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Saturday, June 18, 2011
Wednesday, June 15, 2011
बिजली परियोजनाओं से घट रहा है गंगा में जल प्रवाह
पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने कहा है कि उत्तराखंड की अलखनंदा और भागीरथी जल विद्युत परियोजनाओं के कारण गंगा नदी में जल प्रवाह घट रहा है। इस मामले में तत्काल ठोस कदम उठाए जाने की आवश्यकता है। केंद्र सरकार ने नदी की अविरल धारा बनाए रखने तथा 2020 तक नदी को पूरी तरह प्रदूषण मुक्त बनाने के मकसद से मंगलवार को विश्व बैंक के साथ करीब एक अरब डॉलर (4600 करोड़ रुपये) का कर्ज हासिल करने के लिए समझौता किया है। इस धनराशि से उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल को गंगा नदी के संरक्षण के लिए धनराशि मुहैया कराई जाएगी। जयराम रमेश ने मंगलवार को नई दिल्ली में विश्व बैंक के निदेशक (भारत) रॉबर्टो जागा के साथ इस संबंध में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस मौके पर रमेश ने कहा, गंगा नदी के संबंध में आइआइटी रुड़की के एक अध्ययन रिपोर्ट पर्यावरण मंत्रालय को सौंपी है, जिसके मुताबिक, अलखनंदा और भागीरथी पनबिजली परियोजनाओं के कारण गंगा नदी के जल प्रवाह पर असर पड़ रहा है। अध्ययन रिपोर्ट से साबित होता है कि भागीरथी और अलकनंदा नदी के भराव क्षेत्र महत्वपूर्ण हैं। अगर इन दोनों नदियों में पानी नहीं होगा तो गंगा नदी में भी जल प्रवाह काफी कम हो जाएगा। गंगा में अविरल धारा बनाए रखने के लिए दोनों परियोजनाओं के तहत न्यूनतम जल प्रवाह निर्धारित करना होगा। हमने यह सिफारिश स्वीकार कर ली है और अब इस संबंध में कदम उठाए जाएंगे। रमेश ने विश्व बैंक के साथ हुए समझौते के विवरण देते हुए कहा, 2020 तक हमें गंगा को गंदे पानी और उद्योगों के प्रदूषण से मुक्त बनाना है। इसके लिए विश्व बैंक की मदद से पांच वर्ष की अवधि में राशि खर्च की जाएगी। राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण इस परियोजना का कार्यान्वयन करेगा। विश्व बैंक से मिलने वाले कर्ज की राशि को मिलाकर यह परियोजना कुल सात हजार करोड़ रुपए की है। उन्होंने कहा, उनके मंत्रालय ने गंगा नदी के तटीय क्षेत्रों में चल रही 60 इकाइयों को उनके द्वारा प्रदूषण फैलाने पर कारण बताओ नोटिस जारी किए हैं। इनमें से अधिकतर इकाइयां कन्नौज से वाराणसी के बीच के 500 किलोमीटर क्षेत्र में हैं। सरकार ने विश्व बैंक के साथ दो और समझौते किए हैं। इसके तहत ग्रामीण क्षेत्रों में जीवनयापन के सोत्रों को मजबूत करने के लिए 1.56 करोड़ डॉलर और जैव विविधता संरक्षण के लिए 81.4 लाख डॉलर का कर्ज मिलेगा।
Wednesday, June 1, 2011
जल विद्युत परियोजनाओं के नाम पर पहाड़ से खिलवाड़
