दिल्ली की प्यास बुझाने के लिए पहले से ही टिहरी बांध से पानी लाया जाता है, लेकिन इसके बावजूद दिल्ली में पानी की किल्लत है। इस किल्लत को दूर करने के लिए हिमाचल प्रदेश में रेणुका बांध बनाने की बात हो रही है, लेकिन केंद्रीय पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने रेणुका बांध की मांग को ठुकरा दिया है। बहरहाल हमारे देश में केवल दिल्ली ही ऐसा शहर नहीं है जहां लोगों की आवश्यकता को पूरा करने के लिए सैकड़ों किलोमीटर से पानी लाया जाता है। चेन्नई में पानी 200 किलोमीटर दूर कृष्णा नदी से पानी लाया जाता है। बेंगलुरू में 100 किलोमीटर दूर कावेरी से पानी लाया जा रहा है। आइजवेल में एक किलोमीटर नीचे घाटी से पानी लाया जाता है, जो कि दूरी के मामले में कई सौ किलोमीटर के बराबर है। हमारे देश में ऐसे कई शहर है जहां काफी दूर से पानी लाया जाता है, लेकिन इन सबके बावजूद शहरों में पानी की आवश्यकता पूरी नहीं हो पा रही है। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि एशिया के 27 शहरों में प्रतिदिन पानी की उपलब्धता की एक सूची विश्व बैंक के द्वारा तैयार की गई है। इस सूची में ऐसे शहरों को शामिल किया गया जिनकी आबादी 10 लाख से अधिक है। इसमें खराब प्रदर्शन के मामले में दिल्ली और चेन्नई सबसे ऊपर हैं तो दूसरे नंबर पर मुंबई है। इसी तरह चौथे नंबर पर कोलकाता है। इससे यह साफ तौर पर जाहिर होता है कि हमारे शहरों में पानी आपूर्ति की स्थिति अच्छी नहीं है। इसके पीछे एक वजह यह भी है कि शहरों में पानी की आपूर्ति नदी और झीलों से किया जाता है। इसके अलावा भूमिगत जल का भी उपयोग किया जाता है। इसके कारण भूमिगत जल का जलस्तर लगातार नीचे की ओर गिरता जा रहा है। यह भी एक चिंता की विषय है, क्योंकि भारत दुनिया में भूमिगत जल के उपयोग के मामले में सबसे आगे है। विश्व बैंक के मुताबिक पूरी दुनिया में जितना भूमिगत जल का उपयोग किया जाता है उसमें भारत की हिस्सेदारी 25 फीसदी है। एक ओर तो भूजल का दोहन बढ़ता जा रहा है तो दूसरी ओर इसके रिचार्ज करने के साधन लगातार सिकुड़ते जा रहे है। इसका अनुमान इससे भी लगाया जा सकता है कि साठ के दशक में बेंगलूर के भीतर 260 झील थी और अब वहां केवल दो ही झील ऐसे है जहां पीने का पानी मिल सकता है। अहमदाबाद के भीतर 137 झील सूचीबद्ध हैं, लेकिन 65 झीलों के ऊपर निर्माण हो चुका है। अगर दिल्ली की ही बात करें तो यहां 508 जलक्षेत्रों की पहचान की गई है, लेकिन यह संरक्षित नहीं हैं। दरअसल हम विकास के दौर में उन चीजों के महत्व को नहीं समझ पा रहे है जिनका हमारे जीवन से गहरा संबंध है। इसी का नतीजा है कि हमें शहरों में पीने के पानी के संकट का सामना करना पड़ रहा है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि हमारे पूर्वजों की जो बची हुई विरासत है हम उसे बचाएं। साथ ही भविष्य में पानी के संकट के समाधान को गंभीरता से लेना होगा अन्यथा हालात बद से बदतर होते जाएंगे। इसके लिए सबसे अहम सवाल है कि शहरों में पानी की उपलब्धता को सुचारू बनाया जाए, क्योंकि हमारे देश के भीतर पानी के संग्रहण और वितरण की जो व्यवस्था है वह अब पुरानी पड़ चुकी है और इसकी देखरेख भी बेहतर ढं़ग से नहीं हो पा रही है। इसका नतीजा यह होता है कि पानी की आपूर्ति करने वाले पाइप फटने की वजह से और लीकेज के कारण 25 से 30 फीसदी पानी घरों में पहुंचने से पहले रास्ते में ही बर्बाद हो जाता है। इसलिए जरूरत इस बात की है कि पानी के संग्रहण और वितरण के तंत्र को दुरुस्त किया जाए ताकि रास्ते में पानी की बर्बादी कम से कम हो। पानी की बर्बादी को कम करने में आम लोगों की भागीदारी काफी महत्वपूर्ण है। पानी की बर्बादी को रोकने का सबसे बेहतर और सरल तरीका यह है कि हम पानी को लेकर अधिक संवेदनशील बने। यह कैसी विंडबना है कि दिल्ली अपने पीने के पानी का लगभग 50 फीसदी बर्बाद