह प्रदूषित होकर एक मृत नदीघोषित हो चुकी है। यह सही है कि आस्थावानों के लिए वह यम की बहन, भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी और हम सबकी माता सदृश्य है। पर क्या हम नहीं जानते कि समस्याओं का कारण सरकारी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और अविवेकपूर्ण नीति निर्माण ही है? इसलिए यमुना प्रदूषण की समस्या का हल सरकार नहीं कर पाएगी। उसने तो राजीव गांधी के समय में यमुना की शुद्धि पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए ही थे, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात।
इसलिए यमुना शुद्धि की पहल, तो लोगों को ही करनी होगी। जिसके लिए चार स्तर पर काम करने की जरूरत है। हर शहर में समझदार लोग साथ बैठकर पहले, अपने शहर की गंदगी को मैनेज करने का वैज्ञानिक और लागू किए जाने योग्य मॉडल विकसित करें। दूसरे कदम के रूप में युवाशक्ति को जोड़कर इस मॉडल को लागू करवाएं। तीसरा, इस मॉडल के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक धनराशि संग्रह करने या सरकार से निकलवाने का काम करें और फिर यमुना जी के प्रति श्रद्धा एवं आस्था रखने वाले आम लोग जनांदोलन के माध्यम से समाज में चेतना फैलाने का काम करें।
दो वर्ष पहले दिल्ली के एक बहुत बड़े अनाज निर्यातक मुझे पश्चिमी दिल्ली के अपने हजारों एकड़ के खेतों में ले गए, जहां बड़े वृक्षों वाले बगीचे भी थे। अचानक मेरे कानों में बहते जल की कल-कल ध्वनि पड़ी, तो मैंने चौंककर पूछा कि क्या यहां कोई नदी है? कुछ आगे बढ़ने पर हीरे की तरह चमकते बालू के कणों पर शीशे की तरह साफ जल वाली नदी दिखाई दी। मैंने उसका नाम पूछा, तो उन्होंने खिलखिलाकर कहा, ‘अरे ये तो यमुना जी हैं।यह स्थान दिल्ली में यमुना में गिरने वाले नजफगढ़ नाले से जरा पहले था। यानी दिल्ली में प्रवेश करते ही यमुना अपना स्वरूप खो देती है और एक गंदे नाले में बदल जाती है। यमुना में 70 फीसदी गंदगी केवल दिल्लीवालों की देन है। इसलिए यमुना मुक्ति आंदोलन चलाने वाले लोगों को सबसे ज्यादा दबाव दिल्लीवासियों पर बनाना चाहिए। उन्हें झकझोरना चाहिए और मजबूर करना चाहिए कि वे अपना जीवन-ढर्रा बदलें तथा गंदगी को या तो खुद साफ करें या अपने इलाके तक रोककर रखें। उसे यमुना में न जाने दें।
रोजाना 10 हजार से ज्यादा दिल्लीवासी वृंदावन आते हैं। इसलिए यमुना किनारे संकल्प लेने से ज्यादा प्रभावी होगा, अगर हम इन दिल्लीवालों के आगे पोस्टर और परचे लेकर खड़े हों और उनसे पूछें कि तुम बांके बिहारी का आशीर्वाद लेने तो आए हो, पर लौटकर उनकी प्रसन्नता के लिए यमुना शुद्धि का क्या प्रयास करोगे? इस एक छोटे से कदम से भी शुरुआत की जा सकती है।

