दिल्ली और उससे सटे राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में बार-बार आ रहे भूकंप के झटके इस आशंका को गहराते हैं कि किसी भी दिन इस क्षेत्र को भीषण भूकंप और तबाही का सामना करना पड़ सकता है। बीते साल केंद्रीय शहरी विकास मंत्री ने दिल्ली में आए भूकंप के झटकों के बाद देश के करीब सौ शहरों को भूकंप सहित अन्य आपदाओं से निपटने के लिए जागरूक रहने और चुनौतियों से मुकाबले के लिए शहरी आपदा प्रबंधन को और अधिक प्रभावी बनाने की अपील की थी। उनकी सक्रियता यह भी बताती थी कि फिलहाल स्थानीय प्रशासन-सरकार भूकंप का पूरी तरह मुकाबला करने में अक्षम है।
विद्रूप यह है कि यह अक्षमता राष्ट्रीय राजधानी में भी साफ-साफ दिखती है। पिछले साल दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में एक अवैध पांच मंजिला इमारत के ढहने के आठ दिन बाद तक राहत और मलबा हटाने का काम जारी रहा था। जब एक इमारत के ढहने पर आठ-दस दिन बाद तक मलबा नहीं हट सका, तो भूकंप जैसी आपदा के समय में राहत और पुनर्वास काम कैसा होगा, इसे समझा जा सकता है। उस हादसे से यह भी स्पष्ट हुआ था कि बिल्डर-पुलिस प्रशासन और एमसीडी को न तो नियम-कायदों की परवाह है और न ही लोगों के जान-माल की। उन्हें तो बस अपनी तिजोरियां भरने की ही चिंता बनी रहती है। सही बात तो यह है कि प्रशासन के स्तर पर कभी भूकंप से बचने की दूरदर्शिता दिखाई ही नहीं गई। जाहिर है, इस क्षेत्र में अभी हमें काफी काम करना है।
उल्लेखनीय है कि दिल्ली भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन चार में आती है। यहां भूकंप का मतलब है भारी तबाही। रिक्टर स्केल पर तीन की तीव्रता का भूकंप आने पर जमीन के अंदर की पाइपलाइनों के फटने से ही भारी तबाही होगी। यदि भूकंप की तीव्रता 4.5 रिक्टर स्केल की हुई, तो तबाही की कल्पना भी नहीं की जा सकती। जिस रफ्तार से दिल्ली की आबादी बढ़ रही है, उससे तबाही की भयंकरता का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
भूकंप की दृष्टि से अति संवेदनशील जोन चार में मुरादाबाद, दिल्ली और सोहना के सर्वाधिक आबादी वाले क्षेत्र आते हैं। दिल्ली में निर्मित ज्यादातर इमारतें भूकंप का एक झटका भी बर्दाश्त नहीं कर सकतीं, क्योंकि इनकी नींव कमजोर है। खासकर पुरानी दिल्ली की इमारतें इतनी खस्ताहाल हैं कि वहां की इमारतें भूकंप का सामना शायद ही कर सकें। ऊपर से गलियां इतनी तंग और संकरी हैं कि प्राकृतिक आपदा की स्थिति में व्यक्ति घर से बाहर ही नहीं निकल पाएगा और निकल भी गया तो गली पार करना दूभर होगा। क्योंकि उस स्थिति में मलबे से गलियां पटी होंगी। यही वजह है कि भूकंप की स्थिति में फायर ब्रिगेड वालों के लिए राहत कार्य करना और फंसे लोगों को निकाल पाना मुश्किल होगा। इसे शहरी विकास मंत्री एस जयपाल रेड्डी ने भी स्वीकारा है।
इसी तरह भूकंप की स्थिति में यमुनापार इलाके में यमुना किनारे बनी इमारतें ज्यादा प्रभावित होंगी। इसमें जमीन के अंदर मौजूद पहाड़ी चट्टानों के विचलन से उपजी तीव्र तरंगें तबाही को भयावह बनाए, तो आश्चर्य नहीं। भगवान न करे, बरसात के दिनों में अगर 7.2 की तीव्रता का भूकंप आए, तो दिल्ली का नक्शा ही बदल जाएगा। इसी वजह से पर्यावरणविदों ने यमुना किनारे खेलगांव के निर्माण का पुरजोर विरोध किया था। यदि आईआईटी, कानपुर के भूकंप सूचना केंद्र की मानें, तो हिमालयी क्षेत्र यानी गढ़वाल में 7.5 की तीव्रता का भूकंप आता है, तो उसके 250 किलोमीटर के दायरे में आनेवाली दिल्ली के विनाश को रोका नहीं जा सकता।
बेशक आपदाएं बताकर नहीं आतीं, लेकिन उनसे बचाव की कोशिश तो हम कर ही सकते हैं। इसलिए कमजोर मकानों की सुरक्षा सर्वोच्च प्राथमिकता होनी चाहिए। हमारे यहां आधुनिक निर्माण संबंधी जानकारी व जरूरी कार्यकुशलता के अभाव के कारण जन-हानि का जोखिम और बढ़ गया है। ऐसी स्थिति में पुराने मकान तोड़े तो नहीं जा सकते, लेकिन भूकंप संभावित क्षेत्रों में नए निर्माण भूकंप-रोधी तो सकते हैं। भूकंप-रोधी निर्माण में मात्र पांच फीसदी ही अधिक धन खर्च होता है। ध्यान रखना चाहिए कि भूकंप नहीं मारता, बल्कि मकान मारते हैं। लिहाजा जापान की त्रासदी को देखते हुए और भूकंप की दृष्टि से संवेदनशील क्षेत्र में रहते हुए सावधानी और दूरदर्शिता ही समय की मांग है।
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