कर रही है, जिसमें से 30 फीसदी पानी का नुकसान तकनीकी खराबी के कारण बर्बाद हो रहा है। इस तरह प्रणाली में सुधार कर शहर में पानी की किल्लत को कम करने की बजाय हिमाचल प्रदेश से पानी लाने के लिए रेणुका बांध की बात हो रही है। यह बांध पर्यावरण के लिए कितना घातक होगा इसको सहज की महसूस किया जा सकता है। बांध प्रबंधन रिपोर्ट के मुताबिक बांधों की चपेट में एक लाख 67 हजार पेड़ आएंगे, जबकि निजी भूमि पर पेड़ों की गणना की जा रही है। इसलिए इस बात की सख्त जरूरत है कि शहरों में दूसरे जगहों से पानी लाने के बजाय संकट वाले शहरों को ही पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाया जाए। इसके लिए पहला तरीका तो यही है कि रेन वाटर हारवेस्टिंग सिस्टम को अपनाएं। भारत में वर्षा का पानी काफी मात्रा में मानसून से प्राप्त होता है। यह शहरों को पानी के मामले में आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक कारगर तरीका हो सकता है। दूसरा तरीका यह है कि वाटर ट्रीटमेंट द्वारा पानी की किल्लत को दूर किया जाए। सिंगापुर ने यह क्षमता हासिल कर लिया है कि वह जितने पानी का उपयोग करता है उस सारे पानी को रिसाइकिल करके पीने योग्य बना सकता है। यह अलग बात है कि वह केवल उपयोग किए गए 10 फीसदी पानी को ही रिसाइकिल कर पीने के लिए उपयोग कर रहा है। सिंगापुर में इस पानी को नया पानी बोला जाता है। भारत में भी ऐसे तकनीक को अपनाने की जरूरत है। ताकि समस्या का समाधान हो सके, क्योंकि तिरुपुर के 70 झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले लोगों द्वारा निजी पानी टैंकर को छह लाख रुपया दिया जाता है। यदि वाटर ट्रीटमेंट तकनीक को अपनाया जाए तो केवल 4.5 लाख रुपया खर्च आएगा। इससे पैसे की बचत के साथ-साथ निजी टैंकर की तुलना में बेहतर गुणवत्ता का पानी भी उपलब्ध हो पाएगा। तीसरा तरीका यह है कि हम पानी को बेवजह खर्च न करें, क्योंकि 1960 के दशक के पहले अमेरिका को भी पानी के संकट का सामना करना पड़ रहा था। वहां पानी को बेहतर तरीके से उपयोग करने का प्रयास किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि 1980-2000 के दौरान अमेरिका के भीतर प्रति व्यक्ति पानी के खपत में 20 फीसदी की कमी आई। अगर हम सब भी पानी को लेकर संवेदनशील बनें तो काफी हद तक पानी की समस्या का समाधान हो सकता है। जरा सोचिए 2020 मे क्या होगा, जब देश की 50 फीसदी आबादी शहरों में रहने लगेगी। इसलिए जरूरत इस बात की है कि पानी के मामले में शहरों को आत्मनिर्भर बनाया जाए। यहां पर यह भी याद करना जरूरी है कि भारत रत्न पुरस्कार से सम्मानित पूर्व अफ्रीकी राष्ट्रपति नेल्सन मंडेला ने कभी कहा था कि हमने दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति के तौर पर महसूस किया कि पानी का केवल देशों, महादेशों से ही नहीं, बल्कि इसका आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक संबंध भी है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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Saturday, April 9, 2011
Sunday, March 6, 2011
पर्यावरण की कीमत पर विकास नहीं
पिछले सप्ताह इक्वाडोर के एक न्यायालय ने तेल प्रदूषण के कारण वर्षा वन को हुए नुकासन की भरपाई के लिए अमेरिकी केवरोन कोर्प तेल कंपनी को 8.6 अरब डॉलर का जुर्माना भरने को कहा। बताया जाता है कि पर्यावरण के क्षेत्र में किसी न्यायालय द्वारा लगाया गया यह सबसे बड़ा जुर्माना है। आज दुनिया भर में पर्यावरण के बिगड़ते हालात के कारण यह मुद्दा जोर पकड़ने लगा है कि विकाल संतुलित हो। हमारे वन एवं पर्यावरण मंत्री का तो यहां तक कहना है कि सही मायने में देश की आर्थिक विकास दर नौ फीसदी नहीं, बल्कि 5.5 फीसदी से लेकर छह फीसदी के बीच है। उनका तर्क है कि आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण को हुए