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Tuesday, March 22, 2011
रखना होगा बूंद-बूंद का हिसाब
वैज्ञानिक चेता रहे हैं कि जल सकंट दूर करने के ठोस कदम न उठाये गये तो मानव अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा। पानी के लिए यदि समय रहते कुछ सार्थक कर पाने में नाकाम रहे तो दुनिया से मिट जाएंगे। यह जानते-समझते हुए भी जिम्मेदार लोग अपेक्षित पहल करते नहीं दिखते। उन्हें इसकी कतई चिंता नहीं कि देश में प्रदूषित पानी पीने के कारण हर साल हजारों लोग जानलेवा बीमारियों का शिकार होकर असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं। जब देश की राजधानी ही इससे अछूती नहीं है, तो दूसरे राज्यों का हाल तो भगवान भरोसे ही मानिए। खेद है कि भारत के संविधान के मूल दस्तावेज में भूजल या उससे जुड़े मुद्दों का कोई उल्लेख नहीं है और न आजादी के बाद से आज तक भूजल से जुड़ी चुनौतियों और समस्याओं की विकरालता के बावजूद किसी ने भी भूजल को संविधान में जुड़वाने का प्रयास किया। देश की जल नीति में भूजल की समस्याओं की र्चचा तो है लेकिन अंतत: बांध निर्माण को ही प्राथमिकता मिली है जो पर्यावरण की दृष्टि से विनाश का परिचायक है। यह जानते-बूझते हुए भी कि बांध से न ऊर्जा का लक्ष्य हासिल हुआ और आर्थिक दवाब पड़ा सो अलग, सरकार आंख पर पट्टी बांधे बैठी है। जबकि प्राचीन पारंपरिक कुएं-तालाब आदि से न तो पर्यावरणीय बुराइयों का सामना करना पड़ता है, न पुनर्वास की समस्या आती है और न आर्थिक विसंगतियों से जूझना पड़ता है। हालांकि हमारे जल संसाधन विभागों के नीतिपरक दस्तावेजों में बांधों को खाद्यान्न सुरक्षा का कारगर तरीका बताया गया है जबकि सच्चाई यह है कि देश के ज्यादातर हिस्से में आज भी नलकूप और कुओं से सिचांई होती है और इन पर आधारित सिंचिंत क्षेत्र बांधों द्वारा सिंचिंत क्षेत्र के बराबर ही हैं। अगर कहा जाए कि सतही जल संरचनाओं (बांध) और नलकूपों तथा कुओं का खाद्यान्न सुरक्षा में योगदान लगभग बराबर है तो गलत नहीं होगा। लेकिन विडम्बना है कि सरकार के जल संसाधन विभागों द्वारा अधिकाधिक धन का उपयोग बांध और जलाशयों जैसी सतही जल सरंक्षण संरचनाओं पर ही खर्च होता है- कुओं, तालाबों, जोहड़ों आदि के निर्माण पर नहीं। यह विसंगति भी जल संकट की बढ़ोतरी का अहम कारण है। इस मामले में बांधों और भूजल का दोहन करने वाली जल संरचनाओं से जुड़ा आर्थिक विसंगति का मुद्दा गम्भीर है जिसकी कहीं कोई र्चचा नहीं होती। बांध और कुओंता लाबों आदि के निर्माण की लागत में जमीन-आसमान का अंतर झुठलाया नहीं जा सकता। भूजल के सवाल पर केन्द्र और राज्य सरकार तथा उनके योजनाकारों का प्रयास आकड़े जुटाना, उनकी जांच पड़ताल और शोध मात्र रहा है। अभी तक इस दिशा में परिणाम मूलक प्रयास नहीं हुए हैं। सर्वविदित है कि वर्षा जल का 3 से 7 फीसद भाग धरती के नीचे प्राकृतिक तरीके से संरक्षित होता है। भूजल सरंक्षण का यह काम प्रकृति करती है। इसके द्वारा ही आज तक कुओं और नलकूपों की मदद से जमीन के नीचे का पानी दुनिया को मिलता रहा है। यदि इस सरंक्षण की प्रक्रिया को मानवीय प्रयासों से