हिमाचल प्रदेश में बिजली परियोजनाओं के नाम पर निजी कंपनियां और सरकारी तंत्र प्रकृति से खिलवाड़ कर रहे हैं। नियम कायदों को दरकिनार कर पहाड़ों का मलबा नदियों के किनारे फेंका जा रहा है, जिससे तटीय क्षेत्र डंपिंग ग्राउंड में तब्दील होते जा रहे हैं। राज्य के उच्च पर्वतीय क्षेत्र किन्नौर की काशांग विद्युत परियोजनाओं के काम में जुटी कंपनियां और सरकारी तंत्र इसके लिए पूरी तरह से जिम्मेदार हैं। हिमाचल प्रदेश पावर कॉरपोरेशन लिमिटेड काशांग स्टेज-एक के 65 मेगावाट प्रोजेक्ट के लिए लीज ही नहीं हुई है, लेकिन कार्य धड़ल्ले से चल रहा है। काशांग स्टेज-दो में किरंग खड्ड के पानी को छह किलोमीटर की भूमिगत सुरंग से काशांग में मिलाने की योजना है। काशांग स्टेज-तीन में किरंग खड्ड व काशांग के पानी को मिलाकर 195 मेगावाट विद्युत उत्पादन किया जाएगा। स्टेज-एक, दो, तीन व चार को पर्यावरण मंजूरी मिली है, लेकिन स्टेज दो, तीन व चार को न तो वन मंत्रालय से अभी तक स्वीकृति मिली है और न ही ग्राम सभाओं से अनापत्ति प्रमाणपत्र मिला है। इसके बावजूद एचपीसीएल अपने सब कांट्रेक्टर पटेल व एचसीसी कंपनी के माध्यम से मापदंडों को दाव पर रख कर कार्य कर रहा है। काशांग परियोजना का मलबा सतलुज नदी के सीने में फेंका जा रहा है। फील्ड जोन से दस मीटर ऊपर मलबा स्टोर करने के सभी नियम ताक पर रखे जा रहे हैं। कच्ची प्रोटेक्शन दीवारों से इसे रोकने का प्रयास किया जा रहा है। स्टेज दो व तीन का काम सुरंगों के माध्यम से शुरू कर दिया गया है जिसका ग्राम पंचायत रारंग, जंगी, लिप्पा व आसरांग के ग्रामीणों ने विरोध किया है। उन्होंने इस बारे में डीएम से लिखित शिकायत करने के साथ ही काम रोकने की मांग की है। उनका कहना है कि शुक्ला कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर सात हजार फुट से ऊपर के क्षेत्रों में प्रोजेक्ट न बनाया जाए। मामला हाईकोर्ट में विचाराधीन है। साथ ही चेतावनी दी है कि काम न रोका गया तो आंदोलन किया जाएगा.
Monday, May 9, 2011
Saturday, May 7, 2011
हिमाचल प्रदेश में दिनों दिन बढ़ रही वन संपदा
देश में वनों की घटती संख्या और वृक्षों के अंधाधुंध कटान के बीच यह सुखद समाचार है कि हिमाचल प्रदेश में वन संपदा बढ़ रही है। राज्य के पास 11 साल पहले 1,06,666 करोड़ की वन संपदा थी, जिसके अब और बढ़ने के आसार हैं। हिमाचल प्रदेश के वन विभाग ने अपनी वन संपदा का आकलन करने के लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ फॉरेस्ट मैनेजमेंट भोपाल को जिम्मा सौंपा है। टीम जुलाई में प्रदेश का दौरा करेगी। इससे पहले मई 2000 में फॉरेस्ट वेल्थ यानी वन संपदा का आकलन किया गया था।
