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Thursday, March 17, 2011

कितने सुरक्षित है हमारे संयंत्र


जापान दहल रहा है। अभी तक धधकती हुई ज्वालाओं के अवशेष चारों तरफ बिखरे पड़े हैं। ऊंची-ऊंची लहरों में कई जिंदगियाँ समा गई। मानवता को भी रोना आ रहा है। बहुतों ने देखा अपने पास से मौत को गुजरते हुए। भूकंप, सुनामी के बाद परमाणु विकिरण और अब ज्वालामुखी का दहकता लावा! समझ में नहीं आता कि इतनी सारी विपदाएं केवल जापान में ही क्यों? ऐसी बात नहीं है, विपदाएं कभी भी कहीं भी आ सकती हैं। कुछ लोग तो काम ही ऐसा करते हैं कि विपदाएं उनका पीछा नहीं छोड़तीं। हमारे देश की दहलीज पर आपदाएं दस्तक दे रही हैं। हमारे देश की परमाणु भट्ठियां कभी भी परमाणु बम का काम कर सकती हैं। हमारे देश में काम करने वाली परमाणु भट्ठियों में से एक भी ऐसी नहीं है, जो रिक्टर स्केल पर 9 की तीव्रता वाले भूकंप और सुनामी के सामने टिक सके। हम सब काल के मुहाने पर बैठे हैं। कब क्या हो जाए, कहा नहीं जा सकता। हमारे देश में अमेरिकन कंपनियों की सहायता से 20 एटमिक पॉवर प्लांट तैयार किए गए हैं। भारत का पहला परमाणु ऊर्जा संयंत्र मुंबई के करीब तारापुर में तैयार किया गया। गुजरात के काकरापार में भी परमाणु बिजली संयंत्र है। यदि अरब सागर में सुनामी की लहरें उठती हैं तो तारापुर परमाणु संयंत्र की हालत भी फुकुशिमा जैसी हो सकती है। मुंबई के लाखों लोग विकिरण का शिकार हो सकते हैं। जब भारत के दक्षिण समुद्री किनारे पर सुनामी की लहरें उठीं, तब चेन्नई के पास स्थित कलपक्कम परमाणु संयंत्र में पानी भर गया था। यह तो हमारा सौभाग्य था कि कोई बड़ी दुर्घटना नहीं हुई। अभी हमारे देश में जिस तरह से समुद्री तट असुरक्षित होने लगे हैं और उसके आसपास गगनचुंबी इमारतें बनने लगी हैं, वे चाहे कितनी भी भूकंपरोधी और सुनामीरोधी हों, एक न एक दिन जमींदोज होनी ही हैं। यह सोचना बिलकुल गलत है कि जापान में जो कुछ हुआ, वह भारत में नहीं हो सकता। प्रकृति के कोप से आज तक कोई बच पाया है क्या? महाराष्ट्र के जैतापुर स्थित परमाणु बिजली संयंत्र के खिलाफ आंदोलन चल रहा है। कुछ दिन पहले ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चौहान ने इन आंदोलनकारियों को आश्वासन दिया है कि यह संयंत्र इतना मजबूत है कि इस पर विमान भी टकरा जाए तो भी इससे विकिरण नहीं फैलेगा। उनकी इस घोषणा के बाद ही जापान का परमाणु संयंत्र सुनामी की चपेट में आ गया। 20 किलोमीटर का क्षेत्र खाली करवा दिया गया। यह सब कुछ उस जापान में हो रहा है, जो अब तक इस तरह की कई त्रासदियां झेल चुका है। इतना अधिक विकसित देश होने के बाद भी वह प्रकृति के आगे नतमस्तक हो गया। विज्ञान के मामले में वह भारत से कहीं अधिक उन्नत और प्रगतिशील है। जब वह आज लाचार है तो सोचिए, भारत पर ऐसी विपदा आएगी तो क्या होगा? दुनिया का सबसे बड़ा परमाणु संयंत्र जापान के काशीवाजाकी कैरवा नामक प्रदेश में स्थित है। वर्ष 2007 में इस प्रदेश में 6.6 की तीव्रता का भूकंप आया था। तब संयंत्र से विकिरण का रिसाव हुआ था। यह संयंत्र इस झटके को सह पाने के काबिल नहीं था। यह बात सरकार ने लोगों से छिपा रखी थी। भूकंप के कारण इस