Showing posts with label मुकुल व्यास. Show all posts
Showing posts with label मुकुल व्यास. Show all posts

Thursday, April 14, 2011

अंतरिक्ष के कचरे के खतरे


भारतीय उपग्रहों पर खतरा मंडराते देख रहे हैं लेखक
हाल में सरकार द्वारा संसद में दी गई जानकारी के मुताबिक चीन द्वारा 2007 में किए गए एंटी-सेटेलाइट टेस्ट के बाद अंतरिक्ष में फैले मलबे से भारतीय उपग्रहों को खतरा उत्पन्न हो गया है। भारत के दूरसंवेदी उपग्रह 175 किलोमीटर की ऊंचाई पर पृथ्वी की निचली कक्षा में तैनात हैं। चीन के टेस्ट के बाद मलबे का घना बादल इसी जगह फैला हुआ है। पृथ्वी के इर्दगिर्द जमा अंतरिक्ष के कबाड़ के बारे में समय-समय पर चेतावनियां जारी की जाती हैं, लेकिन हम इन्हें गंभीरता से नहीं लेते। यह कबाड़ आज एक ऐसे खतरनाक बिंदु पर पहुंच चुका है, जहां से उत्पन्न होने वाला चेन रिएक्शन पृथ्वी पर रोजमर्रा के जीवन को ठप कर सकता है। आज हम उपग्रहों पर जितना निर्भर हैं, उतने पहले कभी नहीं थे। चाहे टेलीविजन के सिगनल हों या मौसम की रिपोर्ट हो, हमें उपग्रहों की ही मदद लेनी पड़ती है। हमारे जीपीएस सिस्टम उपग्रहों के बगैर काम नहीं कर सकते। पर्दे के पीछे ये परिक्रमारत उपग्रह हमें शत्रुओं की सैनिक क्षमताओं की जानकारी भी देते हैं। यदि हमने स्पेस जंक अथवा अंतरिक्ष के कबाड़ पर नियंत्रण नहीं किया तो उपग्रह आधारित सारे कार्य ठप हो जाएंगे। अंतरिक्ष में 1100 उपग्रहों की तुलना में कबाड़ के 3,70,000 टुकड़े मौजूद हैं। कबाड़ के इन टुकड़ों में वे नट और बोल्ट शामिल हैं, जो अंतरिक्ष यात्रियों के स्पेस वॉक के दौरान गुम हो गए थे। कबाड़ में पुराने उपग्रहों के कलपुर्जो के अलावा ऐसे उपग्रह भी शामिल हैं, जो पुराने पड़ चुके हैं और जिन्होंने अब काम करना बंद कर दिया है। यह सारा कबाड़ पृथ्वी के इर्दगिर्द 4.8 मील प्रति सेकंड की गति से चक्कर काट रहा है। डर इस बात का है कि अंतरिक्ष में कबाड़ की बढ़ती हुई संख्या से किसी न किसी बिंदु पर कभी भी कोई बड़ी टक्कर हो सकती है। अंतरिक्ष में उपग्रहों के बीच टक्कर का एक नजारा दुनिया ने फरवरी, 2009 में ही देखा था, जब एक बेकार रूसी उपग्रह