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Monday, March 7, 2011
जान पर बना यमुना का प्रदूषण
हमारे मुल्क में नदियों के अंदर बढ़ते प्रदूषण पर आए दिन र्चचा होती रहती है। प्रदूषण रोकने के लिए गोया बरसों से कई बड़ी परियोजनाएं भी चल रही हैं। लेकिन नतीजे देखें तो वही ‘ढाक के तीन पात’। प्रदूषण से हालात इतने भयावह हो गए हैं कि पेय जल तक का संकट गहरा गया है। राजधानी दिल्ली के 55 फीसद लोगों की जीवनदायिनी, उनकी प्यास बुझाने वाली- यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की मात्रा इतनी बढ़ गई है कि उसे साफ कर पीने योग्य बनाना तक दुष्कर हो गया है। बीते एक महीने में दिल्ली में दूसरी बार ऐसे हालात के चलते पेयजल शोधन संयंत्रों को रोक देना पड़ा। चंद्राबल और वजीराबाद के जलशोधन केंद्रों की सभी इकाइयों को महज इसलिए बंद करना पड़ा कि पानी में अमोनिया की मात्रा .002 से बढ़ते-बढ़ते 13 हो गई, जिससे पानी जहरीला हो गया। अब गर्मी आने को है। समय रहते यदि समस्या पार नहीं पा ली गई, तो हालात और भी विकराल हो जाएंगे। यमुना का प्रदूषण आहिस्ता-आहिस्ता अब लोगों की जान पर बन आया है। यमुना के पानी में जहरीले रसायनों की मात्रा ज्यादा होने को लेकर हरियाणा सरकार और दिल्ली जल बोर्ड के बीच तनातनी चल रही है। दिल्ली जल बोर्ड का कहना है कि हरियाणा के उद्योगों द्वारा यमुना नदी में जो कचरा डाला जाता है, उसकी वजह से ही पानी में अमोनिया की मात्रा ज्यादा हुई। जल बोर्ड ने इसकी शिकायत केंद्रीय प्रदूषण बोर्ड से भी की लेकिन कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकला जबकि खुद केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड ने कल- कारखानों से निकलने वाले पानी के सम्बंध में कड़े कायदे- कानून बना रखे हैं। इस बात को भी अभी कोई ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कानपुर में ऐलान किया था कि, ‘‘नदियों में मिलने वाले जहरीले रसायनों की जवाबदेही अंतत: केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड की होगी। यदि इस मामले में वह नाकाम साबित होता है तो, उसके खिलाफ कड़े कदम उठाए जाएंगे।’’ जयराम रमेश ने उस वक्त इसके बाबत निर्देश भी जारी किए। फिर भी हरियाणा और उत्तर प्रदेश के औद्योगिक इलाकों, पानीपत और बागपत में लगे कारखानों का विषैला पानी बिना रुके यमुना में लगातार गिरता रहा। यों, यमुना के प्रदूषण के लिए अकेला हरियाणा ही जिम्मेदार नहीं है बल्कि इसमें दिल्ली भी बराबर भागीदार है। शीला सरकार ने एक समय राजधानी के इलाकों में चल रहे कल-कारखानों को दिल्ली से बाहर बसाने के लिए बाकायदा एक मुहिम चलाई, जगह-जगह जल, मलशोधक संयंत्र लगाए, लेकिन हालात आज भी ऐसे बने हुए हैं कि, हजारों कारखाने रिहाइशी इलाकों के आसपास बने हैं और तिस पर रख-रखाव में लापरवाही के चलते ज्यादातर शोधन संयंत्र भी काम करना बंद कर चुके हैं। पिछले दिनों हुए राष्ट्रमंडल खेलों से जुड़े बुनियादी ढांचा सम्बंधी विकास कायरें ने भी यमुना को प्रदूषित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी। बीते