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Thursday, December 23, 2010

इस साल हुई तापमान में दूसरी सबसे बड़ी बढ़ोतरी

टोकियो, एजेंसी : ग्लोबल वार्मिग के कारण धरती पर पड़ रहे दुष्प्रभावों से पूरी दुनिया चिंतित है। यह खबर अब इस चिंता को और भी बढ़ा सकती है। जापान के मौसम वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि इस साल पूरी दुनिया में जमीन और समुद्री सतह का वैश्विक तापमान वर्ष 1971 से 2000 के बीच के औसत तापमान से 0.36 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। इस बढ़ोतरी के लिए ग्लोबल वार्मिग जिम्मदार है। इसी के साथ ही 1891 से उपलब्ध आंकड़ों की तुलना के हिसाब से यह अब तक की दूसरी सबसे बड़ी बढ़त है। यानी करीब 119 साल में दूसरी बार तापमान में इतनी वृद्धि हुई है। तापमान बढ़ने का मौजूद रिकॉर्ड 1998 में बना था। तब 0.37 डिग्री से. की वृद्धि दर्ज की गई थी। जापान की मौसम संबंधी एजेंसी ने यहां जारी अपनी प्राथमिक रिपोर्ट में कहा कि जमीन का वैश्विक तापमान 0.68 डिग्री से. बढ़ा है जो एक नई ऊंचाई है। जापान का औसत तापमान पिछले 30 सालों के औसत से 0.85 डिग्री से. बढ़ा है। वर्ष 1898 के बाद से यह चौथी सबसे बड़ी वृद्धि है। क्योडो न्यूज एजेंसी की खबर के अनुसार, मौसम विज्ञान ने इस साल जनवरी से लेकर नवंबर तक के आंकड़ों के आधार पर यह जानकारियां दी हैं। जापान मौसम विज्ञानियों ने औसत तापमान में इतनी उल्लेखनीय बढ़त का जिम्मेदार ग्लोबल वार्मिग को बताया है जो ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के कारण लगातार बढ़ रही है। साथ ही समुद्री सतह के तापमान में वृद्धि एल निनो प्रभाव के कारण हुई है। रिपोर्ट में कहा गया है कि मौसम की ऐसी परिस्थितियां उत्तरी गोलार्ध में मध्य अक्षांश वाले क्षेत्रों में गर्म हवाएं चलने के कारण बनती हैं। कहा गया है कि पिछले 100 सालों में वैश्विक तापमान 0.68 डिग्री से. तक चढ़ चुका है जबकि जापान का तापमान पिछली शताब्दी के दौरान 1.15 डिग्री से. तक बढ़ा है। रिपोर्ट में कहा है कि 2010 में ग्रीनलैंड के कुछ हिस्सों और कनाडा के तापमान में 4 से 5 डिग्री से. तक वृद्धि दर्ज की गई है। इस साल जून से अगस्त तक की गर्मियों में जापान का औसत तापमान अब तक का सबसे ज्यादा रिकार्ड किया गया। मगर मार्च से मई के बीच का निम्न तापमान साल के औसत तापमान को नीचे ले आया। मौसम विभाग ने दुनियाभर के 1300 स्थलों से आंकड़ें जुटाकर जमीन के औसत वैश्रि्वक तापमान का आकलन किया है। वहीं जापान के तापमान का आकलन करने के लिए दक्षिण में ओकिनावा से लेकर उत्तर में होक्केदो तक 17 स्थलों के आंकड़े जुटाए गए हैं। इस बीच एजेंसी की एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2010 में टाइफूनों में विकसित हुए तीव्र दबावों की संख्या 14 पर ही बने रहने की उम्मीद जताई गई है। 1951 से उपलब्ध आंकड़ों की तुलना करने पर पता चला कि उस साल के बाद यह सबसे छोटी संख्या (14) है। इससे पहले सबसे कम संख्या 1998 (16) में दर्ज की गई थी। वर्ष 1971 से 2000 के बीच की औसत संख्या 26.7 रही थी।

संकट बढ़ातीं धुआं उगलती कारें