बढ़ाया जाता है तो नलकूपों और कुओं, तालाबों आदि की संरक्षण क्षमता बढ़ायी जा सकती है। सभी जानते हैं कि भूजल की मात्रा बढ़ाकर नलकूपों और कुओं की उम्र और उनके द्वारा सिंचिंत क्षेत्र की सीमा बढ़ाई जा सकती है जबकि सतही जल सरंचनाओं परियोजनाओं (बांधों) की निर्धारित उम्र होती है और उसकी सिंचाई की क्षमता भी कुओं और नलकूपों से अधिक होती है लेकिन उसमें लगातार सिल्ट जमने के कारण सतही परियोजनाओं की उम्र जहां घटती जाती है, वहीं उसकी सिचाई की क्षमता भी दिन ब दिन कम होती चली जाती है। हमारे यहां अनुमानत: 4000 यूनिट यानी 4000 क्यूबिक किलोमीटर पानी बरसता है। जिसमें से 690 क्यूबिक किलोमीटर सतही जल सरंक्षण संरचनाओं यथा- बांध जलाशयों के माध्यम से सिंचाई के काम आता है और लगभग 2000 क्यूबिक किलोमीटर पेड़-पौधों की जड़ों में समा जाता है। कुछ भूजल में मिल जाता है, कुछ भाप बन कर उड़ जाता है। शेष 1310 क्यूबिक किलोमीटर पानी समुद्र में जा मिलता है जिसका कोई उपयोग नहीं हो पा रहा है। यदि सोची-समझी नीति के तहत इसे रिचार्ज के लिए संरक्षित किया जाए तो जल-सकंट नहीं रहेगा। लेकिन आज तक इस दिशा में हुए प्रयासों का कारगर परिणाम सामने नहीं आया है। जरूरी है औद्योगिक प्रतिष्ठानों पर अंकुश हेतु नीति-निर्धारण एवं घरेलू स्तर पर जल का अपव्यय रोकने हेतु प्रति व्यक्ति जल उपयोग की सीमा निर्धारण और बेकार बह जाने वाले वर्षा जल के उपयोग की व्यवस्था। भूजल को संविधान में स्थान दिलाने हेतु भी जरूरी कोशिश हो। सरकार को सतही और भूजल को समान महत्व देने हेतु राजी किया जाये। सतही और रिचार्ज सहित भूजल जल परियोजनाओं की नए सिरे से योजना बनाई जाये। पर्यावरणीय एवं टिकाऊ जल व्यवस्था के आधार पर कामों की योजना बनायी जाये और उसे जलनीति में शामिल किया जाये। सारा बरसाती पानी जो सतही सिंचाई योजनाओं के निर्माण में उपयोग में लाया जाता है, के स्थान पर उसके कुछ हिस्से को ग्राउंड वॉटर रिचार्ज योजनाओं के निर्माण हेतु आवंटित किया जाये। जब तक पानी की एक-एक बूंद का हिसाब नहीं रखा जायेगा और समाज को उसके महत्व के बारे में जानकारी नहीं दी जायेगी तब तक जल सकंट से छुटकारा असंभव है।
यमुना का दर्द
प्रदूषण रोकने के लिए वैज्ञानिक मॉडल की जरूरत
यमुना शुद्धि की मांग को लेकर पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जनभावनाएं प्रबल होती जा रही हैं। यह एक शुभ संकेत है। पर क्या मात्र संकल्प लेने भर से हम यमुना को शुद्ध कर पाएंगे? इस पर गहराई से सोचने की जरूरत है। यमुना शुद्धि का संकल्प लेने वालों की लंबी जमात है। पर इनमें से कितने लोग ऐसे हैं, जिनके पास यमुना की गंदगी के कारणों का संपूर्ण वैज्ञानिक अध्ययन उपलब्ध है? ऐसे कितने लोग हैं, जिन्होंने दिल्ली से लेकर इलाहाबाद तक यमुना के किनारे पड़ने वाले शहरों के सीवर और सॉलिड वेस्ट के आकार-प्रकार, सृजन व उत्सर्जन का अध्ययन कर यह जानने की कोशिश की है कि इन शहरों की गंदगी कितनी है और अगर इसे यमुना में गिरने से रोकना है, तो उसके लिए क्या आवश्यक आधारभूत ढांचा, मानवीय व वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं?