Sunday, March 6, 2011

पर्यावरण की कीमत पर विकास नहीं


पिछले सप्ताह इक्वाडोर के एक न्यायालय ने तेल प्रदूषण के कारण वर्षा वन को हुए नुकासन की भरपाई के लिए अमेरिकी केवरोन कोर्प तेल कंपनी को 8.6 अरब डॉलर का जुर्माना भरने को कहा। बताया जाता है कि पर्यावरण के क्षेत्र में किसी न्यायालय द्वारा लगाया गया यह सबसे बड़ा जुर्माना है। आज दुनिया भर में पर्यावरण के बिगड़ते हालात के कारण यह मुद्दा जोर पकड़ने लगा है कि विकाल संतुलित हो। हमारे वन एवं पर्यावरण मंत्री का तो यहां तक कहना है कि सही मायने में देश की आर्थिक विकास दर नौ फीसदी नहीं, बल्कि 5.5 फीसदी से लेकर छह फीसदी के बीच है। उनका तर्क है कि आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण को हुए नुकसान की गणना की जाए, तो आर्थिक विकास के आंकडे़ इतने ही निकलेंगे। इसलिए संतुलित विकास आज दुनिया के सामने एक अहम मुद्दा है। खासकर विकासशील और अविकसित देशों में पर्यावरण को नजर अंदाज करके लंबे समय तक आर्थिक विकास को टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता। इसलिए विकासशील और कम विकसित देशों को एक साथ दो चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। चूंकि इन देशों में गरीबी अधिक है, करोड़ों लोग जिंदगी की बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं, इसलिए यहां विकास निहायत जरूरी है। लेकिन आर्थिक विकास को अधिक महत्व दिए जाने के कारण पर्यावरण की स्थिति बिगड़ती जा रही है। इसलिए इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना सबसे बड़ी चुनौती है।
इसे भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि उच्च आर्थिक विकास की राह में जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चुनौती है। पिछले सौ वर्षों के दौरान दुनिया की अर्थव्यवस्था में सात गुना बढ़ोतरी हुई और आबादी भी 1.6 अरब से बढ़कर 6.5 अरब हो गई। इस दौरान आधा ऊष्णकटिबंधीय वन खत्म हो गए। आज दुनिया की 70 नदियां सागर तक का सफर करने की ताकत खो चुकी हैं। वे बीच रास्ते में ही कहीं दम तोड़ देती हैं। आर्थिक विकास का मुद्दा केंद्र में होने के कारण पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है, वह कम नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, चीन और भारत में बरबाद हो रहे पर्यावरण की कीमत सकल राष्ट्रीय उत्पाद का तीन फीसदी है।
खासकर विकास के नाम पर पेड़ों का काटा जाना बेहद चिंताजनक है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि अकेले बंगलूरु शहर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान विकास के लिए 40,000 पेड़ों को काट डाला गया। पुणे के खेद और मावाल तालुका में संरक्षित वन को बरबाद कर दिया गया। आंध्रा लेक बिंड पावर प्रोजेक्ट ने, जिसे इंडो जर्मन इंटरप्राइजेज इनरकोन इंडिया द्वारा प्रमोट किया जा रहा है, 13 मीटर चौड़ी 20 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने के लिए तीन लाख से अधिक पेड़ों को काट दिया, जबकि केवल 26,000 पेड़ों को काटने की ही अनुमति मिली थी। हालांकि पिछले वर्ष 16 दिसंबर को बंबई हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी है। पर महत्वपूर्ण सवाल है कि विकास के नाम पर इतने पेड़ों को निर्ममता से काटे जाने की भरपाई आखिर कैसे होगी।
दरअसल, आज विकासशील और कम विकसित देशों में कहीं खाद्यान्न का संकट है, तो कहीं पानी की कमी। जिस गति से आबादी बढ़ती जा रही, उसी अनुपात में पानी की खपत भी बढ़ती जा रही है। एक ओर पानी की किल्लत महसूस की जा रही है, दूसरी ओर एक लीटर डीजल तैयार करने के लिए 9,200 लीटर और एक लीटर बायो फ्यूल बनाने के लिए 4,200 लीटर पानी खर्च किया जाता है। ऐसे में संतुलित विकास की जरूरत और भी महसूस होती है, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएंगे। एक अध्ययन में बताया गया है कि कुदरत हमें जितना पानी दे सकता है, उससे दस फीसदी ज्यादा पानी का खर्च प्रत्येक वर्ष बढ़ता जा रहा है।
नहीं भूलना चाहिए कि हमें जो कुदरती संसाधन मिले हैं, उसे भावी पीढ़ी को सौंपना हमारा ही कर्तव्य है। जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी पर पहले से ही खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में अगर हम पर्यावरण की अनदेखी कर सिर्फ अंधी विकास की दौड़ लगाएंगे, तो विकास की यह गाड़ी कब तक सरपट दौड़ पाएगी? आज तक हम प्रकृति से सिर्फ लेते रहे हैं, अब वक्त आ गया है कि हमें भी कुछ दें। जब तक पानी और जंगल का अस्तिव है, तभी तक हमारा अस्तिव है।