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Friday, January 21, 2011

कैसे रुकेगा वन्य जीवों का शिकार


कानूनी तौर पर प्रतिबंधित होने के बावजूद वन्य जीवों का शिकार कहीं भी रोका नहीं जा पा रहा है। कभी कोई हिरन को मार देता है तो कभी तेंदुए या फिर बाघ को। आए दिन वन्य जीवों के विभिन्न अंगों से बने सामान भी पकड़े जाते हैं। ऐसे लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई भी होती है। इसके बावजूद ऐसी घटनाएं कम नहीं हो रही हैं। यह संकट न केवल वन्य जीवों, बल्कि वनक्षेत्र पर भी साफ तौर पर देखा जा रहा है। यही कारण है कि वन और वन्य जीव दोनों ही बहुत तेजी से कम होते जा रहे हैं। कई जीवों और पेड़-पौधों का तो अब अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है। इसका नतीजा तरह-तरह की प्राकृतिक आपदाओं के रूप में पिछले दो-तीन दशकों से साफ तौर पर देखा जा रहा है। अगर इस प्रक्रिया को रोकने के लिए तुरंत प्रभावी कदम न उठाए गए तो प्रकृति में असंतुलन के भयावह परिणाम भुगतने ही पड़ेंगे। सरकार ने इस दिशा में कानून तो बना दिया है, लेकिन इससे अराजक तत्वों की प्रवृत्ति पर अभी तक कोई बड़ा फर्क नजर नहीं आया। इसकी बड़ी वजह शायद यह है कि सरकारी अमला इसमें अपनी पूरी सक्रियता नहीं दिखा रहा है। हाल में हुई कुछ घटनाएं इस धारणा को और पुख्ता करती हैं। हाल ही में वन्य जीवों के प्रति आम जनता की संवेदना का एक अच्छा उदाहरण हरियाणा में भिवानी के बारवांस गांव में सामने आया। वहां गांव की ऐतिहासिक बणी में किसी शिकारी ने एक हिरन को गोली मार दी। इसी बीच गांव के लोगों को इसका पता चल गया। मालूम होते ही बहुत सारे ग्रामीण वहां पहुंच गए। ग्रामीणों को आते देख शिकारी वहां से भाग गया। हालांकि हिरन को बचाया नहीं जा सका, लेकिन ग्रामीणों के इस प्रयास की सराहना तो की ही जानी चाहिए। इस तरह हिरनों का शिकार किए जाने से ग्रामीणों में रोष है। ग्रामीणों ने पुलिस से शिकारी को गिरफ्तार करने की मांग की है। इस बणी में करीब दो दर्जन हिरन हैं। इसके पहले भी ग्रामीण वहां प्रशासन से तारबंदी करने की मांग कर चुके हैं। यह अलग बात है कि अभी तक तारबंदी नहीं की जा सकी है। हालांकि केवल तारबंदी करके शिकारियों को रोकना संभव नहीं होगा। वास्तव में इसके लिए आम जनता की जागरूकता ही सबसे प्रभावी उपाय है। सही बात तो यह है कि पर्यावरण के प्रति प्रेम भारतीय जनमानस को परंपरा से मिला हुआ है, लेकिन वन्य जीवों को अराजक तत्वों से बचाने के लिए लोग जल्दी सामने नहीं आते। अराजक तत्वों की हिम्मत किस हद तक बढ़ गई है इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जंगली जीवों को मारकर उनके शरीर के अवशेषों के बने कई सामान देश की राजधानी दिल्ली तक बेचे जाने के लिए आते हैं। हाल ही में हाथी दांत बेचने के लिए एक व्यक्ति पूर्व केंद्रीय मंत्री मेनका गांधी के घर तक पहंुच गया था। मेनका गांधी ने उसे गिरफ्तार करवा दिया, लेकिन राजनेताओं में वन्य जीवों की सुरक्षा को गंभीरता से लेने वाले लोग बहुत कम दिखाई देते हैं। यही वजह है कि बेजुबान जानवरों का शिकार आम तौर पर होता रहता है। अराजक तत्व पकड़े तब जाते हैं जब वे शिकार के बाद जानवरों के शरीर से बने सामानों को ठिकाने लगाने या बेचने के काम में जुटे हुए होते हैं। इस तरह सामान तो पकड़ लिया जाता है, लेकिन जानवरों की जान नहीं बचाई जा पाती है। इसके बाद लंबी कानूनी कार्रवाई के बाद कई बार तो अपराधियों को सजा दे दी जाती है, लेकिन कई बार वे कानूनी पेंचीदगी का फायदा उठाकर बच भी