यमुना नदी को प्रदूषण मुक्त करने की तैयारी सरकार द्वारा फिर से शुरू की गई है। इस बार यह जिम्मा जल बोर्ड को मिला है। जल बोर्ड दावा कर रहा है कि यमुना को तीन-चार वर्षो में कम से कम नहाने लायक तो बना ही लिया जाएगा। बोर्ड के दावे के मुताबिक यमुना में प्रदूषण की वर्तमान मात्रा प्रति लीटर 40 मिलीग्राम बायलॉजिकल आक्सीजन डिमांड (बीओडी) से घटाकर 12 मिग्रा प्रति लीटर बीओडी तक लाया जाएगा। हालांकि राजधानी में 20 मिग्रा प्रति लीटर बीओडी को स्वीकार्य बताया गया है। इसके लिए राजधानी के सभी नालों को इंटरसेप्टर परियोजना के तहत एक-दूसरे से जोड़कर सीवर ट्रीटमेंट प्लांटों तक पहुंचाया जाएगा। ट्रीटमेंट प्लांट में शोधन के बाद ही इन्हें यमुना में छोड़ा जाएगा। केंद्र व राज्य सरकार की यमुना को प्रदूषण मुक्त करने की तमाम परियोजनाओं के बाद दिल्ली जलबोर्ड ने इस बाबत खम ठोंका है। बोर्ड के सीईओ रमेश नेगी के मुताबिक राजधानी में प्रतिदिन लगभग छह सौ एमजीडी (मिलियन गैलन डेली) अपशिष्ट जल निकलता है। इसमें से तीन सौ से 350 एमजीडी अवजल का विभिन्न सीवर ट्रीटमेंट प्लांटों में शोधन कर लिया जाता है। लगभग दो सौ एमजीडी अवजल विभिन्न नालों के माध्यम से सीधे यमुना तक पहुंच जाता है। नेगी के मुताबिक प्रस्तावित सीवर इंटरसेप्टर परियोजना के तहत इस दो सौ एमजीडी अवजल को यमुना में गिरने से पहले सीवेज ट्रीटमेंट प्लांटों (एसटीपी) तक पहुंचाया जाएगा। इसके लिए सीधे यमुना में गिरने वाले नालों को एक-दूसरे से जोड़कर ट्रीटमेंट प्लांटों तक पहुंचाया जाएगा। परियोजना को पूरा करने की जिम्मेदारी इंजीनियर्स इंडिया लिमिटेड को दी गई है। 1404 करोड़ रुपये की लागत से पूरी होने वाली यह परियोजना अगस्त के अंत तक शुरू हो जाएगी। कार्य छह समूहों में बांट कर किया जाएगा। वजीराबाद से लेकर ओखला बैराज के मध्य के नालों को जोड़ने का काम डेढ़ वर्ष से लेकर साढ़े तीन वर्ष के भीतर संपन्न कर लिया जाएगा। इस प्रकार 2015 तक यमुना में प्रदूषण की मात्रा को प्रति लीटर 12 मिग्रा बीओडी तक लाने की कोशिश की जाएगी। केंद्र व प्रदेश सरकार की कैबिनेट ने परियोजना की सहमति दे दी है।
Showing posts with label पृष्ठ संख्या २. Show all posts
Showing posts with label पृष्ठ संख्या २. Show all posts
Wednesday, June 29, 2011
Saturday, June 18, 2011
Wednesday, June 15, 2011
दो फीसदी हिस्से में होता 70 फीसदी प्रदूषण
यमुना नदी तीन दशकों में नाले में तब्दील हो चुकी है। प्रदूषण ने यम की बहन समझी जाने वाली यमुना नदी का गला घोंटकर रख दिया है। यमनोत्री से छोटी सी धारा के रूप में प्रकट हुई यमुना इलाहाबाद के संगम तक 1375 किलोमीटर का सफर तय करती है। दिल्ली आने से पहले स्वच्छ और निर्मल जल को अपने में समेटने वाली यह नदी दिल्ली के बाद प्रदूषित हो जाती है। यमुना को कभी राजधानी के जीवन रेखा के रूप में देखा जाता था। लेकिन यमुना के प्रदूषण में दिल्ली की भागीदारी 70 फीसदी है। यह हम नहीं केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड कहता है। जिसके अनुसार दिल्ली में यमुना का 22 किलोमीटर भाग नदी का मात्र 2 फीसदी हिस्सा है। इस भाग में यह कुल प्रदूषण भार के 70 फीसदी हिस्से का योगदान करता है। अब यमुना सिर्फ और सिर्फ बारिश के मौसम में बहा करती है। शेष समय यह राजधानी के जहरीले रसायनों, गंदगी और प्रदूषित सामग्री की संवाहक बनकर रह गई है। यमुना में मुर्दो के अवशेष, कल कारखानों का जहरीला विष, अपशिष्ट, जलमल निकासी का गंदा पानी और हर साल लगभग तीन हजार प्रतिमाओं का विसर्जन इसमें किया जाता है। केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय का कहना है कि यमुना कार्य योजना सन् 1993 में आरंभ की गई थी। 