Showing posts with label राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप). Show all posts
Showing posts with label राष्ट्रीय सहारा (हस्तक्षेप). Show all posts

Saturday, March 26, 2011

सरकार को रोका जाए परमाणु रिएक्टरों की स्थापना करने से


जापान के हादसे से जो संदेश स्पष्ट तौर पर आ रहे हैं, उन्हें भारत में समझा जाना बेहद जरूरी है। भारत को नए परमाणु बिजलीघर का काम रोकना चाहिए और पुराने परमाणु बिजलीघरों को बंद करना चाहिए
जापान की प्राकृतिक आपदा से हम सब दुखी हैं और पूरी दुनिया की सहानुभूति जापान के साथ है। जापान के लोग बड़े बहादुर, मेधावी और परिश्रमी हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जापान पर परमाणु बम गिराए गए थे और इसके बाद भी इस देश ने खुद को फिर से खड़ा किया और एक चौथाई सदी में ही दुनिया की प्रमुख आर्थिक ताकत बनकर उभरा। दुनिया में जापान ऐसा इकलौता देश है जिसने परमाणु बम की मार झेली है। 1945 में वहां बम गिराए गए थे। पर अहम सवाल यह है कि आणविक तबाही को देखने के बाद आखिर क्यों जापान परमाणु ऊर्जा पर निर्भर हुआ? जापान में कुल 11 परमाणु बिजली घर हैं। इनमें से ही एक है फुकुशिमा का परमाणु बिजली घर। जहां की हालत बद से बदतर होती दिख रही है। परमाणु ऊर्जा के प्रति जापान के आकर्षण को देखते हुए भारत जैसे कई देशों ने परमाणु बिजलीघर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाए। दावा किया गया कि परमाणु ऊर्जा सुरक्षित है। जापान में आए भूकम्प ने न सिर्फ फुकुशिमा के परमाणु बिजलीघर को हिलाया बल्कि जापान के परमाणु सुरक्षा के दावे को भी इसने झुठला दिया। अभी अमेरिका, जापान, रूस और पश्चिमी यूरोप में जिस तरह का उद्योग केंद्रित विकास मॉडल अपनाया जा रहा है, वह सरकार की आंखों पर पट्टी बांधने का काम कर रहा है। नीति निर्धारकों के लिए मानवता का कोई मोल नहीं रह गया है बल्कि उन्हें किसी भी कीमत पर विकास चाहिए। भारत सरकार भी इसी रास्ते पर चल रही है। लोगों के विरोध के बावजूद भारत सरकार ने अमेरिका, रूस और जापान के साथ परमाणु करार किया है ताकि देश भर में सात परमाणु बिजलीघर स्थापित किए जा सकें। पर जापान के हादसे से जो संदेश स्पष्ट तौर पर निकल रहा है, उसे भारत में समझा जाना बेहद जरूरी है। भारत को नए परमाणु बिजलीघर का काम रोकना चाहिए और पुराने परमाणु बिजलीघरों को बंद करना चाहिए। इनमें से कुछ भूकम्प सम्भावित क्षेत्र में हैं। उदाहरण के तौर पर दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु बिजलीघर महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के जैतापुर में लगाने की योजना है। इसकी क्षमता 10,000 मेगावॉट होगी। यह इलाका भूकम्प सम्भावित क्षेत्र में है। देश अभी लातूर के भूकम्प को भूला नहीं है और जैतापुर और लातूर की दूरी बहुत ज्यादा नहीं है। यह स्पष्ट तौर पर दिख रहा है कि सरकार तथाकथित विकास की आड़ में कुछ भी करने को तैयार है। ऐसे में देश की जनता को जापान के परमाणु हादसे के संकेत को समझना होगा और किसी भी नए परमाणु बिजलीघर को लगाने से सरकार को रोकना होगा।