हम मथुरा के ध्रुव टीले के नाले पर बोरी रखकर उसे रोकने का प्रयास करें और उस नाले में आने वाले गंदे पानी को ट्रीट करने या डाइवर्ट करने की कोई व्यवस्था न करें, तो यह केवल नाटक बनकर रह जाएगा। ठीक उसी तरह, जिस तरह यमुना के किनारे खड़े होकर संत समाज यमुना शुद्धि का संकल्प तो ले, पर उन्हीं के आश्रम-भंडारों में नित्य प्रयोग होने वाली प्लास्टिक की बोतलें, गिलास, लिफाफे, थर्मोकोल की प्लेटें या दूसरे कूड़े को रोकने की कोई व्यवस्था ये संत न करें। ऐसा करने के लिए जरूरी है, मानसिकता में बदलाव। डिटर्जेंट से कपड़े और बरतन धोकर हम यमुना शुद्धि की बात नहीं कर सकते। आखिर कितने लोग यमुना केप्रदूषण को ध्यान में रखकर अपनी दिनचर्या और जीवन-शैली में बुनियादी बदलाव करने को तैयार हैं?
राधारानी ब्रज चौरासी कोस की अनेक यात्राओं के दौरान हमने देखा कि यमुना तल में एक मीटर से भी अधिक मोटी तह पॉलिथीन, टूथपेस्ट, साबुन के रैपर, टूथब्रश, रबड़ की टूटी चप्पलें, खाद्यान्न के पैकिंग बॉक्स, खैनी के पाउच जैसे उन सामानों से भरी पड़ी है, जिनका उपयोग यमुना के किनारे रहने वाले करते हैं। जितना बड़ा आदमी या आश्रम या गेस्ट हाउस या कारखाना हो, यमुना में उतना ही ज्यादा उत्सर्जन।
नदी प्रदूषण के मामले में प्रधानमंत्री के सलाहकार मंडल के सदस्यों से बात करके मैंने जानना चाहा कि यमुना शुद्धि के लिए उनके पास लागू किए जाने योग्य ऐक्शन प्लान क्या है? उत्तर मिला कि देश के सात आईआईटी को मिलाकर एक संगठन बनाया गया है, जो डीपीआर (विस्तृत परियोजना रिपोर्ट) तैयार करेगा। उसके बाद सरकार पर दबाव डालकर इसे लागू करवाया जाएगा। यह पूरी प्रक्रिया ही हास्यास्पद है। भारत सरकार के मंत्रालय बीते छह दशकों से इन समस्याओं के हल के लिए अरबों रुपये वेतन में ले चुके हैं और खरबों रुपये जमीन पर खर्च कर चुके हैं। फिर चाहे शहरों का प्रबंधन हो या नदियों का, नतीजा हमारे सामने है। यमुना सहनशीलता की सारी हदें पार कर बुरी तरह प्रदूषित होकर एक ‘मृत नदी’ घोषित हो चुकी है। यह सही है कि आस्थावानों के लिए वह यम की बहन, भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी और हम सबकी माता सदृश्य है। पर क्या हम नहीं जानते कि समस्याओं का कारण सरकारी लालफीताशाही, भ्रष्टाचार और अविवेकपूर्ण नीति निर्माण ही है? इसलिए यमुना प्रदूषण की समस्या का हल सरकार नहीं कर पाएगी। उसने तो राजीव गांधी के समय में यमुना की शुद्धि पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए ही थे, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात।