निकलते हैं। वैसे भी सिर्फ सामान बरामद करके या दोषियों को सजा देकर पारिस्थितिक संतुलन को बचाया नहीं जा सकता है। देश की पारिस्थितिकी बचाई जा सके, इसके लिए जरूरी है कि जानवरों की जान बचाने की दिशा में कुछ गंभीर प्रयास किए जाएं। ऐसी व्यवस्था बनाई जाए कि जंगलों में वन्य जीवों का शिकार ही न होने पाए। सच तो यह है कि हमारे देश में वन्य जीवों का शिकार रोकने के लिए कानून और उनकी संख्या बढ़ाने के लिए परियोजनाएं तो बहुत हैं, लेकिन उनकी सुरक्षा के लिए पर्याप्त इंतजाम नहीं किए गए हैं। देश में जंगलों और वन्य जीव अभयारण्यों की वस्तुस्थिति पर गौर करें तो मालूम होता है कि यहां किसी भी जंगल में वन्य जीवों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त संख्या में कर्मचारी ही नहीं हैं। जो हैं उनके पास भी वन्य जीवों या जंगलों की सुरक्षा के लिए जो सुविधाएं होनी चाहिए, वह पर्याप्त नहीं हैं। कई जंगलों में तो ऐसी कोई व्यवस्था भी नहीं बनाई गई है कि जिससे वन्य जीव जंगल की सीमा से निकल कर बाहर गांवों की आबादी तक न पहुंचने पाएं। इसका नतीजा यह होता है कि अकसर जानवर जंगल से निकल कर गांवों तक जा पहुंचते हैं। ऐसी स्थिति में अगर सामान्य जानवर हुए तब तो ग्रामीण उन्हें केवल हांककर फिर से जंगल में भेज देते हैं, लेकिन अगर बाघ-चीते या लकड़बग्घे जैसे खतरनाक समझे जाने वाले जानवर हुए तो आत्मरक्षा के लिए ग्रामीण न चाहते हुए भी उन्हें मार देते हैं। मध्य प्रदेश और उत्तराखंड के नेशनल पार्को के जीवों के साथ ऐसा कई बार हो चुका है। हाल ही में हरियाणा के भी एक गांव में ऐसा ही हुआ। यहां अरावली की पहाडि़यों से एक तेंदुआ भटक कर गांव में पहुंच गया था। उसने एक महिला पर हमला भी कर दिया था। पहले तो उसे पकड़ने के लिए ग्रामीणों ने वन विभाग की मदद लेने की कोशिश की, लेकिन जब वन विभाग की टीम उसे नहीं पकड़ सकी तो ग्रामीणों ने ही उसे घेर कर मार डाला। ऐसी ही स्थितियों का लाभ उठाकर कई बार पेशेवर शिकारी भी वन्य जीवों की जान ले लेते हैं। असल में अराजक तत्व व्यवस्था में ऐसी ही छोटी-छोटी खामियों का फायदा उठाते हैं। बेहतर होगा कि इन खामियों को दूर करने के लिए गंभीर प्रयास किए जाएं। खास कर आम जनता को इस संबंध में जागरूक किया जाए और उसे वन्य जीवों के संरक्षण में अपनी सीधी भागीदारी बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाए। अगर बारवांस गांव के ग्रामीणों की तरह पूरे देश में आम जनता वन्य जीवों के प्रति संवेदनशील हो जाए और उनके संरक्षण में सक्रिय भागीदारी करे तो अराजक तत्वों पर नियंत्रण हासिल करना बहुत मुश्किल नहीं होगा। आम जनता के अभी ऐसे मामलों में सामने न आने की सबसे बड़ी वजह तो यही है कि अराजक तत्वों से निपटना किसी के लिए भी आसान बात नहीं होती है। यह बात केवल वन्य जीवों के शिकारियों के ही मामले में नहीं है। वे खुद को बचाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। उन्हें कानून और शासन का कोई खौफ नहीं रह गया है। इसीलिए आम आदमी वन्य जीवों के प्रति दया भाव रखते हुए भी अराजक तत्वों से किसी तरह का झगड़ा मोल लेना नहीं चाहता है। इसके अलावा छोटे-छोटे मामलों की भी न्यायिक प्रक्रिया बहुत लंबे समय तक चलने के कारण लोग कानूनी झमेलों में भी फंसने से डरते हैं। सरकार को जनता के भीतर यह भय निकालने का प्रयास करना चाहिए। (लेखक दैनिक जागरण के हिमाचल, हरियाणा व पंजाब के स्थानीय संपादक हैं)


Thursday, December 23, 2010

संकट बढ़ातीं धुआं उगलती कारें