2009 में इसकी सफाई का बजट 1356 करोड रुपये रखा था। हालात देखकर लगता है कि यह पैसा भी गंदे नाले में ही बह गया है। दो माह पहले इलाहाबाद के संगम से साधु संतों की यात्रा भी दिल्ली पहुंची। जिसमें लोगों ने बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। इनकी मांग यमुना को राष्ट्रीय नदी घोषित करने, इसे प्रदूषण मुक्त रखने और यमुना बेसिन प्राधिकरण का गठन करने को लेकर थी। सरकार ने 2009 में कहा था कि यमुना एक्शन प्लान एक और दो के तहत 2800 करोड़ रुपये खर्च हो चुके हैं। किंतु ठोस तकनीक न होने से वांछित परिणाम सामने नहीं आ सके। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ इन्वायरमेंट साइंसेज में प्रो. एस. मुखर्जी कहते हैं कि यमुना एक बीमार नदी का रूप ले चुकी है। जिसका निदान सर्वेक्षण और सफाई अभियान से संभव है। जो कई स्तर पर किया जाना जरूरी है।
Monday, May 16, 2011
Saturday, April 23, 2011
पानी को तरसेगा दिल्ली-एनसीआर
दिल्ली-एनसीआर में पानी की गुणवत्ता जहां लोगों को डरा रही है, वहीं इसकी उपलब्धता भी एनसीआर प्लानिंग बोर्ड के लिए चिंता का विषय बन गई है। खासकर तब जबकि जल प्रबंधन के लिए बनाया गया क्षेत्रीय प्लान-2001 पैसे और कार्यनीति के अभाव में पूरी तरह बिखर गया है। अगले दस वर्षो में दिल्ली-एनसीआर में अकेले पानी के इंतजाम पर सालाना लगभग हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। इसमें कोताही हुई तो राजधानी को पानी के लिए तरसना पड़ सकता है। यमुना, हिंडन और काली नदियों से घिरी दिल्ली को पानी परेशान करने वाला है। यहां जल प्रबंधन के लिए ठोस काम नहीं हो रहा है। बढ़ते शहरीकरण ने राजधानी में भूजल के पुनर्भरण (रीचार्ज) में अवरोध खड़ा कर दिया है। एनसीआर प्लानिंग बोर्ड के आंकड़े बताते हैं कि दिल्ली-एनसीआर के महज 2.9 प्रतिशत क्षेत्र में भूजल रीचार्ज हो रहा है, जबकि जरूरत कम से कम पांच फीसदी की है। दूसरी तरफ वितरण के दौरान 30 से 50 फीसदी पानी का हिसाब-किताब आंकड़ों से गायब हो जाता है। इसे 15 फीसदी तक सीमित किए बिना पानी बचाना मुश्किल है। दिल्ली में फिलहाल प्रतिदिन प्रतिव्यक्ति 225 लीटर पानी की उपलब्धता है, लेकिन एनसीआर क्षेत्र में मेरठ से लेकर पानीपत तक उपलब्धता आधी से भी कम है। एनसीआरपीबी का आकलन है कि 2021 तक दिल्ली एनसीआर में प्रतिदिन 11,984 मिलियन लीटर पानी की जरूरत होगी। भूजल रीचार्ज की पूरी व्यवस्था हो तो दिल्ली-एनसीआर में प्रतिदिन 1,816 मिलियन लीटर पानी रीचार्ज हो सकता है। अतिरिक्त पानी की उपलब्धता के लिए अगले दस वर्षो में हर साल लगभग हजार करोड़ रुपये खर्च करने होंगे। हालांकि आगामी 12वीं योजना अवधि के लिए केंद्र सरकार ने कमर कसनी शुरू कर दी है, परंतु पिछले अनुभव डरा रहे हैं। दरअसल, राज्य सरकारें और स्थानीय निकाय पूरी तरह योजना फंड पर निर्भर होते हैं। ऐसे में केंद्र को ही पूरी जिम्मेदारी उठानी पड़ सकती है|
Friday, April 22, 2011
Thursday, April 14, 2011
सुपरबग पर विशेषज्ञों ने कहा चिंता की कोई बात नहीं
