जापान समेत दुनिया में पिछले एक दशक से भूकंपों का जिस तरह से सिलसिला चल रहा है उस परिप्रेक्ष्य में जरूरी हो जाता है कि भूकंप प्रभावित पट्टी में भी भूकंपरोधी घर बनाने की आवश्यकता को समझा जाए। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हाल ही में जापान में आए भूकंप और सुनामी के बावजूद वहां इंसानी तबाही उतनी नहीं हुई, जितनी 2004 में आई सुनामी से भारत में हुई थी। हमारे यहां तीन लाख लोग इस सुनामी की भेंट चढ़ गए थे। हमने टीवी स्क्रीन पर देखा कि जापान में 8.9 तीव्रता से आए भूकंप के प्रभाव से घर व बहुमंजिला इमारतें हिल तो खूब रही हैं, लेकिन कम से कम जमींदोज नही हो रहीं। ऐसा भूकंपरोधी घर के कारण ही है। इस दृष्टि से दुनिया को जापान से सबक लेने की जरूरत है। प्राचीन काल में हमारी वास्तुकला काफी उन्नत थी। उन दिनों प्राकृतिक स्त्रोतों का कुशलतापूर्वक उपयोग टिकाऊ और मजबूत भवन बनाने में होता था। हर निर्माण सामग्री की गुणवत्ता का सूक्ष्म अध्ययन किए जाने के बाद ही उनका उपयोग होता था। परिणामस्वरूप बड़ी इमारतें भी दीर्घायु होती थीं। कई सौ साल पुराने भवन और किले आज भी मौजूद हैं जो हमारी प्राचीन वास्तुकला की श्रेष्ठता का प्रतीक हैं। समय के साथ हम प्रकृति से दूर भागते गए और साथ-साथ हमारे भवनों की औसत आयु भी क्षीण होती गई। पहले मकान बनाने में मिट्टी, बांस, लकड़ी और ईट का उपयोग होता था अब यह पूरी तरह सीमेंट, कंक्रीट और लोहे पर आधारित हो गया है। ये घर भूकंप की दृष्टि से खतरनाक हैं। विद्युत ऊर्जा के उत्पादन से भी काफी प्रदूषण फैलता है। वायुमंडल में कार्बनडाई ऑक्साइड की मात्रा को बढ़ाने में खासकर आधुनिक भवनों की ऊर्जा व्यवस्था का बड़ा हाथ माना गया है।। इस्पात, तांबा, अल्युमीनियम और कंक्रीट के उपयोग से मकानों में ऊर्जा की खपत काफी बढ़ जाती है इससे प्रदूषण के खतरे भी बढ़ते हैं।। भवन निर्माण सामग्री के लिए लौह अयस्क, बॉक्साइट आदि का अत्यधिक खनन होता है,। जिससे उसके आसपास हवा और पानी में प्रदूषित पदार्थो की मात्रा बढ़ जाती है। चिमनी में पकाई जाने वाली ईटों के निर्माण में मूल्यवान कृषि भूमि का उपयोग होता है। इसकी निर्माण प्रक्रिया भी काफी प्रदूषणकारी होती है। पर्यावरण की सुरक्षा की दृष्टिकोण से अच्छे भवनों के निर्माण के लिए तीन मुख्य उपायों पर ध्यान दिया जा सकता है। शीत या तापकरण के लिए सूर्य और वायु जैसे प्राकृतिक स्त्रोतों का दोहन, जलवायु नियंत्रण व्यवस्था के लिए कुशल उपकरणों का चयन और भूकंपरोधी परिष्कृत निर्माण सामग्रियों का इस्तेमाल। सूर्य की आकाशीय स्थिति को ध्यान में रखकर मकान बनाए जाने से उसमें मौसम के अनुकूल सुविधाएं सहज उपलब्ध हो जाती हैं और उनके लिए ऊर्जा की खपत भी नहीं होती। सूर्य की किरणों से शीत-ताप नियंत्रण व्यवस्था में उत्तर दिशा के मकान ज्यादा उपयुक्त माने गए हैं। इसी तरह खिड़कियोंको भी सूर्य की स्थिति के अनुरूप बनाने से