संयंत्र को पूरे 21 महीने तक बंद रखा गया था। इस तरह से जापान ने एक दुर्घटना की खबर को पूरी तरह से छिपा ही लिया था। फुकुशिमा परमाणु संयंत्र में यूरेनियम की सलाखों को ठंडा करने के लिए लाइट वॉटर का उपयोग किया जाता है। भारत में जो परमाणु संयंत्र हैं, उसमें हैवी वॉटर का इस्तेमाल किया जाता है। रिएक्टर में होने वाली रासायनिक प्रक्रिया के कारण खूब गर्मी पैदा होती है। इस गर्मी के कारण भाप उत्पन्न होती है। यही भाप टर्बाइन को चलाती है। इससे बिजली उत्पन्न होती है। यदि रिएक्टर को ठंडे पानी की आपूर्ति बंद हो जाए तो इमरजेंसी कूलिंग सिस्टम चालू हो जाता है। इसमें बोरोन मिश्रित पानी रिएक्टर में छोड़ा जाता है। जापान में जब सुनामी आई तो परमाणु बिजली संयंत्र में संग्रहित बेरोनयुक्त पानी समुद्र में बह गया, इससे इमरजेंसी कूलिंग सिस्टम भी नकारा साबित हो गया। भूकंप के कारण बिजली बंद हो गई तो पानी के पंपों ने काम करना बंद कर दिया। इससे रिएक्टर में गर्मी एकदम से बढ़ गई। परमाणु विकिरण फैलने का यही कारण था। 1960 के दशक में जब इस संयंत्र का निर्माण किया गया, तब अमेरिकन कंपनी ने यह सपने में भी नहीं सोचा था कि सुनामी जैसी कोई आफत भी होती है।


हम कब समझेंगे कुदरत के क्रोध को



जापान एक बार फिर ऐसी त्रासदी का शिकार हुआ है, जिससे पूरी दुनिया संतप्त है। इंसानियत का तकाजा है कि पूरा विश्व दुख की इस घड़ी में जापान का साथ दे। आखिर कुछ क्षण पहले तक अपनी सामान्य जीवनचर्या में तल्लीन उन अभागे लोगों को इस बात का अहसास भी नहीं रहा होगा कि वे जीवन की अंतिम घड़ी में पहुंच चुके हैं। जल की प्रचंड लहरों में बड़ी-बड़ी गाडि़यों को खिलौनों की तरह तैरते देखकर पूरी दुनिया अचंभित थी। सड़कों पर पूरी गति से दौड़ती गाडि़यां क्षणों के अंदर जल प्रवाह का ग्रास बन गई और जब तक उसके सवार कुछ सोचते, उनके प्राण-पखेरू उड़ चुके थे। यात्रियों से भरी एक पूरी रेल तक बह गई। मरने वालों की संख्या का ग्राफ किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को द्रवित कर सकता है। दिसंबर 2004 में भी विश्व ने सुनामी की विभीषिका झेली थी और उस समय अलग-अलग देशों में मरने वालों की संख्या इससे बहुत ज्यादा थी, इसलिए यह कहा जा सकता है कि जब हम उस त्रासदी को धीरे-धीरे भूलकर अपनी सामान्य जीवनचर्या में लग गए तो इसे भी आने वाले दिनों में भूलकर हम फिर से अपने दैनिक कार्यो में व्यस्त हो जाएंगे। जापान स्वयं महान जिजिविषा वाला देश माना जाता है। न जाने कितने भूकंपों की त्रासदी झेलते हुए वह देश आर्थिक एवं तकनीक में विश्व के उच्चतम शिखर तक पहुंचा है। इसलिए सामान्य तौर पर यह विश्वास करना गलत नहीं है कि अपनी संकल्प शक्ति एवं परिश्रम द्वारा वह वर्तमान त्रासदी से उबर जाएगा, लेकिन इस मौजूदा त्रासदी में कई ऐसे पहलू हैं, जो इसके परिणामों को ज्यादा भीषण बना रहे हैं। इसलिए इसकी परिणतियों से उबरना और इसे भूल पाना आसान नहीं होगा। आखिर जलप्लावन के साथ जापान के दर्जन भर प्रांतों के 200 से ज्यादा स्थानों पर आग की लपटें तो हमने 2004 में नहीं देखीं थीं। और सबसे बढ़कर चेरनोबिल के बाद दुनिया पहली बार नाभिकीय संयंत्रों के सघन विकिरण के खतरों का