कथित सुपरबग को लेकर चिंता करने की जरूरत नहीं है। दिल्ली सरकार ने बुधवार को इसे विषय पर विशेषज्ञों के साथ उच्चस्तरीय बैठक की। विशेषज्ञों ने एक सुर में कहा है कि हैजे और अन्य आंत्रशोथ के लिए जिम्मेदार बैक्टीरिया के प्रति दवा प्रतिरोध क्षमता में वृद्धि का कोई सबूत नहीं है। ऐसे बैक्टीरिया अब भी आम रूप से इस्तेमाल की जा रही एंटीबॉयटिक से काबू में आ रहे हैं। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने समाचार-पत्रों में प्रकाशित की गई लेंसेट रिपोर्ट की समीक्षा को लेकर बैठक की थी। इस रिपोर्ट में कथित रूप से यह बताया गया है कि दिल्ली में पीने के पानी के लिए गए नमूनों में हैजे और आंत्रशोथ के बैक्टीरिया में एनडीएम-1 जीन मौजूद है। मुख्यमंत्री ने इस विषय पर मौलाना आजाद मेडिकल कालेज, दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य निदेशालय, भारत सरकार के राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र और दिल्ली जल बोर्ड के विशेषज्ञों से चर्चा की। विशेषज्ञों के अनुसार एनडीएम-1 बेक्टीरिया होने का कोई क्लीनिकल और महामारी विज्ञान के अनुरूप सबूत नहीं है। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र के विशेषज्ञ दिल्ली में अस्पतालों में दाखिल हैजे के मरीजों से लिए गए हैजे के बेक्टीरिया अंशों की दवा प्रतिरोधक क्षमता की प्रवृत्ति पर पिछले कई वषरें से निगाह रखे हुए हैं। उन्होंने किसी भी नमूने में कारबापेनेम प्रतिरोधक की मौजूदगी नहीं पाई। विशेषज्ञों ने मुख्यमंत्री को भरोसा दिलाया कि दिल्ली जल बोर्ड द्वारा किया जा रहा क्लोरिनीकरण एनडीएम-1 युक्त बेक्टीरिया समेत बेक्टीरिया को खत्म करने में पर्याप्त है। इसलिए लैंसेट रिपोर्ट के मद्देनजर चिंता कोई आधार नहीं बनता। मुख्यमंत्री ने लोगों को सलाह दी कि जहां दिल्ली जल बोर्ड का पानी उपलब्ध नहीं है, वहां क्लोरिन की गोलियों का इस्तेमाल करें या पीने के पानी को उबालकर पीएं। बैठक में निदेशक राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र डा. डी. चट्टोपध्याय, इस केंद्र के माइक्रोबाइलॉजी विभाग के अपर निदेशक डा. सुनील गुप्ता, मौलाना आजाद मेडिकल कालेज के डीन डा. ए.के. अग्रवाल, दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य निदेशालय के निदेशक डा. वी.एन. कामत, परामर्शदाता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रमुख डा. आर.पी. वशिष्ठ आदि उपस्थित थे|
Wednesday, April 13, 2011
दिल्ली में मिला सुपरबग
दिल्ली के पानी में सुपरबग होने की बात एक दिन पहले तक नकारने वाली सरकार ने सुपरबग होने की बात को स्वीकार किया है। दिल्ली के विभिन्न इलाकों के टैप वाटर से लिए गए 50 पानी के नमूने में से दो में सुपरबग पाया गया है। वहीं यमुना नदी से निकले विभिन्न तालाब एवं गढ्डों में से कुल 171 जगहों से लिए गए पानी के नमूनों में से 51 नमूनों में सुपरबग पाया गया। पानी में कुल ग्यारह तरह के बैक्टीरिया पाए गए। इसमें डिसेंट्री एवं कॉलरा के भी बैक्टीरिया शामिल हैं। राजधानी में सप्लाई के पानी में सुपरबग मिलने के बाद तत्काल मंगलवार को एनडीएमसी, एमसीडी एवं डीजी हेल्थ सर्विसेस के वरिष्ठ अधिकारियों ने बैठक कर इस समस्या से निजात पाने पर विचार-विमर्श किया। हालांकि इस पर काबू कैसे पाया जाएगा अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया। एमसीडी के प्रवक्ता दीप माथुर का कहते हैं कि अधिकारियों की बैठक जरूर हुई है, लेकिन यह मूल रूप से जल बोर्ड का काम है। एमसीडी का काम सिर्फ सैंपल इकट्ठा करना था। मेडिकल रिसर्च जनरल पत्रिका लैंसेट इनफैक्सेस डिजीज जनरल में सबसे पहले इस बात की जानकारी दी गई थी कि दिल्ली के पानी में सुपरबग है। सुपरबग अर्थात ऐसी बैक्टीरिया जिसपर एंटीबायोटिक्स का असर काफी कम होता है। लैंसेट इनफैक्सेस डिजीज जनरल में इस अध्ययन के प्रकाशन के बाद दिल्ली सरकार ने इस मुद्दे पर खुद जांच एवं अध्ययन करने का निर्णय लिया था। यह अध्ययन ब्रिटिश रिसचर्च के द्वारा कराया गया। जिसमें स्पष्ट तौर पर दिल्ली के पानी में सुपरबग होने की पुष्टि हुई है|