जलवायु संकट मौजूदा दौर का एक न बदला जा सकने वाला नंगा सच है। विडंबना यह है कि हिमयुग के बाद पहली मर्तबा समूची इंसानी बिरादरी के सामने अस्तित्व का संकट आन खड़ा हुआ है। दुनिया भर में यह समस्या कोई रातों-रात नहीं आ गई, बल्कि वातावरण में उन गैसों के बढ़ने से हुई, जिन्हें ग्रीन हाउस गैसें कहा जाता है। ये गैसें ऊर्जा केंद्रों, छोटी-बड़ी गाडि़यों, कल-कारखानों और खेती आदि से लगातार उत्सर्जित हो रही हैं। ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन में यातायात का एक बड़ा हिस्सा है, जिसमें भी सार्वजनिक यातायात की बजाय यातायात के लिए व्यक्तिगत साधन का इस्तेमाल इसके लिए ज्यादा जिम्मेदार है। हमारे मुल्क में, जहां बेलगाम कार्बन उत्सर्जन पहले ही पर्यावरण के सामने एक बड़ी चुनौती बना हुआ था, डीजल से चलने वाली बड़ी कारों के इस्तेमाल ने इस समस्या को और भी गंभीर बना दिया है। इस चुनौती से निपटने के लिए अभी हाल ही में पर्यावरण एवं राज्यमंत्री जयराम रमेश द्वारा जो प्रस्ताव लाया गया है, उसका न सिर्फ स्वागत किया जाना चाहिए, बल्कि इसे जल्द ही अमल में लाया जाना चाहिए। स्ंायुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम द्वारा भारत में कम उत्सर्जन आधारित परिवहन विषय पर आयोजित कार्यशाला में जयराम रमेश ने कहा, हमें ऐसी वित्तीय नीति व्यवस्था बनानी चाहिए, जो एसयूवी या लग्जरी श्रेणी की कारों की खरीद को हतोत्साहित करती हो, इसके लिए हमें ऐसे वाहनों पर भारी कर या शुल्क लगा देना चाहिए, जिससे लोग किफायती ईधन खपत वाले वाहन खरीदने के लिए प्रेरित हों। परिवहन क्षेत्र में होने वाली ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए उन्होंने अपनी तरफ से यह प्रस्ताव भी रखा कि जीवाश्म ईधन के क्षेत्र में सरकार को सिर्फ रसोई गैस और कैरोसिन पर ही सब्सिडी देनी चाहिए, क्योंकि डीजल पर मिलने वाली सब्सिडी का फायदा बड़ी और आलीशान कारें चलाने वाले लोग उठा रहे हैं। जाहिर है पर्यावरण सुरक्षा के ऐतबार से यह प्रस्ताव काबिले तारीफ प्रस्ताव है। विलासिता के दर्जे में आने वाली कारों की खरीद को हतोत्साहित करने के लिए उन पर भारी टैक्स लगाने और नई वित्तीय नीति बनाने की वकालत हर लिहाज से जायज है। सरकार द्वारा डीजल पर दी जाने वाली सब्सिडी का मकसद खेती के लिए किसानों और माल ढुलाई के काम में लगे ट्रक मालिकों को राहत देना है, न कि इसलिए कि कुछ लोग अपनी हैसियत और शान बघारने के लिए बड़ी गाडि़यां रखें और पर्यावरण को प्रदूषित करें। डीजल से चलने वाले वाहन कितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं और उससे पर्यावरण को कितना नुकसान होता है? इसका अंदाजा राजधानी दिल्ली के महज एक छोटे से उदाहरण से समझा जा सकता है। साल 2000 में दिल्ली में वायु प्रदूषण का स्तर 140 माइक्रो ग्राम प्रति घन मीटर था। वायु प्रदूषण की समस्या से निपटने के लिए दिल्ली सरकार ने एक क्रांतिकारी कदम उठाते हुए सार्वजनिक परिवहन के वास्ते सीएनजी का इस्तेमाल लाजमी कर दिया। जैसे ही सीएनजी अनिवार्य हुई, वायु प्रदूषण का स्तर पांच साल के अंदर घटकर साल 2005 में एक सौ माइक्रोग्राम रह गया। लेकिन बढ़ते बाजारवाद और नवउदारवादी नीतियों के अमल में आने के बाद हमारे यहां जो उपभोक्तावाद को बढ़ावा मिला, उससे लोगों में निजी वाहन रखने की प्रवृत्ति बढ़ी। बहरहाल, सीएनजी सार्वजनिक परिवहन में तो अनिवार्य रही, लेकिन निजी कारें इससे बची रहीं। जिसका नतीजा यह निकला कि कम ईधन खर्चे की वजह से समाज में डीजल चालित कारों का चलन बढ़ता चला गया। डीजल कारें बढ़ीं तो वायु प्रदूषण