सामना कर रही है। इसे प्रकृति के सामान्य प्रकोप यानी भूकंप और उसके कारण उठी स्वाभाविक सुनामी की त्रासदी मानकर विवेचना करना कतई उचित नहीं। नाभिकीय आपातकाल लागू होना सामान्य स्थिति का परिचायक नहीं हो सकता। नाभिकीय विकिरण शब्द मात्र से रोंगटे खड़े हो जाते हैं। पहले फुकुशिमा के निकट नाभिकीय संयंत्र का मुख्य रिएक्टर धमाके के साथ उड़ गया और उसके बाद दूसरा, तीसरा व चौथा रिएक्टर भी उड़ चुका है। कल्पना करिए, वह दृश्य कितना भयावह रहा होगा। उस पर किसी दुश्मन ने हमला नहीं किया। जापान की नाभिकीय तकनीक दुनिया की श्रेष्ठतम तकनीक है। यह जापान का नंबर एक नाभिकीय संयंत्र है। क्या इसकी ऐसी भयावह दुर्दशा का विश्व समुदाय के लिए कोई सबक नहीं है? यहां से जो धुएं का गुब्बार उड़ता दिखा, उसे देखकर निष्चय ही जापानियों के अंतर्मन में हिरोशिमा और नागासाकी त्रासदी की तस्वीर कौंध गई होगी। सीजियम रेडियोधर्मी तत्व है और इसका रिसाव कैसा भीषण परिणाम ला सकता है, इसकी कल्पना से ही सिहरन पैदा हो जाती है। जापान से ज्यादा किस देश को नाभिकीय विकिरण की विभीषिका का अहसास होगा। भारी संख्या में लोगों को अपना घर, कार्यालय आदि खाली करना पड़ा है। अगर यही स्थिति भारत या ऐसे दूसरे घनी आबादी वाले देश में हो जाए तो कितने लोग विकिरण की भीषण गर्मी में गलकर मर जाएंगे और कितनी संख्या को विस्थापित करना होगा, इसकी कल्पना तक नहीं की जा सकती। हमारे देश में नाभिकीय बिजली संयंत्र लगाने की तैयारियां जोरों पर है। इसकी सुरक्षा को लेकर हमें आश्वस्त करने वाले जापान की इस दशा के बाद क्या कहेंगे? आप चाहे सुरक्षा की तकनीकी और मानवीय जितनी बड़ी दीवार खींच दें, प्रकृति के कहर के सामने सभी छोटी हैं। जब नाभिकीय संयंत्र में आग की खबरें आई तो हमारे देश के एक वैज्ञानिक ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता, क्योंकि दुर्घटना की अवस्था में उसके अपने आप बंद हो जाने की स्वचालित व्यवस्था होती है और वे बंद हो गए होंगे। उनके अनुसार जो आग लगी है, वह बाहरी दीवारों तक होंगी। कोई विशेषज्ञ अपनी तात्कालिक प्रतिक्रिया में यही कहता। जापान भूकंप की त्रासदी झेलने वाला देश है और वहां के सामान्य भवन और सड़कें तक के निर्माण में इसका ध्यान रखा जाता है। जाहिर है, भूकंप की स्थिति में नाभिकीय संयंत्रों की सुरक्षा के लिए भी उसने अन्य देशों से ज्यादा प्रबंधन किया है। इसलिए सहसा किसी की यह कल्पना भी नहीं हो सकती है कि वहां ऐसा हो सकता है। किंतु हुआ क्या? हमारे सामने है। पांचों प्रमुख नाभिकीय संयंत्रों में गरमी बढ़ गई और वे गलने लगे। उन्हें गलने से बचाने के लिए नीचे से ठंडी हवा झोंकी जा रही है और अमेरिका से कूलेंट की खेप उतारनी पड़ी है। जब तक वे पर्याप्त रूप से ठंडे नहीं होंगे, उनकी गरमी विकिरण का विस्तार करती रहेगी तथा उसका प्रकोप कायम रहेगा। जापान सरकार या वहां के नीति-निर्माता, इंजीनियर, वैज्ञानिक, तकनीशियनों को यही महसूस होता होगा कि इसमें हमारी तो कोई गलती नहीं। हमने तो सुरक्षा की चाक-चौबंद व्यवस्था की, लेकिन यह सच का केवल एक पहलू है। वास्तव में यह त्रासदी इतना विकराल और भीषण यों ही नहीं बना है। हाल के वर्षो में प्राकृतिक