जलवायु संकट मौजूदा दौर का एक न बदला जा सकने वाला नंगा सच है। विडंबना यह है कि हिमयुग के बाद पहली मर्तबा समूची इंसानी बिरादरी के सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है। दुनिया भर में यह समस्या कोई रातों-रात नहीं आ गई, बल्कि वातावरण में उन गैसों के बढ़ने से हुई, जिन्हें ग्रीन हाउस गैसें कहा जाता है। ये गैसें ऊर्जा केंद्रों, छोटी-बड़ी गाडि़यों, कल-कारखानों और खेती आदि से लगातार उत्सर्जित हो रही हैं। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में यातायात का एक बड़ा हिस्सा है, जिसमें भी सार्वजनिक यातायात की बजाय यातायात के लिए व्यक्तिगत साधन का इस्तेमाल इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है। हमारे मुल्क में, जहां बेलगाम कार्बन उत्सर्जन पहले ही पर्यावरण के सामने एक बड़ी चुनौती बना हुआ था, डीजल से चलने वाली बड़ी कारों के इस्तेमाल ने इस समस्या को और भी गंभीर बना दिया है। इस चुनौती से निपटने के लिए अभी हाल ही में पर्यावरण एवं राज्यमंत्री जयराम रमेश द्वारा जो प्रस्ताव लाया गया है, उसका न सिर्फ स्वागत किया जाना चाहिए, बल्कि इसे जल्द ही अमल में लाया जाना चाहिए। स्ंायुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा भारत में कम उत्सर्जन आधारित परिवहन विषय पर आयोजित कार्यशाला में जयराम रमेश ने कहा, हमें ऐसी वित्तीय नीति व्यवस्था बनानी चाहिए, जो एसयूवी या लग्जरी श्रेणी की कारों की खरीद को हतोत्साहित करती हो, इसके लिए हमें ऐसे वाहनों पर भारी कर या शुल्क लगा देना चाहिए, जिससे लोग किफायती ईधन खपत वाले वाहन खरीदने के लिए प्रेरित हों। परिवहन क्षेत्र में होने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए उन्होंने अपनी तरफ से यह प्रस्ताव भी रखा कि जीवाश्म ईधन के क्षेत्र में सरकार को सिर्फ रसोई गैस और कैरोसिन पर ही सब्सिडी देनी चाहिए, क्योंकि डीजल पर मिलने वाली सब्सिडी का फायदा बड़ी और आलीशान कारें चलाने वाले लोग उठा रहे हैं। जाहिर है पर्यावरण सुरक्षा के ऐतबार से यह प्रस्ताव काबिले तारीफ प्रस्ताव है। विलासिता के दर्जे में आने वाली कारों की खरीद को हतोत्साहित करने के लिए उन पर भारी टैक्स लगाने और नई वित्तीय नीति बनाने की वकालत हर लिहाज से जायज है। सरकार द्वारा डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी का मकसद खेती के लिए किसानों और माल ढुलाई के काम में लगे ट्रक मालिकों को राहत देना है, न कि इसलिए कि कुछ लोग अपनी हैसियत और शान बघारने के लिए बड़ी गाडि़यां रखें और पर्यावरण को प्रदूषित करें। डीजल से चलने वाले वाहन कितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं और उससे पर्यावरण को कितना नुकसान होता है? इसका अंदाजा राजधानी दिल्ली के महज एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। साल 2000 में दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर 140 माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर था। वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए दिल्ली सरकार ने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए सार्वजनिक परिवहन के वास्ते सीएनजी का इस्तेमाल लाजमी कर दिया। जैसे ही सीएनजी अनिवार्य हुई, वायु प्रदूषण का स्तर पांच साल के अंदर घटकर साल 2005 में एक सौ माइक्रोग्राम रह गया। लेकिन बढ़ते बाजारवाद और नवउदारवादी नीतियों के अमल में आने के बाद हमारे यहां जो उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिला, उससे लोगों में निजी वाहन रखने की प्रवृत्ति बढ़ी। बहरहाल, सीएनजी सार्वजनिक