का जो आंकड़ा 100 माइक्रो ग्राम रह गया था, एक बार फिर वह बढ़ते-बढ़ते 150 माइक्रोग्राम को पार कर गया। सरकार ने सीएनजी की अनिवार्यता दरअसल डीजल बसों और टैक्सी-ऑटो से होने वाले प्रदूषण से निजात पाने के लिए की थी, लेकिन आज हालात यह बने हैं कि दिल्ली में डीजल से चलने वाली कारें 30 हजार से ज्यादा बसों के बराबर धुआं फेंक रही हैं। कारों की कुल संख्या यदि देखें तो डीजल कारें फिलवक्त 30 फीसदी से ज्यादा हैं और यह सिलसिला अगर यों ही चलता रहा तो निकट भविष्य में इसके 50 फीसदी तक पहुंचने की उम्मीद है। जाहिर है हालात काफी विकराल हैं, यदि समय रहते कोई वाजिब कदम नहीं उठाए गए तो हालत और भी बिगड़ सकते हैं। भारत में होने वाले ग्रीन हाउस गैसों के कुल उत्सर्जन में परिवहन क्षेत्र की हिस्सेदारी इस वक्त बढ़ते-बढ़ते 7.5 फीसदी हो गई है। और यदि इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो आईदा 10 सालों में इसके बढ़कर 15 फीसदी होने की आशंका है। जाहिर है, परिवहन क्षेत्र में ही हमें हाल-फिलहाल सबसे ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है। जलवायु परिवर्तन पर आईपीसीसी यानी संयुक्त राष्ट्र संघ के अंतरशासकीय पैनल की रिपोर्ट कहती है कि यातायात के तरीकों में बुनियादी बदलाव कर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में काफी कमी लाई जा सकती है। मसलन, सड़क की बजाय रेल या अंतरराज्यीय जल मार्ग, कम यात्री वाहनों की तुलना में अधिक यात्री वाहनों का इस्तेमाल और शहरों के बेहतर नियोजन से यातायात की मांग में कमी करना आदि। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लिए यह रिपोर्ट हमें सुझाव ही नहीं देती, बल्कि हमें भविष्य के लिए भी आगाह करती है कि वाहन ईधन क्षमता को बाजार की ताकतों के सहारे छोड़ देना सही नहीं होगा। रिपोर्ट नव उदारवाद के स्वीकृत सिद्धांत के खिलाफ जाकर अधिक से अधिक नियंत्रण की वकालत करती है। और यह नियंत्रण कोई मुश्किल काम नहीं, बल्कि कम ऊर्जा लागत, बेहतर बाजार क्षमताओं और प्रौद्योगिकी में सुधार लाकर आसानी से मुमकिन है। कुल मिलाकर जलवायु संकट आज सारी दुनिया के सामने एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा है। जिस पर वैश्विक स्तर पर और भी गंभीरता से सोचने की जरूरत है। अब वह वक्त आ गया है कि विकसित और विकासशील दोनों ही मुल्क एक साथ बैठकर आम अवाम के अधिकारों को केंद्र में रखते हुए अपनी पर्यावरणीय नीतियों को बनाएं, क्योंकि जिस तरह से लोगों के अधिकार जलवायु संकट से प्रभावित हो रहे हैं, उसे देखते हुए एक विधिक ढांचे की जरूरत लंबे समय से महसूस की जा रही है। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए हालांकि हमारी सरकार ने हाल ही में राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण का गठन किया है, लेकिन वैश्विक स्तर पर भी क्योटो प्रोटोकाल के प्रावधानों को सही तरह से लागू करने के लिए एक अंतरराष्ट्रीय ट्रिब्यूनल की जरूरत है, जो वैश्विक स्तर पर पर्यावरण और जलवायु पर होने वाले परिवर्तनों पर नजर रखे, बल्कि समय-समय पर जरूरी हस्तक्षेप भी करे। जलवायु परिवर्तन पर विधिक प्रावधानों के कम होने के बावजूद खाद्य सुरक्षा, आजीविका और स्वास्थ्य हर नागरिक के अधिकार हैं, जिन्हें हर हाल में सुनिश्चित किया जाना चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)