कमरों में रोशनी का समुचित प्रबंध संभव है। अमेरिका और यूरोप के कई देशों में मौसम के अनुकूल परिष्कृत खिड़कियों का निर्माण होने लगा है। इनमें ऐसे शीशे लगाए जा रहे हैं जिससे सूर्य का स्वच्छ प्रकाश अंदर आ सकता है लेकिन गर्मी पैदा करने वाली पराबैंगनी यानी अल्ट्रा वॉयलेट और अवरक्त यानी इंफ्रारेड किरणें उसकी सतह से टकराकर लौट जाती हैं। जर्मनी की एक कंपनी ने खिड़की के ऐसे शीशे बनाए हैं जिनसे सौर ऊर्जा भी उत्पन्न की जा सकती है। पश्चिमी देशों में मकानों में ताप व्यवस्था के लिए अब सौर ऊर्जा के उपयोग का प्रचलन बढ़ा है। इसके लिए खिड़कियों के साथ-साथ छतों में भी विशेष प्रकार की टाइल्स का उपयोग किया जा रहा है। यह सौर ऊर्जा हमारे घर के अंदर की अन्य आवश्यकताओं की पूर्ति में भी सहायक हो सकती है। बड़े-बड़े भवनों के सुविधा खर्चो में इससे भारी कटौती संभव है। वायु मंडल में गर्मी बढ़ने से आधुनिक भवनों की छतें और दीवारें गर्म हो जाती हैं और इससे अंदर की आबोहवा भी गर्म हो जाती है। इसके लिए अब उष्मारोधी दीवारें बनाई जा रही हैं। जिससे गर्मी में बाहरी तापमान का असर अंदर न पडे़। हल्के रंग की छतें काफी उपयोगी पाई गई हैं, क्योंकि सूर्य की प्रखर किरणें इससे टकराकर लौट जाती हैं। इस तरह के भवनों में प्राकृतिक ऊर्जा स्त्रोतों के बेहतर उपयोग से ऊर्जा की खपत में 60 प्रतिशत तक की कमी आती है। ऐसे ही परिष्कृत ढंग से बनाए गए एम्सटरडम के एक बैंक कार्यालय के भवन में कर्मचारियों के बैठने की व्यवस्था इस तरह की गई कि कोई भी मेज खिड़की से छह मीटर से अधिक की दूरी पर न हो। इससे वहां बिजली के प्रकाश की जरूरत ही नहीं रही। जलवायु के अनुकूल और टिकाऊ भवनों के निर्माण के लिए परिष्कृत डिजाइनों के साथ-साथ निर्माण सामग्रियों के चयन में भी सावधानी आवश्यक है। इसमें यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि वह कम खर्च पर सुगमता से उपलब्ध हो और उनका दोबारा उपयोग संभव हो। अनुसंधानों से पता चला कि मिट्टी के मकान भूकंप और पर्यावरण के प्रति अधिक संवेदनशील होते हैं। ये प्रकंपन आसानी से सह जाते हैं। सीमेंट और पकी ईटों से बने मकानों की अपेक्षा मिट्टी के मकानों में ऊर्जा की खपत कम होती है। उपयुक्त तकनीक से इसे भूकंपरोधी भी बनाया जा सकता है। अमेरिका जैसे देशों में अब भवन निर्माताओं ने पुआल का भी उपयोग शुरू कर दिया है। यह श्रेष्ठ उष्मारोधी होता है। पुआल और मिट्टी को मिलाकर भवन निर्माण सामग्री बनाने के कारण कई देशों में लगाए गए हंै। जापान में इसी तकनीक से मकान बनाए गए है। इस तरह अत्यधिक प्रदूषण के लिए जवाबदेह चिमनियों में पकी ईटों और कंक्रीट के अब कई विकल्प तैयार किए जा रहे हैं। हमारे यहां भी कैल्शियम सिलीकेट की ईटें बनाई जाने लगी हैं। निर्माण सामग्रियों की गुणवत्ता के आकलन में भवन में रहने वालों के स्वास्थ्य को ध्यान में रखना आवश्यक है। आजकल कई ऐसी सामग्रियों का इस्तेमाल किया