अब तक भारत में हुई परमाणु दुर्घटनाएं


4 मई 1987 कल्पक्कम में परमाणु रिएक्टर में ईंधन भरते वक्त दुर्घटना हुई थी और इससे रिएक्टर प्रभावित हुआ था।
10 सितम्बर 1989 तारापुर में रेडियोधर्मी आयोडिन का रिसाव हो गया था। यह सामान्य स्तर से कहीं अधिक था।
13 मई 1992 तारापुर के रिएक्टर में एक पाइप में खराबी आने से 12 क्यूरी रेडियोधर्मिता का उत्सर्जन हुआ था।
31 मार्च 1993 नरौरा के रिएक्टर में विंड टरबाइन के पंखे आपस में टकराए और आग लग गई थी। इसके बाद यह बिजलीघर साल भर तक बंद रहा।
13 मई 1994 कैगा में निर्माण कार्य के दौरान ही रिएक्टर का एक आंतरिक गुंबद गिर गया था जिससे विकिरण का खतरा पैदा हुआ।
2 फरवरी 1995 रावतभाटा के परमाणु बिजलीघर से रेडियोधर्मी हीलियम और भारी जल रिसकर राणा प्रताप सागर नदी में पहुंच गया था।
26 दिसम्बर 2004 सुनामी की वजह से कल्पक्कम के परमाणु बिजलीघर में पानी भर गया था। इसके बाद इसे बंद करना पड़ा था।
25 नवम्बर 2009 कैगा में अचानक परमाणु बिजलीघर के कर्मचारी बीमार पड़ने लगे। जांच के दौरान पता चला कि 92 लोगों के मूत्र में ट्रीटीयम था। इन सभी लोगों ने पानी ठंढा करने वाले कूलर से पानी पी लिया था। बाद में पता चला कि किसी कर्मचारी ने इस कूलर में भारी जल भर दिया था।


मानवता के लिए खतरे की घंटी फुकुशिमा


सम्भव है कि अभी इस दुर्घटना के दूरगामी प्रभावों को नहीं समझा जाए लेकिन आने वाले दिनों में लोग इस दुर्घटना को मानवता के विकास के अहम मोड़ के तौर पर याद करेंगे। यह दुर्घटना परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले सभी लोगों के मन में एक सवाल जरूर पैदा करेगी। उन्हें यह सोचने पर जरूर मजबूर करेगी कि रिएक्टर के तौर पर हम कहीं इनसानों के मौत का सामान तो नहीं बना रहे। यह वक्त की जरूरत है कि अब पूरी दुनिया परमाणु ऊर्जा के मोह को त्यागकर आगे बढ़े। इसलिए अब इस दुर्घटना से सबक लेते हुए आगे की रणनीति तय की जानी चाहिए
जापान के फुकुशिमा की दुर्घटना ने इस बात को साबित कर दिया है कि परमाणु विज्ञान में इंसान की समझ अभी कितनी कम है। पर इसके बावजूद हमने परमाणु रिएक्टर लगाना शुरू कर दिया है और वह भी ऐसी जगहों पर, जहां प्राकृतिक आपदाओं का खतरा ज्यादा है। अभी दुनिया में परमाणु विज्ञान के जो बड़े जानकार हैं, उन्हें सिर्फ यह पता है कि कैसे परमाणु रिएक्टर के जरिए बिजली बनाई जाए और कैसे इसे लोगों के घरों तक पहुंचाया जा सके। पर उन्हें यह नहीं पता कि दुर्घटना होने की स्थिति में रिएक्टर को तत्काल काबू में कैसे किया जाए? इसके बावजूद वे नेताओं को यह ज्ञान देते हुए नहीं अघाते कि परमाणु बिजलीघर ऊर्जा के अभाव को दूर कर देंगे। फुकुशिमा हादसा पूरी मानवता के लिए खतरे की घंटी है। सम्भव है कि अभी इस दुर्घटना के दूरगामी