लाहुल-स्पीति में सबसे अधिक वन क्षेत्र : हिमाचल प्रदेश में ताजा आंकड़ों के अनुसार राज्य का वन क्षेत्र 37033 वर्ग किलोमीटर है। वनों से ढका क्षेत्र 14668 वर्ग किलोमीटर है और घना वन क्षेत्र 3224 वर्ग किलोमीटर है। सबसे अधिक वन क्षेत्र लाहुल-स्पीति व सबसे कम वन क्षेत्र हमीरपुर का है। हिमाचल प्रदेश वन विभाग के चीफ कंजर्वेटर फॉरेस्ट (सीसीएफ) वर्किग प्लान तेजेंद्र सिंह का कहना है कि प्रदेश में वन संपदा का आकलन करने के लिए आइआइएफएम को प्रोजेक्ट दिया गया है। प्रारंभिक काम शुरू हो गया है। इस समय टीम सिक्किम के दौरे पर है। उसके बाद जुलाई में भोपाल संस्थान से टीम के हिमाचल आने की संभावना है। वन संपदा का आकलन करने के लिए विभिन्न मानक होते हैं। इनमें प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष मानक शामिल हैं। वनों से हासिल होने वाली कुछ संपदा प्रत्यक्ष दिखाई देती है। इसमें लकड़ी, चारा, घास, पत्तियां आदि शामिल हैं। अप्रत्यक्ष पूंजी में भू-संरक्षण, मृदा संरक्षण, ऑक्सीजन के अलावा वनों पर आधारित पर्यटन आते हैं। हाल ही में इसमें नया कंसेप्ट कार्बन क्रेडिट का भी जुड़ा है। वन संपदा का आकलन करते समय पेड़ों के कारण मिट्टी की उर्वरक क्षमता, पानी, जैव विविधता व टिंबर का मूल्य भी देखा जाता है।
सियोग कैचमैंट एरिया का पानी सबसे शुद्ध : वन विभाग द्वारा कुछ अरसा पहले कराए गए अध्ययन में शिमला स्थित सियोग कैचमैंट एरिया के प्राकृतिक जलस्रोतों से मिलने वाला पानी शुद्धता के लिहाज से बहुत बेहतर क्वालिटी का पाया गया था। इसका कारण यहां मृदा क्षरण न होना और बहुतायत में पेड़ पाया जाना था। इसके अलावा प्राकृतिक जड़ी-बूटियों के कारण भी यहां का पानी सेहत के लिए लाभदायक मिनरल वाला बताया गया था।
Sunday, May 1, 2011
मोक्षदायिनी को जीवनदान की योजना
पतितपावनी गंगा नदी गंदगी ढोते-ढोते मैली हो चुकी है। उत्तराखंड सरकार ने सिसक रही मोक्षदायिनी के आंसू पोछने का जिम्मा उठाया है। सरकार की मंशा है कि गंगा राज्य की सीमा से पूरी तरह प्रदूषणमुक्त और निर्मल बहे। कोशिश कामयाब रही तो गंगा और उसकी सहायक नदियों में हर दिन 400 मिलियन लीटर गंदगी को घुलने से रोका जाएगा। इसके लिए 225 किमी नदी तटों और उससे सटे 17 नगरीय क्षेत्रों को प्रदूषण शून्य किया जाएगा। हालांकि, इसके लिए राज्य को 2644 करोड़ धनराशि की दरकार होगी। राज्य सरकार ने इसके लिए स्पर्श गंगा के जरिए जनजागरण की मुहिम छेड़ दी है। राष्ट्रीय गंगा नदी घाटी प्राधिकरण को इस बाबत राज्य विस्तृत प्रोजेक्ट भेज चुका है। इसमें 2020 तक गंगा को प्रदूषण शून्य करने का लक्ष्य है। प्रोजेक्ट में गंगा को पूरी तरह सीवर की गंदगी से मुक्त करने पर जोर है। इसके लिए सीवर लाइन बिछाने को 880 करोड़, सीवरेज शोधन संयंत्रों के लिए 810 करोड़, सालिड वेस्ट मैनेजमेंट को 280 करोड़, सामुदायिक शौचालयों के लिए 41 करोड़, घाटों के विकास को 255 करोड़, कैचमेंट एरिया सुरक्षा और वनीकरण-सौंदर्यीकरण को क्रमश: 300 करोड़ और 64 करोड़ का प्रस्ताव प्राधिकरण को भेजा गया है। पहले फेज में राज्य ने 404 करोड़ मांगे हैं। राज्य की चिंता सीवर की गंदगी गंगा और सहायक नदियों में जाने से रोकने के साथ ही हर साल तकरीबन तीन करोड़ श्रद्धालुओं, यात्रियों