ग्लोबल वार्मिंग और कूलिंग
'ग्लोबल वार्मिग' विषय पर भारत के साथ विश्व के प्रमुख मीडिया में अब तक प्रकाशित तथ्यों और सिद्धांतों का अध्ययन करने पर लगता है कि काल्पनिक तथ्यों के आधार पर विशेषज्ञों द्वारा निर्मित ईश्वरीय अस्तित्व और तर्कहीन तथ्यों के आधार पर ग्लोबल वार्मिग के मुद्दे पर वैज्ञानिकों द्वारा व्यक्त विचारों में कोई फर्क नहीं है। क्या अब वैज्ञानिक भी अपनी असफलता को छिपाने के लिए कथित धार्मिक गुरुओं की तरह विज्ञान में भी पाखंडता से जुड़े प्रयोग करने लगे हैं? क्या वैज्ञानिकों के पास इन प्रश्नों के सही उत्तर हैं? 1. यदि पृथ्वी के बाहरी सतह से तकरीबन 78.084 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20.946 प्रतिशत ऑक्सीजन और मात्र .95 प्रतिशत बाकी तत्व हैं तो .95 प्रतिशत के भीतर का कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा कम-ज्यादा होने मात्र के कारण पृथ्वी का तापमान इतना ज्यादा ऊपर-नीचे कैसे हो सकता है? 2. तत्व की उत्पत्ति के खगोलीय सिद्धांत क्या-क्या हैं? क्या तत्व की उत्पत्ति के सिद्धांत क्या-क्या है? क्या तत्व की उत्पत्ति के सिद्धांत के अभाव के अभाव में प्रकाश और ताप का संचय और प्रसारण करने वाले तत्वों के बारे में निर्णायक तथ्य कैसे दिया जा सकता है? 3. कहीं ऐसा तो नहीं कि पृथ्वी सूर्य से दूर और बृहस्पति के साथ-साथ प्रति-सूर्य व अंध- छेद के नजदीक जाने के कारण खुद धरती का तापमान ज्यादा ऊपर-नीचे हो रहा हो। 4. कहीं वैज्ञानिकों के पास सूर्य, प्रति-सूर्य व अंध-छेद और बृहस्पति के साथ-साथ प्रकाश, अन्धकार, ताप और शीत की वास्तविक परिभाषाओं के साथ-साथ सौर मण्डल के हरेक सदस्य की दिशा और गति के बारे में आज तक प्राप्त जानकारियां गलत तो नहीं? यदि वैज्ञानिकों के पास ऊपर छपे प्रश्नों के सही उत्तर नहीं हैं तो यहां नये खगोलीय सिद्धान्त का जन्म हो चुका है, वै ज्ञानिक के साथ ग्लोबल वार्मिग के विषय में सोचने वाले हरेक मानव जानें कि सौर-मण्डल, सूर्य, प्रति-सूर्य व अन्ध-छेद, बृहस्पति के साथ-साथ इस सौर-मण्डल के हरेक पिण्ड, तत्व की उत्पत्ति के सिद्धान्त के अनुसार इस पृथ्वी का प्रथम तत्व हाइड्रोजन से लेकर अन्तिम तत्वों की उत्पत्ति कैसे हो रहा है, प्रकाश और अन्धाकाश की परिभाषा के साथ- साथ ताप और शीत की परिभाषा के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिग के कारण को कैसे परिभाषित किया जाता है। 1. ''अन्ध-पदार्थ और प्रति पदार्थ मिलकर बने हुए पृथ्वी के द्वंद्वात्मक पदार्थ व दृश्यमय भौतिक विश्व के तत्वों में अन्ध-पदार्थ की मात्रा घटने और प्रति-पदार्थ की मात्रा बढ़ने के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।'
पृथ्वी के तत्वों की उत्पत्ति के सिद्धान्त के साथ- साथ प्रकाश और अन्धेरा, ताप और शीत की वास्तविक परिभाषा के अभाव के कारण वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिग के विषय में भ्रम में पड़ गये हैं। समय, आकाश, प्रत्याकाश और अन्धाकाश की वास्तविक परिभाषा से तो वैज्ञानिक अब भी काफी दूर हैं। हम तीन भिन्न-भिन्न पदार्थ, तीन भिन्न-भिन्न प्रकाश और तीन भिन्न-भिन्न आकाश की वास्तविक परिभाषा के साथ ग्लोबल वार्मिक के कारणों की व्याख्या कर रहे हैं और इस समझ की स्पष्टता के लिए, हम हरेक बिन्दु में प्रश्न उठाने में समझ उपयुक्त प्रश्नकर्ताओं का स्वागत करते हैं। 