प्रभावों को नहीं समझा जाए लेकिन आने वाले दिनों में लोग इस दुर्घटना को मानवता के विकास के अहम मोड़ के तौर पर याद करेंगे। यह दुर्घटना परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले सभी लोगों के मन में एक सवाल जरूर पैदा करेगी। उन्हें यह सोचने पर जरूर मजबूर करेगी कि रिएक्टर के तौर पर हम कहीं इनसानों के मौत का सामान तो नहीं बना रहे? फुकुशिमा के परमाणु बिजलीघर के आसपास रहने वाले और यहां काम करने वाले कर्मचारियों के बच्चों पर विकिरण का असर आने वाले दिनों में दिखेगा। इसके बाद स्थिति अभी से कहीं ज्यादा खतरनाक दिखेगी। यह अंदाज लगाना ही सिहरन पैदा करता है कि हवा में जो रेडियोधर्मिता फैली है, वह अपना असर कब, कहां और किस तरह दिखाएगी? अभी इसके बारे में साफ तौर पर कोई बता नहीं सकता लेकिन इतना तय है कि अंत बेहद दुखद होने वाला है। ज्यादातर वैज्ञानिक यह दावा कर रहे हैं कि ऐसे हादसे अब नहीं होंगे। हालांकि, यह दावा सच नहीं है। सचाई तो यह है कि परमाणु ऊर्जा की राह कभी भी सुरक्षित नहीं रही। नेता यह मानते हैं कि कुछ दुर्घटनाएं होती हैं। इसलिए वे जनता की गाढ़ी कमाई से कर वसूलकर परमाणु बिजलीघरों में लगाकर एक तरह से लोगों की जिंदगी के साथ जुआ खेल रहे हैं। वैज्ञानिकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे इस मुगालते में रहते हैं कि उन्हें उन सभी बातों का ज्ञान है जो इंसान के लिए जरूरी है। यह भ्रम उस वक्त झूठे आत्मविश्वास में बदल जाता है जब उन्हें लगता है कि उनके विचार उन्हें लाभ और ताकत देंगे। परमाणु ऊर्जा के बारे में हमेशा से यह दावा किया गया कि यह पूरी दुनिया की तस्वीर बदल देगा। अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि यह बदलाव सकारात्मक के बजाए नकारात्मक ज्यादा है। इस घटना के बाद पूरी दुनिया को यह समझना होगा कि उन्हें अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए ऊर्जा चाहिए या फिर अपनी असीमित बढ़ाई गई जरूरतों के लिए असीमित ऊर्जा। अगर इफरात ऊर्जा की जरूरत मानवता को है तो फिर परमाणु ऊर्जा के खतरों के लिए तैयार रहना पड़ेगा। परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले कहते हैं कि मामूली मात्रा में यूरेनियम के रूप में प्राकृतिक संसाधन को जलाकर हम काफी बिजली तैयार कर सकते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि ऐसा करते हुए वे कितने लोगों की जिंदगी को दांव पर लगा रहे हैं। इन वैज्ञानिकों को अब यह बात समझ लेनी चाहिए कि फुकुशिमा की दुर्घटना को दुनिया की तकनीकी विकास की एक नाकाम कड़ी के तौर पर याद किया जाएगा। इसलिए अब इस दुर्घटना से सबक लेते हुए आगे की रणनीति तय की जानी चाहिए। यह वक्त की जरूरत है कि अब पूरी दुनिया परमाणु ऊर्जा के मोह को त्यागकर आगे बढ़ें।