जाता है, जो स्वास्थ्य के लिए अत्यंत घातक माने गए हैं। इनमें पीवीसी पाइप भी हैं। पॉली विनायल क्लोराइड (पीवीसी) के उत्पादन में घातक प्रदूषण को देखते हुए जर्मनी और अमेरिका में इसका उपयोग नहीं किए जाने के सुझाव दिए गए हैं। भवन के अंदर दीवार, फर्श, फर्नीचर, प्लाइवुड आदि में इस्तेमाल किए गए पेंट के रसायनों से अत्यधिक खतरनाक वाष्पशील कार्बनिक पदार्थो का उत्सर्जन होता है। एयर कंडीशनरों के लिए पूरी तरह बंद किए गए कमरों के अंदर इस प्रदूषण से कैंसर जैसी बीमारियों के खतरे बढ़े हैं। पेट्रोलियम आधारित पेंट की जगह अलसी के तेल से बने पेंट का इस्तेमाल कर इस घातक प्रदूषण से बचा जा सकता है। इस तरह पर्यावरण के अनुकूल भवनों के निर्माण के प्रति थोड़ी सजगता हमारी रक्षा में सहायक हो सकती हैं। (लेखिका स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).
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Wednesday, April 13, 2011
चेर्नोबेल जितना खतरनाक जापान का परमाणु संकट
जापान के फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में विकिरण का स्तर अब तक के सबसे खतरनाक परमाणु हादसे चेर्नोबेल के बराबर पहंुच चुका है। फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में मंगलवार को इमरजेंसी का स्तर बढ़ाकर लेवल-7 कर दिया गया। यही स्तर 1986 में यूक्रेन के चेर्नोबेल के परमाणु हादसे के समय नियत किया गया था। हालांकि परमाणु विशेषज्ञों ने कहा है कि हम विकिरण की मात्रा का सही आकलन करने के बाद ही खतरे के वास्तविक स्तर के बारे में बता पाएंगे। जापान की परमाणु सुरक्षा एजेंसी के प्रवक्ता हिदेहिको निशियामा ने कहा, चेर्नोबेल परमाणु दुर्घटना और फुकुशिमा के हालात में काफी अंतर है। चेर्नोबेल रिएक्टर फट गया था और उसमें कई लोगों की मौत हो गई थी। उसमें विकिरण के रिसाव की वजह रिएक्टर में धमाका था। हालांकि फुकुशिमा में भी रिएक्टर की इमारत की छत धमाके में गिर गई थी, लेकिन रिसाव के बावजूद एक भी रिएक्टर ध्वस्त नहीं हुआ। फुकुशिमा में चेर्नोबेल के मुकाबले केवल दस प्रतिशत ही रिसाव हुआ है। उन्होंने कहा कि अंतरराष्ट्रीय पैमाने के हिसाब से फुकुशिमा में अभी लेवल पांच की इमरजेंसी है, मगर सुरक्षा की दृष्टि से इसे लेवल-7 कर दिया गया है। अभी तक हम यह नहीं पता लगा पाए हैं कि रिसाव कितना हो रहा है। सोमवार को जापान के परमाणु आयोग ने कहा था कि फुकुशिमा में अब प्रति घंटा दस हजार टेराबेक्वेल्स (विकरण की रफ्तार मापने इकाई) रेडियोधर्मी पदार्थ, आयोडीन-131 रिस रहा है। मुख्य कैबिनेट सचिव युकियो इदानो के अनुसार, विकिरण के चलते अभी तक किसी की मौत नहीं हुई है, लेकिन फुकुशिमा रिएक्टर में इस संकट से जूझने वाले 21 कर्मियों में विकिरण के कुछ लक्षण देखे गए हैं। जापान में मंगलवार को आए 6.3 के भूकंप के बाद फुकुशिमा के बंद पड़े रिएक्टर नंबर चार में धमाका हुआ। इसमें किसी के हताहत होने की खबर नहीं है। इंजीनियर इस पर काबू पाने में लगे हैं। भूकंप के बाद नारिता एयरपोर्ट के रनवे को भी बंद कर दिया गया|