2. पृथ्वी का तापमान बढ़ने का कारण इसकी बाहरी वातावरण में .95 प्रतिशत के भीतर का कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा ज्यादा होने से न होकर पृथ्वी की बहिमरुखी गति के अनुसार यह पृथ्वी, सूर्य से दूर और मंगल एवं बृहस्पति के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली है, जिसके कारण नाइट्रोजन की मात्रा घटने और ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने की प्रक्रिया चल रही है। नाइट्रोजन शीत पैदा करने वाला तत्व है तो आक्सीजन ऊष्ण पैदा करने वाला तत्व है। इस सौर मण्डल में पृथ्वी का जो स्थान है, उसके अनुसार पृथ्वी की बाहरी और भीतरी वातावरण में ताप की उत्पत्ति प्रकाश के साथ ऑक्सीजन मिलने से होती है। परन्तु, ताप की उत्पत्ति का यह नियम हरेक पिण्ड लागू नहीं होता है।
Tuesday, April 5, 2011
दिल्ली में प्लास्टिक थैलियों पर पूर्ण प्रतिबंध
दिल्ली में प्लास्टिक थैलियों के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया गया है। दिल्ली मंत्रिमंडल में आए इस प्रस्ताव को एक मत से मंजूर कर लिया गया है। प्रतिबंध प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन, बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल पर लगाया गया है। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने कहा कि दिल्ली प्लास्टिक मुक्त राज्य बनने को तैयार है। उन्होंने कहा कि प्रतिबंध को कड़ाई से लागू करने के लिए दिल्ली नगर निगम, एनडीएमसी और दिल्ली पुलिस को निर्देश जारी किए जा रहे हैं। मुख्यमंत्री ने बताया कि पहले जो कदम उठाए गए थे, वे नाकाफी थे। इसलिए सरकार को यह फैसला लेना पड़ा। अभी तय नहीं हुआ है कि सीमित स्थानों पर कार्रवाई के लिए दिल्ली सरकार ने जनवरी, 2009 में जो फैसले लिए थे, वे लागू रहेंगे या नहीं। सरकार ने यह भी फैसला किया है कि मौजूदा, दिल्ली डिग्रेडेबल प्लास्टिक बैग उत्पादन, बिक्री और इस्तेमाल और कचरा नियंत्रण कानून-2000 और इससे संबंधित नियमों और अधिसूचना को रद किया जाएगा। राजधानी में हर प्रकार की प्लास्टिक थैलियों के उत्पादन, बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल पर पूर्ण प्रतिबंध के लिए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 के अंतर्गत नई अधिसूचना जारी की जाएगी। नए प्रतिबंध से प्लास्टिक की थैलियों के उत्पादन पर भी रोक लग जाएगी। सरकार ने कहा कि इससे पूर्व 7 जनवरी, 2009 को जारी अधिसूचना बिक्री, भंडारण और इस्तेमाल तक सीमित थी। मंत्रिमंडल ने नियम को और सख्त करते हुए प्लास्टिक के उपयोग करने वालों के खिलाफ 10,000 रुपये से लेकर एक लाख रुपये तक का जुर्माना लगाने का प्रावधान है। इसके अतिरिक्त पांच वर्ष सजा का भी प्रावधान है। लेकिन यह नियम भी कागजों तक ही रहे। पिछले दो वर्षो के दौरान सख्त सजा किसी को भी नहीं दी गई। सरकार ने माना कि प्रतिबंध के बाद भी बाजारों में बिक्री करने वाले अब भी प्लास्टिक की थैलियों का इस्तेमाल कर रहे हैं। मूल कानून 2008 में संशोधित कर प्लास्टिक थैलियों की मोटाई 20 माइक्रोन से बढ़ाकर सभी उत्पादकों के लिए 40 माइक्रोन कर दी गई थी|
Saturday, March 26, 2011
अब तक भारत में हुई परमाणु दुर्घटनाएं
4 मई 1987 कल्पक्कम में परमाणु रिएक्टर में ईंधन भरते वक्त दुर्घटना हुई थी और इससे रिएक्टर प्रभावित हुआ था।
10 सितम्बर 1989 तारापुर में रेडियोधर्मी आयोडिन का रिसाव हो गया था। यह सामान्य स्तर से कहीं अधिक था।