और एक अमेरिकी दूरसंचार उपग्रह आपस में टकरा गए थे। यदि कबाड़ के दो बड़े टुकड़े आपस में टकराते हैं तो वे अंतरिक्ष में हजारों छोटे-छोटे टुकड़ों में बिखर जाते हैं। सैद्धांतिक तौर पर ये सारे टुकड़े सेटेलाइट किलर्स हो सकते हैं। पिछले साल हुई दो उपग्रहों की टक्कर से कबाड़ के 1500 टुकड़े मिले थे। 2007 में चीन ने उपग्रह को नष्ट करने के लिए जो मिसाइल टेस्ट किया था, उससे इस टक्कर की तुलना में 100 गुना ज्यादा मलबा फैल गया था। यदि अंतरिक्ष में मौजूद कबाड़ के टुकड़ों के बीच टक्कर से कोई चेन रिएक्शन शुरू होता है तो इससे न सिर्फ पृथ्वी के दूरसंचार और जीपीएस सिस्टम ध्वस्त हो जाएंगे, बल्कि विश्व की अर्थव्यवस्था पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा। पृथ्वी की समीपवर्ती कक्षाएं उपग्रहों के लिए अनुपयुक्त हो जाएंगी और पृथ्वी के कई इलाके तकनीकी तौर पर निष्कि्रय हो जाएंगे। एक तरफ दुनिया जहां अंतरिक्ष में बढ़ते हुए मलबे की समस्या से जूझ रही है, वहीं दूसरी तरफ अंतरिक्ष शक्तियों द्वारा अंतरिक्ष के सैनिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल से भी नई चिंताएं पैदा हो गई हैं। चीनी एंटी-सेटेलाइट टेस्ट के बाद भारत ने भी सक्रियता दिखाई है। अंतरिक्ष में भविष्य में होने वाले किसी सैनिक टकराव से निपटने के लिए उसने पिछले तीन वर्षो के दौरान अपनी रक्षा क्षमताओं को सुदृढ़ करने के लिए कदम उठाए हैं। अंतरिक्ष के सैन्यीकरण पर संसद में भारत की नीति स्पष्ट करते हुए सरकार ने कहा है कि भारत अंतरिक्ष में हथियारों की तैनाती या अंतरिक्ष में गैर पारंपरिक हथियारों के परीक्षण के खिलाफ है क्योंकि इससे सभी स्पेस सिस्टम्स को खतरा उत्पन्न हो जाएगा। रक्षा मंत्री के वैज्ञानिक सलाहकार वी. के. सारस्वत ने कुछ सप्ताह पहले बेंगलूर में कहा था कि अंतरिक्ष में किसी पर हमला हमारे देश की नीति नहीं है, लेकिन बेलेस्टिक मिसाइल कार्यक्रम के तहत हमारे पास वह सारी तकनीक है, जिसके सहारे उपग्रहों की रक्षा करने या भविष्य की अन्य जरूरतों को पूरा करने के लिए सिस्टम खड़ा किया जा सकता है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