और पर्यटकों की आमद से होने वाले प्रदूषण पर अंकुश लगाने की है। इसके लिए विशेष रूप से यात्रा मार्गो पर जन सुविधाओं के विकास, सुलभ शौचालयों और कूड़े के निस्तारण पर जोर है। प्राधिकरण के माध्यम से सूबे को सितंबर, 2010 तक करीब 17 करोड़ और अब हाल ही में टिहरी जिले में ऋषिकेश से सटे तपोवन क्षेत्र में सीवरेज ट्रीटमेंट प्लांट को 23 करोड़ की राशि मंजूर की गई है। इसमें 70 फीसदी राशि केंद्र और 30 फीसदी राज्य मुहैया कराएगा। इसकी पहली किस्त जारी की गई है। पेयजल एवं नियोजन मंत्री प्रकाश पंत का कहना है कि राज्य के भीतर गंगा और सहायक नदियों को प्रदूषण शून्य करने पर सरकार का विशेष फोकस है। सरकार ने अपने स्तर पर प्रयास शुरू किए हैं। प्राधिकरण का अपेक्षित सहयोग मिलने पर अभियान को समय से पहले पूरा करने पर विशेष जोर रहेगा।
Thursday, April 28, 2011
Monday, April 25, 2011
वनों में परिवेश की जगह नहीं, कहीं लुप्त न हो जाएं देशी हाथी
एशियाई मूल के देसी हाथियों के लिए जंगलों में अब उतनी जगह नहीं बची कि उनको भरपूर प्राकृतिक परिवेश मिल सके। अगर आगे भी यही हाल रहा तो एशियाई मूल के हाथी बहुत कम हो जाएंगे। जीव विशेषज्ञ कहते हैं कि अभी से सजग न हुए तो इन हाथियों का हाल भी बाघों की तरह हो जाएगा। एशियाई मूल के हाथियों की संख्या बढ़ाने के लिए फरवरी 1992 में केंद्र सरकार ने प्रोजेक्ट एलीफैंट मैक्सीमाज तैयार किया था जिसके आधार पर सभी राष्ट्रीय उद्यानों को दिशा निर्देश जारी किए गए थे। सभी राज्य सरकारों को इसके लिए बजट उपलब्ध कराया गया था। अगर दुधवा नेशनल पार्क की बात करें तो यहां एक दर्जन हाथी हैं, जो पालतू हैं। नेपाल के वर्दिया नेशनल पार्क से हाथियों के दो झुंड दुधवा या खीरी और बहराइच के जंगलों के अलावा पीलीभीत के जंगलों में आते हैं। झुंड अलग-अलग 13 और 7 की संख्या में आते हैं। नेपाल से इनके आने का रूट मोहाना नदी व कतर्निया घाट है। हाथी एक बार में चालीस किमी तक मूवमेंट करते हैं। इस दौरान वनों के कटान के कारण इनके भोजन के लिए पर्याप्त प्राकृतिक परिवेश नहीं मिल पाता जिससे यह फसलों को उखाड़ लेते हैं। भोजन कम होने और गर्भाधान की अवधि काफी लंबी होने के कारण इनकी संख्या में पर्याप्त वृद्धि नहीं हो पा रही है। दरअसल पूरे देश में एशियाई मूल के लगभग 21000 हाथी हैं। इनके लिए 90 हजार वर्ग किलोमीटर का प्राकृतिक परिवेश चाहिए जो घटकर 62 हजार वर्ग किमी तक ही रह गया है। इसके अलावा एक और कारण दांतों के लिए हाथियों की तस्करी का भी है। अभी पिछले साल जिम कार्बेट पार्क में ही हाथी मारे गए थे जिसके शिकारी तमिलनाडु से आए थे। दुधवा नेशनल पार्क के उप निदेशक संजय पाठक कहते हैं कि दुधवा में तो हाथियों के लिए प्राकृतिक परिवेश है। नेपाल से जो हाथी यहां आते हैं उनके रूट पर ऐसे परिवेश की कमी हो रही है। दुर्लभ वन्य प्राणी परियोजना के अधिकारी मुकेश राजयादा यह मानते हैं कि प्रोजेक्ट एलीफैंट मैक्सीमाज पर और भी काम करने की जरूरत है, नहीं तो संकट गहरा सकता है। वन्य जीव विशेषज्ञ डॉ. वीपी सिंह कहते हैं कि अभी से न चेते तो हाथियों की भी बाघों जैसी हालत होने में देरी न लगेगी।