13 मई 1992 तारापुर के रिएक्टर में एक पाइप में खराबी आने से 12 क्यूरी रेडियोधर्मिता का उत्सर्जन हुआ था।
31 मार्च 1993 नरौरा के रिएक्टर में विंड टरबाइन के पंखे आपस में टकराए और आग लग गई थी। इसके बाद यह बिजलीघर साल भर तक बंद रहा।
13 मई 1994 कैगा में निर्माण कार्य के दौरान ही रिएक्टर का एक आंतरिक गुंबद गिर गया था जिससे विकिरण का खतरा पैदा हुआ।
2 फरवरी 1995 रावतभाटा के परमाणु बिजलीघर से रेडियोधर्मी हीलियम और भारी जल रिसकर राणा प्रताप सागर नदी में पहुंच गया था।
26 दिसम्बर 2004 सुनामी की वजह से कल्पक्कम के परमाणु बिजलीघर में पानी भर गया था। इसके बाद इसे बंद करना पड़ा था।
25 नवम्बर 2009 कैगा में अचानक परमाणु बिजलीघर के कर्मचारी बीमार पड़ने लगे। जांच के दौरान पता चला कि 92 लोगों के मूत्र में ट्रीटीयम था। इन सभी लोगों ने पानी ठंढा करने वाले कूलर से पानी पी लिया था। बाद में पता चला कि किसी कर्मचारी ने इस कूलर में भारी जल भर दिया था।
मानवता के लिए खतरे की घंटी फुकुशिमा
सम्भव है कि अभी इस दुर्घटना के दूरगामी प्रभावों को नहीं समझा जाए लेकिन आने वाले दिनों में लोग इस दुर्घटना को मानवता के विकास के अहम मोड़ के तौर पर याद करेंगे। यह दुर्घटना परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले सभी लोगों के मन में एक सवाल जरूर पैदा करेगी। उन्हें यह सोचने पर जरूर मजबूर करेगी कि रिएक्टर के तौर पर हम कहीं इनसानों के मौत का सामान तो नहीं बना रहे। यह वक्त की जरूरत है कि अब पूरी दुनिया परमाणु ऊर्जा के मोह को त्यागकर आगे बढ़े। इसलिए अब इस दुर्घटना से सबक लेते हुए आगे की रणनीति तय की जानी चाहिए
जापान के फुकुशिमा की दुर्घटना ने इस बात को साबित कर दिया है कि परमाणु विज्ञान में इंसान की समझ अभी कितनी कम है। पर इसके बावजूद हमने परमाणु रिएक्टर लगाना शुरू कर दिया है और वह भी ऐसी जगहों पर, जहां प्राकृतिक आपदाओं का खतरा ज्यादा है। अभी दुनिया में परमाणु विज्ञान के जो बड़े जानकार हैं, उन्हें सिर्फ यह पता है कि कैसे परमाणु रिएक्टर के जरिए बिजली बनाई जाए और कैसे इसे लोगों के घरों तक पहुंचाया जा सके। पर उन्हें यह नहीं पता कि दुर्घटना होने की स्थिति में रिएक्टर को तत्काल काबू में कैसे किया जाए? इसके बावजूद वे नेताओं को यह ज्ञान देते हुए नहीं अघाते कि परमाणु बिजलीघर ऊर्जा के अभाव को दूर कर देंगे। फुकुशिमा हादसा पूरी मानवता के लिए खतरे की घंटी है। सम्भव है कि अभी इस दुर्घटना के दूरगामी प्रभावों को नहीं समझा जाए लेकिन आने वाले दिनों में लोग इस दुर्घटना को मानवता के विकास के अहम मोड़ के तौर पर याद करेंगे। यह दुर्घटना परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले सभी लोगों के मन में एक सवाल जरूर पैदा करेगी। उन्हें यह सोचने पर जरूर मजबूर करेगी कि रिएक्टर के तौर पर हम कहीं इनसानों के मौत का सामान तो नहीं बना रहे? फुकुशिमा के परमाणु बिजलीघर के आसपास रहने वाले और यहां काम करने वाले कर्मचारियों के बच्चों पर विकिरण का असर आने वाले दिनों में दिखेगा। इसके बाद स्थिति अभी से कहीं ज्यादा खतरनाक दिखेगी। यह अंदाज लगाना ही सिहरन पैदा करता है कि हवा में जो रेडियोधर्मिता फैली है, वह अपना असर कब, कहां और किस तरह दिखाएगी? अभी इसके बारे में साफ तौर पर कोई बता नहीं सकता लेकिन इतना तय है कि अंत बेहद दुखद होने वाला है। ज्यादातर वैज्ञानिक यह दावा कर रहे हैं कि ऐसे हादसे अब नहीं होंगे। हालांकि, यह दावा सच नहीं है। सचाई तो यह है कि परमाणु ऊर्जा की राह कभी भी सुरक्षित नहीं रही। नेता यह