इसलिए यमुना शुद्धि की पहल, तो लोगों को ही करनी होगी। जिसके लिए चार स्तर पर काम करने की जरूरत है। हर शहर में समझदार लोग साथ बैठकर पहले, अपने शहर की गंदगी को मैनेज करने का वैज्ञानिक और लागू किए जाने योग्य मॉडल विकसित करें। दूसरे कदम के रूप में युवाशक्ति को जोड़कर इस मॉडल को लागू करवाएं। तीसरा, इस मॉडल के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक धनराशि संग्रह करने या सरकार से निकलवाने का काम करें और फिर यमुना जी के प्रति श्रद्धा एवं आस्था रखने वाले आम लोग जनांदोलन के माध्यम से समाज में चेतना फैलाने का काम करें।
दो वर्ष पहले दिल्ली के एक बहुत बड़े अनाज निर्यातक मुझे पश्चिमी दिल्ली के अपने हजारों एकड़ के खेतों में ले गए, जहां बड़े वृक्षों वाले बगीचे भी थे। अचानक मेरे कानों में बहते जल की कल-कल ध्वनि पड़ी, तो मैंने चौंककर पूछा कि क्या यहां कोई नदी है? कुछ आगे बढ़ने पर हीरे की तरह चमकते बालू के कणों पर शीशे की तरह साफ जल वाली नदी दिखाई दी। मैंने उसका नाम पूछा, तो उन्होंने खिलखिलाकर कहा, ‘अरे ये तो यमुना जी हैं।’ यह स्थान दिल्ली में यमुना में गिरने वाले नजफगढ़ नाले से जरा पहले था। यानी दिल्ली में प्रवेश करते ही यमुना अपना स्वरूप खो देती है और एक गंदे नाले में बदल जाती है। यमुना में 70 फीसदी गंदगी केवल दिल्लीवालों की देन है। इसलिए यमुना मुक्ति आंदोलन चलाने वाले लोगों को सबसे ज्यादा दबाव दिल्लीवासियों पर बनाना चाहिए। उन्हें झकझोरना चाहिए और मजबूर करना चाहिए कि वे अपना जीवन-ढर्रा बदलें तथा गंदगी को या तो खुद साफ करें या अपने इलाके तक रोककर रखें। उसे यमुना में न जाने दें।
रोजाना 10 हजार से ज्यादा दिल्लीवासी वृंदावन आते हैं। इसलिए यमुना किनारे संकल्प लेने से ज्यादा प्रभावी होगा, अगर हम इन दिल्लीवालों के आगे पोस्टर और परचे लेकर खड़े हों और उनसे पूछें कि तुम बांके बिहारी का आशीर्वाद लेने तो आए हो, पर लौटकर उनकी प्रसन्नता के लिए यमुना शुद्धि का क्या प्रयास करोगे? इस एक छोटे से कदम से भी शुरुआत की जा सकती है।
परमाणु खतरा
भूकंप और सुनामी से प्रभावित जापान के फुकुशीमा स्थित परमाणु रिएक्टरों से रेडिएशन का रिसाव जारी है और मानव स्वास्थ्य पर रेडिएशन के प्रभावों को लेकर गंभीर चिंताएं उत्पन्न हो गई हैं। फुकुशीमा के रिएक्टरों को सामान्य स्थिति में लाने की चेष्टा कर रहे जांबाज टेक्निशियनों के अलावा प्लांट से 12 से 50 मील के दायरे में रहने वाले लोगों और मलबे की साफ-सफाई में जुटे कर्मचारियों के स्वास्थ्य को सर्वाधिक खतरा है। इन लोगों को आने वाले वषरें और दशकों में थायराइड संबंधी समस्याओं और कैंसर का सामना करना पड़ सकता है। चिंता की बात यह है कि रेडियोएक्टिव पदाथरें ने फूड चेन को प्रदूषित कर दिया है। प्लांट से 90 मील दूर तक फार्मों से लिए गए दूध और पालक के नमूनों में रेडियो-एक्टिविटी का स्तर सामान्य से अधिक पाया गया है। प्लांट से 170 मील दूर टोक्यो में लिए गए पानी के नमूनों में भी अल्प मात्रा में रेडियो-एक्टिविटी पाई गई है। परमाणु रिएक्टरों और