मानव का लालच वनमानुषों को अपनों का ही हत्यारा बना रहा है। लगातार कटते पेड़, सिमटते जंगल, स्वेच्छाचारी मानुष के आगे वनमानुष विवश है। मेघालय के गारो हिल्स में हूलॉक गिब्बन (वनमानुष) अपनी ममता का गला घोंट रहे हैं। नए सदस्य के जन्म लेते ही पिता दिल पर पत्थर रख उसे जमीन पर पटक देता है। वनमानुषों के व्यवहार में आया यह हैरतअंगेज बदलाव उनमें मनुष्यों के लालच से उपजी कुंठा का नतीजा है। सिमटते जंगल और घटते भोजन पर नई पीढ़ी कैसे जिंदा रहेगी? वनमानुषों ने इसी सवाल का यह निर्मम हल निकाला है। साल दर साल अस्तित्व की लड़ाई हार रहे वनमानुषों की संख्या पिछले 25 वर्ष में 90 फीसदी कम हो गई है। औलाद से अजीज कुछ नहीं, इंसान हो या जानवर संतान सुख का भाव सबमें एक है। मगर इंसान में मची विकास की होड़ से विनाश की कगार पर पहुंच चुके वन मानुष जिंदगी की आस छोड़ चुके हैं। इस असुरक्षा के भाव ने ही उन्हें अपनी ही संतान की जान का दुश्मन बन गया। वनमानुषों के व्यवहार में आए इस परिवर्तन का असर उनकी प्रजनन दर पर भी पड़ा है। देहरादून स्थित प्राणि विज्ञान सर्वेक्षण विभाग (जेडएसआइ) की टीम हूलॉक गिब्बन पर शोध कर रही है। शोध में जुटे जेडएसआइ के प्राणी विज्ञानी जगदीश प्रसाद सती बताते हैं कि हाल ही में मेघालय के जंगलों में किए जा रहे अध्ययन के निष्कर्ष से साफ है कि तेजी से कट रहे जंगलों से वनमानुषों का रहन-सहन भी प्रभावित हो रहा है। हूलॉक गिब्बन की प्रजनन की रफ्तार घटने से उनके अस्तित्व पर सवाल खड़े हो गए हैं। यहां तक कि वे अपने बच्चों के कातिल बन बैठे हैं। जन्म लेते ही नर नवजात की पटक कर हत्या कर देता है। वर्ष 1990 में असम में इनकी संख्या लगभग 130 थी, जबकि आज यह घटकर 80 हो गई है। मेघालय सहित नॉर्थ ईस्ट के अन्य राज्यों 25 साल पहले करीब 70 हजार के आसपास वनमानुष थे, जो आज सिर्फ तकरीबन 600 रह गए हैं।
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Monday, April 18, 2011
Saturday, April 9, 2011
उत्तराखंड के ग्लेशियरों की सेहत में सुधार
ग्लोबल वार्मिग के दौर में ग्लेशियरों की सेहत सुधर रही है। इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि प्रदेश में स्नो कवर एरिया में दो फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है। ग्लेशियरों को अनुकूल तापमान मिलने से उनके पिघलने की रफ्तार भी कुछ कम हुई है। वाडिया हिमालय भू-विज्ञान संस्थान के हिमनद (ग्लेशियर) विशेषज्ञों ने हाल ही में उत्तराखंड के ग्लेशियरों की सेहत का अध्ययन किया। मुख्य रूप से गंगोत्री, डुकरानी व चूराबारी ग्लेशियरों पर किया गया शोध पर्यावरण की सेहत सुधरने का संकेत दे रहा है। इन हिमनदों के करीब 189 वर्ग किमी के स्नो कवर (कैचमेंट एरिया) में एक से दो फीसदी तक की बढ़ोतरी दर्ज की गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक उत्तराखंड के एक हजार छोटे-बड़े ग्लेशियरों के स्नो कवर एरिया भी लगभग इतना ही बढ़ा है। वाडिया संस्थान के वरिष्ठ हिमनद विशेषज्ञ डॉ. डीपी डोभाल का कहना है कि पिछले मानसून सीजन में जमकर हुई बारिश से स्नो कवर एरिया में यह वृद्धि पाई गई। यदि इस मानसून सत्र में भी पिछली साल की तरह ही अच्छी बारिश हुई तो कवर एरिया कम नहीं होगा। कैचमेंट एरिया प्लस में रहने से आसपास का तापमान भी पहले की अपेक्षा काफी गिर गया है। इससे ग्लेशियरों के पिघलने की रफ्तार भी कुछ हद तक कम हुई है।
क्या है स्नो कवर एरिया : हिमनदों के आसपास का जो भी एरिया बर्फ से ढका होता है, उसे स्नो कवर एरिया कहते हैं। इसके पिघलने की रफ्तार ग्लेशियर से कहीं अधिक होती है, लेकिन जब तक इसमें बर्फ होती है ग्लेशियर कम रफ्तार से पिघलते हैं।
कुछ ग्लेशियर व कैचमेंट एरिया : गंगोत्री- लंबाई 30 किमी, चौड़ाई पांच किमी व कवर एरिया 147 वर्ग किमी, चूराबारी-लंबाई 06 किमी, मोटाई 65 मीटर, कवर एरिया 27 वर्ग किमी, डुकरानी- लंबाई 5.5 किमी, मोटाई 15-120 मीटर व कवर एरिया 15 वर्ग किमी
महत्वपूर्ण तथ्य : उत्तराखंड में एक हजार हिमनद हैं। इनकी लंबाई एक किमी से 30 किमी के बीच है। एक हिमनद का स्नो कवर एरिया कुल भाग केकरीब 10 फीसदी होती है।
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