आपदाएं पहले की तुलना में ज्यादा भीषण और विनाशकारी हो रही हैं तथा क्षति को पूरा करने में भारी मानवीय, वित्तीय और तकनीकी साधनों की आवश्यकता पड़ती है। कहा जा रहा है कि वर्तमान क्षति से उबरने में जापान की अर्थव्यवस्था कई दशक पीछे चल जाएगी। अब सामान्य बाढ़ें और तूफान भी प्रलय का दृश्य उत्पन्न करते हैं। समुद्र की लहरें सुनामी और समुद्री तूफान के रूप में ऐसी विनाशलीला मचा रहीं हैं, जिनका वर्णन हम पुरातन ग्रंथों में केवल प्रलय के रूप में ही पढ़ते रहे हैं। अब हमने आम जीवन के लिए ढांचे इतने महंगे और विशालकाय बना लिया है कि मानवीय और आर्थिक क्षति भी काफी ज्यादा होती है। प्रकृति में बिना कारण कुछ नहीं होता। हमारे नीति-निर्माता, वैज्ञानिक, इंजीनियर, बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह न भूलें कि जिस औद्योगिक सभ्यता को उन्होंने विकास का वाहक बनाया और उसे बाजार-पूंजीवाद का साथी बना दिया, वही अपने साथ स्वाभाविक प्रतिउत्पाद के तौर पर विनाश का आधार भी पैदा करती जा रही है। विकास के इस ढांचे में अत्यधिक मशीनें, उसे चलाने और रख-रखाव के लिए अत्यधिक ऊर्जा चाहिए और इस सबके लिए अत्यधिक धन भी चाहिए। इस प्रक्रिया में हमने पूरी पृथ्वी ही नहीं, इसके आसपास, नीचे और ऊपर के वायुमंडल, पारिस्थितिकी को इतना अस्त-व्यस्त कर दिया है कि हमारे अस्तित्व तक पर खतरा उत्पन्न हो चुका है। धरती का बढ़ा हुआ तापमान आखिर इस दुनिया के अंत की घंटी ही तो है। भूकंप और सुनामी की बढ़ती विकरालता इसी की परिणति है। वैज्ञानिक इन सबकी तकनीकी व्याख्या करते हैं। सामान्य शब्दों में यह कहा जा सकता है कि प्रकृति अपना संतुलन बनाने की कोशिश करती है और असंतुलन इतना ज्यादा हो चुका है कि उस कोशिश में यत्र-तत्र विनाश का दृश्य पैदा होता है। वस्तुत: हमें इसे प्रकृति के गुस्से के तौर पर लेना चाहिए। अगर हमने इसे नहीं लिया और उसे शांत करने के लिए प्रकृति के अनुरूप व्यवस्था कायम करने की ओर प्रवृत्त नहीं हुए तो फिर ऐसी त्रासदियां ही हमारी नियति रह जाएंगी। जरा इस बात की कल्पना करिए कि समुद्र के 24 किलोमीटर के अंदर आए एक जगह के भूकंप ने इतना कहर मचा दिया तो इससे नीचे और इससे बड़ी मात्रा का भूकंप कई जगह आएं तो क्या होगा! यह घटना एक साथ हमें कई सबक दे रही है, पर सबका मूल स्वर एक ही है कि मनुष्य होने के नाते हमें अपनी सीमाओं का अहसास होना चाहिए। गांधी जी ने कहा है कि मनुष्य को अपने शरीर की कमजोरी का आभास होना चाहिए, लेकिन ऐसा न करके वह प्रकृति को पराजित करने पर लगा है। हमें प्रकृति को पराजित करने की मानसिकता से उबर कर उससे डरने और उसके अनुरूप जीने की व्यवस्था कायम करने की ओर अग्रसर होना होगा। कुल मिलाकर इस घटना का सीधा संदेश यही है कि अपनी भोगलिप्सा का परित्याग कर प्रकृति के साथ चलने वाली जीवन प्रणाली की ओर अग्रसर होने का ही एकमात्र सुरिक्षत विकल्प हमारे सामने है। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


आधी-अधूरी तैयारी


भारत में आपदा प्रबंधन की तैयारियों को लेकर असंतोष जता रहे हैं लेखक