परिवहन में तो अनिवार्य रही, लेकिन निजी कारें इससे बची रहीं। जिसका नतीजा यह निकला कि कम ईधन खर्चे की वजह से समाज में डीजल चालित कारों का चलन बढ़ता चला गया। डीजल कारें बढ़ीं तो वायु प्रदूषण का जो आंकड़ा 100 माइक्रो ग्राम रह गया था, एक बार फिर वह बढ़ते-बढ़ते 150 माइक्रोग्राम को पार कर गया। सरकार ने सीएनजी की अनिवार्यता दरअसल डीजल बसों और टैक्सी-ऑटो से होने वाले प्रदूषण से निजात पाने के लिए की थी, लेकिन आज हालात यह बने हैं कि दिल्ली में डीजल से चलने वाली कारें 30 हजार से ज्यादा बसों के बराबर धुआं फेंक रही हैं। कारों की कुल संख्या यदि देखें तो डीजल कारें फिलवक्त 30 फीसदी से ज्यादा हैं और यह सिलसिला अगर यों ही चलता रहा तो निकट भविष्य में इसके 50 फीसदी तक पहुंचने की उम्मीद है। जाहिर है हालात काफी विकराल हैं, यदि समय रहते कोई वाजिब कदम नहीं उठाए गए तो हालत और भी बिगड़ सकते हैं। भारत में होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में परिवहन क्षेत्र की हिस्सेदारी इस वक्त बढ़ते-बढ़ते 7.5 फीसदी हो गई है। और यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो आईदा 10 सालों में इसके बढ़कर 15 फीसदी होने की आशंका है। जाहिर है, परिवहन क्षेत्र में ही हमें हाल-फिलहाल सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी यानी संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरशासकीय पैनल की रिपोर्ट कहती है कि यातायात के तरीकों में बुनियादी बदलाव कर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में काफी कमी लाई जा सकती है। मसलन, सड़क की बजाय रेल या अंतरराज्यीय जल मार्ग, कम यात्री वाहनों की तुलना में अधिक यात्री वाहनों का इस्तेमाल और शहरों के बेहतर नियोजन से यातायात की मांग में कमी करना आदि। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए यह रिपोर्ट हमें सुझाव ही नहीं देती, बल्कि हमें भविष्य के लिए भी आगाह करती है कि वाहन ईधन क्षमता को बाजार की ताकतों के सहारे छोड़ देना सही नहीं होगा। रिपोर्ट नव उदारवाद के स्वीकृत सिद्धांत के खिलाफ जाकर अधिक से अधिक नियंत्रण की वकालत करती है। और यह नियंत्रण कोई मुश्किल काम नहीं, बल्कि कम ऊर्जा लागत, बेहतर बाजार क्षमताओं और प्रौद्योगिकी में सुधार लाकर आसानी से मुमकिन है। कुल मिलाकर जलवायु संकट आज सारी दुनिया के सामने एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा है। जिस पर वैश्विक स्तर पर और भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। अब वह वक्त आ गया है कि विकसित और विकासशील दोनों ही मुल्क एक साथ बैठकर आम अवाम के अधिकारों को केंद्र में रखते हुए अपनी पर्यावरणीय नीतियों को बनाएं, क्योंकि जिस तरह से लोगों के अधिकार जलवायु संकट से प्रभावित हो रहे हैं, उसे देखते हुए एक विधिक ढांचे की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए हालांकि हमारी सरकार ने हाल ही में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन किया है, लेकिन वैश्विक स्तर पर भी क्योटो प्रोटोकाल के प्रावधानों को सही तरह से लागू करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल की जरूरत है, जो वैश्विक स्तर पर पर्यावरण और जलवायु पर होने वाले परिवर्तनों पर नजर रखे, बल्कि समय-समय पर जरूरी हस्तक्षेप भी करे। जलवायु परिवर्तन पर विधिक प्रावधानों के कम होने के बावजूद खाद्य सुरक्षा, आजीविका और स्वास्थ्य हर नागरिक के अधिकार हैं, जिन्हें हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)