दिल्ली में मिला सुपरबग
दिल्ली के पानी में सुपरबग होने की बात एक दिन पहले तक नकारने वाली सरकार ने सुपरबग होने की बात को स्वीकार किया है। दिल्ली के विभिन्न इलाकों के टैप वाटर से लिए गए 50 पानी के नमूने में से दो में सुपरबग पाया गया है। वहीं यमुना नदी से निकले विभिन्न तालाब एवं गढ्डों में से कुल 171 जगहों से लिए गए पानी के नमूनों में से 51 नमूनों में सुपरबग पाया गया। पानी में कुल ग्यारह तरह के बैक्टीरिया पाए गए। इसमें डिसेंट्री एवं कॉलरा के भी बैक्टीरिया शामिल हैं। राजधानी में सप्लाई के पानी में सुपरबग मिलने के बाद तत्काल मंगलवार को एनडीएमसी, एमसीडी एवं डीजी हेल्थ सर्विसेस के वरिष्ठ अधिकारियों ने बैठक कर इस समस्या से निजात पाने पर विचार-विमर्श किया। हालांकि इस पर काबू कैसे पाया जाएगा अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया। एमसीडी के प्रवक्ता दीप माथुर का कहते हैं कि अधिकारियों की बैठक जरूर हुई है, लेकिन यह मूल रूप से जल बोर्ड का काम है। एमसीडी का काम सिर्फ सैंपल इकट्ठा करना था। मेडिकल रिसर्च जनरल पत्रिका लैंसेट इनफैक्सेस डिजीज जनरल में सबसे पहले इस बात की जानकारी दी गई थी कि दिल्ली के पानी में सुपरबग है। सुपरबग अर्थात ऐसी बैक्टीरिया जिसपर एंटीबायोटिक्स का असर काफी कम होता है। लैंसेट इनफैक्सेस डिजीज जनरल में इस अध्ययन के प्रकाशन के बाद दिल्ली सरकार ने इस मुद्दे पर खुद जांच एवं अध्ययन करने का निर्णय लिया था। यह अध्ययन ब्रिटिश रिसचर्च के द्वारा कराया गया। जिसमें स्पष्ट तौर पर दिल्ली के पानी में सुपरबग होने की पुष्टि हुई है|
ग्लोबल वार्मिंग और कूलिंग
'ग्लोबल वार्मिग' विषय पर भारत के साथ विश्व के प्रमुख मीडिया में अब तक प्रकाशित तथ्यों और सिद्धांतों का अध्ययन करने पर लगता है कि काल्पनिक तथ्यों के आधार पर विशेषज्ञों द्वारा निर्मित ईश्वरीय अस्तित्व और तर्कहीन तथ्यों के आधार पर ग्लोबल वार्मिग के मुद्दे पर वैज्ञानिकों द्वारा व्यक्त विचारों में कोई फर्क नहीं है। क्या अब वैज्ञानिक भी अपनी असफलता को छिपाने के लिए कथित धार्मिक गुरुओं की तरह विज्ञान में भी पाखंडता से जुड़े प्रयोग करने लगे हैं? क्या वैज्ञानिकों के पास इन प्रश्नों के सही उत्तर हैं? 1. यदि पृथ्वी के बाहरी सतह से तकरीबन 78.084 प्रतिशत नाइट्रोजन, 20.946 प्रतिशत ऑक्सीजन और मात्र .95 प्रतिशत बाकी तत्व हैं तो .95 प्रतिशत के भीतर का कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा कम-ज्यादा होने मात्र के कारण पृथ्वी का तापमान इतना ज्यादा ऊपर-नीचे कैसे हो सकता है? 2. तत्व की उत्पत्ति के खगोलीय सिद्धांत क्या-क्या हैं? क्या तत्व की उत्पत्ति के सिद्धांत क्या-क्या है? क्या तत्व की उत्पत्ति के सिद्धांत के अभाव के अभाव में प्रकाश और ताप का संचय और प्रसारण करने वाले तत्वों के बारे में निर्णायक तथ्य कैसे दिया जा सकता है? 