कुछ सालों में दिल्ली में न सिर्फ वायु प्रदूषण बढ़ा है, बल्कि उसी रफ्तार में जल प्रदूषण भी। उद्योगों-कारखानों से निकलने वाला कचरा यमुना में लगातार गिरता है। औद्योगिक इकाइयां ज्यादा मुनाफे के चक्कर में कचरे के निस्तारण और परिशोधन के जानिब कतई संवेदनशील नहीं हैं। मंजर यह है कि यमुना के 1,376 किलोमीटर लम्बे रास्ते में मिलने वाली कुल गंदगी में से महज 2 फीसद रास्ते, यानी 22 किलोमीटर में मिलने वाली दिल्ली की 79 फीसद गंदगी ही यमुना को जहरीला बनाने के लिए काफी है। गंगा-यमुना को प्रदूषण मुक्त करने के लिए सरकार अब तक 15 अरब रुपये से अधिक खर्च कर चुकी है लेकिन उनकी वर्तमान हालत 20 साल पहले से कहीं बदतर है। गंगा को राष्ट्रीय नदी का दर्जा दिए जाने के बावजूद इसमें प्रदूषण जरा भी कम नहीं हुआ है। करोड़ों रुपये यमुना की भी सफाई के नाम पर बहा दिए गए, मगर रिहाइशी कॉलोनियों व कल-कारखानों से निकलने वाले गंदे पानी का कोई माकूल इंतजाम नहीं किया गया। जाहिर है, जब तक यह गंदा पानी यमुना में गिरने से नहीं रोका जाता, यमुना सफाई अभियान की सारी मुहिमें फिजूल हैं। ज्यादातर औद्योगिक इकाइयां रसूख वाले लोगों की हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंतण्रबोर्ड औद्योगिक-राजनीतिक दबाव के चलते औद्योगिक इकाइयों पर कोई कार्रवाई नहीं करता। कार्रवाई होती भी है तो वे अपने सियासी रसूख की वजह से बच निकलते हैं। इस पूरे मामले में दिल्ली सरकार भले ही हरियाणा सरकार को गुनहगार ठहराकर खुद को पाक-साफ साबित करे लेकिन वह खुद कितनी संजीदा है, यह किसी से छिपा नहीं है। प्रदूषण फैलाने वाली इकाइयों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई कर ही यमुना को बचाया जा सकता है।
Sunday, March 6, 2011
पर्यावरण की कीमत पर विकास नहीं
पिछले सप्ताह इक्वाडोर के एक न्यायालय ने तेल प्रदूषण के कारण वर्षा वन को हुए नुकासन की भरपाई के लिए अमेरिकी केवरोन कोर्प तेल कंपनी को 8.6 अरब डॉलर का जुर्माना भरने को कहा। बताया जाता है कि पर्यावरण के क्षेत्र में किसी न्यायालय द्वारा लगाया गया यह सबसे बड़ा जुर्माना है। आज दुनिया भर में पर्यावरण के बिगड़ते हालात के कारण यह मुद्दा जोर पकड़ने लगा है कि विकाल संतुलित हो। हमारे वन एवं पर्यावरण मंत्री का तो यहां तक कहना है कि सही मायने में देश की आर्थिक विकास दर नौ फीसदी नहीं, बल्कि 5.5 फीसदी से लेकर छह फीसदी के बीच है। उनका तर्क है कि आर्थिक विकास के कारण पर्यावरण को हुए नुकसान की गणना की जाए, तो आर्थिक विकास के आंकडे़ इतने ही निकलेंगे। इसलिए संतुलित विकास आज दुनिया के सामने एक अहम मुद्दा है। खासकर विकासशील और अविकसित देशों में पर्यावरण को नजर अंदाज करके लंबे समय तक आर्थिक विकास को टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता। इसलिए विकासशील और कम विकसित देशों को एक साथ दो चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। चूंकि इन देशों में गरीबी अधिक है, करोड़ों लोग जिंदगी की बुनियादी जरूरतों से वंचित हैं, इसलिए यहां विकास निहायत जरूरी है। लेकिन आर्थिक विकास को अधिक महत्व दिए जाने के कारण पर्यावरण की स्थिति बिगड़ती जा रही है। इसलिए इन दोनों के बीच संतुलन स्थापित करना सबसे बड़ी चुनौती है।