Friday, April 22, 2011
देश में फिर बढ़ने लगी गिद्धों की आबादी
प्रकृति के सफाईकर्मियों अर्थात गिद्धों के अस्तित्व पर छाए संकट के बादल धीरे-धीरे छंटने लगे हैं। बदलाव की यह बयार राजाजी नेशनल पार्क में साफ देखी जा सकती है। देशभर में मिलने वाली गिद्धों की नौ प्रजातियों में पांच की राजाजी में मौजूदगी है और वह भी ठीकठाक संख्या में। और तो और इस मर्तबा तो हिमालयी गिद्ध भी वहां अभी तक अच्छी-खासी तादाद में डेरा डाले हुए हैं। इसे पार्क में सुदृढ़ पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में देखा जा रहा है। देशभर में एक-डेढ़ दशक पहले गिद्ध दिखाई देना ही बंद हो गए थे और उत्तराखंड भी इससे अछूता नहीं था। चिंता का विषय बने इस मसले की पड़ताल हुई तो पता चला कि मवेशियों को दी जाने वाली डाइक्लोरोफिनैल नामक दवा, खेती में कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग और गड़बड़ाता पारिस्थितिकी तंत्र इसकी मुख्य वजह है। खैर, अब स्थितियां बदली हैं और गिद्धों की अच्छी खासी संख्या दिखाई पड़ने लगी है। देश में पाई जाने वाली गिद्धों की नौ प्रजातियों में से पांच का दीदार तो राजाजी पार्क में हो रहा है। हिमालयन गिद्ध तो अभी तक यहां मौजूद है। राजाजी नेशनल पार्क में गिद्धों की बढ़ती तादाद से वन्यजीव विशेषज्ञों और पार्क प्रशासन की खुशी का ठिकाना नहीं है। वन्यजीव विशेषज्ञ डा.रितेश जोशी के अनुसार, राजाजी पार्क में गिद्धों की अच्छी तादाद वहां पारिस्थितिकीय तंत्र की सेहत सुदृढ़ होने का संकेत देता है। उन्होंने कहा कि पार्क में कार्नीबोर व हर्बीबोर दोनों की संख्या ठीक है और गिद्धों को पर्याप्त भोजन मिल रहा है। पार्क के निदेशक एसएस रसाईली के मुताबिक पार्क प्रशासन की ओर से पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत बनाने का ही नतीजा है कि वहां गिद्धों की अच्छी संख्या देखने को मिल रही है। देश में गिद्धों की प्रजातियां : किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड, स्कैवेंजर, हिमालयन ग्रीफॉर्न, यूरेशियन, सिनेरियस, सिलेंडर बिल व लैमर गियर राजाजी पार्क में मौजूद प्रजातियां : किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड, स्कैवेंजर, हिमालयन ग्रीफॉर्न इन पर है ज्यादा संकट : बर्ड लाइफ इंटरनेशनल संस्था के मुताबिक किंग वल्चर, लांग बिल्ड वल्चर, इंडियन व्हाइट बैक्ड प्रजातियों को गंभीर रूप से संकटग्रस्त घोषित किया है। स्कैवेंजर नामक गिद्ध को संकटग्रस्त घोषित किया गया है|
Thursday, April 21, 2011
Monday, April 18, 2011
चीनी मिल के पानी से जहरीली हुई कृष्णा नदी
पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले में चीनी मिलों ने जीवनदायिनी नदियों को जहरीला बना गया दिया है। जिले के नानौता ब्लाक के भनेड़ा खेमचंदपुर के लिए तो कृष्णा नदी काल बन चुकी है। क्षेत्र में स्थित चीनी मिल से निकलने वाले कैमिकलयुक्त अपशिष्ट ने कृष्णा नदी के पानी को काली कर दिया है। यही वजह है कि गांव का भूमिगत जल भी प्रदूषित हो चुका है। अब तक तीस ग्रामीण असमय काल के गाल में समा चुके हैं। हैंडपंपों से निकलने वाले दूषित जल को पीकर गांव के लोग कैंसर, टीबी और त्वचा के रोगी हो रहे हैं। विकट होते हालात के मद्देनजर, बड़ी आबादी गांव से पलायन भी कर चुकी है। इतना सब होने के बावजूद, शासन प्रशासन ने गांव की ओर झांकने की जहमत तक नहीं उठाई है। जिला मुख्यालय से 35 किमी दूर नानौता ब्लाक के भनेड़ा खेमचंदपुर गांव को निर्मल गांव का दर्जा दिया गया है। ग्राम प्रधान सुदेश राणा को राष्ट्रपति ने पुरस्कृत किया लेकिन कृष्णा नदी से अभिशप्त इस गांव की हकीकत निर्मलता को तार-तार कर रही है। तीन हजार की आबादी वाले गांव से सटी कृष्णा नदी का जल इतना निर्मल था कि लोग नदी के ही पानी को पीते थे। 1975 में नानौता में सरकारी शुगर मिल लगने के बाद ही इस गांव के दुर्दिन शुरू हो गए। शुगर मिल का केमिकल और शीरे से युक्त अपशिष्ट नदी में डाला जाने लगा और वर्तमान में हालत यह हो गई है कि नदी का पानी जहरीला हो गया है। यही विषैला जल जमीन में पहुंच जाने से सरकारी व निजी हैंडपंप भी बदबूदार पीला पानी उगल रहे हैं। विषैले जल का सेवन करने के कारण ग्रामीण कैंसर, टीबी, पेट, आंत और चर्म रोगों की चपेट में आ गए। तकरीबन 30 लोगों की तो मौत हो चुकी है, जबकि 50 से ज्यादा लोग जिंदगी मौत से जूझ रहे हैं। इसी के चलते लोग कृष्णा नदी को अब मौत की नदी के नाम से पुकारते हैं। दिन पर दिन खराब होते हालात के कारण ही चंद वर्षो में दर्जनों परिवार गांव से पलायन कर चुके हैं। पशु भी होने लगे बांझ : दूषित जल ने गांव के सैकड़ों पशुओं को बांझ बना दिया है। बीमारी के भय से यहां युवाओं को विवाह के लिए कोई लड़की देने को तैयार नहीं। विषैला पानी पीने के कारण ही 50 वर्ष से ज्यादा कोई व्यक्ति जी ही नहीं पाता। इस गांव में विधवाओं की संख्या 50 से ज्यादा है। यूं तो यह मौत रूपी नदी अन्य गांव से गुजरती है पर आबादी इससे दूर निवास करने के चलते वहां इतना असर नहीं। मामले की शिकायत मुख्यमंत्री मायावती से लेकर कांग्रेस मुखिया सोनिया गांधी तक पहुंची। कांग्रेसी नेता अशोक गहलौत ने आठ अगस्त 2006 को तत्कालीन डीएम को कार्रवाई के निर्देश भी दिए थे, पर कोई समाधान नहीं हुआ। इस बारे में बात करने पर जिलाधिकारी चौब सिंह वर्मा ने स्थिति पर चिंता जताते हुए कहा कि वह इसे गंभीरता से लेंगे। गांव में टीम भेजकर सुधार की मुहिम चलाई जाएगी।
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