आकस्मिक रूप से घटने वाली प्राकृतिक और मानवीय आपदाएं यूं तो हमारे जीवन का हिस्सा हैं, लेकिन यदि हम ऐसी किसी संभावित आपदा से निपटने के लिए समय रहते तैयारी कर लें, तो जानमाल का नुकसान कम किया जा सकता है। पिछले दिनों जापान में आए भूकंप और सुनामी के कारण वहां न केवल हजारों मानव जिंदगियां मौत के मुंह में समा गई, बल्कि अरबों की संपत्ति स्वाहा हो गई और अब परमाणु संयत्रों में विस्फोट के कारण जापान व उसके आसपास के देशों में परमाणु विकिरण फैल गया है। जापान के प्रधानमंत्री के मुताबिक द्वितीय विश्व युद्ध के बाद उनका देश सबसे बड़े संकट से गुजर रहा है। जापान में विश्व में सबसे अधिक भूकंप आते हैं। वहां की सरकार अपने नागरिकों को इस बारे में न केवल जागरूक करती है, बल्कि उन्हें ऐसी स्थितियों से निपटने के लिए प्रशिक्षण भी देती है। भूकंप की दृष्टि से भारत भी खतरनाक क्षेत्र में आता है। गुजरात में 26 जनवरी, 2001 को आए भूकंप और 26 दिसंबर, 2004 को आई सुनामी में लाखों लोगों की मौत को भूला नहीं जा सकता। इसी तरह 1999 में उड़ीसा में सुपरसाइक्लोन और महाराष्ट्र का लातूर भूकंप भयावह घटनाएं हैं। आंकड़ों के मुताबिक हर वर्ष भारत में औसतन 5000 लोग आपदाओं में अपनी जान गंवाते हैं। इससे हमारे सकल घरेलू उत्पाद का 2.4 प्रतिशत और कुल राजस्व का 12.5 प्रतिशत का नुकसान हर वर्ष होता है। आपदा प्रबधंन के महत्व व जरूरत को देखते हुए ही 1994 में राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान की स्थापना की गई। यह संस्थान शोध के अलावा जनजागरूकता फैलाने, आपदा कौशल का विकास करने व औपचारिक-अनौपचारिक प्रशिक्षण देने के अतिरिक्त सरकार को नीतिगत सलाह देने का कार्य करता है। सरकार द्वारा गठित एक उच्चस्तरीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में सड़क दुर्घटनाओं, साइक्लोन और सुपर साइक्लोन समेत कुल 32 तरह की आपदाओं की संभावना व प्रभाव के बारे में बताया है। इनमें बाढ़, सूखा, भूकंप, सुनामी व चक्रवात को भारत के लिए सबसे ज्यादा विनाशकारी माना गया है। सुनामी और चक्रवात की पूर्व जानकारी के लिए अर्ली वार्निग सिस्टम लगाने का काम पूरा हो चुका है। भूकंप के संदर्भ में कई कदम उठाए जाने के बावजूद अभी काफी कुछ किया जाना है। हमारे देश का आधे से अधिक भाग भूकंप क्षेत्र में आता है, जिसमें नेपाल से सटे बिहार का क्षेत्र काफी संवेदनशील माना जाता है। इस क्षेत्र में अभी तक का सर्वाधिक तीव्रता वाला भूकंप 1934 में आया था, जिसे रिक्टर स्केल पर 8.9 मापा गया था। भारत को चार भूकंपीय क्षेत्रों में बांटा गया है, जिसमें जोन पांच और चार ज्यादा खतरनाक हैं। जोन पांच में हिमालयी क्षेत्र, कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों के अलावा इनसे सटे राज्यों के जिले आते हैं। इसी तरह दिल्ली जोन चार में आता है जो खतरनाक क्षेत्र में शामिल है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि किसी बड़ी दुर्घटना की स्थिति में हमारी तैयारियां अपर्याप्त सिद्ध होंगी। वैसे तो आपदा प्रबंधन का काम राज्य का विषय है और केंद्र सरकार जरूरत पड़ने पर ही उन्हें मदद देती है। इसके लिए रिजर्व फोर्स के तौर पर 10 हजार आपदा सुरक्षाकर्मियों को तैयार किया गया है। इसके अलावा एनसीसी, एनएसएस, एनवाइकेएस और नागरिक