3. कहीं ऐसा तो नहीं कि पृथ्वी सूर्य से दूर और बृहस्पति के साथ-साथ प्रति-सूर्य व अंध- छेद के नजदीक जाने के कारण खुद धरती का तापमान ज्यादा ऊपर-नीचे हो रहा हो। 4. कहीं वैज्ञानिकों के पास सूर्य, प्रति-सूर्य व अंध-छेद और बृहस्पति के साथ-साथ प्रकाश, अन्धकार, ताप और शीत की वास्तविक परिभाषाओं के साथ-साथ सौर मण्डल के हरेक सदस्य की दिशा और गति के बारे में आज तक प्राप्त जानकारियां गलत तो नहीं? यदि वैज्ञानिकों के पास ऊपर छपे प्रश्नों के सही उत्तर नहीं हैं तो यहां नये खगोलीय सिद्धान्त का जन्म हो चुका है, वै ज्ञानिक के साथ ग्लोबल वार्मिग के विषय में सोचने वाले हरेक मानव जानें कि सौर-मण्डल, सूर्य, प्रति-सूर्य व अन्ध-छेद, बृहस्पति के साथ-साथ इस सौर-मण्डल के हरेक पिण्ड, तत्व की उत्पत्ति के सिद्धान्त के अनुसार इस पृथ्वी का प्रथम तत्व हाइड्रोजन से लेकर अन्तिम तत्वों की उत्पत्ति कैसे हो रहा है, प्रकाश और अन्धाकाश की परिभाषा के साथ- साथ ताप और शीत की परिभाषा के साथ-साथ ग्लोबल वार्मिग के कारण को कैसे परिभाषित किया जाता है। 1. ''अन्ध-पदार्थ और प्रति पदार्थ मिलकर बने हुए पृथ्वी के द्वंद्वात्मक पदार्थ व दृश्यमय भौतिक विश्व के तत्वों में अन्ध-पदार्थ की मात्रा घटने और प्रति-पदार्थ की मात्रा बढ़ने के कारण पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।'
पृथ्वी के तत्वों की उत्पत्ति के सिद्धान्त के साथ- साथ प्रकाश और अन्धेरा, ताप और शीत की वास्तविक परिभाषा के अभाव के कारण वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिग के विषय में भ्रम में पड़ गये हैं। समय, आकाश, प्रत्याकाश और अन्धाकाश की वास्तविक परिभाषा से तो वैज्ञानिक अब भी काफी दूर हैं। हम तीन भिन्न-भिन्न पदार्थ, तीन भिन्न-भिन्न प्रकाश और तीन भिन्न-भिन्न आकाश की वास्तविक परिभाषा के साथ ग्लोबल वार्मिक के कारणों की व्याख्या कर रहे हैं और इस समझ की स्पष्टता के लिए, हम हरेक बिन्दु में प्रश्न उठाने में समझ उपयुक्त प्रश्नकर्ताओं का स्वागत करते हैं। 2. पृथ्वी का तापमान बढ़ने का कारण इसकी बाहरी वातावरण में .95 प्रतिशत के भीतर का कार्बन डाईआक्साइड की मात्रा ज्यादा होने से न होकर पृथ्वी की बहिमरुखी गति के अनुसार यह पृथ्वी, सूर्य से दूर और मंगल एवं बृहस्पति के क्षेत्र में प्रवेश करने वाली है, जिसके कारण नाइट्रोजन की मात्रा घटने और ऑक्सीजन की मात्रा बढ़ने की प्रक्रिया चल रही है। नाइट्रोजन शीत पैदा करने वाला तत्व है तो आक्सीजन ऊष्ण पैदा करने वाला तत्व है। इस सौर मण्डल में पृथ्वी का जो स्थान है, उसके अनुसार पृथ्वी की बाहरी और भीतरी वातावरण में ताप की उत्पत्ति प्रकाश के साथ ऑक्सीजन मिलने से होती है। परन्तु, ताप की उत्पत्ति का यह नियम हरेक पिण्ड लागू नहीं होता है।
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