परमाणु बमों से निकलने वाला रेडिएशन आयोनाइजिंग रेडिएशन होता है। यह मानव शरीर के डीएनए को प्रभावित करता है। इससे कोशिकाएं इतनी ज्यादा क्षतिग्रस्त हो जाती हैं कि वे अंतत: नष्ट होने लगती हैं अथवा उनमें परिवर्तन या म्युटेशन होने लगते हैं, जो आगे चल कर कैंसर को जन्म दे सकते हैं। न्यूक्लियर रेडिएशन इतना ज्यादा ऊर्जावान होता है कि यह परमाणुओं से उनके इलेक्ट्रोंस को अलग करके उन्हें आयोनाइज कर देता है। यह आयोनाइजिंग रेडिएशन या तो परमाणुओं के बीच के जोड़ को तोड़ कर डीएनए मॉलिक्युल्स को प्रभावित करता है या पानी के मालिक्युल्स को आयोनाइज करके फ्री रेडिकल्स उत्पन्न करता है जो कि रासायनिक रूप से अत्यधिक रिएक्टिव होते हैं। यह रेडिएशन आसपास के मालिक्युल्स के जोड़ों को भी छिन्न-भिन्न कर देता है। मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में विकिरण सुरक्षा समिति के सदस्य पीटर डेडोन के अनुसार रेडियोएक्टिव तत्वों के केन्द्रक या न्यूक्लियस में क्षय होता रहता है। इसमें से अत्यधिक ऊर्जा वाले कण निकलते रहते हैं। यदि आप इन ऊर्जा-कणों के सामने आ जाते हैं तो ये आपके शरीर की कोशिकाओं के साथ प्रतिक्रिया करेंगे। एक तरह से आपकी कोशिकाओं और टिशुओं के भीतर ये ऊर्जा-कण विचरने लगेंगे। यदि रेडिएशन से डीएनए मालिक्युल्स में ज्यादा परिवर्तन हो जाता है तो कोशिकाएं विभाजित होना बंद कर देंगी और नष्ट होने लगेंगी। इससे उबकाई, सूजन और बालों का झड़ना जैसे लक्षणों के रूप में रेडिएशन सिकनेस सामने आएगी। जो कोशिकाएं कम क्षतिग्रस्त हुई हैं, वे जीवित रह कर विभाजित हो सकती हैं, लेकिन उनके डीएनए में होने वाला ढांचागत परिवर्तन कोशिकाओं की सामान्य प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है। इनमें वे मैकेनिजम भी शामिल हैं, जो यह तय करते हैं कि कोशिकाओं को कब और कैसे विभाजित होना चाहिए। जो कोशिकाएं अपने विभाजन को नियंत्रित नहीं कर पातीं, वे बेकाबू हो कर कैंसरकारक हो जाती हैं। शरीर में दाखिल होने वाले कुछ ऊर्जा-कण खास नुकसान किए बगैर ही शरीर से बाहर हो सकते हैं, लेकिन कुछ शरीर में बने रहते हैं। मसलन रेडियो-एक्टिव आयोडीन-131 सबसे ज्यादा खतरा उत्पन्न करती है क्योंकि थायराइड ग्लैंड तेजी से उसे सोख लेती है। आयोडीन-131 लंबे समय तक थायराइड में बनी रहती है। रेडियोएक्टिव आयोडीन का प्रभाव कितना गंभीर होता है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उक्रेन में चेर्नोबिल परमाणु हादसे के 25 साल बाद भी लोग थायराइड कैंसर के बढ़े हुए खतरे से जूझ रहे हैं। इन लोगो ने दुर्घटना के कई हफ्तों बाद जिस दूध और दुग्ध पदाथरें का सेवन किया था, उनमें रेडियोएक्टिव आयोडीन का असर था। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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