नुकसान की गणना की जाए, तो आर्थिक विकास के आंकडे़ इतने ही निकलेंगे। इसलिए संतुलित विकास आज दुनिया के सामने एक अहम मुद्दा है। खासकर विकासशील और अविकसित देशों में पर्यावरण को नजर अंदाज करके लंबे समय तक आर्थिक विकास को टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता। इसलिए विकासशील और कम विकसित देशों को एक साथ दो चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। चूंकि इन देशों में गरीबी अधिक है, करोड़ों लोग जिंदगी की बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं, इसलिए यहां विकास निहायत जरूरी है। लेकिन आर्थिक विकास को अधिक महत्व दिए जाने के कारण पर्यावरण की स्थिति बिगड़ती जा रही है। इसलिए इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना सबसे बड़ी चुनौती है।
इसे भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि उच्च आर्थिक विकास की राह में जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चुनौती है। पिछले सौ वर्षों के दौरान दुनिया की अर्थव्यवस्था में सात गुना बढ़ोतरी हुई और आबादी भी 1.6 अरब से बढ़कर 6.5 अरब हो गई। इस दौरान आधा ऊष्णकटिबंधीय वन खत्म हो गए। आज दुनिया की 70 नदियां सागर तक का सफर करने की ताकत खो चुकी हैं। वे बीच रास्ते में ही कहीं दम तोड़ देती हैं। आर्थिक विकास का मुद्दा केंद्र में होने के कारण पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है, वह कम नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, चीन और भारत में बरबाद हो रहे पर्यावरण की कीमत सकल राष्ट्रीय उत्पाद का तीन फीसदी है।
खासकर विकास के नाम पर पेड़ों का काटा जाना बेहद चिंताजनक है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि अकेले बंगलूरु शहर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान विकास के लिए 40,000 पेड़ों को काट डाला गया। पुणे के खेद और मावाल तालुका में संरक्षित वन को बरबाद कर दिया गया। आंध्रा लेक बिंड पावर प्रोजेक्ट ने, जिसे इंडो जर्मन इंटरप्राइजेज इनरकोन इंडिया द्वारा प्रमोट किया जा रहा है, 13 मीटर चौड़ी 20 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने के लिए तीन लाख से अधिक पेड़ों को काट दिया, जबकि केवल 26,000 पेड़ों को काटने की ही अनुमति मिली थी। हालांकि पिछले वर्ष 16 दिसंबर को बंबई हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी है। पर महत्वपूर्ण सवाल है कि विकास के नाम पर इतने पेड़ों को निर्ममता से काटे जाने की भरपाई आखिर कैसे होगी।
दरअसल, आज विकासशील और कम विकसित देशों में कहीं खाद्यान्न का संकट है, तो कहीं पानी की कमी। जिस गति से आबादी बढ़ती जा रही, उसी अनुपात में पानी की खपत भी बढ़ती जा रही है। एक ओर पानी की किल्लत महसूस की जा रही है, दूसरी ओर एक लीटर डीजल तैयार करने के लिए 9,200 लीटर और एक लीटर बायो फ्यूल बनाने के लिए 4,200 लीटर पानी खर्च किया जाता है। ऐसे में संतुलित विकास की जरूरत और भी महसूस होती है, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएंगे। एक अध्ययन में बताया गया है कि कुदरत हमें जितना पानी दे सकता है, उससे दस फीसदी ज्यादा पानी का खर्च प्रत्येक वर्ष बढ़ता जा रहा है।
नहीं भूलना चाहिए कि हमें जो कुदरती संसाधन मिले हैं, उसे भावी पीढ़ी को सौंपना हमारा ही कर्तव्य है। जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी पर पहले से ही खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में अगर हम पर्यावरण की अनदेखी कर सिर्फ अंधी विकास की दौड़ लगाएंगे, तो विकास की यह गाड़ी कब तक सरपट दौड़ पाएगी? आज तक हम प्रकृति से सिर्फ लेते रहे हैं, अब वक्त आ गया है कि हमें भी कुछ दें। जब तक पानी और जंगल का अस्तिव है, तभी तक हमारा अस्तिव है।
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