मानते हैं कि कुछ दुर्घटनाएं होती हैं। इसलिए वे जनता की गाढ़ी कमाई से कर वसूलकर परमाणु बिजलीघरों में लगाकर एक तरह से लोगों की जिंदगी के साथ जुआ खेल रहे हैं। वैज्ञानिकों के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे इस मुगालते में रहते हैं कि उन्हें उन सभी बातों का ज्ञान है जो इंसान के लिए जरूरी है। यह भ्रम उस वक्त झूठे आत्मविश्वास में बदल जाता है जब उन्हें लगता है कि उनके विचार उन्हें लाभ और ताकत देंगे। परमाणु ऊर्जा के बारे में हमेशा से यह दावा किया गया कि यह पूरी दुनिया की तस्वीर बदल देगा। अब तक का अनुभव तो यही बताता है कि यह बदलाव सकारात्मक के बजाए नकारात्मक ज्यादा है। इस घटना के बाद पूरी दुनिया को यह समझना होगा कि उन्हें अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए ऊर्जा चाहिए या फिर अपनी असीमित बढ़ाई गई जरूरतों के लिए असीमित ऊर्जा। अगर इफरात ऊर्जा की जरूरत मानवता को है तो फिर परमाणु ऊर्जा के खतरों के लिए तैयार रहना पड़ेगा। परमाणु ऊर्जा की वकालत करने वाले कहते हैं कि मामूली मात्रा में यूरेनियम के रूप में प्राकृतिक संसाधन को जलाकर हम काफी बिजली तैयार कर सकते हैं। पर वे यह भूल जाते हैं कि ऐसा करते हुए वे कितने लोगों की जिंदगी को दांव पर लगा रहे हैं। इन वैज्ञानिकों को अब यह बात समझ लेनी चाहिए कि फुकुशिमा की दुर्घटना को दुनिया की तकनीकी विकास की एक नाकाम कड़ी के तौर पर याद किया जाएगा। इसलिए अब इस दुर्घटना से सबक लेते हुए आगे की रणनीति तय की जानी चाहिए। यह वक्त की जरूरत है कि अब पूरी दुनिया परमाणु ऊर्जा के मोह को त्यागकर आगे बढ़ें।
Thursday, March 24, 2011
Wednesday, March 23, 2011
वन कानून में सुधार को मंजूरी
वन क्षेत्रों में छोटे अपराधों और वसूली बड़ा सबब बनते रहे भारतीय वन कानून के कई पुराने प्रावधानों में सुधारों को सरकार ने मंजूरी दे दी है। प्रस्तावित संशोधनों के मुताबिक भारतीय वन कानून 1927 में वन अपराध के किसी मामले में दंड के फैसले से पहले ग्राम सभा की राय भी अनिवार्य होगी। प्रधानमंत्री की अगुआई में हुई केंद्रीय मंत्रिमंडल की बैठक में इस वन एवं पर्यावरण मंत्रालय के संशोधन प्रस्तावों को मंजूरी दी गई। सूत्रों के मुताबिक वन कानून के सेक्शन 68 में बदलाव किए गए हैं। आजादी से पूर्व के इस कानून में दंड प्रावधानों को सुधारते हुए दंड की अधिकतम सीमा को 50 रुपये से बढ़ाकर 10 हजार रुपये किया गया है। उल्लेखनीय है कि यह कानून रेंजर और उससे ऊंचे पद वाले वन अधिकारी को किसी भी व्यक्ति के खिलाफ वन अपराध के संदेह में दंड वसूलने का अधिकार देता है। संशोधन से पहले दंड की अधिकतम सीमा 50 रुपये थी और इसके कारण वन क्षेत्रों में छोटे अपराधों का ग्राफ बढ़ गया था। वहीं वसूली की शिकायतों में भी इजाफा हो गया था। पर्यावरण मंत्रालय सूत्रों के मुताबिक प्रस्तावित संशोधन वन क्षेत्रों में रहने वालों के खिलाफ हो रहे 90 फीसदी से ज्यादा मामलों को हल करने में मददगार होगा जिसमें छोटे अपराध मामलों में अर्थदंड व जब्ती कर ली जाती थी। वहीं सेक्शन 68 के तहत वन अपराध के मामले में अर्थ दंड लगाने या जब्ती से पहले ग्राम सभा की राय अनिवार्य बनाने से सरकारी अमले की मनमानी पर अंकुश लगाने में भी मदद मिलेगी। इस बीच वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने बांस को भी लघु वन उत्पाद की श्रेणी में रख दिया है। गौरतलब है कि वन कानूनों के कारण वन क्षेत्रों में प्रताड़ना के बढ़ते मामलों को लेकर बीते दिनों जनजातीय कार्य मंत्रालय ने भी मामले को उठाया था। साथ ही पुराने कानूनी प्रावधानों के कारण नक्सल उग्रवाद की भी पानी मिल रहा था|