इसे भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता कि उच्च आर्थिक विकास की राह में जलवायु परिवर्तन सबसे बड़ी चुनौती है। पिछले सौ वर्षों के दौरान दुनिया की अर्थव्यवस्था में सात गुना बढ़ोतरी हुई और आबादी भी 1.6 अरब से बढ़कर 6.5 अरब हो गई। इस दौरान आधा ऊष्णकटिबंधीय वन खत्म हो गए। आज दुनिया की 70 नदियां सागर तक का सफर करने की ताकत खो चुकी हैं। वे बीच रास्ते में ही कहीं दम तोड़ देती हैं। आर्थिक विकास का मुद्दा केंद्र में होने के कारण पर्यावरण को जो नुकसान हो रहा है, वह कम नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक, चीन और भारत में बरबाद हो रहे पर्यावरण की कीमत सकल राष्ट्रीय उत्पाद का तीन फीसदी है।
खासकर विकास के नाम पर पेड़ों का काटा जाना बेहद चिंताजनक है। पर्यावरण कार्यकर्ताओं का कहना है कि अकेले बंगलूरु शहर में पिछले कुछ वर्षों के दौरान विकास के लिए 40,000 पेड़ों को काट डाला गया। पुणे के खेद और मावाल तालुका में संरक्षित वन को बरबाद कर दिया गया। आंध्रा लेक बिंड पावर प्रोजेक्ट ने, जिसे इंडो जर्मन इंटरप्राइजेज इनरकोन इंडिया द्वारा प्रमोट किया जा रहा है, 13 मीटर चौड़ी 20 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने के लिए तीन लाख से अधिक पेड़ों को काट दिया, जबकि केवल 26,000 पेड़ों को काटने की ही अनुमति मिली थी। हालांकि पिछले वर्ष 16 दिसंबर को बंबई हाई कोर्ट ने एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए पेड़ों को काटने पर रोक लगा दी है। पर महत्वपूर्ण सवाल है कि विकास के नाम पर इतने पेड़ों को निर्ममता से काटे जाने की भरपाई आखिर कैसे होगी।
दरअसल, आज विकासशील और कम विकसित देशों में कहीं खाद्यान्न का संकट है, तो कहीं पानी की कमी। जिस गति से आबादी बढ़ती जा रही, उसी अनुपात में पानी की खपत भी बढ़ती जा रही है। एक ओर पानी की किल्लत महसूस की जा रही है, दूसरी ओर एक लीटर डीजल तैयार करने के लिए 9,200 लीटर और एक लीटर बायो फ्यूल बनाने के लिए 4,200 लीटर पानी खर्च किया जाता है। ऐसे में संतुलित विकास की जरूरत और भी महसूस होती है, नहीं तो वह दिन दूर नहीं जब लोग बूंद-बूंद पानी के लिए तरस जाएंगे। एक अध्ययन में बताया गया है कि कुदरत हमें जितना पानी दे सकता है, उससे दस फीसदी ज्यादा पानी का खर्च प्रत्येक वर्ष बढ़ता जा रहा है।
नहीं भूलना चाहिए कि हमें जो कुदरती संसाधन मिले हैं, उसे भावी पीढ़ी को सौंपना हमारा ही कर्तव्य है। जलवायु परिवर्तन के कारण पृथ्वी पर पहले से ही खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में अगर हम पर्यावरण की अनदेखी कर सिर्फ अंधी विकास की दौड़ लगाएंगे, तो विकास की यह गाड़ी कब तक सरपट दौड़ पाएगी? आज तक हम प्रकृति से सिर्फ लेते रहे हैं, अब वक्त आ गया है कि हमें भी कुछ दें। जब तक पानी और जंगल का अस्तिव है, तभी तक हमारा अस्तिव है।
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