Tuesday, March 22, 2011

परमाणु खतरा


भूकंप और सुनामी से प्रभावित जापान के फुकुशीमा स्थित परमाणु रिएक्टरों से रेडिएशन का रिसाव जारी है और मानव स्वास्थ्य पर रेडिएशन के प्रभावों को लेकर गंभीर चिंताएं उत्पन्न हो गई हैं। फुकुशीमा के रिएक्टरों को सामान्य स्थिति में लाने की चेष्टा कर रहे जांबाज टेक्निशियनों के अलावा प्लांट से 12 से 50 मील के दायरे में रहने वाले लोगों और मलबे की साफ-सफाई में जुटे कर्मचारियों के स्वास्थ्य को सर्वाधिक खतरा है। इन लोगों को आने वाले वषरें और दशकों में थायराइड संबंधी समस्याओं और कैंसर का सामना करना पड़ सकता है। चिंता की बात यह है कि रेडियोएक्टिव पदाथरें ने फूड चेन को प्रदूषित कर दिया है। प्लांट से 90 मील दूर तक फार्मों से लिए गए दूध और पालक के नमूनों में रेडियो-एक्टिविटी का स्तर सामान्य से अधिक पाया गया है। प्लांट से 170 मील दूर टोक्यो में लिए गए पानी के नमूनों में भी अल्प मात्रा में रेडियो-एक्टिविटी पाई गई है। परमाणु रिएक्टरों और परमाणु बमों से निकलने वाला रेडिएशन आयोनाइजिंग रेडिएशन होता है। यह मानव शरीर के डीएनए को प्रभावित करता है। इससे कोशिकाएं इतनी ज्यादा क्षतिग्रस्त हो जाती हैं कि वे अंतत: नष्ट होने लगती हैं अथवा उनमें परिवर्तन या म्युटेशन होने लगते हैं, जो आगे चल कर कैंसर को जन्म दे सकते हैं। न्यूक्लियर रेडिएशन इतना ज्यादा ऊर्जावान होता है कि यह परमाणुओं से उनके इलेक्ट्रोंस को अलग करके उन्हें आयोनाइज कर देता है। यह आयोनाइजिंग रेडिएशन या तो परमाणुओं के बीच के जोड़ को तोड़ कर डीएनए मॉलिक्युल्स को प्रभावित करता है या पानी के मालिक्युल्स को आयोनाइज करके फ्री रेडिकल्स उत्पन्न करता है जो कि रासायनिक रूप से अत्यधिक रिएक्टिव होते हैं। यह रेडिएशन आसपास के मालिक्युल्स के जोड़ों को भी छिन्न-भिन्न कर देता है। मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में विकिरण सुरक्षा समिति के सदस्य पीटर डेडोन के अनुसार रेडियोएक्टिव तत्वों के केन्द्रक या न्यूक्लियस में क्षय होता रहता है। इसमें से अत्यधिक ऊर्जा वाले कण निकलते रहते हैं। यदि आप इन ऊर्जा-कणों के सामने आ जाते हैं तो ये आपके शरीर की कोशिकाओं के साथ प्रतिक्रिया करेंगे। एक तरह से आपकी कोशिकाओं और टिशुओं के भीतर ये ऊर्जा-कण विचरने लगेंगे। यदि रेडिएशन से डीएनए मालिक्युल्स में ज्यादा परिवर्तन हो जाता है तो कोशिकाएं विभाजित होना बंद कर देंगी और नष्ट होने लगेंगी। इससे उबकाई, सूजन और बालों का झड़ना जैसे लक्षणों के रूप में रेडिएशन सिकनेस सामने आएगी। जो कोशिकाएं कम क्षतिग्रस्त हुई हैं, वे जीवित रह कर विभाजित हो सकती हैं, लेकिन उनके डीएनए में होने वाला ढांचागत परिवर्तन कोशिकाओं की सामान्य प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकता है। इनमें वे मैकेनिजम भी शामिल हैं, जो यह तय करते हैं कि कोशिकाओं को कब और कैसे विभाजित होना चाहिए। जो कोशिकाएं अपने विभाजन को नियंत्रित नहीं कर पातीं, वे बेकाबू हो कर कैंसरकारक हो जाती हैं। शरीर में दाखिल होने वाले कुछ ऊर्जा-कण खास नुकसान किए बगैर ही शरीर से बाहर हो सकते हैं, लेकिन कुछ शरीर में बने रहते हैं। मसलन रेडियो-एक्टिव आयोडीन-131 सबसे ज्यादा खतरा उत्पन्न करती है क्योंकि थायराइड ग्लैंड तेजी से उसे सोख लेती है। आयोडीन-131 लंबे समय तक थायराइड में बनी रहती है। रेडियोएक्टिव आयोडीन का प्रभाव कितना गंभीर होता है, उसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि उक्रेन में चेर्नोबिल परमाणु हादसे के 25 साल बाद भी लोग थायराइड कैंसर के बढ़े हुए खतरे से जूझ रहे हैं। इन लोगो ने दुर्घटना के कई हफ्तों बाद जिस दूध और दुग्ध पदाथरें का सेवन किया था, उनमें रेडियोएक्टिव आयोडीन का असर था। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