Tuesday, March 22, 2011
Monday, March 7, 2011
Sunday, January 23, 2011
डेंजर जोन 4 से 5 में खिसक रही दिल्ली
राजधानी में धड़ल्ले से हो रहा अवैध निर्माण हम सबके लिए खतरे की घंटी है। ऐसा नहीं कि जो लोग अवैध रूप से बने मकानों में रह रहे हैं वही कभी भुक्तभोगी बनेंगे, बल्कि हम सबको इसका गंभीर खामियाजा भुगतना पड़ेगा। विशेषज्ञों की मानें तो धड़ल्ले से हो रहा अवैध निर्माण भी राजधानी के भूजल स्तर कम होने का प्रमुख कारण तो है ही, इसके चलते मिट्टी की शक्ति कमजोर हो रही है। भूकंप, बाढ़ समेत किसी भी प्राकृतिक आपदा की स्थिति में ताश की पत्ते की तरह इमारतों के गिरने में देर नहीं लगेगी। इतना ही नहीं अंधाधुंध शहरीकरण हो या फिर भूगर्भीय परिवर्तन के चलते दिल्ली भूकंपीय खतरों के लिहाज से और संवेदनशील होती जा रही है। गत वर्ष केंद्र सरकार और संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम द्वारा किए गए एक संयुक्त अध्ययन में भी बताया गया था कि राजधानी भूकंपीय चुनौती के लिहाज से संवेदनशील समझे जाने वाले जोन चार से निकल अति संवेदनशील जोन पांच की तरफ बढ़ रही है। इस प्रक्रिया की एक बड़ी वजह है कि दिल्ली की मिट्टी की लगातार कमजोर होती पकड़। यह हालात दिल्ली के बाद असम के कामरूप जिले की है। अध्ययन में देश के करीब 40 शहरों के बारे में बताया गया था। इससे साफ है कि सरकार से लेकर स्थानीय एजेंसी तक वस्तुस्थिति से पूरी तरह अवगत है। बावजूद धड़ल्ले से हो रहा है अवैध निर्माण। भूकंप जैसी आपदा की स्थिति में पूर्वी दिल्ली जैसी घनी आबादी वाले इलाकों में तत्काल राहत पहुंचा पाना ही संकट होगा। भूकंप की स्थिति में यमुना पर बने पुलों के धराशायी होने की सूरत में यमुनापार के इलाकों से संपर्क कैसे होगा यह सवाल चिंता पैदा करता है। मदद न पहुंचा पाने का कुछ ऐसा ही संकट घनी आबादी और तंग गलियों वाली पुरानी दिल्ली में भी होगा। वरिष्ठ आर्किटेक्ट कुलदीप सिंह भी राजधानी में अंधाधुंध शहरीकरण, ताबड़तोड़ निर्माण कार्यो व तेजी से गिरते भू जल स्तर को भूंकपीय खतरे के बढ़ते खतरे की एक बड़ी वजह भी बताते हैं। भूकंपीय खतरे की बढ़ती चुनौती के बीच शहरी नियोजन की स्थिति और आपदा प्रबंधन से निपटने की तैयारियों की मौजूदा स्थिति कहीं से भी विश्वास नहीं पैदा करती। राजधानी के संदर्भ में एक खतरनाक सच्चाई यह है कि यहां की मिट्टी की पकड़ धीरे-धीरे कमजोर हो रही है। लगातार झीजते भू जल स्तर और भारी पैमाने पर निर्माण कार्यो के चलते मिट्टी ढीली हो रही है। मिट्टी ढीली होने की यह प्रक्रिया पूर्वी दिल्ली सहित यमुना के किनारे के दूसरे हिस्सों में ज्यादा है। इतना ही नहीं अवैध निर्माण के चलते पुरानी दिल्ली, सदर बाजार, करोलबाग इलाकों में भी यही स्थिति है। दिल्ली की भूकंपीय संवेदनशीलता के संदर्भ में अध्ययन करने वाले प्रो. मनीष कुमार के मुताबिक यमुना बेसिन की भूमि की संरचना में एक बड़ा हिस्सा बालू का है। यहां अंधाधुंध निर्माण (जिनमें भूमिगत निर्माण और भी घातक हैं) और भूजल स्तर में खतरनाक स्तर तक गिरावट ने बालुवाई मिट्टी की कमजोर पकड़ का खतरा और भी बढ़ा दिया है। तेजी से गिरते भू जल स्तर के बाबत केंद्रीय भूजल बोर्ड भी कई बार चेता चुका है। इसको देखते हुए अवैध निर्माण के खिलाफ कार्रवाई करने वाली एजेंसी को सख्ती से काम करना चाहिए। सरकार भी यह सुनिश्चित करे कि किसी भी सूरत में अवैध निर्माण न होने पाए।
Subscribe to:
Posts (Atom)