परमाणु खतरे की राह पर न चले देश


भारत के परमाणु विज्ञानियों ने 400 मेगावाट के संयंत्र को बनाया, जो कि सफलतापूर्वक काम कर रहा है। लेकिन अरेवा जैसी कम्पनी के संयंत्र का अब तक टेस्ट नहीं हुआ है। ऊपर से इस इकाई की उत्पादन क्षमता 1,600 मेगावाट होगी। यानी सीधे चार गुणा। इस तरह के 6 रिएक्टर लगाने पर एकाएक बोझ बढ़ेगा। इसलिए आधारभूत ढांचे की सुरक्षा की जांच- पड़ताल जरूरी है

11 मार्च को पूरे जापान ने 9 रिक्टर की तीवता के भूकम्प के झटके को झेला। यह बात दीगर है कि उस दिन के बाद से अब तक हर दिन जापान के किसी न किसी इलाके में 5 रिक्टर से ज्यादा के भूकम्प के झटके आ रहे हैं। बहरहाल, भूकम्प की तबाही को जापान जैसा मुल्क कमोबेश बर्दाश्त कर सकता था क्योंकि दुनिया में उसकी पहचान आर्थिक शक्ति के तौर पर है और वैसे भी जापान को भूकम्प प्रभावित इलाकों में गिना जाता है। इसलिए यहां की इमारतों से लेकर तमाम संयंत्र भूकम्परोधी हैं। लेकिन इस तबाही को सुनामी ने और बढ़ा दिया। नतीजतन भूकम्प और सुनामी दोनों के प्रकोप को एक बार में ही झेलने में जापान असक्षम रहा।
रेडिएशन का खतरा
मीडिया रिपोटरे के मुताबिक 10 हज़ार से ज्यादा लोगों की मौत हो गई। बाकी कितनों के घर उजड़े, कितने बह गए, इसका अनुमान लगाना मुश्किल है। लेकिन इसके बाद जो तीसरी तबाही की आशंका पनपी है, उसका क्षणिक अनुमान भी किसी देश को मिटाने के लिए काफी है। वह है परमाणु रेडिएशन का ख़्ातरा। जैसा कि हम सब जानते हैं कि जापान में जलजले के बाद फुकुशिमा परमाणु संयंत्र के 6 रिएक्टरों में से 4 में विस्फोट हुआ और इसमें मेल्ट डाउन की स्थिति आई। काफी मात्रा में रेडिएशन हुआ है। हालांकि अब तक जापान सरकार की ओर से आधिकारिक पुष्टि नहीं हुई। वैसे, जापान की राजधानी टोक्यो और फुकुशिमा के आसपास के गांवों में नल के पानी को पीने पर पाबंदी लगा दी है, क्योंकि इसमें रेडियोएक्टिव आयोडीन की मात्रा बढ़ गई है। यानी जापान हादसों को झेलने के बाद भी ख़्ातरों के सुनामी पर अटका हुआ। अगर जल्द तमाम हालात पर काबू नहीं पाए जाते हैं तो जापान ही नहीं वरन दुनिया के कई देशों के लिए यह रेडिएशन चिंता का सबब बन सकता है।
सवाल सुरक्षा का
यह चेतावनी भारत जैसे मुल्क पर भी लागू होती है, जहां भारत-अमेरिका करार के तहत कई परमाणु संयंत्रों की स्थापना प्रस्तावित है। वैसे, जनअसंतोष की बात को दूर रखें तो भी सवाल परमाणु रिएक्टर की सुरक्षा, प्रस्तावित जगहों के भौगोलिक हालात, एटॉमिक उत्तरदायित्व और ऊर्जा उत्पादन पर लागत जैसे गहन मसलों से जुड़ा है। कहा जा सकता है कि एटमी करार के प्रति वचनबद्ध और ऊर्जा के लिए लालायित मुल्क परमाणु ख़्ातरों से खेलने के लिए तैयार बैठा है। वैसे अब तक हमारे यहां बड़ा परमाणु हादसा नहीं हुआ है। लेकिन अगर ऐसी नौबत आती है तो इसके लिए हम तैयार भी नहीं हैं।
हादसों से लें सबक
1987 में तमिलनाडु के कलपक्कम रिएक्टर में हादसा हुआ। इससे रिएक्टर का आंतरिक भाग क्षतिग्रस्त हो गया। दो साल तक मरम्मत चली। इसके बाद 1992 में तारापुर संयंत्र में रेडियोधर्मी रिसाव के मामले सामने आए। 1999 में फिर कलपक्कम रिएक्टर में रेडियोधर्मी रिसाव के चलते कई कर्मचारी बीमार पड़े। 2009 में भी कर्नाटक के कैगा में ट्रिटियम के रिसाव के चलते 50 कर्मचारियों की हालत बिगड़ी। जैसा कि हम सब जानते हैं कि ये सारे हादसे बड़े नहीं थे। लेकिन इसका व्यापक असर जरूर पड़ा। रेडियोधर्मी रिसाव क्या बला है, इसका अंदाजा तो दिल्ली विश्वविद्यालय से हटाए गए कोबाल्ट-60 के प्रकोप से चल ही गया। अब ऐसे में जबकि अमेरिका, फ्रांस, रूस के सहयोग से भारत अपनी मौजूदा परमाणु क्षमता 4,780 मेगावाट को बढ़ाकर 63 हज़ार मेगावाट करने की तैयारी में है, तो सुरक्षा मानकों और एहतियातों का खयाल तो रखना ही होगा।
खतरनाक क्षेत्रों में क्यों
हालांकि चिंता की बात यह है कि ज्यादातर प्रस्तावित इलाके भूकम्प आशंकित क्षेत्रों में आते हैं। मसलन, एक इलाका महाराष्ट्र का जैतापुर भी है, जहां के लोग इसका काफी विरोध कर रहे हैं। फ्रांस की कम्पनी अरेवा यहां परमाणु संयंत्र बिठाएगी। लेकिन पिछले 20 सालों में यहां भूकम्प के सौ से ज्यादा झटके आ चुके हैं। कई की तीव्रता रिक्टर स्केल पर 6 महसूस की गई, जो कि खतरनाक माना जाता है। सौराष्ट्र के मिथी वर्दी इलाके में भी संयंत्र की स्थापना होगी। इस इलाके ने 2001 में भयंकर भूकम्प को झेला था। इस तरह के ख़्ातरों के बावजूद इन इलाकों में परमाणु संयंत्र की स्थापना को मंज़ूरी कैसे मिली, यह यक्ष प्रश्न हैै
बुनियादी ढांचे को परखा जाए
जहां तक परमाणु ऊर्जा संयंत्रों से ऊर्जा उत्पादन की बात है, भारत के परमाणु विज्ञानियों ने 400 मेगावाट के संयंत्र को बनाया, जो कि सफलतापूर्वक काम कर रहा है। लेकिन अरेवा जैसी कम्पनी के संयंत्र का अब तक टेस्ट नहीं हुआ है। ऊपर से इस इकाई की उत्पादन क्षमता 1,600 मेगावाट होगी। यानी सीधे चार गुणा। इस तरह के 6 रिएक्टर लगाने पर एकाएक बोझ बढ़ेगा। इसलिए आधारभूत ढांचे की सुरक्षा की जांच-पड़ताल जरूरी है।