Friday, March 11, 2011

खतरे में जीव-जंतु


लेखक विलोपन के छठे दौर के खतरे से आगाह कर रहे हैं

पृथ्वी पर पिछले 54 करोड़ वर्षो के दौरान पांच बार जीव-जंतुओं का बड़े पैमाने पर विनाश हुआ। विनाश के प्रत्येक दौर में तीन-चौथाई या उससे अधिक जीव-जंतुओं की प्रजातियों का सफाया हो गया था। अब वैज्ञानिकों ने चेताया है कि मेंढकों, मछलियों और शेरों सहित अनेक जीव-जंतुओं की आबादी में तेजी से गिरावट को देखते हुए पृथ्वी पर जीवों के विनाश का छठा दौर शुरू हो सकता है। यदि जीव-जंतुओं का व्यापक विलोपन होता है तो 300 वर्षो के भीतर दुनिया के 75 प्रतिशत से अधिक जीवों का नामोनिशान मिट जाएगा। यह प्रलय एस्ट्रायड या क्षुद्रग्रह से नहीं आएगी, जिसकी वजह से करीब 6.5 करोड़ वर्ष पहले धरती से डायनासोर साम्राच्य का सफाया हो गया था। वैज्ञानिकों द्वारा किए गए एक नए अध्ययन के मुताबिक मनुष्य जिस तरह से जमीन का इस्तेमाल कर रहा है और जिस तरह से जलवायु में परिवर्तन हो रहे हैं, उससे पृथ्वी पर जीव-जंतुओं की बड़े पैमाने पर विलुप्ति का खतरा बहुत बढ़ गया है। बर्कले स्थित यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के जीवाश्म-वैज्ञानिक टोनी बामोस्की के नेतृत्व में किए गए इस ताजा अध्ययन में चेतावनी दी गई है कि यदि आज हम विलोपन की रफ्तार को थामने में नाकाम रहे तो दुनिया में तीन से लेकर 22 शताब्दियों के बीच छठा महाविलोपन हो सकता है। बामोस्की का कहना है कि आज हमने जो खोजा है, वह अच्छा भी है और बुरा भी। अच्छी बात यह है कि अभी इतना विलोपन नहीं हुआ है कि हम अभी से उम्मीद छोड़ दें, खराब बात यह है कि विलोपन की दर पर अंकुश नहीं लगा तो पृथ्वी को छठे बड़े विलोपन से बचाना मुश्किल हो जाएगा। बामोस्की के मुताबिक महाविलोपन का सबसे बड़ा कारण मनुष्य की गतिविधियां हैं। हम जीव-जंतुओं के कुदरती आवास को उजाड़ रहे हैं, पर्यावरण-संतुलन बिगाड़ रहे हैं और प्रजातियों को एक जगह से हटा कर दूसरी जगह ले जा रहे है ताकि बाहरी आक्रामक प्रजातियां स्थानीय प्रजातियों पर हावी हो जाएं। आज जो जलवायु परिवर्तन हो रहा है, उसका कारण भी मनुष्य ही है। और फिर धरती पर आबादी का बोझ भी बढ़ रहा है, जिसके चलते संसाधनों पर भी दबाव पड़ रहा है। पांचवें विलोपन के दौरान डायनासोर और दूसरी प्रजातियां नष्ट हो गई थीं। बाकी सभी चार महाविलोपन डायनासोरों के लुप्त होने से पहले हो चुके थे। इन विलोपनों ने समुद्री जीवों को प्रभावित किया था। इस वक्त चल रहे विलोपन के दौर से कोई भी जीव-जंतु सुरक्षित नहीं है। खतरे में पड़े जीव-जंतुओं की सूची में गैंडे, हाथी, पांडा, ेल, डोल्फिन, शेर, समुद्री कछुए और ट्रि कंगारू आदि शामिल हैं। पेड़-पौधों और जीव जंतुओं की प्राय: हर श्रेणी में कोई न कोई खतरे में है। जिन प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है, उनकी संख्या 20 से लेकर 50 प्रतिशत के बीच आंकी गई है। यूनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के जीवाश्म-वैज्ञानिक डेविड जब्लोंस्की का कहना है कि इस अध्ययन में पहली बार वर्तमान विलोपन की तुलना पिछले जीवाश्म-रिकार्ड के साथ की गई है। रिसर्चरों ने प्रजातियों के आधुनिक रिकार्ड के मौजूदा आंकड़ों और जीवाश्म-रिकार्ड का गणितीय विश्लेषण करके विलोपन की वर्तमान दर की तुलना अतीत में हुए विलोपनों से की। यह मुश्किल और जटिल कार्य है। पिछले 3.5 अरब वर्षो के दौरान पृथ्वी पर चार अरब प्रजातियां विकसित हुई थीं और इनमें से 99 प्रतिशत अब लुप्त हो चुकी हैं, दूसरी तरफ चिंता की बात यह है कि हम अपने ग्रह पर अपनी गतिविधियों से धीरे-धीरे महाविलोपन जैसी परिस्थितियां उत्पन्न कर रहे हैं, फिर भी लोगों के समक्ष सुधरने का एक अच्छा मौका है। यदि लोग अपनी आदतें बदल दें और संरक्षण के कारगर उपाय करें तो खतरे में पड़ी प्रजातियों को संकट से उबारा जा सकता है। अभी पृथ्वी पर काफी जैव-विविधता बची हुई है। इसके संरक्षण से हम छठे विलोपन को टाल सकते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)