सुरक्षा बलों को भी प्रशिक्षण दिया जाता है। कक्षा आठ, नौ और दसवीं के छात्रों के लिए आपदा प्रबंधन की पढ़ाई को पाठ्यक्रम में शामिल कराया गया है, लेकिन इसे अभी भी इंजीनियरिंग, मेडिकल और कॉलेजों की पढ़ाई का हिस्सा नहीं बनाया जा सका है, जिसकी सबसे ज्यादा आवश्यकता है। यदि हम अग्निशमन उपकरणों की ही बात करें तो कितने लोग हैं जो इसका सही तरीके से इस्तेमाल कर सकते हैं। जापान जैसे देशों में आपदा प्रबंधन के बारे में केवल जानकारी ही नहीं दी जाती, इसे अमल में लाने के लिए बाकायदा ड्रिल प्रशिक्षण कराया जाता है ताकि यह लोगों की आदत में शुमार हो जाए। भारत में भी इसी तरह काम करना होगा। हमारे देश में अभी लोगों को यही नहीं पता है कि भूकंप आने पर सीढि़यों से भागने की कोशिश अथवा बालकनी में चहलकदमी की बजाय कमरे के किसी कोने में मेज आदि के नीचे छिपना चाहिए और अपने सिर की रक्षा करने की कोशिश करनी चाहिए। आपदा प्रबंधन के लिए मुख्यमंत्री के नेतृत्व में राज्य स्तर पर और जिलाधिकारी के नेतृत्व में जिले स्तर पर तैयारियां करने का विधान है, यह कार्य तहसील और गांव के स्तर पर भी होना चाहिए ताकि जरूरत के वक्त स्थानीय लोग आपस में समन्वय बना सकें और एक-दूसरे की मदद खुद कर सकें। आर्थिक तरक्की के द्वार खुलने के बाद निर्माण क्षेत्र तेजी पर है और ऊंचे-ऊंचे भवनों का निर्माण हो रहा है, लेकिन भूकंप सुरक्षा मानकों के लिहाज से इनमें तकरीबन 80-90 फीसदी भवन असुरक्षित हैं। 2005 में नया नेशनल बिल्डिंग कोड तो बना दिया गया, लेकिन इन पर अमल शायद ही कोई कर रहा है। इस बारे में सरकार को सख्त कदम उठाने होंगे, अन्यथा प्राकृतिक आपदा होने पर इस लापरवाही की बड़ी कीमत चुकानी होगी। हमारे यहां एक और बड़ी समस्या धार्मिक उत्सवों, आयोजनों व सार्वजनिक कार्यक्रमों के दौरान भगदड़ से होने वाली मौतों की बढ़ती संख्या का भी है। इसे रोकने के लिए दुरुस्त सुरक्षा व्यवस्था के साथ-साथ एक राष्ट्रीय चरित्र व संस्कार को विकसित करने की जरूरत है ताकि लोग अनुशासित होकर पंक्तिबद्ध अपनी बारी का इंतजार करें और धैर्य न खोते हुए ऐसी किसी स्थिति में भागदौड़ की प्रवृत्ति से बचें। हम जापान से सीख सकते हैं कि इतनी बड़ी तबाही के बावजूद लोग कतारों में खड़े होकर सहायता स्वरूप मिलने वाली चीजों को ले रहे हैं। जब तक हम व्यक्तिगत भावना से ऊपर नहीं उठेंगे और सामुदायिक व राष्ट्रीय चरित्र का विकास नहीं करेंगे, ऐसी घटनाओं को रोकना पूर्णतया संभव नहीं होगा। जहां तक हमारे परमाणु संयत्रों की सुरक्षा का सवाल है तो निश्चित ही हमारी तैयारी जापान से बेहतर है और हमारे यहां ऐसी कोई संभावना नहीं है। फिर भी परमाणु संयत्र वाली जगहों के 20-30 किलोमीटर इलाके में रह रहे नागरिकों को ऐसे हादसों से बचाव के लिए अभी तक कोई प्रशिक्षण अथवा जानकारी नहीं दी गई है कि किस तरह वे चेतावनी के संकेत और संकट को समझ कर अपना बचाव खुद कर सकें। उदाहरण के तौर पर भोपाल गैस त्रासदी के वक्त अनेक लोगों की जानें सिर्फ इसलिए गई, क्योंकि उन्हें यही नहीं मालूम था कि उस समय उन्हें मुंह को रुमाल से ढंकना था। (लेखक राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन संस्थान से संबद्ध हैं)